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Thursday, April 14, 2016

दौलतमंदों की हुकुमत में-हिन्दी क्षणिकायें (Hindi Short Poem)

ठेले पर सामान के
दाम से जूझते हैं
मॉल में खरीददारी पर
गूंगे बहरों की तरह टूटते हैं।
माया के खेल में
कहीं लूटे
कहीं लूटते हैं।
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हमने तो वफा निभाई
अपना समझकर
वह कीमत पूछने लगे।
क्या मोल बताते
अपने जज़्बातों का
जो नहीं जानते पराये सगे।
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राजा अंगुल में
प्रजा चंगुल में
सिर पर विराजे पीर।
तब ताकतवर
हो जाते अमीर,
सस्ता लगता उन्हें
गरीब का ज़मीर।
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सोने चांदी की चाहत ने
इंसानों की
अक्ल छीन ली है।

धरती पर बिखरा
पेट भरने का सामान
पर कमअक्लोंने दर्द की
फसल बीन ली है।
--------------
दौलतमंदों की हुकुमत में
बेबस लोग
गरीब हो जाते हैं।
खातों में लिखा जाता
जब परिश्रम का भाव
फूटे नसीब हो जाते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Sunday, February 28, 2016

प्राणायाम से बड़ा कोई तप नहीं है-मनुस्मृति के आधार पर चिंत्तन लेख(Pranayam se bada koyee Tap nahin-A Hindu Thought article Based on ManuSmriti-Great Knowledge In ManuSmriti)

            
                                    अध्यात्मिक ज्ञान व योग साधकों को यह भ्रम नहीं रखना चाहिये कि मनुस्मृति का विरोध कोई दूसरी धार्मिक विचाराधारा के लोग कर रहे हैं। न ही यह सोचना चाहिये कि समूचे दलित वर्ग के  समस्त सदस्य इसके विरोधी हैं। वरन् भारतीय समाज में कथित उच्च वर्ग के ही वह लोग जिनका काम ही देश के लोगों को भ्रमित, भयभीत तथा भ्रष्ट कर अपना हित साधने में है, वही इसका विरोध करते हैं। हम यहां उनके प्रतिकूल टिप्पणियां नहीं लिख रहे वरन्् मानव समाज का बौद्धिक शोषण की वर्षों पुरानी परंपरा की तरफ इशारा कर रहे हैं।  ऐसे अनेक पेशेवर बुद्धिमान है जो यह कहते हुए नहीं चूकते कि योग साधना से कुछ नहीं होता। अनेक धार्मिक कर्मकांडी व्यवसायी द्रव्य यज्ञ के माध्यम से अपने हित साधते हैं-ऐसे लोग कभी ओम शब्द की महिमा बखान नहीं कर सकते जिससे मन, वाणी तथा विचार में शुद्धता आती है। वह प्राणायाम के तप होने की बात स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि इससे मनुष्य के हृदय से आर्त भाव निकल जाने पर उसमें जो आत्मविश्वास आता है उससे वह द्रव्य यज्ञ करने का इच्छुक नहीं रहता। मानसिक दृष्टि से कमजोर लोग ही पेशेवर बुद्धिमानों को शिकार बनते हैं इसलिये वह प्राचीन ग्रंथों का विरोध करते हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि

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एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायामः परे तपः।
सावित्र्यास्तु परं नास्ति मौनासत्यं विशिष्टयते।
                                    हिन्दी में भावार्थ- औंकार (ओम) ही परमात्मा की प्राप्ति का सर्वोत्कृष्ट साधन है। प्राणायाम से बड़ा कोई तप तथा गायत्री मंत्र से बड़ा कोई मंत्र नहीं है। मौन रहने की अपेक्षा सत्य बोलना श्रेष्ठ है।
                                    मुख्य बात यह है कि मनुष्य की बुद्धि अन्य जीवों से अधिक सामर्थ्यवान होती है पर अधिक बुद्धिमान इसी का हरण करने के लिये समाज में भ्रम, भय व भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित करते हैं ताकि लोग उनकी शरण में आकर उद्धार की राह का पता पूछें। ऐसे लोग न केवल मनुस्मृति का विरोध करते हैं वरन् श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों को भी अर्थहीन बताते हैं।  एक बात तय रही कि अधिक बुद्धिमान समाज के ज्ञानी लोगों को पसंद नहीं करते क्योंकि वह उनकी चालाकियों को चुनौती देते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
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Thursday, January 14, 2016

ज्ञान के कारण भारत में सहिष्णुता का भाव हमेशा रहा है(Adhyatmik Gyan ki karan Bharat mein sahishnuta ka Bhav hamesha rahaa hai)

