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Saturday, June 11, 2011

संत कबीर के दोहे-आदमी कभी धन पाने के प्रयास से थकता नहीं

           प्रकृति में उत्पन्न समस्त जीवों में मनुष्य सबसे अधिक बुद्धिमान माना गया है और विचित्र बात यह है कि जहां अन्य जीव सीमित आवश्यकताओं के कारण अपना जीवन सामान्य रूप से गुजार लेते हैं जबकि मनुष्य असीम लालच और लोभ को अपने मन में स्थान देता है और सदैव संकट बुलाता है। संत कबीर दास जी ने अपने संदेशों में इसी तरफ इंगित किया है।
       कबीरा औंधी खोपड़ी, कबहूं धापै नाहिं
       तीन लोक की सम्पदा, कब आवै घर माहिं
          संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य की खोपड़ी उल्टी होती है क्योंकि वह कभी भी धन प्राप्ति से थकता नहीं है। वह अपना पूरा जीवन इस आशा में नष्ट कर देता है कि तीनों लोकों की संपदा उसके घर कब आयेगी।
            इस दुनिया में मनुष्य ही एक ऐसा जीवन जिसके पास बुद्धि में विवेक है इसलिये वह कुछ नया निर्माण कर सकता है। अपनी बुद्धि की वह से ही वह अच्छे और बुरे का निर्णय कर सकता है। सच तो यह कि परमात्मा ने उसे इस संसार पर राज्य करने के लिए ही बुद्धि दी है पर लालच और लोभ के वश में आदमी अपनी बुद्धि गुलाम रख देता है। वह कभी भी धन प्राप्ति के कार्य से थकता नहीं है। अगर हजार रुपये होता है तो दस हजार, दस हजार से लाख और लाख से दस लाख की चाहत करते हुए उसकी लालच का क्रम बढ़ जाता है। कई बार तो ऐसे लोग भी देखने में आ जाते है जिनके पेट में दर्द अपने खाने से नहीं दूसरे को खाते देखने से उठ खड़ा होता है।
         अनेक धनी लोग जिनको चिकित्सकों ने मधुमेह की वजह से खाने पर नियंत्रण रखने को कहा होता है वह गरीबों को खाता देख दुःखी होकर कहते भी हैं‘देखो गरीब होकर खा कैसे रहा है’। इतना ही नहीं कई जगह ऐसे अमीर हैं पर निर्धन लोगों की झग्गियों को उजाड़ कर वहां अपने महल खड़े करना चाहते हैं। आदमी एक तरह से विकास का गुलाम बन गया है। भक्ति भाव से पर आदमी बस माया के चक्कर लगाता है और वह परे होती चली जाती है। सौ रुपया पाया तो हजार का मोह आया, हजार से दस हजार, दस हजार से लाख और लाख से दस लाख के बढ़ते क्रम में आदमी चलता जाता है और कहता जाता है कि अभी मेरे पास कुछ नहीं है दूसरे के पास अधिक है। मतलब वह माया की सीढियां चढ़ता जाता है और वह दूर होती जाती है। इस तरह आदमी अपना पूरा जीवन नष्ट कर देता है।
       आजकल तो जिसे देखो उस पर विकास का भूत चढ़ा हुआ है। कहते हैं कि इस देश में शिक्षा की कमी है पर जिन्होने शिक्षा प्राप्त की है तो इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि उन्होंने ज्ञान भी प्राप्त कर लिया है। इसलिये शिक्षित आदमी तो और भी माया के चक्कर में पड़ जाता है और उसे तो बस विकास की पड़ी होती है पर उसका स्वरूप उसे भी पता नहीं होता। लोगों ने केवल भौतिक उपलब्धियों को ही सबकुछ मान लिया है और अध्यात्म से दूर हो गये हैं उसी का परिणाम है कि सामाजिक वैमनस्य तथा मानसिक तनाव बढ़ रहा है। अत: जितना हो सके उतना ही अपनी पर नियंत्रण रख्नना चाहिये।  मनुष्य को अपनी बुद्धि तथा मन को लेकर हमेशा आत्ममंथन करना चाहिए ताकि वह स्वयं भी अपने कर्म पर नियंत्रण रख सके 
लेखक एवं संपादक -nhid jkt dqdjstk ^Hkkjrnhi*Xokfy;j
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep',Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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Tuesday, October 20, 2009

