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Sunday, May 16, 2010

रहीम सन्देश-सच्चे परमार्थी कभी भेदभाव नहीं करते (sachche parmarthi-rahim ke dohe)

कविवर रहीम कहते हैं कि
_____________________
रहिमन पर उपकार के, करत न यारी बीच
मांस दियो शिवि भूप ने, दीन्हो हाड़ दधीच
 
जिस मनुष्य को  परोपकार का काम  करना है वह जरा भी नहीं हिचकता। दूसरों के  परोपकार करते हुए उच्च कोटि कि मनुष्य कभी भी  यारी दोस्ती का विचार नहीं करते। राजा शिवि ने ने प्रसन्न मुद्रा में अपने शरीर का मांस काट कर दिया तो महर्षि दधीचि ने अपने शरीर की हड्डियां दान में दीं। 
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-आजकल दुनियां में  जन कल्याण व्यापार और राजनीति का विषय हो गया  है।  निजी रूप से दान और परमार्थ करने कि प्रवृत्ति को हतोत्साहित किया जाता है।  जन कल्याण कि लिए संस्थाएं बन ली गयी हैं जिसका नेतृत्व पैसे, प्रसिद्धि और पद की दृष्टि से बड़े लोग करते हैं।  इनकी आड़ में   विश्व का हर बड़ा आदमी परोपकार करने का दावा करता है पर फिर भी किसी का कार्य सिद्ध नहीं होता। अभिनेता, कलाकार, संत, साहुकार तथा अन्य प्रसिद्ध लोग अनेक तरह के परोपकार के दावों के विज्ञापन करते हैं पर उनका अर्थ केवल आत्मप्रचार करना होता है। आजकल गरीबों, अपंगों,बच्चों,बीमारों और वृद्धों की सेवा करने का नारा सभी जगह सुनाई देता है और इसके लिये चंदा एकत्रित करने वाली ढेर सारी संस्थायें बन गयी हैं पर उनके पदाधिकारी अपने कर्मों के कारण संदेह के घेरे में रहते हैं। टीवी चैनल वाले अनेक कार्यक्रम कथित कल्याण के लिये करते हैं और अखबार भी तमाम तरह के विज्ञापन छापते हैं पर जमीन की सच्चाई यह है कि जो परोपकार भी एक तरह से ऐसा  व्यापार हो गया है जिसमें कमाई अधिक और खर्चा अधिक है और इसके माध्यम से प्रचार और आय अर्जित करने की योजनाओं को पूरा किया  जाता है। स्थिति यह है कि फिल्म, खेल और अन्य मनोरंजक कार्यक्रमों के  कार्यकर्मों के लिए करों में छूट मांगी जाती है।
इसके विपरीत जिन लोगों को परोपकार करना है वह किसी की परवाह नहीं करते। न तो वह प्रचार करते हैं और न ही इसमें अपने पराये का भेद करते हैं। उनके लिये परोपकार करना एक नशे की तरह होता है। सच तो यह है कि यह मानव जाति अगर आज भी चैन की सांस ले रही है तो वह ऐसे लोगों की वजह से ले रही हैं।   ऐसे लोग न केवल बेसहारा की मदद करते हैं बल्कि पर्यावरण और शिक्षा के लिये भी निरंतर प्रयत्नशील होते हैं। वरना तो जिनके पास पद, पैसे और प्रतिष्ठा की शक्ति है वह इस धरती पर मौजूद समस्त साधनों का दोहन करते हैं पर परोपकारी लोग निष्काम भाव से उन्हीं संसाधनों में श्रीवृद्धि करते है। जिनका परोपकार करने का संकल्प लेना है उन्हें यह तय कर लेना चाहिए कि वह प्रचार और पाखंड से दूर रहेंगे। 
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Tuesday, January 12, 2010

भर्तृहरि शतक-अपना लक्ष्य बीच में नहीं छोड़ें (hindu dharm sandesh-apna lakshya

 रत्नैर्महाहैंस्तुतुषुर्न देवा न भेजिरेभीमविषेण भीतिम्।

सुधा विना न प्रययुर्विरामं न निश्चिततार्थाद्विरमन्ति धीराः।।

हिन्दी में भावार्थ-
समुद्र मंथन करने से देवता लोग अनमोल रत्न पाकर भी प्रसन्न नहीं हुए। भयंकर विष भी निकला पर उनको उससे भय नहीं हुअ और न ही वह विचलित हुए। जब तक अमृत नहीं मिला तब तक वह समुद्र मंथन के कार्य पर डटे रहे। धीर, गंभीर और विद्वान पुरुष जब तक अपना लक्ष्य नहीं प्राप्त हो तब अपना कार्य बीच में नहीं छोड़ते

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-वैसे तो जीवन में अपना लक्ष्य तक करना बहुत कठिन है क्योंकि लोग अपने विवेक से कुछ नया करने की बजाय दूसरे की उपलब्धियों को देखकर ही अपना काम प्रारंभ करते हैं। अगर तय कर लिया तो फिर उस पर निरंतर चलना कठिन है।  होता यह है कि दूसरे की उपलब्धि देखकर वैसे बनने की तो कोई भी ठान लेता है पर उसने अपने लक्ष्य पाने में क्या पापड़ बेले यह किसी को नहीं दिखाई देता।  उसने लक्ष्य प्राप्ति के लिये कितना परिश्रम करते हुए अपमान और तिरस्कार सहा होगा यह वही जानते है।  जिन्होंने  बड़ी उपलब्धि प्राप्त की है उसके पीछे उनका धीरज और एकाग्रता बहुत बड़ा योगदान होता है।

इसके अलावा एक बात यह भी है कि बहुत कम लोगों में धीरज होता है। आज कल संक्षिप्त मार्ग से उपलब्धि प्राप्त करने की परंपरा चल पड़ी है। अगर किसी युवक को धीरज या शांति से काम करने का उपदेश दें तो वह यही कहते हैं कि‘आजकल तो फटाफट का जमाना है।’

वह लगे रहते हैं फटाफट उपलब्धि प्राप्त करने में  पर वह कभी लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाते।  अनेक युवक इसी तरह अपराध मार्ग पर चले जाते हैं।  उसके परिणाम बुरे होते हैं।

जिनको अपना जीवन सात्विक ढंग से शांतिपूर्वक बिताना है उनको समुद्र मंथन के अध्यात्मिक धार्मिक उदाहरण से प्रेरणा लेना चाहिये।


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Friday, January 1, 2010

भर्तृहरि शतक-धनहीन होने पर भी विद्वान रत्न के समान (garib vidvan bhee ratna saman-hindu dharma sandesh)