                              सऊदी अरब में एक शिया धर्मगुरु को फांसी दी गयी है। अरब देशों में अपने ही धर्म के विचारधारा के आधार पर जितनी शत्रुता दिखती है उससे नहीं लगता कि राज्य प्रबंध में वहां मानवता के नियमों का पालन होता है। आप जरा भारतीय अध्यात्मिक विचारधारा का महान प्रभाव देखिये।  पहले तो हमारे यहां धर्म का आशय मनुष्य के आचरण तथा कर्म के आधार पर लिया जाता है। कहीं कर्म को ही धर्म का नाम दिया जाता है। जैसे ब्राह्मण धर्म, क्षत्रिय धर्म, वैश्य धर्म तथा सेवक या शुद्र धर्म। यही जातियां, वर्ण या व्यवसाय भी कहें जाते हैं। इसे हम सनातन विचारधारा या धर्म की संज्ञा भी देते हैं। दरअसल भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा सत्य पर आधारित है जिसके स्वरूप में  बदलाव कभी नहीं हुआ पर सनातन धर्म के बाद भी यहां बौद्ध, जैन तथा सिख धर्म की धारायें प्रवाहित हुईं। कोई विरोध या धार्मिक द्वंद्व नहीं हुआ। इतना ही नहीं मूल भारतीय ज्ञान तत्व हमेशा ही सभी धाराओं में प्रवाहित देखा गया है।
                             कभी भारत में यह नहीं सुना गया कि यहां उत्पन्न धार्मिक विचारधाराओ के बीच संघर्ष हुआ हो। उससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि जिन्हें हिन्दू विचाराधारा वाला माना जाता है वह तो यहां उत्पन्न सभी धर्मों के पवित्र स्थानों में जाने से कभी संकोच नहीं करते। यह अलग बात है कि बाहरी आक्रमणकारियों के साथ आयी विदेशी विचाराधारायें अपने आपसी ही नहीं वरन् आंतरिक द्वंद्व भी यहां साथ लायीं। विदेशी विचाराधारायें सर्वशक्तिमान के एक ही प्रकार के दरबार तथा एक ही किताब में आस्था का प्रचार करती हैं। तत्वज्ञान के नाम पर उनमें कुछ है इसका आभास भी नहीं होता। उन दोनों विचारधाराओं में जड़ता दिखती है जबकि भारतीय अध्यात्मिक विचारधारा समय समय के साथ परिवर्तनों से मिले अनुभवों को संजोकर चलती है।  इसी कारण हमारे यहां धार्मिक संघर्ष कभी नहीं देखे गये जैसे कि विदेशों में देखे जाते हैं।
                             भारत में धार्मिक विषय पर तर्क वितर्क करने का पूर्ण अधिकार है यही कारण है कि यहां कभी धर्म के नाम पर कभी संघर्ष नहीं होते।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Friday, November 20, 2015

स्वर्ग और मोक्ष-हिन्दी कविता(Swarg aur Moksh-Hindi Kavita)


भूखा पेेट एक रोटी से भी भरे
लोभ में चाहे पकवान खाये।

दिल की चाहत अनंत
सोने के पहाड़ पर चढ़े
हीरे का ख्याल सताये।

कहें दीपकबापू समाधि में
स्वर्ग गिरता आकर चरण में
मोक्ष आ जाता शरण में
जाने वही जो लगाये।।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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८.हिन्दी सरिता पत्रिका

Wednesday, September 2, 2015

हिन्दी दिवस और मूर्तिपूजा विरोध पर लिखे ट्विटर(Twitter on Hindi Diwas and murtipooja virodh)

          मूर्तियों को पूजना अंधविश्वास है उसी तरह जैसे छोटे और बड़े पर्दे के अभिनेता को सच्चा नायक समझना-समाज सुधारक ऐसा क्यों नहीं बताते।
              मूर्तिपूजा के विरोधी समाज सुधारक स्वयं अज्ञानी होते हैं। भक्त जानता है कि मूर्ति पत्थर, काष्ठ या लकड़ी की है पर उसके भाव के कारण भगवान है। एक बात समझ में नहीं आती कि अंधविश्वासों के विरोधी लोगों में सत्य के विश्वास की स्थापना का सकारात्मक मार्ग क्यों नहीं अपनाते।
     औरंगजेब  इतिहास का मुर्दा पात्र है जबकि अब्दुल कलाम जीवंत इबारत है इसलिये मार्ग का नाम बदलना ठीक है।
                                   मुगलकाल के बादशाहों के नाम पर रखी गयी सभी इमारतों, मार्गों व अन्य सभी सार्वजनिक स्थानों के नाम बदलना चाहिये।
                                   मुगलों ने सारे देश पर राज किया यह भ्रम है।  वह दिल्ली तक सीमित रहकर देश के अन्य देश के अन्य  राजाओं से हफ्तावसूली करते थे।
हिन्दी दिवस आने वाला है इसकी हलचल ब्लॉग पर बढ़ती हलचल से दिखाई देने लगा है। हमारी चर्चा प्रचार माध्यमों में न देखकर निराश न हों।
हिन्दी दिवस,हिन्दीसप्ताह, तथा हिन्दीपखवाड़ा मनाने के लिये अंग्रेजी प्रतिभायें अनुवादित होकर सभी जगह प्रकट होंगी।
एक मित्र ने हमसे कहाअगर तुम अंग्रेजी में लिखते तो हिट हो जाते। हमने कहा-हम विदेशी भाषा में देशी सोच नहीं डाल पाते।
                                   एक लेखक के लिये ट्विटर पर लिखना वैसा ही जैसे विज्ञापन के लिये नारे लिखना। हिन्दी दिवस पर खोजने वाले यहां हिन्दी दिवस पर अधिक नही है।
                                   हिन्दी दिवस पर पढ़ने और लिखने वाले ट्विटर पर कम ही दिखाई दे रहे हैं। एक पंक्ति में वैसे क्या चर्चा हो सकती है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Wednesday, August 26, 2015