संत कबीर वाणी-हिंसा करने वाले पुण्यात्मा नहीं होते (sant kabir vani in hindi)


जीव हनेँ हिंसा करेँ, प्रगट पाप सिर होय

पाप सबन जो देखिया, पुन्न न देखा कोय
संत शिरोमणि कबीरदास जे कहते हैं कि जो जीव को मारता है उसके पाप का भार प्रत्यक्ष रुप से उसके सिर पर दिखाई देता है पर उनके जो पुण्य कर्म हैं वह किसी को दिखाई नहीं देते क्योंकि हिंसा करने वाले पापी होते हैं और उन्हें किसी भी तरह पुण्यात्मा नहीं माना जा सकता।

वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीव हिंसा करना अनुचित है। जिस जीव की ह्त्या होती हैं उसकी आत्मा रोटी है और उससे निकलने वाली बददुआ से कोई नहीं बच सकता। सच बात तो यह है कि आदमी कितना भी धर्म में लिप्त क्यों न हो अगर दूसरे की ह्त्या करता है तो उसका सारा पुण्य व्यर्थ चला जाता है। यह हिंसा न केवल शारीरिक होती है बल्कि मानसिक रूप से भी किसी को त्रस्त करना भी एक बहुत बडी हिंसा है। अपने वाक्यों से दूसरे को कष्ट पहुंचाना भी पाप है।

आम तौर से मांस का सेवन करने वाले यह समझते हैं कि वह प्रत्यक्ष रूप से किसी की ह्त्या में दोषी नहीं है इसलिए उन पर कोई पाप नहीं लगता-यह उनका भ्रम है क्योंकि जिस जीवात्मा ने अपना शरीर खोया है उसका रंज उसके मांस के साथ ही चलता है और जो उसका सेवन करते हैं उनको भी उसका भागी होना पड़ता है।
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लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com
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Saturday, December 1, 2007

संत कबीर वाणी:राम को जानिए, दूसरा सब भुलाईये

आवत गारी एक है, उलटत होय अनेक
कहैं कबीर नहिं उलटिए, वही एक की एक
संत कबीर जी का कहना है की गाली आते हुए एक होती है, परन्तु उसके प्रयुत्तर में जब दूसरा भी गाली देता है, तो वह एक की अनेक रूप होती जातीं हैं। अगर कोई गाली देता है तो उसे सह जाओ क्योंकि अगर पलट कर गाली दोगे तो झगडा बढ़ता जायेगा-और गाली पर गाली से उसकी संख्या बढ़ती जायेगी।
जैसा भोजन खाईये, तैसा ही मन होय
जैसा पानी पीजिए, तैसी बानी होय
संत कबीर कहते हैं जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है उसका जीवन वैसा ही बन जाता है।
एक राम को जानि करि, दूजा देह बहाय
तीरथ व्रत जप तप नहिं, सतगुरु चरण समय
संत कबीर कहते हैं की जो सबके भीतर रमा हुआ एक राम है, उसे जानकर दूसरों को भुला दो, अन्य सब भ्रम है। तीर्थ-व्रत-जप-तप आदि सब झंझटों से मुक्त हो जाओ और सद्गुरु-स्वामी के श्रीचरणों में ध्यान लगाए रखो। उनकी सेवा और भक्ति करो

