देश में मैगी के भोज्य पदार्थ को लेकर विवाद
का दौर चल रहा है। हमारी दृष्टि से एक
उत्पादक संस्थान पर ही चर्चा करना पर्याप्त नहीं है। उपभोग की बदलती प्रवृत्तियों
ने संगठित उत्पादक संस्थानों के भोज्य पदार्थों को उस भारतीय समाज का हिस्सा बना
दिया है जो स्वास्थ्य का उच्च स्तर घरेलू भोजन में ढूंढने के सिद्धांत को तो मानता
है पर विज्ञापन के प्रभाव में अज्ञानी हो जाता है। अनेक संगठित उत्पादक संस्थान
खाद्य तथा पेय पदार्थों का विज्ञापन भारतीय चलचित्र क्षेत्र के अभिनेताओं से
करवाते हैं। उन्हें अपने विज्ञापनों में
अभिनय करने के लिये भारी राशि देते हैं। इन्हीं विज्ञापनों के प्रसारण प्रकाशन के
लिये टीवी चैनल तथा समाचार पत्रों में भी भुगतान किया जाता है। इन उत्पादक
संस्थानों के विज्ञापनो के दम पर कितने लोगों की कमाई हो रही है इसका अनुमान तो
नहीं है पर इतना तय है कि इसका व्यय अंततः उपभोक्ता के जेब से ही निकाला जाता है।
आलू चिप्स के बारे में कहा जाता है कि एक रुपये के आलू की चिप्स के दस रुपये लिये जाते हैं।
हमारे देश में अनेक भोज्य पदार्थ पहलेे ही बनाकर बाद में खाने की
परंपरा रही है। चिप्स, अचार,
मिठाई तथा पापड़ आदि अनेक पदार्थ हैं
जिन्हें हम खाते रहे हैं। पहले घरेलू महिलायें नित नये पदार्थ बनाकर अपना समय
काटने के साथ ही परिवार के लिये आनंद का वातावरण बनाती थीं। अब समय बदल गया है।
कामकाजी महिलाओं को समय नहीं मिलता तो शहर की गृहस्थ महिलाओं के पास भी अब नये
समस्यायें आने लगी हैं जिससे वह परंपरागत भोज्य पदार्थों के निर्माण के लिये तैयार
नहीं हो पातीं। उस पर हर चीज बाज़ार में पैसा देकर उपलब्ध होने लगी है। घरेलू भोजन
में बाज़ार से अधिक शुद्धता की बात करना अप्रासंगिक लगता है। इसका बृहद उत्पादक
संस्थानों को भरपूर लाभ मिला है।
भारतीय समाज में चेतना और मानसिक दृढ़ता की कमी
भी दिखने लगी है। अभी मैगी के विरुद्ध अभियान चल रहा है पर कुछ समय बाद जैसे ही
धीमा होगा वैसे ही फिर लोग इसका उपभोग करने लगेंगे। पेय पदार्थों में तो शौचालय
स्वच्छ करने वाले द्रव्य मिले होने की बात कही जाती है। फिर भी उसका सेवल धड़ल्ले
से होता है। यह अलग बात है कि निजी अस्पतालों में बीमारों की भीड़ देखकर कोई भी यह
कह सकता है कि यह सब बाज़ार के खाद्य तथा पेय पदार्थों की अधिक उपभोग के कारण हो
रहा है।
ऐसे में बृहद उत्पादक संस्थानों के खाद्य तथा
पेय पदार्थों के प्रतिकूल अभियान छेड़ने से अधिक समाज में इसके दोषों की जानकारी
देकर उसे जाग्रत करने की आवश्कयता अधिक लगती है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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