भारत में अब भी जातीय धार्मिक तथा भाषाई समूहों में भय का व्यापार संभव-हिन्दी चिंत्तन लेख(disscusion on cost reservation in government service)

         हैरानी की बात है कि गुजरात के संपन्न और बलशाली जाति के लोगों में भी अन्य समूहों के प्रभाव का भय दिखाकर उसे आंदोलित किया गया है पर सामाजिक विशेषज्ञ  इसका आंकलन परंपरागत संकीर्ण ढंग से कर रहे हैं। यह जानने का प्रयास कोई नहीं कर रहा कि आखिर इस तरह के आंदोलन क्यों लोकप्रिय हो जाते हैं?

                    भ्रष्टाचार कभी दूर नहीं हो सकता। महंगाई कभी मिट नहीं सकती। बीमारी कभी देश से खत्म नहीं हो सकती। जिन लोगों को बिना मगजपच्ची के नाम कमाना हो उन्हें किसी भी जातीय, धार्मिक तथा भाषाई समूहों को सरकारी सेवा में आरक्षण दिलाने के लिये आंदोलन करना अच्छा लगता है।  दरअसल इस आंदोलन के नायक इस तरह इस मुद्दे को उठाते हैं जैसे कि उनके समूह में केवल यही एक समस्या रह गयी है वरना तो वह महंगाई, भ्रष्टाचार से तंग नहीं है और न ही उनके यहां बीमारी हारी जैसी कोई हालत है।  सुविधा से वचिंत लोगों को सपने दिखाकर अपने आसपास भीड़ लगाना ज्यादा सुविधाजनक है।
                                   परंपरागत विचार शैली से हटकर अगर देखें तो राज्य प्रबंध के विरुद्ध कहीं न कहीं असंतोष का भाव रहता है।  कुछ समस्यायें ऐसी हैं जिनका निराकरण तो संभव ही नहीं है-जैसे महंगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी तथा मिलावट।  लोकतंत्र में आंदोलन प्रसिद्ध दिलाने का सहज उपाय होते हैं और कालांतर में चुनावी राजनीति में उसका नकदीकरण हो सकता है।  अगर हल न हो सकने वाली सार्वजनिक समस्याओं पर आंदोलन किये जायें तो लक्ष्य तथा साधन की व्यापकता की आवश्यकता के कारण सहजता से भीड़ एकत्रित नहीं हो पाती। किसी जातीय समुदाय के आरक्षण के लिये आंदोलन से उसके नेतृत्व को दो लाभ होते हैं। एक तो जातीय समुदाय की विशिष्टता के बोध के कारण सीमित संख्या होने से लोगों के अंदर एक विशेष भाव पैदा होता है। दूसरे सामने विरोधी के रूप में में दूसरे समुदाय होते हैं। तब कुछ भय तो कुछ अहंकार से ग्रस्त लोग भेड़ों की तरह भीड़ में चल ही पड़ते हैं।  आज की संकीर्ण हो चुकी जीवन शैली से ऊबे लोगों में यह आत्मविश्वास आता है कि उनके साथ बहुत लोेग हैं।  दूसरी गंभीर समस्याओं होते हुए भी लोग ऐसी समस्या के हल के लिये निकल पड़ते हैं जिसे हल होना ही नहीं है। काल्पनिक शत्रू बताकर किसी समुदाय विशेष समुदाय की भीड़ एकत्रित करने की यह परंपरागत शैली अब भी कारगर है। ऐसे में देश के रणीनीतिकारों को यह समझना चाहिये कि राज्य प्रबंध जनहित के सामान्य कार्य तीव्रगति से जारी रखे। इतना ही नहीं वह जनसमस्याओं के हल के लिये उतना प्रतिबद्ध भी दिखे। 
             यह कार्य विज्ञापन देकर नहीं बल्कि अपने कार्य से ही हो सकता है। लोग जब  आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक प्रबंध से निराश से होते हैं तब कोई भी आरक्षण के लिये आंदोलन चलाकर प्रसिद्ध हो सकता है। जातीय समूह में मौजूद भय के वातावरण में आरक्षण का सपना दिखाने वाले नायक बन जाते हैं। महंगाई, भ्रष्टाचार तथा सार्वजनिक महत्व के विषय पर समय खराब न करने के इच्छुक के लिये अधिक सरल है किसी जातिगत आरक्षण आंदोलन चलाना है। सच यह है कि लोग जातीय व धार्मिक समूहों से जुड़ना पसंद नहीं करते पर उन्हें आरक्षण का सपना दिखाकर मनोरंजन के लिये बाघ्य किया जाता है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Tuesday, August 18, 2015

