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Thursday, April 14, 2016

दौलतमंदों की हुकुमत में-हिन्दी क्षणिकायें (Hindi Short Poem)

ठेले पर सामान के
दाम से जूझते हैं
मॉल में खरीददारी पर
गूंगे बहरों की तरह टूटते हैं।
माया के खेल में
कहीं लूटे
कहीं लूटते हैं।
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हमने तो वफा निभाई
अपना समझकर
वह कीमत पूछने लगे।
क्या मोल बताते
अपने जज़्बातों का
जो नहीं जानते पराये सगे।
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राजा अंगुल में
प्रजा चंगुल में
सिर पर विराजे पीर।
तब ताकतवर
हो जाते अमीर,
सस्ता लगता उन्हें
गरीब का ज़मीर।
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सोने चांदी की चाहत ने
इंसानों की
अक्ल छीन ली है।

धरती पर बिखरा
पेट भरने का सामान
पर कमअक्लोंने दर्द की
फसल बीन ली है।
--------------
दौलतमंदों की हुकुमत में
बेबस लोग
गरीब हो जाते हैं।
खातों में लिखा जाता
जब परिश्रम का भाव
फूटे नसीब हो जाते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Sunday, February 28, 2016

प्राणायाम से बड़ा कोई तप नहीं है-मनुस्मृति के आधार पर चिंत्तन लेख(Pranayam se bada koyee Tap nahin-A Hindu Thought article Based on ManuSmriti-Great Knowledge In ManuSmriti)

            
                                    अध्यात्मिक ज्ञान व योग साधकों को यह भ्रम नहीं रखना चाहिये कि मनुस्मृति का विरोध कोई दूसरी धार्मिक विचाराधारा के लोग कर रहे हैं। न ही यह सोचना चाहिये कि समूचे दलित वर्ग के  समस्त सदस्य इसके विरोधी हैं। वरन् भारतीय समाज में कथित उच्च वर्ग के ही वह लोग जिनका काम ही देश के लोगों को भ्रमित, भयभीत तथा भ्रष्ट कर अपना हित साधने में है, वही इसका विरोध करते हैं। हम यहां उनके प्रतिकूल टिप्पणियां नहीं लिख रहे वरन्् मानव समाज का बौद्धिक शोषण की वर्षों पुरानी परंपरा की तरफ इशारा कर रहे हैं।  ऐसे अनेक पेशेवर बुद्धिमान है जो यह कहते हुए नहीं चूकते कि योग साधना से कुछ नहीं होता। अनेक धार्मिक कर्मकांडी व्यवसायी द्रव्य यज्ञ के माध्यम से अपने हित साधते हैं-ऐसे लोग कभी ओम शब्द की महिमा बखान नहीं कर सकते जिससे मन, वाणी तथा विचार में शुद्धता आती है। वह प्राणायाम के तप होने की बात स्वीकार नहीं कर सकते क्योंकि इससे मनुष्य के हृदय से आर्त भाव निकल जाने पर उसमें जो आत्मविश्वास आता है उससे वह द्रव्य यज्ञ करने का इच्छुक नहीं रहता। मानसिक दृष्टि से कमजोर लोग ही पेशेवर बुद्धिमानों को शिकार बनते हैं इसलिये वह प्राचीन ग्रंथों का विरोध करते हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि

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एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायामः परे तपः।
सावित्र्यास्तु परं नास्ति मौनासत्यं विशिष्टयते।
                                    हिन्दी में भावार्थ- औंकार (ओम) ही परमात्मा की प्राप्ति का सर्वोत्कृष्ट साधन है। प्राणायाम से बड़ा कोई तप तथा गायत्री मंत्र से बड़ा कोई मंत्र नहीं है। मौन रहने की अपेक्षा सत्य बोलना श्रेष्ठ है।
                                    मुख्य बात यह है कि मनुष्य की बुद्धि अन्य जीवों से अधिक सामर्थ्यवान होती है पर अधिक बुद्धिमान इसी का हरण करने के लिये समाज में भ्रम, भय व भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित करते हैं ताकि लोग उनकी शरण में आकर उद्धार की राह का पता पूछें। ऐसे लोग न केवल मनुस्मृति का विरोध करते हैं वरन् श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों को भी अर्थहीन बताते हैं।  एक बात तय रही कि अधिक बुद्धिमान समाज के ज्ञानी लोगों को पसंद नहीं करते क्योंकि वह उनकी चालाकियों को चुनौती देते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
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Friday, November 27, 2015

संसार से भागने वाले वैरागी की अपेक्षा निष्काम वीतरागी श्रेष्ठ-अष्टावक्र गीता के आधार पर चिंत्तन लेख (Sansar se bhage Ragi se Nishkam Veetragi Shreshth-A Hindu Spritualy Thought based on AshtakraGita)

