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Saturday, May 28, 2011

कबीर के दोहे-माया तो आदमी की बुद्धि लूट लेती है (kabir ke dohe-maya to aadmi ki buddhi hat letee hai)

          फिल्मों और टीवी के धारावाहिकों की चकाचौंध में सारा समाज भ्रष्ट हो गया है। काल्पनिक कथाओं पर आधारित मेकअप से सजे चेहरों को देखकर लोग अपना मायावी संसार रच लेते हैं जो कम से कम इस धरती पर सभी को नहीं मिल सकता। लोग पैसा और सौंदर्य पाना चाहते हैं। पैसा देखकर अच्छे खासे की बुद्धि काम करना बंद कर देती है। इस देश में भ्रष्टाचार का विरोध तो हर आदमी करता है तब यह सवाल उठता है कि यह सब करता कौन है? दरअसल माया का चक्क्र ऐसा ही है कि वह आदमी की बुद्धि लूट लेती है और उसे पाप करने के लिये बाध्य कर देती है।
         उसी तरह लोग कृत्रिम सुंदरता के लिये दीवाने हो रहे है। पर्दे पर दिखने वाली सुंदर नारियों के चेहरे लोग अपनी कल्पना में बसा लेते हैं। सभी जानते हैं कि यह मेकअप की माया है फिर भी उनका दिमाग इसे स्वीकार नहंी करता। वास्तविक जीवन में ऐसा सौंदर्य केवल क्षणिक महत्व ही रखता है जबकि जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये आदमी को अधिक जूझना पड़ता है।
            इस विषय पर संत कबीर दास जी कहते हैं कि
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              कबीर माया डाकिनी, सब काहू को खाय।
                दांत उपारुं पापिनी, सनतो नियरै जाये
          ‘‘माया तो एकदम राक्षसी की तरह है जो सभी को खोजकर कर खा जाती है, मगर यही माया जब संतो के पास जाती है तो उसके दांत उखाड़ देते हैं।
            माया सेती मति मिली, जो सोबरिया देहि
           नारद से मुनिवर गले, क्याहि भरोसा तेहि।।
           ‘‘इस माया से सदैव सतर्क रहने की आवश्यकता है चाहे वह सोना हो या उस जैसी देह। ऐसी माया के चक्कर में पड़कर देवर्षि नारद मुनि भी विचलित हो गये थे इसलिये इस पर भरोसा नहीं करना चाहिए।
            देखा जाये तो फिल्मों और टीवी धारवाहिकों के महिला चरित्रों का समाज की वास्तविक स्थिति से कोई लेना देना है और न ही उनको सामान्य जीवन का प्रमाण माना जा सकता है। मनुष्य के लिये भोजन, वस्त्र और बिस्तर एक महान आवययकता है और जिसका वह प्रतिदिन उपयोग करता है। अपने जीवन को सहज रखने के लिये आम आदमी को संघर्ष करना पड़ता है और जब वह काल्पनिक संसार अपने मन में बसा लेता है तब उसका मानसिक तनाव बढ़ता जाता है। वह पैसे और सौंदर्य रूप माया के पीछे पागलों की तरह भागता है पर वह उससे हमेशा दूर रहती हैं। तत्वज्ञानी इस बात को जानते हैं इसलिये ही संतोष सबसे बड़ा सुख है जैसी बात कहते हैं।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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