योगी और ज्ञानी सभी का दिल जीत लेते हैं -हिन्दी चिंत्तन लेखyogi aur gyani sabhi ka dil jeet lete hain-hindi thought article)

        इस संसार में सर्वशक्तिमान के अनेक रूपों की प्रथा सदैव रही है। स्थिति यह भी है कि एक रूप भजने वाला दूसरे रूप की दरबार में जाना पसंद नहीं करता। इतना ही नहीं अनेक तो दूसरे रूप के दरबार में जाने से अपना धर्म भ्रष्ट हुआ मानते हैं।  वैसे तो धार्मिक कर्मकांड और अध्यात्मिक दर्शन में अंतर है पर चालाक मनोचिकित्सक सर्वशक्तिमान के दूत बनकर उसके रूपों की आड़ में भक्ति का व्यापार करते हैं।  अगर हम श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों का अध्ययन करें तो यह बात साफ हो जाती है कि धर्म से आशय केवल आचरण से है।  विदेशी धार्मिक विचाराधारा में कभी अपने प्रतिकूल टिप्पणियां स्वीकार नहीं की जाती जबकि  भारत में अपने ही धार्मिक अंधविश्वासों पर चोट करने में  अध्यात्मिक ज्ञानी संत हिचकते नहीं हैं।  इतना ही नहीं भारतीय धर्म में अंधविश्वास हटाने तथा उसकी रक्षा करने के लिये सिख धर्म का प्रादर्भाव हुआ।  उसके प्रवर्तक भगवान गुरुनानक जी को हर भारतीय अपना इष्ट ही मानता है।  यही कारण है कि हमारे धर्मों में ज्ञान की प्रधानता रही है।  योगी, ज्ञानी या  साधक सर्वशक्तिमान के किसी रूप के दरबार में जाये, उसकी अध्यात्मिक शक्ति सदैव प्रबल रहती है।
           भारतीय दर्शन के अनुसार ज्ञानी केवल एक जगह बैठकर भगवान का भजन करे ऐसा कोई प्रावधान नहीं है।  ज्ञानी और योगी को  को सांसरिक विषयों से सकारात्मक भाव से जुड़कर दूसरों को भी प्रेरित करना चाहिये। इधर भारतीय प्रधानमंत्री के अमीरात दौरे पर एक मस्जिद जाने पर चर्चा हो रही है।  आधुनिक दौर में शक्तिशाली संचार माध्यमों के बीच किसी भी राष्ट के प्रमुख मजबूत और चतुर  होने के साथ ही वैसा दिखना भी जरूरी है। कोई राष्ट्रप्रमुख दूसरे राष्ट्र में जाकर अपनी बात प्रभावी ढंग से प्रचारित करता है तो प्रजा प्रसन्न होती है। भारत के लिये यह जरूरी है कि आधुनिक दौर में उसका प्रमुख राष्ट्र की सीमा से बाहर भी अपनी मजबूत छवि बनाये। महत्वपूर्ण बात यह कि राष्ट्रप्रमुख अपनी आस्था और संस्कार का इस तरह प्रदर्शन करे कि वह दूसरे को अपनी लगे। इससे उसकी लोकप्रियता बढ़ती भी है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Monday, June 29, 2015

नालंदा में हिंसक संघर्ष के व्यापक संदेश शिखर पुरुष समझें-हिन्दी चिंत्तन लेख(nalanda mien sangharsh ka vyapak sandesh shikhar purush samjhen-hindi thought aritcle)