Friday, November 30, 2007

संत कबीर वाणी:सेवा के बदले फल चाहने वाले सेवक नहीं

फल कारण सेवा करे, करे न मन से काम
कहैं कबीर सेवक नहीं, कहैं चौगुना दाम

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो मनुष्य अपने मन में इच्छा को रखकर निज स्वार्थ से सेवा करता है वह सेवक नही क्योंकि सेवा के बदले वह कीमत चाहता है।

अभिप्राय-हमने देखा होगा कई लोग समाज की सेवा का दावा करते हैं पर उनका मुख्य उद्देश्य केवल आत्मप्रचार करना होता है। कई लोग ऐसे भी हैं उन्होने अपने नाम से सेवा संस्थान बना लिए है और दानी लोगों से चन्दा लेकर तथाकथित रूप से समाज सेवा करते हैं और मीडिया में अपनी 'समाजसेवी" की छबि का प्रचार करते हैं ऐसे लोगों को समाज सेवक तो माना ही नहीं जा सकता। इसके अलावा कई धनी लोगों ने अपने नाम से दान संस्थाए बना राखी हैं और वह उसमें पैसा भी देते हैं पर उनका मुखु उद्देश्य करों से बचना होता है या अपना प्रचार करना-उन्हें भी इसी श्रेणी में रखा जाता है क्योंकि वह अपनी समाज सेवा का विज्ञापन की रूप में इस्तेमाल करते हैं।

Sunday, August 12, 2007

संत कबीर वाणी: जब जल और धन बढने लगे

जो जल बाढै नाव में, घर में बाढै दाम
दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानों काम
संत शिरोमणि कबीरदास जी का आशय यह है किसी कारणवश नाव में जल भरने लगे और घर में धन की मात्रा बढती चली जाये तो बिना देरी किये दोनों हाथों से उसे निकालो, यही बुद्धिमानी का काम है, अन्यथा डूब जाओगे।

Saturday, August 11, 2007

संत कबीर वाणी: शब्द को रटना व्यर्थ


सीखै सुनै विचार ले, ताहि शब्द सुख देय
बिना समझै शब्द गहै, कछु न लोहा लेय
संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति सत्य और न्याय के शब्दों को अच्छी तरह से ग्रहण करता है उसके लिए ही फलदायी होता है। परंतु जो बिना समझे, बिना सोचे-विचारे शब्द को ग्रहण करता है तथा रटता फिरता है उसे कोई लाभ नहीं मिलता ।

Thursday, August 9, 2007

संत कबीर वाणी: स्वार्थी की नम्रता दिखावे की


नमन नवां तो क्या हुआ, सुधा चित्त न ताहिं
पारधिया दूना नवेँ, चीता चोर समान
जिसके हृदय में सरलता और सहजता का भाव उसकी नम्रता और झुकना भी किस काम का? यूँ तो शिकारी भी शिकार करते समय झुक जाता है परन्तु अपने बाणों से मृग को मार देता है। उसी प्रकार स्वार्थ सिद्धि के स्वार्थी व्यक्ति झुक-झुक कर अपना काम निकलता है।

Wednesday, August 8, 2007

संत कबीर वाणी: संतों के निंदकों की मुक्ति नहीं


जो कोय निन्दै साधू को, संकट आवै सोय
नरक जाय जन्मै मरै, मुक्ति कबहु नहिं होय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो भी साधू और संतजनों की निंदा करता है, उसके अनुसार अवश्य ही संकट आता है। वह निम्न कोटि का व्यक्ति नरक-योनि के अनेक दु:खों को भोगता हुआ जन्मता और मरता रहता है। उसके मुक्ति कभी भी नहीं हो सकती और वह हमेशा आवागमन के चक्कर में फंसा रहेगा।

Tuesday, August 7, 2007

संत कबीर वाणी

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पाँव पुजावेँ बैठि के, भखै मांस मद दोय
तिनकी दीच्छा मुक्ति नहिं, कोटि नरक फल होय
जो साधू-संत खाली बैठकर अपने पाँव पुजवाते हैं और मांस-मदिरा दोनों का सेवन करते हैं उनकी दीक्षा से कभी किसी की मुक्ति नहीं हो सकती, उल्टे करोड़ों नरकों का भीषण कष्टप्रद फल भोगना पड़ता है।

