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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका


हिंदी मित्र पत्रिका

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Monday, June 29, 2015

नालंदा में हिंसक संघर्ष के व्यापक संदेश शिखर पुरुष समझें-हिन्दी चिंत्तन लेख(nalanda mien sangharsh ka vyapak sandesh shikhar purush samjhen-hindi thought aritcle)

                              नालंदा में एक विद्यालय के छात्रावास से लापता दो छात्रों के शव एक तालाब में मिलने के बाद उग्र भीड़ ने निदेशक को पीट पीट कर मार डाला। बाद में छात्रों की मृत्यु पाश्च जांच क्रिया से पता चला कि बच्चों की मौत पानी में डूबने से हो गयी थी। जबकि मृत छात्रों की मृत्यु से गुस्साये लोग यह संदेह कर रहे थे कि छात्रावास के अधिकारियों ने उनकी हत्या करवा कर तालाब में फैंका या फिंकवाया होगा। हमें दोनों पक्षों के मृतक के परिवारों से हमदर्दी है पर इस घटना पर जिस तरह प्रचार माध्यम सतही विश्लेषण कर रहे हैं उससे लगता नहीं कि कोई गहरे चिंत्तन से निष्कर्ष निकल रहा हो।
                              यह घटना समाज में आम जनमानस में राज्य के प्रति कमजोर होते सद्भाव का परिणाम है। इस सद्भाव के कम होने के कारणों का विश्लेषण करना ही होगा।  मनुष्य समाज में राज्य व्यवस्था का बना रहने अनिवार्य माना गया ताकि कमजोर पर शक्तिशाली, निर्धन पर धनिक और प्रभावशाली लोग अपने से कमतर पर अनाचार न कर सकें।  हम प्रचार माध्यमों पर आ रहे समाचारों और विश्लेषणों को देखें तो यह संदेश निरंतर आता रहा है कि प्राकृत्तिक रूप से इस सिद्धांत पर समाज चल रहा है जिसमें हर तालाब में बड़ी मछली छोटी को खा जाती है। मनुष्य में राज्य व्यवस्था का निर्माण इसी सिद्धांत के प्रतिकूल किया गया है।
                              अनेक प्रकार ऐसी घटनायें भी हुईं है कि जिसमें किसी जगह वाहन से टकराकर पदचालकों की मृत्यु हो जाने पर भीड़ आक्रोश में आकर वाहन जला देता है। कहीं वाहन चालक को भी मार देती।  इस तरह की खबरें तो रोज आती हैं। इन्हें सहज मान लेना ठीक नहीं है। आखिर हम जिस सामाजिक व्यवस्था में सांस ले रहे हैं कहीं न कहीं उसका आधार राज्य प्रबंध ही है।  भीड़तंत्र का समर्थन करना अपनी जड़ें खोदना है पर सवाल यह है कि आक्रोश में आकर लोग इसे भूल क्यों जाते हैं? क्या उनमें इस विश्वास की कमी हो गयी है कि गुनाहगार को सजा मिलना सरल नहीं है इसलिये वह समूह में यह काम कर डालें जिसकी अपेक्षा बाद में नहीं की जा सकती।
              दूसरी बात हमें देश के आर्थिक, सामाजिक तथा प्रतिष्ठत शिखर पुरुषों से भी कहना है कि उन्हें अब चिंता करना ही चाहिये। आमजन को केवल दोहन के लिये समझना उनकी भूल होगी।  उन्हें शिखर समाज में आर्थिक, सामाजिक तथा सद्भाव का वातावरण बनाये के लिये मिलते हैं।  अगर कहीं तनाव बढ़ा है तो उन्हें भी आत्ममंथन करना ही होगा।  समाज में विश्वास का संकट सभी वर्गों के लिये तनाव का कारण बनता है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Wednesday, June 24, 2015

चिकित्सा तथा शैक्षणिक केंद्रों में स्वच्छता अभियान की आवश्यकता-हिन्दी चिंत्तन लेख(chikitsa aur shiksha kendron mein swachchhata abhiyan ki awashyakta-hindi thought article)