                           हमारे यहां कथित रूप से अनेक ऐसे सन्यासी हैं जो विषयों का त्यागने की बात  तो करते है पर बड़े बड़े आश्रम बनाने के साथ ही भारी मात्रा में संग्रह भी करते हैं। दरअसल वह भारत के स्वर्णिम अध्यात्मिक ज्ञान के विक्रेता की तरह हैं जिनका  समाज में चेतना लाने से अधिक अपना वैभव जुटाना होता। सन्यास सहज नहीं है यह बात श्रीमद्भागवत गीता में कही गयी है।  यही कारण है कि निष्काम कर्म का सिद्धांत प्रतिपादित किया है जिसमें अपनी दैहिक आवश्यकताओं की सीमा तक विषयों में लिप्त रहने का संदेश है।
अष्टावक्रगीता में कहा गया है कि
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हातुमिच्छति संसारं दुःखजिह्यासया।
वीतरागी हि निर्दुःखस्तस्मिन्नपि न खिद्यति।।
हिन्दी में भावार्थ-रागी पुरुष दुःख से बचने के लिये संसार का त्याग करना चाहता है लेकिन वीतरागी दुःखमुक्त होकर विषयों से जुड़कर भी खेद को प्राप्त नहीं होता।
                           यह अंतिम सत्य है कि कोई भी व्यक्ति बिना कर्म किये नहीं रह सकता है। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट किया है कि जो आनंद सांख्ययोगी लेना चाहते हैं वह कर्मयोगी विषयों में अनुराग त्याग कर भी प्राप्त कर सकते हैं। गीता में तो सांख्ययोग को अत्यंत कठिन बताया गया है। यहां तक कि सन्यासी होने पर विषयों के चिंत्तन से मुक्त होना कठिन माना गया है। ज्ञानी मनुष्य इतना ही कर सकता है कि जीवन निर्वाह के लिये विषयों में अपने हित की सीमा तक सक्रिय रहकर अनुराग का त्याग कर दे। यही निष्काम कर्म का सिद्धांत है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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9.हिन्दी सरिता पत्रिका

Wednesday, September 2, 2015

हिन्दी दिवस और मूर्तिपूजा विरोध पर लिखे ट्विटर(Twitter on Hindi Diwas and murtipooja virodh)

          मूर्तियों को पूजना अंधविश्वास है उसी तरह जैसे छोटे और बड़े पर्दे के अभिनेता को सच्चा नायक समझना-समाज सुधारक ऐसा क्यों नहीं बताते।
              मूर्तिपूजा के विरोधी समाज सुधारक स्वयं अज्ञानी होते हैं। भक्त जानता है कि मूर्ति पत्थर, काष्ठ या लकड़ी की है पर उसके भाव के कारण भगवान है। एक बात समझ में नहीं आती कि अंधविश्वासों के विरोधी लोगों में सत्य के विश्वास की स्थापना का सकारात्मक मार्ग क्यों नहीं अपनाते।
     औरंगजेब  इतिहास का मुर्दा पात्र है जबकि अब्दुल कलाम जीवंत इबारत है इसलिये मार्ग का नाम बदलना ठीक है।
                                   मुगलकाल के बादशाहों के नाम पर रखी गयी सभी इमारतों, मार्गों व अन्य सभी सार्वजनिक स्थानों के नाम बदलना चाहिये।
                                   मुगलों ने सारे देश पर राज किया यह भ्रम है।  वह दिल्ली तक सीमित रहकर देश के अन्य देश के अन्य  राजाओं से हफ्तावसूली करते थे।
हिन्दी दिवस आने वाला है इसकी हलचल ब्लॉग पर बढ़ती हलचल से दिखाई देने लगा है। हमारी चर्चा प्रचार माध्यमों में न देखकर निराश न हों।
हिन्दी दिवस,हिन्दीसप्ताह, तथा हिन्दीपखवाड़ा मनाने के लिये अंग्रेजी प्रतिभायें अनुवादित होकर सभी जगह प्रकट होंगी।
एक मित्र ने हमसे कहाअगर तुम अंग्रेजी में लिखते तो हिट हो जाते। हमने कहा-हम विदेशी भाषा में देशी सोच नहीं डाल पाते।
                                   एक लेखक के लिये ट्विटर पर लिखना वैसा ही जैसे विज्ञापन के लिये नारे लिखना। हिन्दी दिवस पर खोजने वाले यहां हिन्दी दिवस पर अधिक नही है।
                                   हिन्दी दिवस पर पढ़ने और लिखने वाले ट्विटर पर कम ही दिखाई दे रहे हैं। एक पंक्ति में वैसे क्या चर्चा हो सकती है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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८.हिन्दी सरिता पत्रिका

Wednesday, August 26, 2015

भारत में अब भी जातीय धार्मिक तथा भाषाई समूहों में भय का व्यापार संभव-हिन्दी चिंत्तन लेख(disscusion on cost reservation in government service)

         हैरानी की बात है कि गुजरात के संपन्न और बलशाली जाति के लोगों में भी अन्य समूहों के प्रभाव का भय दिखाकर उसे आंदोलित किया गया है पर सामाजिक विशेषज्ञ  इसका आंकलन परंपरागत संकीर्ण ढंग से कर रहे हैं। यह जानने का प्रयास कोई नहीं कर रहा कि आखिर इस तरह के आंदोलन क्यों लोकप्रिय हो जाते हैं?