शास्त्रोपस्कृतशब्द सुंदरगिरः शिष्यप्रदेयाऽऽगमा विख्याताः कवयो वसन्ति विषये यस्य प्रभर्निर्धनाः।
तज्जाड्यं वसुधाधिपस्य कवयस्त्वर्थ विनाऽपीश्वराः कुत्स्या स्युः कुपरीक्षका हि मणयो यैरर्घतः पातिताः।।
हिन्दी में भावार्थ-
ग्रंथों का अध्ययन से उसमें वर्णित शब्दों के ज्ञान को धारण कर सुंदर वाणी बोलने के साथ ही शिष्यों को उनका उपदेश करने वाले विद्वान तथा काव्य की मधुर धारा प्रवाहित करने वाले कवि जिस राज्य में निर्धन होते हैं, उसका राजा या राज्य प्रमुख अयोग्य कहा जाता है। विद्वान धनहीन होने पर भी रत्न के समान है और उसका सम्मान सभी जगह होता है और जो ऐसे रत्नों का अपमान करता है वह निंदा योग्य है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम इस संदेश को आज की नई सभ्यता में देखें तो यह दायित्व पूरे समाज का है कि वह लोगों को तत्व ज्ञान तथा सत्य का उपदेश देने वाले विद्वानो के साथ ही कवियों और लेखकों को भी संरक्षण दे। राज्य प्रमुख का तो यह उच्चतर दायित्व है पर आजकल जिस तरह पूंजीवाद ने व्यापक आधार बनाया है तो उसके शिखर पुरुषों को भी इस तरह ध्यान देना चाहिए। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक शिखरों पर बैठे माननीय लोगों की उपेक्षा का ही यह परिणाम है कि आजकल समाज में कोई अपने बच्चे को अध्यात्मिक ज्ञान न तो देना चाहता है न ही किसी से प्राप्त करने के लिये प्रेरित करता है। यही हाल साहित्य का है। इस देश में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो अपने लड़के या लड़की का किसी भी भाषा का लेखक होना पसंद करे-सिवाय अंग्रेजी के। इसका कारण यही है कि हमारे उच्च शिखर पुरुषों ने यह मान लिया है कि समाज को वैचारिक, साहित्यक तथा अध्यात्मिक मार्ग पर आगे ले जाने वाले विद्वानों, कवियों और लेखकों को संरक्षण देने की आवश्यकता नहीं है। उनकी उपेक्षा का ही यह परिणाम है कि समाज में हर कोई अपने बच्चे को चिकित्सक, अभियंता, उच्च श्रेणी का अध्यापक तथा प्रशासनिक अधिकारी बनाना चाहता है जो अधिक से अधिक धन का स्वयं दोहन कर सके क्योंकि विद्वानों या लेखकों को आश्रय देने वाला कोई नहीं है।
इसी कारण हमारे समाज में एक ‘खिचड़ी संस्कृति’ बन गयी है। आपने देखा होगा कि आजकल अनेक लोग यह शिकायत करते हैं कि ‘बुढ़ापे में बच्चे उनकी देखभाल नहीं करते।’ उनसे पूछिये कि ‘क्या आप इसके लिये जिम्मेदार नहीं हैं क्योंकि आपने ही ऐसे संस्कार नहीं दिये।’
हमारे शिखर पुरुष कानून के द्वारा समाज को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे हैं। यह एक बेकार का प्रयास है। एक तरफ आप पूरी तरह पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण न केवल स्वयं कर रहे बल्कि अपने बच्चों को भी उस पर चलते देखना चाहते हैं। फिर उनसे देशी व्यवहार की आशा करना कहां तक उचित है?
देश की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक प्रक्रिया में विद्वानों की निष्क्रियता समाज के लिये घातक होती है, इसलिये जितना हो सके सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक शिखर बैठे लोग उनको संरक्षण दें या फिर समाज के बिगड़ने का रोना बंद कर दें।
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Thursday, December 24, 2009

भर्तृहरि शतक-जब आदमी धन की गरमी से रहित हो जाता है (money and socity-hindu dharm sandesh)

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
__________________________
यसयास्ति वित्तं स नरः कुलीन स पण्डित स श्रुतवान्गुणज्ञः।

स एव वक्ता स च दर्शनीयः।

सर्वे गुणा कांचनमाश्रयन्ति।।

     हिन्दी में भावार्थ-जिस मनुष्य के पास माया का भंडार उसे ही कुलीन, ज्ञानी, गुणवान माना जाता है। वही आकर्षक है। स्पष्टतः सभी के गुणों का आंकलन उसके धन के आधार पर किया जाता है।
तानीन्द्रियाण्यविकलानि तदेव नाम सा बुद्धिप्रतिहता वचनं तदेव।

अर्थोष्मणा विरहितः पुरुष क्षणेन सोऽप्यन्य एव भवतीति विचित्रमेतत्।।


     हिन्दी में भावार्थ-एक जैसी इंद्रियां, एक जैसा नाम और काम, एक ही जैसी बुद्धि और वाणी पर फिर भी जब आदमी धन की गरमी से क्षण भर में रहित हो जाता है तब उसकी स्थिति बदल जाते है। इस धन की बहुत विचित्र महिमा है।
     वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह समाज भर्तृहरि महाराज के समय में भी था और आज भी है। हम बेकार में परेशान होकर कहते हैं कि आजकल का जमाना खराब हो गया है।सच बात तो यह है कि सामान्य मनुष्य की प्रवृत्तियां ही ऐसी है कि वह केवल भौतिक उपलब्धियां देखकर ही दूसरे के गुणों का आंकलन  करता है। इधर गुणवान मनुष्य अपने अंदर गुणों का संचय करते हुए इतना ज्ञानी हो जाता है कि वह इस बात को समझ लेता है कि धन से नहीं वरन गुणों से  ही उसके जीवन की रक्षा होगी। इसलिये वह समाज में प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिये कोई अधिक प्रयास नहीं करता। उधर अल्पज्ञानी और ढोंगी लोग थोड़ा पढ़लिखकर सामान्य व्यक्तियों के सामने अपनी चालाकियों के सहारे उन्हीं से धन वसूल कर प्रतिष्ठित भी हो जाते हैं। यह अलग बात है कि इतिहास हमेशा ही उन्हीं महान लोगों को अपने पन्नों में दर्ज करता है जिन्होंने अपने गुणों से वास्तव में समाज को प्रभावित किया जाता है।
      इसका एक दूसरा पहलू भी है। अगर हमारे पास अधिक धन नहीं है तो इस बात की परवाह नहीं करना चाहिए। समाज के सामान्य लोगों की संकीर्ण मानसिकता का विचार करके अपने सम्मान और असम्मान की उपेक्षा कर देना चाहिए।  जिसके पास धन है उसे सभी मानेंगे। आप अच्छे लेखक, कवि, चित्रकार या कलाकार हैं पर उसकी अगर भौतिक उपलब्धि नहीं होती तो फिर सम्मान की आशा न करें। इतना ही नहीं अगर आप परोपकार के काम में लगे हैं तब भी यह आशा न करें  कि बिना दिखावे अथवा विज्ञापन के आपको कोई सम्मान करेगा। सम्मान या असम्मान से उपेक्षा करने के बाद आपके अंदर एक आत्मविश्वास पैदा होगा जिससे जीवन में अधिक आनंद प्राप्त कर सकेंगे। संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Wednesday, December 23, 2009

संत कबीर वाणी-तत्वज्ञान के बिना जीवन अंधियारा (sant kabir vani-tatvagyan)

कबीर गुरु की भक्ति बिन, राज ससभ होय।
माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय।।
महात्मा कबीरदास जी कहते हैं कि गुरु की भक्ति के बिना राजा भी गधा होता है जिस पर कुम्हार दिन भर मिट्टी लादेगा और कोई घास भी नहीं डालेगा।
चौसठ दीवा जाये के, चौदह चन्दा माहिं।
तेहि घर किसका चांदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं।
महात्मा कबीरदास जी कहते हैं कि चौसठ कलाओं और चौदह विद्याओं की जानकारी होने पर पर अगर सत्गुरु का ज्ञान नहीं है तो समझ लीजिये अंधियारे में ही रह रहे हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समाज में बढ़ती भौतिकतावादी प्रवृत्ति ने अध्यात्मिक ज्ञान से लोगों को दूर कर दिया है। हालांकि टीवी चैनलों, रेडियो और समाचार पत्र पत्रिकाओं में अध्यात्मिक ज्ञान विषयक जानकारी प्रकाशित होती है पर व्यवसायिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये लिखी गयी उस जानकारी में तत्व ज्ञान का अभाव होता है। कई जगह तो अध्यात्मिक ज्ञान की आड़ में धार्मिक कर्मकांडों का प्रचार किया जा रहा है। इसके अलावा टीवी चैनलों में अनेक बाबाओं के अध्यात्मिक प्रवचनों के कार्यक्रम भी प्रस्तुत होते हैं पर उनका उद्देश्य केवल मनोरंजन करना ही है। वैसे भी समाज में ऐसे गुरुओं का अभाव है जो तत्वज्ञान प्रदान कर सकें क्योंकि उसके जानने के बाद तो मनुष्य का हृदय निरंकार में लीन हो जाता है जबकि पेशेवर धर्म विक्रेता अपने शब्दों को सावधि जमा में निवेश करते हैं जिससे कि वह हमेशा पैसा और सम्मान वसूल करते रहें। कभी कभी तो लगता है कि लोग धर्म के नाम पर केवल शाब्दिक बोझा अपने सिर पर ढो रहे हैं।
दूसरी बात यह है कि मनुष्य के हृदय में अगर तत्वज्ञान स्थापित हो जाये तो वह अपने सांसरिक कार्य निर्लिप्त भाव से कार्य करते हुए किसी की परवाह नहीं करता जबकि सभी लोग चाहते हैं कि कोई उनकी परवाह करे। तत्वाज्ञान के अभाव में मनुष्य को एक तरह से गधे की तरह जीवन का बोझ ढोना पड़ता है। यह बात समझ लेना चाहिये कि जीवन तो सभी जीते हैं पर तत्वाज्ञानियों के चेहरे पर जो तेज दिखता है वह सभी में नहीं होता।
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Sunday, December 20, 2009