                              नालंदा में एक विद्यालय के छात्रावास से लापता दो छात्रों के शव एक तालाब में मिलने के बाद उग्र भीड़ ने निदेशक को पीट पीट कर मार डाला। बाद में छात्रों की मृत्यु पाश्च जांच क्रिया से पता चला कि बच्चों की मौत पानी में डूबने से हो गयी थी। जबकि मृत छात्रों की मृत्यु से गुस्साये लोग यह संदेह कर रहे थे कि छात्रावास के अधिकारियों ने उनकी हत्या करवा कर तालाब में फैंका या फिंकवाया होगा। हमें दोनों पक्षों के मृतक के परिवारों से हमदर्दी है पर इस घटना पर जिस तरह प्रचार माध्यम सतही विश्लेषण कर रहे हैं उससे लगता नहीं कि कोई गहरे चिंत्तन से निष्कर्ष निकल रहा हो।
                              यह घटना समाज में आम जनमानस में राज्य के प्रति कमजोर होते सद्भाव का परिणाम है। इस सद्भाव के कम होने के कारणों का विश्लेषण करना ही होगा।  मनुष्य समाज में राज्य व्यवस्था का बना रहने अनिवार्य माना गया ताकि कमजोर पर शक्तिशाली, निर्धन पर धनिक और प्रभावशाली लोग अपने से कमतर पर अनाचार न कर सकें।  हम प्रचार माध्यमों पर आ रहे समाचारों और विश्लेषणों को देखें तो यह संदेश निरंतर आता रहा है कि प्राकृत्तिक रूप से इस सिद्धांत पर समाज चल रहा है जिसमें हर तालाब में बड़ी मछली छोटी को खा जाती है। मनुष्य में राज्य व्यवस्था का निर्माण इसी सिद्धांत के प्रतिकूल किया गया है।
                              अनेक प्रकार ऐसी घटनायें भी हुईं है कि जिसमें किसी जगह वाहन से टकराकर पदचालकों की मृत्यु हो जाने पर भीड़ आक्रोश में आकर वाहन जला देता है। कहीं वाहन चालक को भी मार देती।  इस तरह की खबरें तो रोज आती हैं। इन्हें सहज मान लेना ठीक नहीं है। आखिर हम जिस सामाजिक व्यवस्था में सांस ले रहे हैं कहीं न कहीं उसका आधार राज्य प्रबंध ही है।  भीड़तंत्र का समर्थन करना अपनी जड़ें खोदना है पर सवाल यह है कि आक्रोश में आकर लोग इसे भूल क्यों जाते हैं? क्या उनमें इस विश्वास की कमी हो गयी है कि गुनाहगार को सजा मिलना सरल नहीं है इसलिये वह समूह में यह काम कर डालें जिसकी अपेक्षा बाद में नहीं की जा सकती।
              दूसरी बात हमें देश के आर्थिक, सामाजिक तथा प्रतिष्ठत शिखर पुरुषों से भी कहना है कि उन्हें अब चिंता करना ही चाहिये। आमजन को केवल दोहन के लिये समझना उनकी भूल होगी।  उन्हें शिखर समाज में आर्थिक, सामाजिक तथा सद्भाव का वातावरण बनाये के लिये मिलते हैं।  अगर कहीं तनाव बढ़ा है तो उन्हें भी आत्ममंथन करना ही होगा।  समाज में विश्वास का संकट सभी वर्गों के लिये तनाव का कारण बनता है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Wednesday, June 24, 2015

चिकित्सा तथा शैक्षणिक केंद्रों में स्वच्छता अभियान की आवश्यकता-हिन्दी चिंत्तन लेख(chikitsa aur shiksha kendron mein swachchhata abhiyan ki awashyakta-hindi thought article)


                     सरकारी अस्पताल में जब चिकित्सक हड़ताल करते हैं तो सबसे अधिक कमजोर आयवर्ग के लोग प्रभावित होते हैं। उसी तरह जब सरकारी विद्यालयों में शिक्षक हड़ताल करते हैं तब इसी वर्ग के छात्र परेशान होते हैं।  यह आर्थिक वैश्वीकरण का परिणाम है कि जिन गरीबों के कल्याण के लिये धनवादी नीतियां लायी गयीं वही उनकी शत्रु हो गयी हैं।
              एक समय था जब सरकारी अस्पताल और विद्यालय जनमानस की दृष्टि में प्रतिष्ठित थे पर समय के साथ बढ़ती आर्थिक असमानता ने समाज में गरीब तथा अमीर के बीच विभाजन कर दिया है । यह विभाजन अमीरों का निजी तथा गरीबों का सरकारी क्षेत्र के प्रति मजबूरी वश झुकाव के रूप में स्पष्टतः दिखाई देता है। हमें याद है जब पहले बच्चों को शासकीय विद्यालयों में भर्ती इस विचार से कराया जाता था कि वहां पढ़ाई अच्छी होती है। उसी तरह इलाज भी सरकारी अस्पतालों में वहां के चिकित्सक तथा नर्सों के प्रति विश्वास के साथ कराया जाता था।  अब अल्प धनी सरकार और अधिक धनी निजी क्षेत्र पर निर्भर रहने लगा है।  सरकारी अस्पतालों में कभी जाना हो तो वहां इतनी गंदगी मिलती है कि लाचार गरीब का रहना तो सहज माना जा सकता है पर वेतनभोगी नर्स, कंपाउंडर और डाक्टर किस तरह वहां दिन निकालते होंगे यह प्रश्न मन में उठता ही है। कहा जाता है कि जिस वातावरण में आदमी रहता है उसका उस पर प्रभाव पड़ता ही है।  ऐसे गंदे वातावरण में चिकित्सा कर्मी अपना मन अच्छा रख पायें यह आशा करना व्यर्थ है। यही स्थिति सरकारी विद्यालयों में है। देश में स्वच्छता अभियान चल रहा है पर अभी हमें अस्पतालों और विद्यालयों में उसके आगमन की प्रतीक्षा है।
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Thursday, June 4, 2015

कंपनियों के खाद्य तथा पेय पदार्थों के उपभोग पर समाज विचार करे-हिन्दी चिंत्तन लेख(eat and drink production of large compani's-hindi thought article)