                    भ्रष्टाचार कभी दूर नहीं हो सकता। महंगाई कभी मिट नहीं सकती। बीमारी कभी देश से खत्म नहीं हो सकती। जिन लोगों को बिना मगजपच्ची के नाम कमाना हो उन्हें किसी भी जातीय, धार्मिक तथा भाषाई समूहों को सरकारी सेवा में आरक्षण दिलाने के लिये आंदोलन करना अच्छा लगता है।  दरअसल इस आंदोलन के नायक इस तरह इस मुद्दे को उठाते हैं जैसे कि उनके समूह में केवल यही एक समस्या रह गयी है वरना तो वह महंगाई, भ्रष्टाचार से तंग नहीं है और न ही उनके यहां बीमारी हारी जैसी कोई हालत है।  सुविधा से वचिंत लोगों को सपने दिखाकर अपने आसपास भीड़ लगाना ज्यादा सुविधाजनक है।
                                   परंपरागत विचार शैली से हटकर अगर देखें तो राज्य प्रबंध के विरुद्ध कहीं न कहीं असंतोष का भाव रहता है।  कुछ समस्यायें ऐसी हैं जिनका निराकरण तो संभव ही नहीं है-जैसे महंगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी तथा मिलावट।  लोकतंत्र में आंदोलन प्रसिद्ध दिलाने का सहज उपाय होते हैं और कालांतर में चुनावी राजनीति में उसका नकदीकरण हो सकता है।  अगर हल न हो सकने वाली सार्वजनिक समस्याओं पर आंदोलन किये जायें तो लक्ष्य तथा साधन की व्यापकता की आवश्यकता के कारण सहजता से भीड़ एकत्रित नहीं हो पाती। किसी जातीय समुदाय के आरक्षण के लिये आंदोलन से उसके नेतृत्व को दो लाभ होते हैं। एक तो जातीय समुदाय की विशिष्टता के बोध के कारण सीमित संख्या होने से लोगों के अंदर एक विशेष भाव पैदा होता है। दूसरे सामने विरोधी के रूप में में दूसरे समुदाय होते हैं। तब कुछ भय तो कुछ अहंकार से ग्रस्त लोग भेड़ों की तरह भीड़ में चल ही पड़ते हैं।  आज की संकीर्ण हो चुकी जीवन शैली से ऊबे लोगों में यह आत्मविश्वास आता है कि उनके साथ बहुत लोेग हैं।  दूसरी गंभीर समस्याओं होते हुए भी लोग ऐसी समस्या के हल के लिये निकल पड़ते हैं जिसे हल होना ही नहीं है। काल्पनिक शत्रू बताकर किसी समुदाय विशेष समुदाय की भीड़ एकत्रित करने की यह परंपरागत शैली अब भी कारगर है। ऐसे में देश के रणीनीतिकारों को यह समझना चाहिये कि राज्य प्रबंध जनहित के सामान्य कार्य तीव्रगति से जारी रखे। इतना ही नहीं वह जनसमस्याओं के हल के लिये उतना प्रतिबद्ध भी दिखे। 
             यह कार्य विज्ञापन देकर नहीं बल्कि अपने कार्य से ही हो सकता है। लोग जब  आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक प्रबंध से निराश से होते हैं तब कोई भी आरक्षण के लिये आंदोलन चलाकर प्रसिद्ध हो सकता है। जातीय समूह में मौजूद भय के वातावरण में आरक्षण का सपना दिखाने वाले नायक बन जाते हैं। महंगाई, भ्रष्टाचार तथा सार्वजनिक महत्व के विषय पर समय खराब न करने के इच्छुक के लिये अधिक सरल है किसी जातिगत आरक्षण आंदोलन चलाना है। सच यह है कि लोग जातीय व धार्मिक समूहों से जुड़ना पसंद नहीं करते पर उन्हें आरक्षण का सपना दिखाकर मनोरंजन के लिये बाघ्य किया जाता है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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८.हिन्दी सरिता पत्रिका

Tuesday, August 18, 2015

योगी और ज्ञानी सभी का दिल जीत लेते हैं -हिन्दी चिंत्तन लेखyogi aur gyani sabhi ka dil jeet lete hain-hindi thought article)

        इस संसार में सर्वशक्तिमान के अनेक रूपों की प्रथा सदैव रही है। स्थिति यह भी है कि एक रूप भजने वाला दूसरे रूप की दरबार में जाना पसंद नहीं करता। इतना ही नहीं अनेक तो दूसरे रूप के दरबार में जाने से अपना धर्म भ्रष्ट हुआ मानते हैं।  वैसे तो धार्मिक कर्मकांड और अध्यात्मिक दर्शन में अंतर है पर चालाक मनोचिकित्सक सर्वशक्तिमान के दूत बनकर उसके रूपों की आड़ में भक्ति का व्यापार करते हैं।  अगर हम श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों का अध्ययन करें तो यह बात साफ हो जाती है कि धर्म से आशय केवल आचरण से है।  विदेशी धार्मिक विचाराधारा में कभी अपने प्रतिकूल टिप्पणियां स्वीकार नहीं की जाती जबकि  भारत में अपने ही धार्मिक अंधविश्वासों पर चोट करने में  अध्यात्मिक ज्ञानी संत हिचकते नहीं हैं।  इतना ही नहीं भारतीय धर्म में अंधविश्वास हटाने तथा उसकी रक्षा करने के लिये सिख धर्म का प्रादर्भाव हुआ।  उसके प्रवर्तक भगवान गुरुनानक जी को हर भारतीय अपना इष्ट ही मानता है।  यही कारण है कि हमारे धर्मों में ज्ञान की प्रधानता रही है।  योगी, ज्ञानी या  साधक सर्वशक्तिमान के किसी रूप के दरबार में जाये, उसकी अध्यात्मिक शक्ति सदैव प्रबल रहती है।
           भारतीय दर्शन के अनुसार ज्ञानी केवल एक जगह बैठकर भगवान का भजन करे ऐसा कोई प्रावधान नहीं है।  ज्ञानी और योगी को  को सांसरिक विषयों से सकारात्मक भाव से जुड़कर दूसरों को भी प्रेरित करना चाहिये। इधर भारतीय प्रधानमंत्री के अमीरात दौरे पर एक मस्जिद जाने पर चर्चा हो रही है।  आधुनिक दौर में शक्तिशाली संचार माध्यमों के बीच किसी भी राष्ट के प्रमुख मजबूत और चतुर  होने के साथ ही वैसा दिखना भी जरूरी है। कोई राष्ट्रप्रमुख दूसरे राष्ट्र में जाकर अपनी बात प्रभावी ढंग से प्रचारित करता है तो प्रजा प्रसन्न होती है। भारत के लिये यह जरूरी है कि आधुनिक दौर में उसका प्रमुख राष्ट्र की सीमा से बाहर भी अपनी मजबूत छवि बनाये। महत्वपूर्ण बात यह कि राष्ट्रप्रमुख अपनी आस्था और संस्कार का इस तरह प्रदर्शन करे कि वह दूसरे को अपनी लगे। इससे उसकी लोकप्रियता बढ़ती भी है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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८.हिन्दी सरिता पत्रिका