श्रीगुरु ग्रंथ साहिब से-अहंकार अनेक रोगों की जड़ है (ahanakr ek rog-shri guru granth sahib)

जह गिआन प्रगासु अगिआन मिटंतु।
हिन्दी में भावार्थ-
गुरु ग्रंथ साहिब के मतानुसार जिस प्रकार अंधेरे को दूर करने के लिये चिराग की आवश्यकता होती है उसी तरह अज्ञान रूपी अंधेरे को दूर करने के लिये प्रकाश आवश्यक है।
‘हउमै नावै नालि विरोध है, दोए न वसहि इक थाई।।’
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्गुण अहंकार है और इससे अन्य बुराईयां भी पैदा होती है।
‘हउमै दीरघ रोग है दारु भी इस माहि।
किरपा करे जो आपणी ता गुर का सब्दु कमाहि।।’
हिन्दी में भावार्थ-
अहंकार एक भयानक रोग है जिसकी जड़ें बहुत गहरे तक फैल जाती हैें। इसका इलाज गुरु की कृपा से प्राप्त शब्द ज्ञान से ही संभव हो सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सभी जानते हैं कि अहंकार करना एक बुराई है पर इस रोग को पहचानना भी कठिन है। इसकी वजह यह है कि पंच तत्वों से बनी इस देह में मन और बुद्धि के साथ अहंकार की प्रकृत्ति भी स्वयंमेव बनती है। अनेक बार एक मनुष्य को दूसरे का अहंकार दिखाई देता है पर स्वयं का नहीं। इतना ही नहीं जब कोई व्यक्ति आक्रामक होकर दूसरों के विरुद्ध विषवमन करता है तब सभी लोग उसे अहंकारी कहते हैं जबकि सच यह है कि अहंकार कभी न कभी किसी में आता है या यूं कहें कि यह सभी में रहता है।
किसी भी कर्म में अपने कर्तापन की अनुभूति करना ही अहंकार है। जब मन में यह विचार आये कि ‘मैंने यह किया’ या ‘वह किया’ तब समझ लीजिये कि वह हमारे अंदर बैठा अहंकार बोल रहा है। फिर इससे आगे यह भी होता है कि जब हम किसी का कार्य करते हैं और उसका प्रतिफल भौतिक रूप से नहीं मिलता तब भारी निराशा घेर लेती है। आजकल आप किसी से भी चर्चा करिये वह अपने रिश्तेदारेां, मित्रों और सहकर्मियों के विश्वासघात की शिकायत करता मिलेगा। अहंकार का एक रूप यह भी है कि किसी से एक मनुष्य का काम कर दिया तो वह इस कारण भी उसका काम नहीं करता क्योंकि उसको लगता है कि वह छोटा हो जायेगा-अधिकतर लोग ऐसे भी हैं जो दूसरे के द्वारा कार्य करने पर अहसान मानने की बजाय हक अनुभव करते हैं तो कुछ लोगों को लगता है कि उनके गुणों के कारण कोई स्वार्थवश सेवा कर रहा है तो यह हमारी श्रेष्ठता का प्रमाण है। यही अहंकार मनुष्यों के बीच संघर्ष का कारण बनता है। समस्या इसे पहचानने की है।
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Friday, December 18, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-सत्पुरुषों से मित्रता कभी व्यर्थ नहीं जाती (bhale logon ki dosti-hindu dharam sandesh)

 आदौ तन्त्र्यो बृहन्मध्या विस्तारिण्यः पदे पदे।

यामिन्यो न निवर्तन्ते सतां मैत्र्यः सरित्समाः।।

हिन्दी में भावार्थ-
मुख से सू़क्ष्म, मध्य में विस्तृत फिर आगे विस्तार से निरंतर बहने वाली नदी के समान ही सत्पुरुषों की मित्रता कभी व्यर्थ नहीं जाती।

औरसं कृतसम्बद्ध तथा वंशक्रमागतं।

रक्षितं व्यसनेभ्यभ्व मित्रं ज्ञेयं चतुर्विधं।।

हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य के जीवन में चार प्रकार के सहोदर, संबंधी, परंपरा तथा व्यसनों से रक्षित मित्र होते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मित्रों के चार प्रकार होते हैं जिनमें एक तो वह बंधु होते हैं जिनसे रक्त संबंध होता है। दूसरे वह जो रिश्ते में होते हैं। तीसरे वह होते हैं जो पारंपरिक पारिवारिक  संबंधों के कारण बनते हैं। चौथे वह जो एक ही जैसे व्यसनों के कारण बनते हैं।  दरअसल मित्रता के अर्थ व्यापक हैं और इसके आगे सारे संबंध व्यर्थ हो जाते हैं। यही कारण है कि रिश्तों के खटास हो जाती है पर मित्रता अक्षुण्ण रहती है क्योंकि उसमें कोई स्वार्थ नहीं होता।

महत्वपूर्ण बात यह है कि सज्जन पुरुषों में कभी प्रत्यक्ष तात्कालिक स्वार्थ पूरा होता नहीं दिखता पर समय पड़ने पर वही सबसे अधिक काम आते हैं।  इसके विपरीत जिनसे व्यसनों के कारण संबंध हैं वह तभी तक चलते हैं जब तक वह मनुष्य में बने रहते हैं।  कार्यस्थलों पर साथ चाय या शराब पीने को लेकर अनेक मित्र समूह बन जाते हैं पर जैसे ही कार्यस्थल बदलता है या व्यसन छूटता है वैसे ही वह मित्रता भी छूट जाती है। आजकल समस्या यही है कि लोग ऐसी सतही मित्रता में ही सत्य ढूंढते हैं और सत्पुरुषों से मित्रता करना उनको एक फालतू विषय लगता है जबकि वही ऐसे होते हैं जो बिना किसी स्वार्थ के समय पर संकट निवारण का कार्य करते हैं।

 
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Sunday, December 13, 2009

संत कबीर वाणी-निंदक तो नकटा होता है (nindak bura hota hai-sant kabir vani)

निन्दक ते कुत्ता भला, हट कर मांडे शर
कुत्ते ते क्रोधी बुरा, गुरू दिलावै गार।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी का कहना है कि निन्दक से कुत्ता भला है जो दूर होकर भौंकता है। इतना ही नहीं कुत्ते से बुरा वह क्रोधी व्यक्ति है जो अपने गुरु को अपने आचरण के कारण गाली पड़वाता है।
निन्दक तो है नाक बिन, सोहै नकटो मांहि।
साधूजन गुरुभक्त जो, तिनमें सोहै नांहि।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी के मतानुसार निन्दक तो बिना नाक वाला है। वह नकटों में ही शोभा पता है। जो साधु प्रवृत्ति के लोग हैं वह नकटों में नहीं शोभा पा सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह दूसरे की निंदा कर अपने को श्रेष्ठ साबित करता है। यह इतनी स्वाभाविक है कि इसका आभास थोड़ा बहुत अध्यात्मिक ज्ञान रखने को भी घेर लेती है। किसी दूसरे के दुर्गुण का बखान या पीड़ा का मजाक उड़ाना अत्यंत निकृष्ट कार्य है पर इससे कौन बच पाता है। स्थिति यह है कि आजकल प्रचार माध्यमों में दूसरे के दोषों या पीड़ाओ का बखान एक व्यवसायिक प्रवृत्ति बन गयी है। अपने दोष कोई नहीं देखता। दूसरे के व्यक्तित्व का नकारात्मक अध्ययन कर लोग बहुत प्रसन्न होते हैं जबकि आत्ममंथन कर अपने दोष देखने का काम किसी को न करना आता न ही करना चाहते हैं। कहना चाहिये कि हम एक तरह से नकटे समुदाय के सदस्य हैं।
अक्सर लोग कुत्ते को लेकर तमाम तरह की टिप्पणियां करते हैं पर उसका यह गुण है कि वह दूर होकर भौंकता है पर काटता नहीं जबकि इंसान की स्थिति तो उससे भी बदतर है कि वह न केवल पास रहकर भी दूसरे के सामने निंदा करता है और जरूरत समझे तो एक ही थाली में खाकर विश्वासघात भी करता है। सच बात तो यह है कि दूसरे की निंदा करना ही एक पाप है। यह अलग बात है कि इसका ज्ञान तो सभी देते हैं पर इस राह पर बड़े बड़े संत भी नहीं चल पाते। जिसे मनुष्य जीवन का पूरा आनंद प्राप्त करना है वह अगर परनिंदा छोड़ दे तो इस धरती पर ही स्वर्ग की अनुभूति अनुभव करता है।
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Sunday, December 6, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-मुख से कभी कटु वाणी न बोलें (hindu dharm sandesh-kabhi katu vani n bolen)