        देश में मैगी के भोज्य पदार्थ को लेकर विवाद का दौर चल रहा है। हमारी दृष्टि से  एक उत्पादक संस्थान पर ही चर्चा करना पर्याप्त नहीं है। उपभोग की बदलती प्रवृत्तियों ने संगठित उत्पादक संस्थानों के भोज्य पदार्थों को उस भारतीय समाज का हिस्सा बना दिया है जो स्वास्थ्य का उच्च स्तर घरेलू भोजन में ढूंढने के सिद्धांत को तो मानता है पर विज्ञापन के प्रभाव में अज्ञानी हो जाता है। अनेक संगठित उत्पादक संस्थान खाद्य तथा पेय पदार्थों का विज्ञापन भारतीय चलचित्र क्षेत्र के अभिनेताओं से करवाते हैं।  उन्हें अपने विज्ञापनों में अभिनय करने के लिये भारी राशि देते हैं। इन्हीं विज्ञापनों के प्रसारण प्रकाशन के लिये टीवी चैनल तथा समाचार पत्रों में भी भुगतान किया जाता है। इन उत्पादक संस्थानों के विज्ञापनो के दम पर कितने लोगों की कमाई हो रही है इसका अनुमान तो नहीं है पर इतना तय है कि इसका व्यय अंततः उपभोक्ता के जेब से ही निकाला जाता है। आलू चिप्स के बारे में कहा जाता है कि एक रुपये के आलू की चिप्स के  दस रुपये लिये जाते हैं।

        हमारे देश में अनेक  भोज्य पदार्थ पहलेे ही बनाकर बाद में खाने की परंपरा रही है। चिप्स, अचार, मिठाई तथा पापड़ आदि अनेक पदार्थ हैं जिन्हें हम खाते रहे हैं। पहले घरेलू महिलायें नित नये पदार्थ बनाकर अपना समय काटने के साथ ही परिवार के लिये आनंद का वातावरण बनाती थीं। अब समय बदल गया है। कामकाजी महिलाओं को समय नहीं मिलता तो शहर की गृहस्थ महिलाओं के पास भी अब नये समस्यायें आने लगी हैं जिससे वह परंपरागत भोज्य पदार्थों के निर्माण के लिये तैयार नहीं हो पातीं। उस पर हर चीज बाज़ार में पैसा देकर उपलब्ध होने लगी है। घरेलू भोजन में बाज़ार से अधिक शुद्धता की बात करना अप्रासंगिक लगता है। इसका बृहद उत्पादक संस्थानों को भरपूर लाभ मिला है।
       भारतीय समाज में चेतना और मानसिक दृढ़ता की कमी भी दिखने लगी है। अभी मैगी के विरुद्ध अभियान चल रहा है पर कुछ समय बाद जैसे ही धीमा होगा वैसे ही फिर लोग इसका उपभोग करने लगेंगे। पेय पदार्थों में तो शौचालय स्वच्छ करने वाले द्रव्य मिले होने की बात कही जाती है। फिर भी उसका सेवल धड़ल्ले से होता है। यह अलग बात है कि निजी अस्पतालों में बीमारों की भीड़ देखकर कोई भी यह कह सकता है कि यह सब बाज़ार के खाद्य तथा पेय पदार्थों की अधिक उपभोग के कारण हो रहा है।
        ऐसे में बृहद उत्पादक संस्थानों के खाद्य तथा पेय पदार्थों के प्रतिकूल अभियान छेड़ने से अधिक समाज में इसके दोषों की जानकारी देकर उसे जाग्रत करने की आवश्कयता अधिक लगती है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Friday, May 29, 2015

राजसी कर्म से पंच गुण उत्पन्न होते ही हैं-हिन्दी चिंत्तन रचना(rajsi karme se panch gun uepanna hote hi hain-hindi thought article)


