समुद्र मंथन के समय जब इस संसार में अमृत प्रकट हुआ तभी विष भी उत्पन्न हुआ। देवताओं ने अमृत का सेवन किया तो विष को भगवान शंकर ने पी लिया जिससे उनका कंठ नीला हो गया और वह नीलकंठ है। विष या अमृत केवल पेय द्रव्य नहीं है बल्कि उसका अभौतिक रूप भी है। जिस तरह सर्प, मक्खी तथा बिच्छू में रस के रूप में विद्यमान रहता है वैसे ही मनुष्य के भाव में उसकी उपस्थिति देखी जाती है। विषैले स्वभाव वाले लोग दूसरों को कष्ट देकर खुश होते हैं। उनके मन में ही दूसरे के प्रति घृणा, द्वेष और ईर्ष्या के भाव हमेशा ही रहते हैं।
इस विषय पर नीति विशारद महाराज चाणक्य कहते हैं कि
तक्षकस्य विषं दन्ते मक्षिकायास्तु मस्तके।
वृश्चिकस्य विषं पुच्छे सर्वांग दुर्जने विषम्।।
'‘सर्प के दांत, मक्खी के मस्तक और बिच्छू की पूंछ में विष होता है किन्तु दुर्जन व्यक्ति के अंग अंग में विष होता है।
वृश्चिकस्य विषं पुच्छे सर्वांग दुर्जने विषम्।।
'‘सर्प के दांत, मक्खी के मस्तक और बिच्छू की पूंछ में विष होता है किन्तु दुर्जन व्यक्ति के अंग अंग में विष होता है।
दरअसल हम लोग हमेशा ही बुद्धि और विवेक से अपने मस्तिष्क को सक्रिय नहीं रखते इसलिये दुर्जन और सज्जन व्यक्ति की पहचान नहीं करते। उस पर भी जब यह आभास हो जाये कि अमुक व्यक्ति हमारे प्रति विषैला भाव रखता है तो उससे दूरी नहीं बनाते यह सोचकर हमें क्या करना? यह सोच गलत है। अगर हम अपने प्रति विषैला भाव रखने वाले व्यक्ति के साथ निरंतर संपर्क रखेंगे तो अंततः उसका दुष्प्रभाव स्वयं पर कभी न कभी पड़ेगा यह विचार कर उससे दूर हो जाना चाहिए। इतना ही नहीं अगर हमें लगे कि कोई व्यक्ति सभी लोगों के प्रति बुरा भाव रखते हुए हमारे साथ सद्व्यवहार करते हुए मधुर वचन बोल रहा है तो यह मान लेना चाहिए कि वह केवल दिखावा कर रहा है। जिस व्यक्ति के मन में विषैला भाव है वह सदैव सभी के प्रति समय आने पर दृष्टता का प्रदर्शन करता है इसलिये उसे सतर्क रहना चाहिए।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप',Gwalior
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Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
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