वाक्पारुध्यपरं लोक उद्वेजनमनर्थकम्।
न कुर्यात्प्रियया वाचा प्रकुर्याज्जगदात्मताम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जब मनुष्य अपनी वाणी में कठोरता बरतता है तब उससे सुनने वाले लोग उत्तेजित होते हैं। यह अनर्थकारी है, अतः ऐसी वाणी न बोलें तथा मीठी वाणी बोलकर सभी को अपने वश में करें।
हृदये वागस्तिीक्षणो मर्मच्छिद्धि पतन्मुहुः।
तेन च्छिन्नोनरपतिः स दीप्तो याति वैरिताम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जब वाणी रूप कटार से किसी मनुष्य का हृदय विदीर्ण होता है तो वह क्रोध में आकर बदला लेने के लिये तैयार होता है। आहत मनुष्य कटु वाक्य बोलने वाले से बैर बांध लेता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-मनुष्य की पहचान उसके बोलने से ही हो जाती है। कोई पढ़ा लिखा है या नहीं इसका पता वार्तालाप के दौरान सहजता से किया जा सकता है। उसी तरह जब कोई आदमी बोलता है तो उसके शब्दों को मन में तोलें तो उसकी मानसिकता उजागर हो जाती है। इतना ही नहीं अगर कोई व्यक्ति हमसे कटु भाषा में बर्ताव करे तो उसके प्रति बदले का भाव भी पैदा हमारे अंदर भी होता है। यह विचार करते हुए हमें दूसरों से सदैव मधुर वाक्यों का प्रयोग करते हुए बातचीत करना चाहिये क्योंकि जब हम किसी को सहन नहीं कर सकते तो दूसरा हमें सहन क्यों करेगा? अनेक वाद विवाद तो केवल इसलिये हो जाते हैं कि लोग एक दूसरे से कटु भाषा का प्रयोग करते हैं। मसला इतना गंभीर नहीं होता जितना शब्दों के प्रयोग से बन जाता है। समाचार पत्रोें में छपी खबरों के अनुसार परिवार, मोहल्ले, कालोनी तथा शहरों में केवल मुंहवाद को लेकर ही हिंसा हो जाती है। ऐसे झगड़ों की वजह ढूंढने निकलें तो लगता है कि वह इतनी बड़ी नहीं थी जितनी हिंसा हुई। यह अंतिम सत्य है कि हिंसा की तरह कटु वाणी से भी किसी का हल नहीं निकलता।
लेखक, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Thursday, December 3, 2009

समाज जड़ नहीं है-आलेख (samajik chetna-hindi article)

      जहां तक भारतीय अध्यात्मिक विषय से जुध विद्वान लोगों का ज्ञान है वह इस बात की पुष्टि नहीं करता कि इस देश का पूरा समाज मूर्ख और रूढ़िवादी हैं जैसा कि कथित सुधारवादी मानते हैं| जिस तरह पिछले साठ वर्षों से राजनीति, सामाजिक तथा आर्थिक रूप से कुछ मुद्दे पेशेवर समाज सेवकों और बुद्धिजीवियों ने तय कर रखे हैं , उनमें कभी कोई बदलाव नहीं आया उससे तो लगता है कि वह यहां के आम आदमी को अपने जैसा ही जड़बुद्धि  ही समझते हैं। उनकी बहसें और प्रचार से तो ऐसा लगता है कि जैसे यहां का समाज बौद्धिकरूप से जड़ है और यह उन भ्रम उन विद्वानों को भी हो सकता है जो ज्ञान होते हुए भी कुछ देर अपना दिमाग इस तरह की बहसों और प्रचारित विषयों को देखने सुनने में लगा देते हैं। दरअसल जब राजनीति, समाज सेवा और अध्यात्मिक ज्ञान देना एक व्यापार हो गया हो तब यह आशा करना बेकार है कि इन क्षेत्रों में सक्रिय महानुभाव अपने प्रयोक्तओं या उपभोक्ताओं के समक्ष अपनी विक्रय कला का प्रदर्शन कर उनको प्रभावित न करें। हम उन पर आक्षेप नहीं कर सकते क्योंकि प्रयोक्ताओं और उपभोक्ताओं को भी अपने ढंग से सोचना चाहिये। अगर आम आदमी कहीं इस तरह के व्यापारों में सेद्धांतिक और काल्पनिक आदर्शवाद ढूंढता हो तो दोष उसमें उसकी सोच का है।  जिस तरह एक व्यवसायी अपना आय देने वाला व्यवसाय नहीं बदलता वैसे ही यह पेशेवर सुधारवादी अपने विचार व्यवसाय नहीं बदल सकते क्योंकि वह उनको पद, प्रतिष्ठा और पैसा देता है|
 हां, हम इसी सोच की बात करने जा रहे हैं जो हमारे लिये महत्वपूर्ण है। जिस तरह इस देह में स्थित मन के लिये दो  मार्ग है एक रोग का दूसरा योग का वैसे ही  बुद्धि के लिये भी दो मार्ग है एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। जब बुद्धि सकारात्मक मार्ग पर चलती है तब मनुष्य के अंतर्मन में कोई नयी रचना करने का भाव आने के साथ ही तार्किक ढंग से विचार करने की शक्ति पैदा होती है। जब बुद्धि नकारात्मक मार्ग का अनुसरण करती है तब मनुष्य कोई चीज तोड़ने को लालायित होता है और तर्क शक्ति  से तो उसका कोई वास्ता हीं नहीं रह जाता-वह असहज हो जाता है। यही असहजता उसे ऐसे मार्ग पर ले जाती है जहां उसका ऐसे ही भावनाओं के व्यापारी उसका भौतिक दोहन करते हैं जो स्वयं भी अनेक कुंठाओं और अशंकाओं का शिकार होते हैं और धन संचय में उनको अपने जीवन की सुरक्षा अनुभव होती है।
      अपने स्वार्थ के कारण ही आर्थिक, सामाजिक तथा वैचारिक शिखर पर बैठे शीर्ष पुरुष समाज में ऐसे विषयों का प्रतिपादन करते हैं जिनसे समाज की बुद्धि उनके अधीन रहे और नये विषय या व्यक्ति कभी समाज में स्थापित न हो पायें-एक तरह से उनका वंश भी उनके बनाये शिखर पर विराजमान रहे। वह अपने प्रयास में सफल रहते हैं क्योंकि समाज ऐसे ही कथित श्रेष्ठ पुरुषों का अनुसरण करता है। अगर कोई सामान्य वर्ग का कोई चिंतक उनको नयेपन की बात कहे तो पहले वह उसकी भौतिक परिलब्धियों की जानकारी लेते है। सामान्य लोगों की भी यही मानसिकता है कि जिसके पास भौतिक उपलब्धियां हैं वही श्रेष्ठ व्यक्ति है।
      बहरहाल यही कारण है कि बरसों से बना एक समाज है तो उसकी बुद्धि को व्यस्त रखने वाले विषय भी उतने ही पुराने हैं। मनुष्य द्वंद्व देखकर खुश होता है तो उसके लिये वैसे विषय हैं। उसी तरह उनमें कुछ लोग सपने देखने के आदी हैं तो उनको बहलाने के लिये काल्पनिक कथानक भी बनाये गये। इनमें भी बदलाव नहीं आता।
      पिछले एक सदी से इस देश में  भाषा, जाति, धर्म, और क्षेत्र के नाम पर विवाद खड़े किये गये। उनका लक्ष्य किसी समाज का भला करने से अधिक उसके नाम पर चलने वाले अभियानों के मुखियाओं का द्वारा अपने घर भरना था। इनमें से कईयों ने तो अपने संगठन दुकानों की तरह अपनी संतानों को दुकानों की तरह उत्तराधिकार में सौंपे| ऐसा करते हुए वह नये देवता बनते नजर आने लगे। सच बात तो यह है कि इस दुनियां में कभी भी कोई अभियान बिना माया के नहीं चल सकता। फिर जो लोग दावा करते हैं कि वह अमुक समूह का भला कर रहे हैं उनका कृत्य देखकर कोई नहीं कह सकता कि यह काम निस्वार्थ कर रहे हैं। ऐसे में बार बार एक ही सवाल आता है कि कौन लोग हैं जो उनको धन प्रदान कर रहे हैं। तय बात है कि यह धन उन्हीं मायावी लोगों द्वारा दिया जाता होगा जो इस समाज को सैद्धांतिक मनोरंजन प्रदान करने के लिये उनका आभार मानते हैं।
      अभियान चल रहे हैं। आंदोलन इतने पुराने कि कब शुरु हुए उनका सन् तक याद नहीं रहता। आंदोलन के मुखिया देह छोड़ गये या इसके तैयार हैं तो उनके परिवार के पास वह विरासत में जाता है। पिता नहीं कर सका वह पुत्र करेगा-यानि समाज सेवा, अध्यात्मिक ज्ञान तथा कलाजगत का काम भी पैतृक संपदा की तरह चलने लगा है।
      सत्य और माया का यह खेल अनवरत है। ऐसा नहीं है इस संसार में ज्ञानी लोगों की कमी है अलबत्ता उनकी संख्या इतनी कम है कि वह समाज को बनाने या बिगाड़ने की क्षमता नहीं रखते। वैसे भी कहीं किसी नये विषय या वस्तु का सृजन चाहता भी कौन है? अमन में लोग जीना भी कहां चाहते हैं। अमन तो स्वाभाविक रूप से रहता है जबकि  लोग तो शोर से प्रभावित होते हैं। ऐसा शोर  जो उनको अंदर तक प्रसन्न कर सके। यह काम तो कोई  व्यापारी ही कर सकते हैं। इसके अलावा लोगों को चाहिये अनवरत अपने दिल बहलाने वाला विषय! यह तभी संभव है जब उसे अनावश्यक खींचा जाये-टीवी चैनलों में सामाजिक कथानकों को विस्तार देने के लिये यही किया जाता है। यह विस्तार बहस करने के लायक विषयों में अधिक नहीं हो सकता क्योंकि उसमें तो नारे और वाद ही बहुत है। समाज को नारी, बालक, वृद्ध, जवान, बीमार, भूखा, बेरोजगार तथा अन्य शीर्षकों के अंदर बांटकर उनके कल्याण का नारा देकर काम चल जाता है। इसके अलावा इतनी सारी भाषायें हैं जिसके लिये अनेक सेवकों की आवश्यकता पड़ती है जो सेवा करते हुए स्वामी बन जाते हैं। ऐसा हर सेवक अपनी भाषा, जाति, धर्म तथा क्षेत्र के विकास और उसकी रक्षा के लिये जुटा है।
      मगर क्या वाकई लोग इतने भोले हैं! नहीं! बात दरअसल यह है कि इस देश का आदमी कहीं न कहीं से अपने देश के अध्यात्मिक ज्ञान से सराबोर है। वह यह सब मनोरंजन के रूप में देखता है। सामने नहीं कहता पर जानता है कि यह सब बाजारीकरण है। यही कारण है कि कोई भी बड़ा आंदोलन या अभियान चलता है तब उसमें लोगों की संख्या सीमित रहती है। उसमें लोग  इसलिये अधिक दिखते हैं क्योंकि वहना नारों  शोर होता  हैं। शोर करने वाला दिखता है पर शांति रखने वाले की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता। पिछले अनेक महापुरुषों को पौराणिक कथानकों के नायकों की तरह स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा हैं इतनी  सारी पुण्यतिथियां और जन्म दिन घोषित  किये गये हैं कि लगता है कि सदियों में नहीं बल्कि हर वर्ष एक महापुरुष पैदा होता है। लोग सुनते हैं पर देखते और समझते नहीं है। यह जन्म दिन और पुण्यतिथियां उन लोगों के नाम पर भी बनाये गये जो भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के पुरोधा समझे जाते हैं जिसमें जन्म और मृत्यु को दैहिक सीमा में रखा गया है-दूसरे शब्दों में कहें तो उसकी अवधारणा को यह कहकर खारिज किया गया है कि आत्मा तो अमर है। जो लोग बचपन से ऐसे कार्यक्रम देख रहे हैं वह जानते हैं कि आम आदमी इनसे कितना जुड़ा है। हालांकि इसका परिणाम यह हो गया है कि लोगों ने अपने अपने जन्म दिन मनाना शुरु कर दिया है। प्रचार माध्यमों ने अति ही कर दी है। हर दिन उनके किसी खिलाड़ी या फिल्म सितारे का जन्म दिन होता है जिससे उनको उस पर समय खर्च करने का अवसर मिल जाता है। काल्पनिक महानायकों से पटा पड़ा है प्रचार माध्यमों को पूरा जाल।
      इसके बावजूद एक तसल्ली होती है यह देखकर कि काल्पनिक व्यवसायिक महानायकों का कितना भी जोरशोर से प्रचार किया जाता है पर उससे आम आदमी अप्रभावित रहता है। वह उन पर अच्छी या बुरी चर्चा करता है पर उसके हृदय में आज भी पौराणिक महानायक स्थापित हैं जो दैहिक रूप से यहां भले ही मौजूद न हों पर इंसानों के दिल में उनके लिये जगह है। यह काल्पनिक व्यवसायिक नायक तभी तक उसकी आंखो में चमककर उसकी जेब जरूर खाली करा लें जब तक वह देह धारण किये हुए हैं उसके बाद उनको कौन याद रखता है। सतही तौर पर जड़ समाज अपने अंदर चेतना रखता है यह संतोष का विषय है भले ही वह व्यक्त नहीं होती।
लेखक, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Sunday, November 29, 2009