     अध्यात्मिक दर्शन का संबंध आंतरिक मनस्थिति से है। उसके ज्ञान से  व्यक्ति सात्विक भाव धारण करता है या फिर इस संसार में विषयों से सीमित संबंध रखते हुए योग भाव को प्राप्त होता है।  एक बात तय रही कि दैहिक विषयों से राजसी भाव से ही  राजसी कर्म के साथ संपर्क रखा जा सकता है। ज्ञान होने पर व्यक्ति अधिक सावधानी से राजसी कर्म करता है और न होने पर वह उसके लिये परेशानी का कारण भी बन जाता हैं।  हम देख यह रहे है कि लोग अपने साथ उपाधि तो सात्विक की लगाते हैं पर मूलतः राजसी प्रवृत्ति के होते हैं। ज्ञान की बातें आक्रामक ढंग से इस तरह करेंगे कि वह उन्हीं के पास है पर उनमें धारणा शक्ति नाममात्र की भी नहीं होती और राजसी सुख में लिप्त रहते हैं। राजसी कर्म और उसमें लिप्त लोगों में लोभ, क्रोध, मोह, अहंकार की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती है अतः उनसे सात्विक व्यवहार करने और विचार रखने की आशा करना ही अज्ञान का प्रमाण है। सात्विकता के साथ राजसी कर्म करने वालों की संख्या नगण्य ही रहती है।
            धर्म, अर्थ, समाज सेवा, पत्रकारिता और कला क्षेत्र में धवल वस्त्र पहनकर अनेक लोग सेवा का दावा करते हैं। उनके हृदय में शासक की तरह का भाव रहता है। स्वयंभू सेवकों की भाषा में अहंकार प्रत्यक्ष परिलक्षित होता है। प्रचार में विज्ञापन देकर वह नायकत्व की छवि बना लेते हैं।  शुल्क लेकर प्रचार प्रबंधक जनमानस में उन्हें पूज्यनीय बना देते हैं। कुछ चेतनावान लोग इससे आश्चर्यचकित रहते हैं पर ज्ञान के अभ्यासियों पर इसका कोई प्रभाव नहीं होता। राजसी कर्म में लोग फल की आशा से ही लिप्त होते हैं-उनमें पद, प्रतिष्ठा पैसा और प्रणाम पाने का मोह रहता ही है। हमारे तत्वज्ञान के अनुसार यही सत्य है।
सामान्य जन उच्च राजसी कर्म और पद पर स्थित शिखर पुरुषों से सदैव परोपकार की आशा करते हैं पर उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं होता कि इस संसार में सभी मनुष्य अपने और परिवार के हित के बाद ही अन्य बात सोचते हैं। परोपकार की प्रवृत्ति सात्विक तत्व से उत्पन्न होती है और वह केवल अध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली मनुष्यों में संभव है। सात्विक लोगों में बहुत कम लोग ही राजसी कर्म में अपनी दैहिक आवश्यकता से अधिक संपर्क रखने का प्रयास करते हें। उन्हें पता है कि व्यापक सक्रियता काम, क्रोध, मोह लोभ तथा अहंकार के पंचगुण वाले  मार्ग पर ले जाती है। ऐसे ज्ञान के अभ्यासी कभी भी राजसी पुरुषों की क्रियाओं पर प्रतिकूल टिप्पणियां भी नहीं करते क्योंकि उनको इसका पता है कि अंततः सभी की देह त्रिगुणमयी माया के अनुसार ही संचालित होती है। उनके लिये अच्छा या बुरा कुछ नहीं होता इसलिये काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार को वह राजसी कर्म से उत्पन्न गुण ही मानते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Friday, May 15, 2015

भारत और चीन के बीच अध्यात्म तत्व मैत्री का आधार बन सकता है-हिन्दी चिंत्तन लेख(india and china relation:adhyatma poind between both country-hindi article)


      भारतीय प्रधानमंत्री श्रीनरेंद्र मोदी की चीन यात्रा के दौरान राजनीतिक विषयों पर चर्चा huee पर जिस तरह इसमें अध्यात्मिक तथा धार्मिक तत्व के दर्शन हुए वह नये परिवर्तन का संकेत हैं।  आमतौर से वामपंथी विचाराधारा के चीनी नेता धर्म जैसे विषय पर सार्वजनिक रूप से मुखर नहीं होते न ही अपने देश से बाहर के लोग प्रेरित करते। जिस तरह नरेंद्र मोदी ने वहां जाकर बौद्धिवृक्ष का पौद्या उपहार के रूप में सौंपा और प्रत्युपहार में उन्हें बुद्ध की स्वर्णिम प्रतिमा सौंपी गयी वह वैश्विक राजनीतिक में एक नया रूप है।
             चीनी नेताओं ने जिस तरह शियान के बौद्ध मंदिर में फोटो खिंचवाये उससे यह लगता है कि अभी तत्काल नहीं तो भविष्य में चीनी जनता के हृदय में भारत के प्रति परिवर्तन अवश्य आयेगा। अभी तक विश्लेषकों की जानकारी सही माने तो वहां पाकिस्तान केा मित्र तथा भारत को विरोधी ही माना जाता है।  हमारा मानना है कि जब तक चीनी प्रचार माध्यम जब तक भारत के प्रति वहां के जनमानस में सद्भाव नहंी स्थापित करते तब दोनों के बीच राजनीतिक साझेदारी जरूर बने पर संास्कृतिक तथा सांस्कारिक संपर्क स्थाई नहंी बन सकते।
वैसे हमें लगता है कि चीनी रणनीतिकार भारत के प्रति कृत्रिम सद्भाव दिखा रहे हैं क्योंकि वह धार्मिक विचाराधारा को अपनी राजकीय सिद्धांत बनाने वाले पाकिस्तान के प्रति उनकी बढ़ती निकटता भारत के लिये खतरा ही है। बौद्ध और भारतीय धर्म समान सिद्धांतों पर आधारित हैं। भारत में जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर तो भगवान बौद्ध के न केवल समकालीन वरन् समकक्ष ही माने जाते हैं।  दोनों ही अहिंसा सिद्धांत के प्रवर्तक रहे हैं।  एक आम भारतीय के लिये भगवान महावीर तथा बुद्ध में समान श्रद्धा है। ऐसे में अध्यात्मिक चिंत्तकों के लिये चीन का धार्मिक तत्व के प्रति झुकाव दिखना रुचिकर है। पाकिस्तान की राजकीय विचाराधारा चीन तथा भारत दोनों के लिये समान चुनौती है जिसमें धर्म के आधार पर आतंकवाद निर्यात किया जाता है। ऐसे में चीन का उससे मेल संशय का परिचायक है।  साथ ही यह विचार भी आता है कि कहीं चीन का राजनीति में धार्मिक तत्व का मेल कहीं इस समय भारत से तात्तकालिक औपचारिकता निभाने भर तो सीमित नहीं है।
    एक बात तय है कि भारत और चीन की निकटता में अध्यात्म तत्व ही महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। सांसरिक विंषयों से बने संपर्क अधिक समय तक नहीं टिके रहते।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Tuesday, May 5, 2015

