हैरानी की बात है कि गुजरात के संपन्न और बलशाली जाति के लोगों में भी अन्य
समूहों के प्रभाव का भय दिखाकर उसे आंदोलित किया गया है पर सामाजिक विशेषज्ञ इसका आंकलन परंपरागत संकीर्ण ढंग से कर रहे
हैं। यह जानने का प्रयास कोई नहीं कर रहा कि आखिर इस तरह के आंदोलन क्यों लोकप्रिय
हो जाते हैं?
भ्रष्टाचार कभी दूर नहीं हो सकता। महंगाई कभी मिट नहीं सकती। बीमारी कभी
देश से खत्म नहीं हो सकती। जिन लोगों को बिना मगजपच्ची के नाम कमाना हो उन्हें
किसी भी जातीय, धार्मिक तथा भाषाई समूहों को सरकारी सेवा में आरक्षण दिलाने के लिये आंदोलन
करना अच्छा लगता है। दरअसल इस आंदोलन के
नायक इस तरह इस मुद्दे को उठाते हैं जैसे कि उनके समूह में केवल यही एक समस्या रह
गयी है वरना तो वह महंगाई, भ्रष्टाचार से तंग नहीं है और न ही उनके यहां बीमारी हारी जैसी कोई हालत
है। सुविधा से वचिंत लोगों को सपने दिखाकर
अपने आसपास भीड़ लगाना ज्यादा सुविधाजनक है।
परंपरागत विचार शैली से हटकर अगर देखें तो राज्य प्रबंध के विरुद्ध कहीं न
कहीं असंतोष का भाव रहता है। कुछ
समस्यायें ऐसी हैं जिनका निराकरण तो संभव ही नहीं है-जैसे महंगाई, भ्रष्टाचार, गरीबी तथा मिलावट। लोकतंत्र में आंदोलन प्रसिद्ध दिलाने का सहज
उपाय होते हैं और कालांतर में चुनावी राजनीति में उसका नकदीकरण हो सकता है। अगर हल न हो सकने वाली सार्वजनिक समस्याओं पर
आंदोलन किये जायें तो लक्ष्य तथा साधन की व्यापकता की आवश्यकता के कारण सहजता से
भीड़ एकत्रित नहीं हो पाती। किसी जातीय समुदाय के आरक्षण के लिये आंदोलन से उसके
नेतृत्व को दो लाभ होते हैं। एक तो जातीय समुदाय की विशिष्टता के बोध के कारण
सीमित संख्या होने से लोगों के अंदर एक विशेष भाव पैदा होता है। दूसरे सामने
विरोधी के रूप में में दूसरे समुदाय होते हैं। तब कुछ भय तो कुछ अहंकार से ग्रस्त
लोग भेड़ों की तरह भीड़ में चल ही पड़ते हैं।
आज की संकीर्ण हो चुकी जीवन शैली से ऊबे लोगों में यह आत्मविश्वास आता है
कि उनके साथ बहुत लोेग हैं। दूसरी गंभीर
समस्याओं होते हुए भी लोग ऐसी समस्या के हल के लिये निकल पड़ते हैं जिसे हल होना ही
नहीं है। काल्पनिक शत्रू बताकर किसी समुदाय विशेष समुदाय की भीड़ एकत्रित करने की
यह परंपरागत शैली अब भी कारगर है। ऐसे में देश के रणीनीतिकारों को यह समझना चाहिये
कि राज्य प्रबंध जनहित के सामान्य कार्य तीव्रगति से जारी रखे। इतना ही नहीं वह
जनसमस्याओं के हल के लिये उतना प्रतिबद्ध भी दिखे।
यह कार्य विज्ञापन देकर नहीं बल्कि अपने कार्य से ही हो सकता है। लोग
जब आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक प्रबंध से निराश से होते
हैं तब कोई भी आरक्षण के लिये आंदोलन चलाकर प्रसिद्ध हो सकता है। जातीय समूह में
मौजूद भय के वातावरण में आरक्षण का सपना दिखाने वाले नायक बन जाते हैं। महंगाई, भ्रष्टाचार तथा
सार्वजनिक महत्व के विषय पर समय खराब न करने के इच्छुक के लिये अधिक सरल है किसी
जातिगत आरक्षण आंदोलन चलाना है। सच यह है कि लोग जातीय व धार्मिक समूहों से जुड़ना
पसंद नहीं करते पर उन्हें आरक्षण का सपना दिखाकर मनोरंजन के लिये बाघ्य किया जाता
है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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