मनुस्मृति-धैर्य न रखने से जीवन पतित हो जाता है (dhiraj aur jivan-manu smriti)

कुमिकीटवधोहत्या मद्यानुगतभोजनम्।
फलेन्धनकुसुमस्तयमधैर्य च मलावहम्।।
हिंदी में भावार्थ-
कोई भी मनुष्य कीड़े मकोड़ों तथा पक्षियों की हत्या कर , मदिरा के साथ मांस का भक्षण कर, ईंधन व फूलों को चुराकर तथा जीवन में धैर्य न रखकर पतित हो जाता है।
ब्राह्म्णस्य रुजकृत्वा घ्रातिरघ्रेयमद्ययोः।
जैह्मयं च मैथुनं पुंसिजातिभ्रंशकरं स्मृतम।।
हिंदी में भावार्थ-
डंडे से पीटकर किसी पीड़ा देना, मदिरादि दुर्गंधित पदार्थों को सूंघना, कुटिलता करना तथा पुरुष से मैथुन करना जैसे पाप मनुष्य जाति के लिये भयंकर हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनु स्मृति का अध्ययन करने से ऐसा लगता है कि उनके युग में जिन कृत्यों और चीजों को पाप कहा जाता था वह अब आधुनिक सभ्यता का प्रतीक बन गये हैं। मदिरा के साथ मांस के सेवन की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इतना ही नहीं समलैंगिकता के नाम पर आज की नयी पीढ़ी को इस तरह गुमराह किया जा रहा है जैसे कि यह कोई नया फैशन हो। देहाभिमान मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है और यही उसे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति की वजह से दिमागी रूप से बंधक बना देती है। स्वतंत्रता के नाम पर वह एक उपभोक्ता बनकर रह जाता है। मगर उसका सबसे बड़ा भयंकर रूप आजकल समलैंगिकता के लिये आजादी के अभियान के रूप में दिख रहा है जैसे कि यह कोई एसा काम हो जो महान आनंद देने वाला है। सभी जानते हैं कि दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति की एक सीमा है। एक समय के बाद भौतिकता से आदमी का मन ऊबने लगता है और ऐसे में उसे अध्यात्मिक शांति की आवश्यकता होती है पर उसे कोई समझ नहीं पाता। यही कारण है कि समाज में लोगों का मानसिक संताप बढ़ रहा है और उसके कारण अनेक प्रकार की नयी बीमारियां जन्म ले रही हैं।
हमारे यहां शादी को एक संस्कार कहा जाता है। इसमें दिये जाने वाले भोजों के अवसर पर मदिरा और मांस का सेवन करने की किसी परंपरा की चर्चा हमारे इतिहास में नहीं है पर आज उसे एक फैशन मानकर अपनाया जा रहा है। जहां हमारी संस्कृति की बात आती है तो हम अपने परिवारिक परंपराओं और संस्कारों का उदाहरण देते हैं पर यह केवल उपरी आवरण है जो दुनियां को दिखा रहे हैं पर सच यह है कि आधुनिकता के नाम पर कालिख उन पर हमने स्वयं ही पोती है।
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Saturday, November 21, 2009