                     सरकारी अस्पताल में जब चिकित्सक हड़ताल करते हैं तो सबसे अधिक कमजोर आयवर्ग के लोग प्रभावित होते हैं। उसी तरह जब सरकारी विद्यालयों में शिक्षक हड़ताल करते हैं तब इसी वर्ग के छात्र परेशान होते हैं।  यह आर्थिक वैश्वीकरण का परिणाम है कि जिन गरीबों के कल्याण के लिये धनवादी नीतियां लायी गयीं वही उनकी शत्रु हो गयी हैं।
              एक समय था जब सरकारी अस्पताल और विद्यालय जनमानस की दृष्टि में प्रतिष्ठित थे पर समय के साथ बढ़ती आर्थिक असमानता ने समाज में गरीब तथा अमीर के बीच विभाजन कर दिया है । यह विभाजन अमीरों का निजी तथा गरीबों का सरकारी क्षेत्र के प्रति मजबूरी वश झुकाव के रूप में स्पष्टतः दिखाई देता है। हमें याद है जब पहले बच्चों को शासकीय विद्यालयों में भर्ती इस विचार से कराया जाता था कि वहां पढ़ाई अच्छी होती है। उसी तरह इलाज भी सरकारी अस्पतालों में वहां के चिकित्सक तथा नर्सों के प्रति विश्वास के साथ कराया जाता था।  अब अल्प धनी सरकार और अधिक धनी निजी क्षेत्र पर निर्भर रहने लगा है।  सरकारी अस्पतालों में कभी जाना हो तो वहां इतनी गंदगी मिलती है कि लाचार गरीब का रहना तो सहज माना जा सकता है पर वेतनभोगी नर्स, कंपाउंडर और डाक्टर किस तरह वहां दिन निकालते होंगे यह प्रश्न मन में उठता ही है। कहा जाता है कि जिस वातावरण में आदमी रहता है उसका उस पर प्रभाव पड़ता ही है।  ऐसे गंदे वातावरण में चिकित्सा कर्मी अपना मन अच्छा रख पायें यह आशा करना व्यर्थ है। यही स्थिति सरकारी विद्यालयों में है। देश में स्वच्छता अभियान चल रहा है पर अभी हमें अस्पतालों और विद्यालयों में उसके आगमन की प्रतीक्षा है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
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Thursday, June 18, 2015

आष्टांग योग के हर भाग की जानकारी जरूरी-21 जून अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर विशेष लेख(ashtang yoga ke har bhaag ki jankari jaroori-A Hindu hindi thought article on 21 june world day)


      21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर मनाने की जिस तरह तैयारी चल रही है उससे तो यह लगता है कि इसमें केवल आसन तथा प्राणायाम को ही योग का पर्याय मान लिया गया है। पतंजलि योग विज्ञान के अनुसार यम, नियम, प्रत्याहार, आसन, प्राणायाम, ध्यान, धारण तथा समाधि आठ भाग है पर भारत के पेशेवर धार्मिक विद्वान हर भाग का अलग प्रचार करते हैं।  यहां तक कि समाधि की चर्चा इस तरह की जाती है जैसे कि वह येाग से इतर कोई कारनामा हो।  हमारी दृष्टि से भारतीय योग विद्या  आठों भागों पर व्यापक चर्चा किया जाना जरूरी है। देखा यह जा रहा है कि आष्टांग योग के मात्र दो भागों आसन और  प्राणायाम पर ही चर्चा कर लोगों को संकीर्ण जानकारी दी जा रही है। । हमारा मानना है कि 21 जून विश्व अंतर्राष्ट्रीय दिवस पर  पतंजलि योग सूत्रों के साथ ही श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान तथा विज्ञान के सूत्रों की भी चर्चा करना आवश्यक है।  हमने अनेक नाम सुने हैं-राजयोग, विद्या योग और ज्ञान योग आदि-पर इनमें सहज योग ही इसका मूल रूप है। श्रीमद्भागवत इसका सबसे प्रमाणिक ग्रंथ है।
  जब मनुष्य योग साधना से सहज भाव प्राप्त कर लेता है  तब वह सांसरिक विषयों में शक्ति, आत्मविश्वास तथा नैतिकता के साथ जुड़ता है। वह सहजता से उपलब्धियां प्राप्त करता है पर उसे अहंकार नहीं आता। कोई उसे अपने नैतिक और धर्म पथ से विचलित नहीं कर सकता। आसनों के समय आंतरिक रूप से देह की आंतरिक गतिविधियों पर ध्यान रखना चाहिये। प्राणायाम के समय भी अपने प्राणों को भृकुटि पर केंद्रित कर पूरी देह पर दृष्टिपात करने से अनेक प्रकार के लाभ होते हैं। यह सही है कि आसन तथा प्राणायाम से देह में विशेष प्रकार की स्फूर्ति का संचार होता है पर उसके स्थाई लाभ के लिये आठों भागों का ज्ञान होना आवश्यक है। 
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