भजन के साथ सुप्रभात good morning with bhajan


           प्रातःकाल जब तक अखबार या टीवी में जब तक समाचारों नहीं सुने तभी तक ही सुप्रभात रह सकती है। हम  दूसरे को सुप्रभात कह सकते हैं पर उसके लिये हमारे अंदर जीवन के प्रति उत्साह होना चाहिये।  अगर कहीं दुर्घटना, आतंक अथवा डकैती घटनाओं से सुबह ही संपर्क कायम हो गया तो फिर सुप्रभात रह ही नहीं रह सकती। बुरे समाचारों की वजह से निराशा और क्रोध जैसे विष हमारे अंदर आ ही जाते हैं। । ऐसे में किसी से सुप्रभात बोले भी तो उसका प्रभाव नहीं होता क्योंकि बुरे समाचारों की वजह से मन वैसे ही खराब हो जाता है।
         टीवी पर श्रीमन्नारायण नारायण शब्दों के साथ भजन चल रहा है। कितना अच्छा अनुभव हो रहा है। किसी बुरे समाचार से संपर्क नहीं होना और भजन के स्वर से कानों में अमृत का घोल मिलने से वाकई प्रातः मन ही मन दोहरा रहे हैं सुप्रभात!

Saturday, March 21, 2015

इज्जत में ही रहता है बेइज्जती का भय-पतंजलि योग के आधार पर चिंत्तन लेख(izzat mein he rahta hain beizzati ka khatra-A Hindu hindi religion thought based on patanjali yog sahitya)



            मनुष्य में यह सामान्य प्रवृत्ति रहती है कि वह अपने परिवार, समाज तथा अन्य वर्ग से सम्मान पाना चाहता है। पूज्यता मिलने पर वह न केवल प्रसन्न होता है वरन् उसके मद में डूबकर विचित्र व्यवहार भी करने लगता है।  उसे देश, काल तथा भाग्य के परिवर्तित होने का आभास और अनुमान तक नहीं हो पाता।  कालांतर में जब उसे सम्मान नहीं मिलता तो वह मानसिक संताप का शिकार हो जाता है।  अगर हम योग सिद्धांतों को समझें तो जहां मान है वहीं अपमान, जहां विश्वास है वहीं घात  और जहां वचन है वहीं निराशा की आशंका रहती है।  श्रीमद्भागवत गीता में इसलिये ही सांसरिक विषयों के प्रति निष्काम भाव अपनाने का संदेश दिया है। निष्काम भाव से काम करने पर अनुकूल परिणाम न मिलने पर निराशा नहीं होती वरन् यह संतोष रहता है कि हमने अपना काम पूरे परिश्रम से किया।

पतंजलि योग में कहा गया है कि

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स्थान्युपनिमन्त्रणे सङ्स्मयाकरणे पुनरिष्टप्रसङ्गात्।

            हिन्दी में भावार्थ-संपन्न व्यक्ति से सम्मान मिलने पर प्रसन्न नहीं होना चाहिये क्योंकि उससे अपमानित होने का भय भी उपस्थित रहता है।

            योग साधना के समय आसन तथा प्राणायाम के दौरान साधक ऊपर-नीचे, दायें-बायें तथा सामने-पीछे की तरफ अंगों को घुमाने के साथ ही प्राण भी उसी क्रम में स्थापित करता है। इस तरह के अभ्यास करते करते उसके अंदर यह ज्ञान सहजता से आ जाता है कि किसी कर्म का प्रतिकर्म भी हो सकता है।  उसी तरह वह किसी के व्यवहार से निराश भी नहीं होता क्योंकि वह जानता है कि दुष्कर्म करने वाला  मनुष्य कभी  सद्कर्म की तरफ भी प्रेरित हो ही जाता है।  इस तरह का ज्ञान होने पर मनुष्य का जीवन सहज हो जाता है।  उसे सांसरिक विषयों की चिंता परेशान नहीं करती क्योंकि वह जानता है कि उसकी समस्यायें समय आने पर स्वतः ही दूर हो जायेंगी।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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