संत कबीर वाणी-परमात्मा के नाम के मतवालों में मद नहीं होता (bhakti aur ahankar-sant kabirdas ke dohe)

राता माता नाम का, मद का माता नांहि।
मद का माता जो फिरै, सौ मतवाला काहि।

संत कबीरदास का कहना है कि जो भक्त परमात्मा का नाम लेता है वह कभी मद में नहीं आता। वह तो भगवान की भक्ति में मतवाला रहकर हर चीज से अंजान हो जाता है। जो मद में चूर है वह भला कहां मतवाला हो सकता है।
राता माता नाम का पीया पे्रम अघाय।
मतवाला दीदार का, मांगे मुक्ति बलाय।।
संत कबीरदास जी का कहना है कि जो भक्त परमात्मा के नाम का अनुरागी है वह उसका रस पीकर तृप्त होता है। उसमें तो केवल भगवान के दर्शन का प्यास होती है, वह मोक्ष प्राप्त करने का विचार भी नहीं करता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कभी कभी तो यह लगता है कि कुछ लोग धर्म का ढोंग करते हैं। वह दूसरों पर प्रभाव जमाने के लिये भक्ति करते हैं। उनके जुबान पर भगवान का नाम आता है और वहीं से बाहर चला जाता है। उनके हृदय में तो केवल माया का वास होता है।
जिनमें भगवान के प्रति सच्ची श्रद्धा होती है वह चुपचाप घर में रहकर या मंदिर में जाकर उसका नाम लेते हुए पूजा या ध्यान करते हैं। अपने यहां हर शहर और मोहल्ले में मंदिर होते हैं जहां करोड़ों लोग चुपचाप जाकर अपनी श्रद्धा के अनुसार परमात्मा का नाम लेते हैं पर कुछ लोग ऐसे हैं जो दिन या वार के हिसाब से तमाम तरह के आयोजन कर यह दिखाते हैं कि वह भगवान के भक्त हैं। भगवान के नाम पर आयोजन करने के लिये वह चंदा लेते हैं। कहीं कहीं तो ऐसे लोग मंदिरों के निर्माण के लिये पैसा भी वसूल करते हैं। सरकारी जमीन पर कब्जा कर धार्मिक स्थान बनाने की परंपरा चल पड़ी है। इसमें सभी धर्मों के लोग शामिल हैं। ऐसे लोगों का भगवान की भक्ति का भाव नहीं होता बल्कि इस तरह वह नाम और धन का अपने लिये संग्रह करते हैं। जिनका भगवान के प्रति अगाध विश्वास है वह चुपचाप रहते हैं। किसी को दिखाने का न तो उनमें मोह होता है न ही विचार आता है। वह तो मतवाले होते हैं और जो दिखावे मेें यकीन करते हैं उनको मद आ जाता है।
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Tuesday, November 17, 2009

चाणक्य नीति-भोजन की नहीं धर्म संग्रह की चिंता करें (bhojan aur dharm-chankya neeti in hindi)

नाहारं  चिन्तयेत् प्राज्ञो धर्ममेकं हि चिन्तयेत्।

आहारो हि मनुष्याणां जन्मना सह जायते।।

हिन्दी में भावार्थ-
विद्वान मनुष्य  को भोजन तथा अन्य प्रकार की सभी चिंताएं छोड़कर केवल धर्म संग्रह की चिंता करना चाहिए। आहार की चिंता क्या करना वह तो मनुष्य के जन्मते ही उत्पन्न हो जाता है।

वयसः परिणामेऽयः खलः खलः एव सः।

सुपक्वमपि माधुर्य नोपयातीन्द्रवारुणम्।।

हिन्दी में भावार्थ-
अवस्था के परिपक्व हो जाने पर जिस मनुष्य में दुष्टता की प्रवृत्ति होती है उसमें फिर कभी बदलाव नहीं आता जैसे अत्यंत पक जाने पर इन्द्रायण  के  फल में मिठास नहीं आता बल्कि वह कड़वा ही बना रहता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य अपने भोजन की इतनी अधिक चिंता करता है उतनी शायद पशु भी नहीं करते। स्थिति यह होती है कि उसने अपने परिवार के लिये पूरे जीवन के लिये भोजन की व्यवस्था कर ली तो फिर उसे आने वाली पीढ़ियों के भोजन की चिंता लग जाती है। भूख से मरने का भय उसे हमेशा सताता है और इसलिये हमेशा डरते हुए जीवन गुजारता है।  सच तो यह है कि यह संभावित भूख उसे गुलाम बनाये रखती है।  जबकि वास्तविकता यह है कि मनुष्य को अपने धर्म संग्रह की चिंता करना चाहिये क्योंकि भोजन तो उसके जन्मते ही उत्पन्न हो जाता है।

मनुष्य में जो गुण बचपन में पड़ गया फिर उसे वह परे नहीं होता। उसी तरह दुर्गुण भी स्थापित हो गया तो वह उससे कभी मुक्त नहीं हो सकता।  कहने वाले जरूर कहते हैं कि बड़े होकर बच्चा सुधर जायेगा पर यह केवल आशा ही है।   इसलिये परिवार के बच्चों को हमेशा अच्छे संस्कार डालने का प्रयास करना चाहिये। बड़े होने पर उनसे आशा तभी की जा सकती है।



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Monday, November 16, 2009

संत कबीर वाणी- राम का नाम जपने वाले श्रेष्ठ (ram ka nam-sant kabir das)

मासांहारी मानवा, परतछ राछस जान।
ताकी संगति मति करै, होय भक्ति में हान।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मांसाहार मनुष्य को राक्षसीवृत्ति का स्वामी ही समझना चाहिए। उसकी संगति करने कभी न करें इससे भक्ति की हानि होती है।
मांस खाय ते ढेड़ सब, मद पीवै सो नीच।
कुल की दुरमति परिहरै, राम कहै सो ऊंच।।
संत शिरोमणि कबीरदास का कहना है कि जो मांस खाते हैं वह सब मूर्ख और मदिरा का सेवन करने वाले नीच होते हैं। जिनके कुल में यह परंपराएं हैं उनका त्याग कर जो भगवान श्रीराम का स्मरण करते है वहीं श्रेष्ठ है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कहा भी जाता है कि ‘जैसा खाये अन्न वैसा हो जाये मन’। श्रीगीता में भी कहा गया है कि ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं’। जिस तरह का आदमी भोजन करता है वही तत्व उसके रक्त कणों में मिल जाते हैं। यही रक्त हमारी देह के सभी तरफ बहकर समस्त अंगों को संचालित करता है। उसके तत्व उन अंगों पर प्रभाव डालते हैं। जिस जीव की हत्या की गयी है मरते समय उसकी पीड़ा के अव्यक्त तत्व भी उसके मांस में रह जाते हैं। यही तत्व आदमी के पेट में पहुंच जब अपनी पीड़ा का प्रदर्शन करते हैं जिससे मनुष्य में दिमागी और मानसिक विकृत्तियां पैदा होती है। पश्चिमी वैज्ञानिकों ने भी यह सिद्ध किया है कि मांसाहारी की बजाय शाकाहार मनुष्य अधिक उदार होते हैं।
दूसरी बात यह है कि मांस से मनुष्य की प्रवृत्ति भी मांसाहारी हो जाती है। उसमेें संवेदनशीलता के भाव की कमी आ जाती है। ऐसे लोगों से मित्रता या संगत करने से अपनी अंदर भी विकृत्तियां पैदा हो सकती हैं। अनेक ऐसे परिवार हैं जिसमें मांस भक्षण की परंपरा है पर उनमें में भी कुछ लोग ऐसे हैं जो शाकाहारी होने के कारण भगवान के भक्त हो जाते हैं। ऐसे लोगों की प्रशंसा की जानी चाहिए।
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Sunday, November 15, 2009

संत कबीर वाणी-चुपड़ी रोटी मांगने में डर लगता है (chupdi roti- kabir sandesh in hindi)