संत कबीर वाणी

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पाँव पुजावेँ बैठि के, भखै मांस मद दोय
तिनकी दीच्छा मुक्ति नहिं, कोटि नरक फल होय


जो साधू-संत खाली बैठकर अपने पाँव पुजवाते हैं और मांस-मदिरा दोनों का सेवन करते हैं उनकी दीक्षा से कभी किसी की मुक्ति नहीं हो सकती, उल्टे करोड़ों नरकों का भीषण कष्टप्रद फल भोगना पड़ता है।

संत कबीर वाणी

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पाँव पुजावेँ बैठि के, भखै मांस मद दोय
तिनकी दीच्छा मुक्ति नहिं, कोटि नरक फल होय
जो साधू-संत खाली बैठकर अपने पाँव पुजवाते हैं और मांस-मदिरा दोनों का सेवन करते हैं उनकी दीक्षा से कभी किसी की मुक्ति नहीं हो सकती, उल्टे करोड़ों नरकों का भीषण कष्टप्रद फल भोगना पड़ता है।

Monday, August 6, 2007

संत कबीर वाणी

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पाँव पुजावेँ बैठि के, भखै मांस मद दोय
तिनकी दीच्छा मुक्ति नहिं, कोटि नरक फल होय

जो साधू-संत खाली बैठकर अपने पाँव पुजवाते हैं और मांस-मदिरा दोनों का सेवन करते हैं उनकी दीक्षा से कभी किसी की मुक्ति नहीं हो सकती, उल्टे करोड़ों नरकों का भीषण कष्टप्रद फल भोगना पड़ता है।

Sunday, August 5, 2007

संत कबीर वाणी: जो हंसा मोती चुगेँ

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जो हंसा मोती चुगेँ , कंकर क्यों पतिताय
कंकर माथा ना नवै, मोटी मिले तो खाय
जो ज्ञानी और विवेकवान-हंस रूपी-लोग संसार की आसक्ति को त्यागकर आत्मज्ञान रूपी मोती को चुगता है, तो वह सांसरिक विषय और कामनाओं के कंकर पत्थर पर क्यों यकीन करेगा? अर्थात वह मिथ्या वाद-विवादों एवं कल्पित मान्यताओं के चक्कर में नहीं पडेगा। वह कंकर रूपी अज्ञानता के आगे कदापि अपना माथा नहीं झुकायेगा, केवल यथार्थ ज्ञान को ही ग्रहण करेगा।

Saturday, August 4, 2007

संत कबीर वाणी: बगुला हंस नहीं हो सकता

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चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावैं हंस
ते मुक्ता कैसे चुंगे, पडे काल के फंस
संत शिरोमणि कबीरदास जीं कहते हैं कि जो लोग चाल तो बगुले की चलते हैं और अपने आपको हंस कहलाते हैं, भला ज्ञान के मोती कैसे चुन सकते हैं? वह तो काल के फंदे में ही फंसे रह जायेंगे। जो छल-कपट में लगे रहते हैं और जिनका खान-पान और रहन-सहन सात्विक नहीं है वह भला साधू रूपी हंस कैसे हो सकते हैं।

Thursday, August 2, 2007

संत कबीर वाणी:

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जो जैसा उनमान का, तैसा तासों बोल
पोता को गाहक नहीं, हीरा गाँठिं न खोल
संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि जैस व्यक्ति हो वैसा ही उससे व्यवहार करना चाहिए। जो कांच खरीदने वाला नहीं उसके सामने हीरे की गठरी खोलने का कोई लाभ नहीं क्योंकि वह इसके योग्य नहीं होता।