Thursday, August 13, 2015

डरपोक बनाने वाली फिल्मों के प्रति भी चेतना लाना जरूरी-हिन्दी लेख(DARPOK BANANE WALI FILM KE PRATI CHETNA LANA JAROORI-HINDI ARTICLE)


            हमारे देश में हिन्दी फिल्मों का बहुत प्रभाव रहा है। अब टीवी भी बहुत असर दिखा रहा है। ऐसे में जब  टीवी चैनल  अनेक बार भारतीय धर्मों पर प्रहार करते हैं  उनक अनुसार हमने मान लिया कि पाखंडी संत अंधविश्वास फैलाते हैं।  देश के अनेक जागरुक लोगों ने कथित रूप से समाज के अंधविश्वास के विरुद्ध अभियान छेड़कर बहुत  नाम भी कमाया है। इतना ही नहीं अनेक लोगों ने तो अंधविश्वास के विरुद्ध कानून बनवाकर वाह वाही लूटी और समाज सुधारक के रूप में अपना नाम इतिहास में दर्ज कराया।  हमें आपत्ति नही है पर सवाल यह है कि  जिस तरह हिन्दी फिल्में एक नायक से समाज के उद्धार करने की प्रवृत्ति पैदाकर कायरता फैलाती है उसे कौन रोकने के लिये कौन आगे आयेगा।  इन फिल्मों में एक नायक अस्वाभाविक रूप से तलवार, बंदूकें, फरसे तथा बमों से लैस खलनायक समूह का केवल हाथ से नाश करते हुए दिखाया जाता है। भीड़ केवल देखने के लिये खड़ी होती है।  किसी नायक को हथियार लेकर खलनायकों का नाश करते हुए इसलिये नहीं दिखाया जाता ताकि आम आदमी में कहीं शेर बनने की प्रवत्ति न आ जाये। दूसरी बात यह कि अगर कोई भीड़ में है तो वह नायक न  बने न उसकी सहायता करने की सोचे। ऐसा फिल्में दिखाने वाली समाज में कायरता और अकर्मण्यता का पाठ पढ़ाती हैं।
हम अक्सर सोचते हैं कभी कोई समाज सुधारक आगे आये  जो हिन्दी फिल्मों के ऐसी कहानियों पर रोक लगाने के लिये अभियान छेड़े। हम जैसे सामान्य लेखकों के पास  उच्च पद, अधिक पैसा तथा प्रायोजित प्रतिष्ठा नहीं होती कि समाज सेवा कर सकें। वैसे हमारा अनुमान है कि पद, प्रतिष्ठा तथा पैसा पान वाला कोई फिल्मों से फैलने वाली कायरता से समाज को बचाने का प्रयास भी नहीं कर सकता नहीं क्योंकि धनपतियों का कोई गिरोह उसे सहायता नहीं देगा।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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८.हिन्दी सरिता पत्रिका

Saturday, August 8, 2015

भारतीय अध्यात्मिक दर्शन स्वर्णमय सिद्धांतों पर आधारित-समाचारों पर किये गये ट्विटर(bhatiya adhyatmik darshan swarnmay siddhantona par adharit-twitter)


                    भारतीय धर्म की आड़ में स्वर्णिम बाबा और अम्मा का रूप रचकर कमाया जा सकता है। यही कमजोरी भी है और ताकत भी। देखने वाले का नजरिया है। हमारे अध्यात्मिक दर्शन में सत्य और माया दोनों का आकर्षण पर अध्ययन किया गया है।  सत्य  प्रारंभ में कठोर लगता है पर जब उसे जान लिया जाता है तो आनंद आता है। माया से संपर्क रखने पर प्रांरभ में अच्छा लगता है पर बाद में पता लगता है कि हमने स्वयं को धोखा दिया है।  चुनने वाले अपने हिसाब से फूल और कांटे चुनते हैं।  ज्ञानी केवल दृष्टा बनकर न केवल अपना बल्कि संसार का जीवन चक्र चलता देख आनंद उठाते हैं।
                प्रातःकाल योग साधना के साथ ही भजन वगैरह कर पूरे दिन की यज्ञवेदी बनाओ न कि आतंकवाद, अपराध तथा अधर्म के  समाचार सुनकर सपने की अर्थी सजाओ।

              अगर सभी पोर्न साईट पर प्रतिबंध नहीं लग सकता तो कम से कम चेतावनी लिखने का निर्देश तो दिया ही जा सकता है कि इसे देखना मनोरोग का कारण बन सकता है। इससे कथित अभिव्यक्ति की आजादी के समर्थक परबुद्धिजीवी भी प्रसन्न हो जायेंगे और नागरिकों में चेतना लाने का काम भी स्वतः होगा। पोर्न साईट पर प्रतिबंध- हमारा एक विचार यह भी है कि पहले भी समाज में यौन साहित्य धड़ल्ले से बिकता था। तब भी ऐसी मांग होती थी पर किसी ने उस पर प्रतिबंध लगाया।  अब इंटरनेट पर भी इसी तरह की प्रवृत्ति दिख रही है तो यह समझना चाहिये कि मनुष्य समाज में कुछ स्वाभाविक कमजोरियां हैं जिन्हें प्रतिबंध से दबाना न्यायासंगत नहीं भी हो सकता।  वैसे हमारी सलाह तो हमेशा यही रहती है कि जहां तक हो सके यौन साहित्य, दृश्यांकन के साथ ही इस पर आपसी वार्तालाप में चर्चा अधिक करना ही दिमाग का भट्टा बिठाना है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Sunday, August 2, 2015