कबीर सांई मुझ को, रूखी रोटी देय।
चुपड़ी मांगत मैं डरूं, मत रूखी छिन लेय।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मैं तो सांईं से रूखी सूखी रोटी की मांग करता हूं। चुपड़ी रोटी मांगने से डर लगता है कि कहीं रूखी भी छिन न जाये।
जिभ्या कर्म कछोटरी, तीनों गृह में त्याग।
कबीर पहिले त्यागि के, पीछे ले बैराग।।
संत कबीर दास का कहना है कि जिव्हा के स्वाद, कर्म तथा विषय वासना के घर त्याग दो। पहिले उनका त्याग कर बाद में बैराग लो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीभ का स्वाद आदमी को जाने क्या क्या कराता है? अपने घर की रूखी रोटी खाते आदमी उससे उकता जाता है तब उसके मन में चुपड़ी रोटी खाने को मन करता है। मन तो मनुष्य से कभी खेलता है तो कभी खिलवाड़ करता है। कहते भी हैं कि सभी को दूसरे की थाली में घी अधिक नजर आता है। वैसे भोजन पेट भरने के लिये किया जाता है पर जीभ का अपना स्वाद है। इसलिये वह कई बार ऐसी चीजों के सेवन के लिये बाध्य करती है जो स्वास्थ्य के लिये अनुकूल नहीं होती। रास्ते पर चटपटी और स्वादिष्ट चीजों को देखकर उनको खाने को मन मचलता है। तब यह नहीं दिखता कि वह खुले में रखी हैं। पता नहीं कितने कीड़े मकौड़े वहां आकर बैठ चुके हैं।
शरीर का स्वास्थ्य तो सादा भोजन में है पर उसके साथ चटपटा और मीठा खाने के लिये जीभ लालायित रहती है। सच बात तो यह है कि आदमी अगर जीभ के स्वाद में न पड़े तो शायद उसको कोई बीमारी ही न हो। अनेक प्रकार के आकर्षक होटल बाजार में दिखते हैं पर उनके भोज्य पदार्थ किस तरह गंदे ढंग से बनते हैं? कौन देखने जाता है। कई होटलों में भोज्य पदार्थ परोसने वाले होटलों के कर्मचारी भी साफ सुथरे हाथों से काम नहीं करते दिखते। वह भी क्या करें? स्वामीवर्ग को तो अपने कर्मचारी और ग्राहक दोनों का दोहन करने के अलावा कुछ नहीं सूझता। कर्मचारी की स्वच्छता और ग्राहक के स्वास्थ्य से उनका कोई मतलब नहीं होता। मगर जो खा रहे हैं उनको सब देखना चाहिये। होटलों के चटपटे मसाले से बने भोज्य पदार्थ कितने भी स्वादिष्ट हों पर पेट के लिये स्वास्थ्यकर हों यह भी जरूरी है। अगर स्वास्थ्य खराब हुआ तो चटपटा तो छोड़िये फिर रूखा सूख भी खाना दुष्कर हो जाता है-चिकित्सक उससे परहेज को कहते हैं।
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Tuesday, November 10, 2009

संत कबीर वाणी-आशायें नहीं मरी तो योग साधना से क्या लाभ (yogsadhna aur ashaen-sant kabir das)

आसन मारे कह भयो, मरी न मन की आस।
तेली करे बैल, ज्यों, घर ही कोस पचास।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि आसन लगाकर ध्यान आदि करने से क्या लाभ यदि मन की आशायें नहीं मरी। यह तो ऐसे ही हुआ जैसे कि तेली का बैल अपने घर में पचास कोस की परिक्रमा कर लेता है।
सब आसन आसा तनै, निबरन कोई नांहि।
निवृत्ति को जानै नहीं, प्रवृत्ति प्रपंचहि मांहि।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब आसन करने से भी आशायें निवृत नहीं होती तो उसका लाभ सीमित है। मन की निवृत्ति का जाने और प्रपंचों से मुक्ति के बिना सभी आसन व्यर्थ हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-योग साधना केवल योगासन और प्राणायम करना ही नहीं है। उसके साथ धारणा और ध्यान का भी बहुत महत्व है। योगासन के साथ अगर तत्व ज्ञान जानने का प्रयास नहीं किया जाता तो सब व्यर्थ है। वैसे आजकल योग साधना को केवल स्वास्थ्य तक ही सीमित रखकर प्रचारित किया जा रहा है जिसमें कुछ लोगों का व्यवसायिक उद्देश्य है। अगर आदमी केवल अपने जीवन में स्वस्थ होकर फिर योग भूल जाये या न करे तो भी लाभ नहीं है। फिर आदमी अगर अपने समाज के लिये किसी मतलब का नहीं तो उसका भी क्या लाभ?
वैसे हर योग साधक को श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन करना चाहिये। उसमें जो तत्व ज्ञान है वही इस संसार को समझने के लिये पर्याप्त है। स्वस्थ समाज तो तब भी था जब भोग विलास के साधन नहीं थे पर समाज के लिये काम करने वाले लोग कितने रहे। योगासन और प्राणायम से देह और मन के विकास तो निकलते हैं पर इस शुद्धता का भाव हमेशा स्थाई बना रहे इसके लिये तत्व ज्ञान का होना जरूरी है। इसलिये भारतीय धर्म ग्रंथों में स्वर्ग से प्रीति रखने वाले वाक्यों को छोड़कर अन्य अच्छी बातों को ग्रहण करते हुए उन पर आपस चर्चा करना भी अच्छा है।
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Monday, November 9, 2009

मनुस्मृतिः ॐ शब्द और गायत्री मंत्र का जाप करने से होती है तनाव से मुक्ति (gayatri mantra ka jaap-hindi sandesh)

योऽधीतेऽहन्यहन्येतांस्वीणि वर्षाण्यतन्द्रितः।
स ब्रह्म परमभ्येति वायुभूतः खमूर्तिमान्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो व्यक्ति सुस्ती का त्याग कर तीन वर्षों तक औंकार तीन व्याहृतियों सहित तीन चरणों वाले गायत्री मंत्र का जाप करता है वह भक्ति में सिद्धि प्राप्त कर लेता है। वह वायु के समान स्वतंत्र गति प्राप्त करते हुए प्रसिद्ध होता है। वह शरीर की सीमा से परे जाकर आसमान के समान व्यापक स्वरूप वाला बन जाता है।
एकक्षरं परं ब्रह्म प्राणायमः परं तपः।
सवित्र्यास्तु परं नास्ति मौनस्तयं विशष्यिते।।
हिंदी में भावार्थ-
ओंकार शब्द ही परमात्मा की प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन है। प्राणायम से बड़ा कोई तप, गायत्री से बड़ा कोई मंत्र और मौन की तुलना में सत्य बोलना श्रेष्ठ है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्षरों में सबसे बड़ा अक्षर ओउम ॐ कहा गया है। मंत्रों में गायत्री मंत्र श्रेष्ठ है। प्रतिदिन ओउम शब्द के उच्चारण का अभ्यास करने से व्यक्ति के मन में एकाग्रता और सुविचारों के प्रवाह का स्तोत्र का निर्माण होता है। उसी तरह हृदय को शीतलता, स्थिरता और दृढ़ता प्रदान करने के लिये गायत्री मंत्र एक तरह से उद्गम स्थल है। जब तीव्र गर्मी पड़ती है तब सूर्य की तेज किरणों से मनुष्य का मन और मस्तिष्क विचलित हो जाता है। कहने को मनुष्य विचारशील और विवेकवान है पर उस पर जलवायु का प्रभाव होता है और तीव्र गर्मी में मनुष्य के अंदर निराशा, क्रोध और हिंसा की प्रवृत्ति का स्वाभाविक रूप से निर्माण होता है। यह नहीं भूलना चाहिये कि गुण ही गुणों में बरतते हैं और जलवायु में अगर तीव्र उष्मा है तो मनुष्य उसे नहीं बच सकता। हां, जो लोग अध्यात्मिक रूप से कोई न कोई प्रयास करते हैं वह अपने को किसी तरह हिंसा, कुविचार और निराशा से बचाकर निकलते हैं। इसके लिये सर्वश्रेष्ठ प्रयास यही है कि गायत्री का मंत्र जाप किया जाये। इससे जो देह, मन और विचारों में शीतलता और पतित्रता आती है उससे मनुष्य तनाव से मुक्त रहता है। विशेष रूप से ग्रीष्मकालीन समय में जब आसपास के मनुष्यों में गर्मी का बुरा प्रभाव पड़ता है तब वह अपने बुरे व्यवहार से पूरे वातावरण को विषाक्त बना देते हैं तब जिसके मन में गायत्री मंत्र के जाप से उत्पन्न स्थिरता, दृढ़ता और प्रसन्नता के भाव होते हैं वह तनाव से मुक्त रहते हैं।
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Friday, November 6, 2009

संत कबीर वाणीः दौलत की वजह से सभी प्यार करते हैं (kabir ke dohe-daulat aur pyar)