Wednesday, August 1, 2007

संत कबीर वाणी: देखा-देखी भक्ति का रंग नहीं चढ़ता

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देखा देखी भक्ति का, कबहूँ न चढ़सी रंग
विपत्ति पडे यों छाड्सी, केचुली तजत भुजंग
देखा-देखी की हुई भक्ति का रंग कभी भी आदमी पर नहीं चढ़ता और कभी उसके मन में स्थायी भाव नहीं बन पाता। जैसे ही कोई संकट या बाधा उत्पन्न होती है आदमी अपनी उस दिखावटी भक्ति को छोड़ देता है। वैसे ही जैसे समय आने पर सांप अपने शरीर से केंचुली का त्याग कर देता है।

Tuesday, July 31, 2007

संत कबीर वाणी: बिना विचारे बोलना नासमझी

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मुख आवै सोई कहै, बोलै नहीं विचार
हते पराई आतमा, जीभ बाँधि तलवार
कुछ नासमझ लोग ऐसे हैं, जो विचारकर नहीं बोलते। बस अपनी मनमर्जी से उलटा -सीधा जो भी मुहँ में आया बोलने लग जाते है। ऐसे लोग अपनी जीभ में कड़वे और कठोर वचन रूपी तलवार बांधकर दूसरों की आत्मा को कष्ट देते रहते हैं। ऐसे लोगों को अमानवीय प्रवृति का ही कहा जा सकता है।

Thursday, July 26, 2007

संत कबीर वाणी: जहाँ गुण की कद्र न हो

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जहाँ न जाको गुन लहै , तहां न ताको ठांव
धोबी बसके क्या करे, दीगम्बर के गाँव
इसका आशय यह है कि जहाँ पर जिसकी योग्यता या गुण का प्रयोग नहीं होता, वहाँ उसका रहना बेकार है। धोबी वहां रहकर क्या करेगा जहां ऐसे लोग रहते हैं जिनके पास पहनने को कपडे नहीं हैं या वह पहनते नहीं है। अत: अपनी संगति और स्वभाव के अनुकूल वातावरण में रहना चाहिए। भावार्थ यह है कि जहां गुण की कद्र न हो वहां नहीं जना चाहिऐ

Wednesday, July 25, 2007

संत कबीर वाणी: भूख करने नहीं देती भजन

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कबीर क्षुधा कूकरी, करत भजन में भंग
वाकूं टुकडा डारि के, सुमिरन करूं सुरंग
संत शिरोमणि कबीरदास जीं कहते हैं कि भूख कुतिया के समान है। इसके होते हुए भजन साधना में विध्न-बाधा होती है। अत: इसे शांत करने के लिक समय पर रोटी का टुकडा दे दो फिर संतोष और शांति के साथ ईश्वर की भक्ति और स्मरण कर सकते हो ।

Tuesday, July 24, 2007

संत कबीर वाणी: तहां न जाइये

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कबीर तहां न जाइए, जहाँ कपट का हेत
जानो काले अनार के, तन राता मन सेत

इसका आशय यह है कि वहां कदापि न जाइए जहाँ कपट का प्रेम हो। उस प्रेम को ऐसे ही समझो जैसे अनार की कली, जो ऊपरी भाग से लाल परंतु भीतर से सफ़ेद होती है। वैसे हे कपटी लोग मुहँ पर प्रेम दिखाते हैं पारु उनके भीतर कपट की सफेदी पुती रहती है ।

कबीर तहां न जाइए, जहाँ कपट को हेत
नौ मन बीज जू बोय के, खालि रहिगा खेत

इसका आशय यह है कि वहाँ कतई न जाएँ जहां कपट भरे प्रेम मिलने की संभावना हो। जैसे ऊसर वाले खेत में नौ मन बीज बोने पर भी खेत खाली रह जाता है, वैसे ही कपटी से कितना भी प्रेम कीजिये परन्तु उसका हृदय प्रेम-शून्य ही रहता है।

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