भारत पाकिस्तान के बंटवारे पर बहस-1(discussion on india pakistan divide in to nation-hindi article-1)


                    भारत के बंटवारे के बाद पाकिस्तान बना। धड़ी की सुईयां  आधे घंटे  पीछे कर उसे 14 अगस्त को आजादी दी गयी। पाकिस्तान के इतिहास में यह आजादी अंग्रेजों से नहीं भारत से मिली बताई जाती है।  अत्याचार की कहानियां अंग्रेजों की नहीं भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा वाले समाज के अन्याय की पढ़ाई जाती हैं।  पाकिस्तानी मूल के एक कनाडाई लेखक ने अनेक दिलचस्प जानकारियां दी हैं जिससे भारत पाकिस्तान के बंटवारे पर बहस फिर शुरु हो गयी है।  उसके अनुसार तो ब्लूचिस्तान तो भारत पाकिस्तान से पहले ही आजाद हो गया था। आजादी के बाद पाकिस्तान ने पहले कश्मीर और फिर ब्लूचिस्तान पर कब्जा किया। यह तथ्य भारतीय इतिहास में छिपाया गया या गलत है पता नहीं। अगर इसे छिपाया गया है तो फिर दक्षिणपंथी विद्वानों का या आरोप सही है कि विदेशी विचाराधारा वाले इतिहासकारों ने पक्षपातपूर्ण इतिहास लिखा।
                              इस लेखक के पूर्वज सिंध से आये हैं और आज तक इस बात का जवाब इसे नहीं मिला कि आखिर सिंध किसके बाप कस है जो पाकिस्तान का हिस्सा मान लिया गया है।  सिंध से हिन्दुओं के पलायन के बाद भी वहां जियो सिंध आंदोलन जारी रहा है। पाक के मूल लेखक ने बताया है कि भारत से गये उर्दू भाषी लोग सबसे ज्यादा सिंध में आये और उन्होंने न केवल अपनी भाषा पूरे पाकिस्तान पर थोपी वरन् इस्लाम के नाम पर अपनी श्रेष्ठता दिखाते हुए दूसरे समुदायों को त्रास दिया।  वह सिंधियों और शिया लोगों को आज भी अपने लिये असहनीय मानते हैं।  इतना ही नहीं उस लेखक ने तो यहां कहा कि शिया मुसलमान केवल भारत में शान से कह सकते हैं कि वह शिया हैं बाकी किसी भी मुस्लिम राष्ट्र में उनको सुन्नी का छदम रूप रखना पड़ता है।
                              इस लेखक ने अनेक लेखों में लिखा है कि पाकिस्तान एक राष्ट्र नहीं है वरन् उसके तीन प्रांत-सीमा प्रांत, ब्लूचिस्तान तथा सिंध-उपनिवेश बन गये हैं जो पंजाबियों का दबदबा सहन कर रहे हैं। पाकिस्तान का अस्तित्व अमेरिका तथा सऊदी अरब की वजह से हैं। उसे तोड़ना भारत के लिये सरल है पर भारत के रणनीतिकारों का एक वर्ग मानता है कि उसका बना रहना भारत के हित में ही है। यह अलग बात है कि उसके हमले निरंतर हो रहे हैं और दूसरा वर्ग मानता है कि उसे तोड़ने में ही शांति है। हमें बीच का मार्ग श्रेष्ठ लगता है।  पाकिस्तान के सिंध, ब्लूचिस्तान और पख्तूनिस्तान प्रांत को अलग कर तीन नये राष्ट्र बनवा दिये जायें।  वैसे भी पाकिस्तान का मतलब पंजाब ही होता है। भारत में शांति के लिये पाकिस्तान का अस्तित्व मिटना जरूरी है। शेष अगली किश्तों में
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
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Wednesday, July 29, 2015

एक फांसी पर उठे प्रश्न, उत्तर भविष्य के गर्भ में-हिन्दी चिंत्तन लेख(punishment of death-hindi article)

                               वह पत्रकार हैं, वह वकील हैं, वह स्वयंभू समाज सेवक हैं। टीवी पर चर्चा में उनके चेहरों में ऐसी उदासी कि जैसे उनको फांसी होने वाली है। मुंबई के धारावाहिक बम धमाकों के एक अपराधी को फांसी पर अर्द्धबुद्धिमानों के बीच एकदम बेतुकी बहस में इतने बेहूदे तर्क  कि मुकदमे के दौरान उसने बचाव में नहीं कहे होंगे। वह पकड़ा नहीं गया (एक मृतक अधिकारी के अप्रमाणिक लेख से लिया गया तर्क), उसने जांच मे सहयोग दिया (प्रशासनिक अधिक इसे नहीं मानते) और सरकार अभी तक उसके असली अपराधी सगे भाई को नहीं पकड़ पायी जैसी वह बातें कह रहे हैं।  अपराधियों को फांसी होती है पर जिस तरह इस प्रकरण में इन पेशेवर अर्द्धबुद्धिमानों के चेहरे फक हो रहे हैं और वाणी सूख रही है तब हमारे मन में प्रश्न आ रहा है क्या कोई ऐसी एतिहासिक घटना होनी वाली है जो अभी तक देश में प्रवाहित मानसिक विक्षिप्तीकरण करने वाली विचाराधारा बंद होनी वाली है या उसके संवाहकों लगता है कि उनके सहारे खत्म होने वाले हैं।
                              बुद्धिमानों की मुस्कराहट तो स्वाभाविक है पर क्या वह इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ पायेंगे।  हालांकि भविष्य में इसका उत्तर मिल जायेगा। मामला मुंबई का है इसलिये हम कुछ ज्यादा सोच रहे हैं।  मुंबई भारत की आर्थिक राजधानी है और वहां धवल छवि तथ काली नीयत वाले धनपति एक साथ विराजते हैं।  काले धंधे वालों के कू्रर सरदार पाकिस्तान में रहते हैं।  एक समय था जब मुंबई में दुष्ट दबंग का साथ होना गर्व का विषय समझा जाता था। आज कम हुआ है पर लगता है कि इस फांसी से दबंगों की नाक दबने वाली है और उनके सहारे जीने वाले अब भयग्रस्त हैं।  कोई बौखलायेगा पर कौन? कोई टूटेगा? कुछ बनेगा, कुछ बिखरेगा पर क्या? या कुछ भी नहीं होगा।  अनेक प्रश्न भविष्य के गर्भ में होते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Tuesday, July 21, 2015