गुणवेता और द्रव्य को, प्रीति करै सब कोय
कबीर प्रीति सो जानिये, इनसे न्यारी होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि गुणवेताओ-चालाक और ढोंगी लोग- और धनपतियों से तो हर कोई प्रेम करता है पर सच्चा प्रेम तो वह है जो न्यारा-स्वार्थरहित-हो।

प्रेम-प्रेम सब कोइ कहैं, प्रेम न चीन्है कोय
जा मारग साहिब मिलै, प्रेम कहावै सोय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि प्रेम करने की बात तो सभी करते हैं पर उसके वास्तविक रूप को कोई समझ नहीं पाता। प्रेम का सच्चा मार्ग तो वही है जहां परमात्मा की भक्ति और ज्ञान प्राप्त हो सके।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-टीवी चैनलों और पत्र पत्रिकाओं में आजकल प्रेम पर बहुत कुछ दिखाया और लिखा जाता है। यह प्रेम केवल स्त्री पुरुष के निजी संबंध को ही प्रोत्साहित करता है। हालत यह हो गयी है कि अप्रत्यक्ष रूप से विवाहेत्तर या विवाह पूर्व संबंधों का समर्थन किया जाने लगा है। यह क्षणिक प्रेम एक तरह से वासनामय है मगर आजकल के अंग्रेजी संस्कृति प्रेमी और नारी स्वतंत्रता के समर्थक विद्वान इसी प्रेम में शाश्वत जीवन की तलाश कर हास्यास्पद दृश्य प्रस्तुत करते हैं। एक मजे की बात यह है कि एक तरफ सार्वजनिक स्थलों पर प्रेम प्रदर्शन करने की प्रवृति को स्वतंत्रता के नाम पर प्रेमियों की रक्षा की बात की जाती है दूसरी तरफ प्रेम को निजी मामला बताया जाता है। कुछ लोग तो कहते हैं कि सब धर्मों से प्रीति का धर्म बड़ा है। अब अगर उनसे पूछा जाये कि इसका स्वरूप क्या है तो कोई बता नहीं पायेगा। इस नश्वर शरीर का आकर्षण धीमे धीमे कम होता जाता है और उसके साथ ही दैहिक प्रेम की आंच भी धीमी हो जाती है। इसलिए कहा जाता है कि सच्चा प्रेम केवल परमात्मा से किया जा सकता है।

वैसे सच बात तो यह है कि प्रेम तो केवल परमात्मा से ही हो सकता है क्योंकि वह अनश्वर है। हमारी आत्मा भी अनश्वर है और उसका प्रेम उसी से ही संभव है। परमात्मा से प्रेम करने पर कभी भी निराशा हाथ नहीं आती जबकि दैहिक प्रेम का आकर्षण जल्दी घटने लगता है। जिस आदमी का मन भगवान की भक्ति में रम जाता है वह फिर कभी उससे विरक्त नहीं होता जबकि दैहिक प्रेम वालों में कभी न कभी विरक्ति हो जाती है और कहीं तो यह कथित प्रेम बहुत बड़ी घृणा में बदल जाता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Thursday, November 5, 2009

मनु स्मृति-लालची और बुद्धिहीन स्वामी सजा नहीं दे पाता

सोऽसहायेन मूढेन लुब्धेनाकृतबुद्धिना।
न शक्तो न्यायतो नेतुं सक्तेन विषयेनणु च।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस राजा के सहायक न हों या फिर मूर्ख, लालची, बुद्धिहीन हों एवं स्वयं भी जो विषय और कामनाओं में लीन रहता हो ऐसे राजा को दंड का उपयोग उचित ढंग से प्रयोग करना नहीं आता।
स्वराष्ट्रे न्यायवृत् स्याद् भृशदण्डश्च शत्रुषु।
सहृत् स्वजिह्मः स्निगधेषु ब्राह्मणेषु क्षमान्वितः।।
हिंदी में भावार्थ-
राजा को चाहिए कि वह प्रजा के शत्रुओं को उग्र दंड दे। से प्रजा के मित्रों से सौहार्दपूर्ण तथा राज्य के विद्वानों से उदारता के साथ ही क्षमा का व्यवहार करे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-किसी राज्य का राजा हो या समाज तथा परिवार का मुखिया उसे अपने संरक्षितों के शत्रुओं से किसी प्रकार की उदारता न बरतते हुए उनको कड़ा दंड दे या कार्रवाई करे। जहां मुखिया या स्वामी का कोई सहायक न हो और वही शराब जैसे व्यसनों में डूबा रहे उसके समूह का सर्वनाश हो जाता है। विषय और कामनाओं का चिंतन करने वाले मनुष्य की बौद्धिक क्षमता समाप्त हो जाती है। ऐसे में उसके आसपास कामी, क्रोधी, लोभी तथा अहंकारी लोगों का मित्र समूह एकत्रित होकर उसे उल्टी सीधी सलाहें देता है जिससे स्वामी के साथ उसके कुल, राज्य और समाज का भी नाश होता है।
इसलिये जिन लोगों को परमात्मा की कृपा से कहीं स्वामित्व का अधिकार प्राप्त होता है वह अपने सरंक्षित तथा शरणागत जीवों के शत्रुओं के विरुद्ध कठोर दंड का उपयोग करें तथा जो मित्र हों उनके साथ सौहार्द का व्यवहार करते हुए अपने समूह का हित सोचें। इसके साथ ही ऐसे विद्वानों का हमेशा सम्मान करें तो संकट पड़ने पर अपने बौद्धिक कौशल से उसे तथा उसके समूह को उबार सकें। समाज के शीर्षस्थ वर्ग का यह दायित्व है कि वह छोटे वर्ग की रक्षा करे।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Friday, October 30, 2009

मनुस्मुति-घर में किसी प्रकार का अभाव न होने दें (ghar ki nari ka samman-manu smriti)


शोचन्ति जामयो यत्र विनशत्याशु तत्कुलम्।
न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा।।
                 हिंदी में भावार्थ-
उस परिवार का शीघ्र नाश हो जाता है जिसकी स्त्रियां दुःख या अभाव के फलस्वरूप परेशान रहती हैं। जहां स्त्रियां इस दुःख से परे होती हैं वह हमेशा घर परिवार उत्थान की तरफ अग्रसर रहते हैं।

तत्समदेताः सदा पूज्याः भूषणच्छादानाशनैः।
भूतिकामैर्नरर्नितयं सत्कारेषूस्वेषु च ।।
               हिंदी में भावार्थ-अपने परिवार की तरक्की चाहने चाले को अपने घर में होने वाले उत्सवों के अवसर पर अपनी स्त्रियों का आदर सत्कार करना चाहिए और उन्हें सदा स्वादिष्ट उत्तम भोजन तथा वस्त्राभूषण आदि देकर उनकी पूजा करनी चाहिए।

                वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-मनु महाराज के संदेशों से यह स्पष्ट है कि मनुष्य जीवन स्त्री और पुरुष के समन्वय के बिना सहजता ने नहीं चल सकता। यही कारण है कि हमारे समाज में पवित्र अवसरों पर पत्नी के साथ ही पूजा आदि करने की परंपरा है। पति पत्नी साथ साथ मंदिर जाते हैं। धार्मिक अनुष्ठानों में पति पत्नी साथ साथ ही बैठकर उनको पूर्ण करते हैं। दरअसल इन परंपराओं के द्वारा ही यह प्रकट होता है कि सामान्य दिनचर्या में भले ही पुरुष की प्रधानता दिखती हो पर धार्मिक और अध्यात्मिक रूप से स्त्री का महत्व भी उतना ही जितना गृहकार्य में वह अपने हाथ से काम कर साबित करती है।
इसके अलावा मनु महाराज यह भी मानते हैं कि पुरुष का यह दायित्व है कि वह अपने घर की समस्त स्त्रियों को-माता, पत्नी, बहिन तथा बेटी- कभी किसी प्रकार का अभाव न होने दे। जो लोग अपना धन अय्याशी और व्यसनों में बर्बाद कर अपने घर की स्त्री के अधिकार का हनन करते हैं-वह पशु के समान हैं। अपनी स्त्रियों के साथ मारपीट या अपमानजनक व्यवहार करने वाले पुरुषों को अपने घर के नष्ट होने की स्थिति में कोई सहारा नहीं देता। उनका घर इसी कारण जल्दी नष्ट हो जाता है। इसलिये जितना हो सके अपने घर की स्त्री का सम्मान करने के साथ ही उसको किसी प्रकार का अभाव नहीं देना चाहिए।

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