परिहास में भी किसी का अपमान न करें-कौटिल्य के अर्थशास्त्र के आधार पर चिंत्तन लेख(parihas mein bhee kisi ka apaman na karen-A hindi hindi religion thought based on economics of kautilya)

                               अक्सर यह देखा जाता है कि लोग एक दूसरे की मजाक बनाते हैं पर यह नहीं सोचते कि उसका प्रभाव क्या होगा? मनुष्य में विनोद करने का भाव रहता है पर हास्य रंग बिखेरना भी एक कला है।  अधिकतर लोग दूसरों को अपमानित करना ही मजाक समझते हैं।  किसी से कटु वाक्य कहकर फिर स्वयं ही हंसने लगते हैं। अनेक लोग तो अभद्र शब्द हास्य के रूप में प्रयोग कर इस तरह सीना फुलाते हैं जैसे कि कोई बहुत बड़े भाषाविद हों।  इसी वजह से अनेक लोग अपने मित्रों तथा सहयोगियों में अलोकप्रिय हो जाते हैं।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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न नर्म्मसचिवैः सार्द्ध किञ्विदप्रियं बदेत्।
ते हि मर्मण्यभिन्धन्तिप्रह्यसेनापि संसद्धि।।

                              हिन्दी में भावार्थ-परिहास में अपने अपने सहयोगियों को बुरी बात नहीं कहना चाहिये। समूह में बैठकर मजाक में भी किसी के मर्म पर प्रहार नहीं करना चाहिये।
                              हास्य व्यंग्य इस तरह होना चाहिये कि जिस पर किया जाये उसे भी हंसी आ जाये।  सामूहिक वार्तालाप में कभी भी अपने मित्र या सहयोगी का मजाक के नाम पर अपमान करने वाले अलोकप्रिय हो जाते हैं।  इतना ही नहीं वह अपने लिये शत्रु अधिक बनाते हैं। इसलिये किसी से मजाक करने से पहले अपने शब्दों तथा वाक्यों पर विचार अवश्य करना चाहिये। हमने यह भी देखा है कि अनेक लोग एक दूसरे की जाति, भाषा तथा सामाजिक परंपराओं की  भी मजा उड़ाते हैं जिससे आपसी वैमनस्य बढ़ता है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Monday, July 13, 2015

अध्यात्मिक ज्ञान से ही प्राकृतिक विपदा से बचाव संभव-हिन्दी चिंत्तन लेख(ahdyatmik gyan se hi prakritik vipada se bachav sambhav-hindi thought article)

           भारत देश मौसम की दृष्टि से समशीतोष्ण माना जाता है। यहां गमी, सर्दी और बरसात के मौसम चार चार माह से समान अवधि में बंटे देख जाते हैं।  यही कारण है कि भारतीय हर मौसम का सामना करने में सक्षम माने जाते हैं। यह अलग बात है कि समय के साथ अनियोजित बसाहट, नियंत्रित विकास तथा अनियमित प्रबंध ने गांव ही नहीं शहरों को भी प्राकृतिक आपदाओं का उद्गम स्थल बना दिया है।
                              प्राचीन काल में मनुष्य नदियों के किनारों के निकट  निवास स्थान का चयन इसलिये करते थे क्योंकि वह इस सत्य को जानते थे कि जल ही जीवन है।  अब लोग स्थान चयन धन की नदी के निकट करते हैं क्योंकि वह मानते हैं कि धन ही जीवन है। यह धन की नदियां शहरों में ही बहती हैं यह अलग बात है कि यह प्राकृतिक नदियों और नालों की जलधारा को बाधित करने वाली होती है। थोड़ी बरसात में ही बड़े शहरों की सड़कें मल नदी में परिवर्तित होकर कहर बरपाती हैं क्योंकि विकास की सड़कें कमीशन के सहारे जमी होने के कारण बह जाती हैं। विकास के लोभ में आम और खास दोनों ही प्रकार के इंसान धन ही जीवन के सिद्धांत पर चल रहे हैं इसलिये बड़े शहरों में बरसाती संकट के लिये सभी जिम्मेदार हैं।
                              स्थिति यह है कि नदी के अनेंक किनारे जो बरसात के समय उसका भाग दिखते थे वहां यह जानते हुए भी मकान और कारखाने बनाये गये कि वर्षा होने पर बाढ़ आयेगी। शहरी नालों का गंदा पानी पवित्र कहीं जाने वाली नदियों की तरफ मोड़ा गया।  धर्मग्रथों में कहीं नहीं लिखा गया कि शव जल में बहाये जायें पर स्वर्ग की प्राप्ति के लिये यह भी किया जा रहा है। प्लास्टिक जिसे अग्नि और जल नष्ट नहंी कर सकते उसे जल में प्रवाहित करने में धार्मिक आस्था की आड़ ली जा रही है। सब एक दूसरे से कहते हैं कि सुधर जाओ पर जब अपना समय आता है तो सब इन नदियों को नाला बनाने का काम करते हैं।
                              यह सब अध्यात्मिक ज्ञान के अभाव का परिणाम है।  हमारे यहां धर्म के नाम पर अनेक कार्यक्र्रम होत हैं पर पेशेवर वक्ता पुरानी कहानियों से मनोरंजन कर लोगों को बहला कर गुरु की पदवी धारण कर लेते हैं। कोई लोगों को यह संदेश नहीं देता कि हमें जीवन स्वच्छ रखने के लिये वातावरण शुद्ध बनाये रखना आवश्यक है। जिन नदियों पर वह कथायें सुनाते हैं उन्हें शुद्ध रखने का रोना तो रोते हैं पर लोगों को अपनी जिम्मेदारी समझाने की बात नहीं करते। हमारा मानना है कि किसी दूसरे पर जिम्मेदारी डालने से पहले आम तथा खास लोग व्यक्तिगत रूप से गंदगी न करने का प्रण ले-ऐसा हमारा मानना है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Sunday, July 5, 2015

जनप्रतिनिधियों के वेतन भत्तो पर बहस करना हल्कापन है-हिन्दी चिंत्तन लेख(jan partinidhiyon ke vetan bhatton par bahas karna halkapan hai-hindi thought article)

                              हमारे देश के प्रचार माध्यम लोकतंत्र में नाम बहुत उछलते हैं पर जनप्रतिनिधियों पर जिस तरह से टिप्पणियां करते हैं वह असामान्य प्रकार की हैं।  सांसदों और विधायकों के वेतन और भत्ते बढ़ने पर वह गरीब आदमी का नाम लेकर जिस तरह  विलाप करते हैं उसे देखकर नहीं लगता कि लोकतंत्र और राजतंत्र की उन्हें कोई समझ है।  हमारे विचार से सांसदों और विधायक अगर अपना वेतन भत्ते बढ़ाने के साथ ही अन्य सुविधायें भी लें तो कोई बुरी बात नही है।  जनप्रतिनिधियों के जनहित में निर्वाह की जा रही भूमिका पर ही चर्चा हो तो बात समझ में आये।  अगर आप केंद्र सरकार से नगर निगमों के बजट की बृहद राशि पर नज़र डालें तो सांसदों, विधायकों और पार्षदों के वेतन भत्ते ऊंट के मुंह में जीरे के समान प्रतीत होता है।   जनप्रतिनिधि एक व्यवस्था के शीर्ष पर विराजमान होते हैं उनमें दायित्व निर्वाह की क्षमता दिखाने की अपेक्षा सामान्यजन करते हैं।  जनप्रतिनिधियों की निजी आय पर सामान्य जन अधिक विचार नहीं करते।
                              हमारी दृष्टि से प्रचार माध्यमों को इन जनप्रतिनिधियों के सार्वजनिक कार्यों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।  जिस जनप्रतिनिधि में जनहित के प्रति अरुचि का भाव हो या वह निष्क्रिय हो उसे अपने मूल कर्म के लिये प्रेंरित करते रहना चाहिये।  इस तरह जनप्रतिनिधियों के वेतन भत्तों पर बहस करना अर्थशास्त्र लेखांकन के विद्यार्थी होने के नाते हमें हल्कापन लगता है। हम न जनप्रतिनिधि हैं न भविष्य में बनने की संभावना है इसलिये किसी लाभ की आशा से यह लिख रहे हैं यह सोचना गलत होगा।  एक सामान्य नागरिक के रूप में हमारी जनप्रतिनिधियों से सार्वजनिक दायित्व निभाने की आशा ही  की जाती है। वह उस खरे उतरनते हैं या नहीं, इसी पर ही विचार होना चाहिये।
                              प्रचार माध्यमों के पास लोकतंत्र के नारे के नाम पर अभिव्यक्ति की आज़ादी है पर उसका उपयोग करना आता कि नहीं यह विचारणीय प्रश्न है।  सामान्य मनुष्य की अभिव्यक्ति हमेशा चिंत्तन और मनन के दौर से निकलकर बाहर आना चाहिये-हमने देखा होगा कि मानसिक रूप से असामान्य मनुष्य चाहे कुछ बड़बड़ाते हैं और लोग उसे नज़र अदाज कर देते हैं। बहस के विषयों के चयन में इस तरह की हड़बड़ी जिस तरह प्रचार प्रबंधक दिखा रह हैं वह गंभीर लोगों में उनकी छवि इसी तरह की बनाती है। सतही विषयों से कभी भी प्रचार माध्यम समाज के मार्ग दर्शक नहीं बन सकते।  सार्वजनिक विषयों से जुड़े पुराने लोग आज के प्रचार माध्यमों के हल्केपन से उदास ही हो सकते हैं। नये लोगों के पास तो वैसे भी अब बहुत सारे चैनल हैं इसलिये हाल बदल देते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
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Monday, June 29, 2015

नालंदा में हिंसक संघर्ष के व्यापक संदेश शिखर पुरुष समझें-हिन्दी चिंत्तन लेख(nalanda mien sangharsh ka vyapak sandesh shikhar purush samjhen-hindi thought aritcle)

                              नालंदा में एक विद्यालय के छात्रावास से लापता दो छात्रों के शव एक तालाब में मिलने के बाद उग्र भीड़ ने निदेशक को पीट पीट कर मार डाला। बाद में छात्रों की मृत्यु पाश्च जांच क्रिया से पता चला कि बच्चों की मौत पानी में डूबने से हो गयी थी। जबकि मृत छात्रों की मृत्यु से गुस्साये लोग यह संदेह कर रहे थे कि छात्रावास के अधिकारियों ने उनकी हत्या करवा कर तालाब में फैंका या फिंकवाया होगा। हमें दोनों पक्षों के मृतक के परिवारों से हमदर्दी है पर इस घटना पर जिस तरह प्रचार माध्यम सतही विश्लेषण कर रहे हैं उससे लगता नहीं कि कोई गहरे चिंत्तन से निष्कर्ष निकल रहा हो।
                              यह घटना समाज में आम जनमानस में राज्य के प्रति कमजोर होते सद्भाव का परिणाम है। इस सद्भाव के कम होने के कारणों का विश्लेषण करना ही होगा।  मनुष्य समाज में राज्य व्यवस्था का बना रहने अनिवार्य माना गया ताकि कमजोर पर शक्तिशाली, निर्धन पर धनिक और प्रभावशाली लोग अपने से कमतर पर अनाचार न कर सकें।  हम प्रचार माध्यमों पर आ रहे समाचारों और विश्लेषणों को देखें तो यह संदेश निरंतर आता रहा है कि प्राकृत्तिक रूप से इस सिद्धांत पर समाज चल रहा है जिसमें हर तालाब में बड़ी मछली छोटी को खा जाती है। मनुष्य में राज्य व्यवस्था का निर्माण इसी सिद्धांत के प्रतिकूल किया गया है।
                              अनेक प्रकार ऐसी घटनायें भी हुईं है कि जिसमें किसी जगह वाहन से टकराकर पदचालकों की मृत्यु हो जाने पर भीड़ आक्रोश में आकर वाहन जला देता है। कहीं वाहन चालक को भी मार देती।  इस तरह की खबरें तो रोज आती हैं। इन्हें सहज मान लेना ठीक नहीं है। आखिर हम जिस सामाजिक व्यवस्था में सांस ले रहे हैं कहीं न कहीं उसका आधार राज्य प्रबंध ही है।  भीड़तंत्र का समर्थन करना अपनी जड़ें खोदना है पर सवाल यह है कि आक्रोश में आकर लोग इसे भूल क्यों जाते हैं? क्या उनमें इस विश्वास की कमी हो गयी है कि गुनाहगार को सजा मिलना सरल नहीं है इसलिये वह समूह में यह काम कर डालें जिसकी अपेक्षा बाद में नहीं की जा सकती।
              दूसरी बात हमें देश के आर्थिक, सामाजिक तथा प्रतिष्ठत शिखर पुरुषों से भी कहना है कि उन्हें अब चिंता करना ही चाहिये। आमजन को केवल दोहन के लिये समझना उनकी भूल होगी।  उन्हें शिखर समाज में आर्थिक, सामाजिक तथा सद्भाव का वातावरण बनाये के लिये मिलते हैं।  अगर कहीं तनाव बढ़ा है तो उन्हें भी आत्ममंथन करना ही होगा।  समाज में विश्वास का संकट सभी वर्गों के लिये तनाव का कारण बनता है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
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Wednesday, June 24, 2015

चिकित्सा तथा शैक्षणिक केंद्रों में स्वच्छता अभियान की आवश्यकता-हिन्दी चिंत्तन लेख(chikitsa aur shiksha kendron mein swachchhata abhiyan ki awashyakta-hindi thought article)


                     सरकारी अस्पताल में जब चिकित्सक हड़ताल करते हैं तो सबसे अधिक कमजोर आयवर्ग के लोग प्रभावित होते हैं। उसी तरह जब सरकारी विद्यालयों में शिक्षक हड़ताल करते हैं तब इसी वर्ग के छात्र परेशान होते हैं।  यह आर्थिक वैश्वीकरण का परिणाम है कि जिन गरीबों के कल्याण के लिये धनवादी नीतियां लायी गयीं वही उनकी शत्रु हो गयी हैं।
              एक समय था जब सरकारी अस्पताल और विद्यालय जनमानस की दृष्टि में प्रतिष्ठित थे पर समय के साथ बढ़ती आर्थिक असमानता ने समाज में गरीब तथा अमीर के बीच विभाजन कर दिया है । यह विभाजन अमीरों का निजी तथा गरीबों का सरकारी क्षेत्र के प्रति मजबूरी वश झुकाव के रूप में स्पष्टतः दिखाई देता है। हमें याद है जब पहले बच्चों को शासकीय विद्यालयों में भर्ती इस विचार से कराया जाता था कि वहां पढ़ाई अच्छी होती है। उसी तरह इलाज भी सरकारी अस्पतालों में वहां के चिकित्सक तथा नर्सों के प्रति विश्वास के साथ कराया जाता था।  अब अल्प धनी सरकार और अधिक धनी निजी क्षेत्र पर निर्भर रहने लगा है।  सरकारी अस्पतालों में कभी जाना हो तो वहां इतनी गंदगी मिलती है कि लाचार गरीब का रहना तो सहज माना जा सकता है पर वेतनभोगी नर्स, कंपाउंडर और डाक्टर किस तरह वहां दिन निकालते होंगे यह प्रश्न मन में उठता ही है। कहा जाता है कि जिस वातावरण में आदमी रहता है उसका उस पर प्रभाव पड़ता ही है।  ऐसे गंदे वातावरण में चिकित्सा कर्मी अपना मन अच्छा रख पायें यह आशा करना व्यर्थ है। यही स्थिति सरकारी विद्यालयों में है। देश में स्वच्छता अभियान चल रहा है पर अभी हमें अस्पतालों और विद्यालयों में उसके आगमन की प्रतीक्षा है।
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