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Tuesday, January 26, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-कार्य के संयोग का लाभ उठायें (chance of work-hindu dharma sandesh)

न कार्यकालं मतिमानतिक्रामेत्कदाचन।
कथञ्चिदेव भवित कार्ये योगःसुदुल्र्लभः।।
हिन्दी में भावार्थ-
बुद्धिमान को चाहिए कि वह कार्य का समय सामने आने पर उसे व्यर्थ न जाने दे क्योंकि कार्य में मन लगाना अत्यंत कठिन होता है। फिर संयोग सदैव सामने नहीं आते।
सतां मार्गेण मतिमान् को कम्र्म समाचरेत्।
काले समाचरन्साधु रसवत्लमश्नुते।।
हिन्दी में भावार्थ-
बुद्धिमान सत्पुरुषों के मार्ग का अनुसरण करते हुए निश्चित समय पर कार्य आरंभ करें। जो मनुष्य समय पर कार्य करता है उसे रसयुक्त फल की प्राप्ति अवश्य होती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आलस्य मनुष्य का स्वाभाविक दुर्गुण है। अनेक लोग इसलिये ही सफलता से वंचित रहते हैं क्योंकि वह अपना काम समय पर प्रारंभ नहीं करते। अनेक बार मन में आता है कि ‘थोड़ी देर बाद यह काम करूंगा, ‘कल करूंगा’, या फिर ‘यह काम तो बाद में भी हो सकता है’-यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है। जीवन में आगे बढ़ने के अवसर हमेशा ही उपलब्ध नहीं होते। जब कोई उन्नति का विशेष अवसर सामने आये तो लपक लेना चाहिये। अगर हम सफल और उन्नत पुरुषों के जीवन को देखें तो वह भी हमारी तरह ही होते हैं पर वह शिखर पर इसलिये पहुंचते हैं क्योंकि उन्होंने समय आने पर उसका उपयोग किया होता हे। जब भी कोई काम प्रारंभ करने का अवसर सामने उपस्थित हो तो तुरंत शुरू करना चाहिये।
कबीरदास जी भी कह गये हैं कि ‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब, पल में प्रलय हो जायेगी बहुरि करेगा कब’। यह समय किसी का दास नहीं होता अतः उसका सम्मान करते हुए अपना काम का अवसर आने पर उसे प्रारंभ कर देना चाहिए।

संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Friday, January 1, 2010

भर्तृहरि शतक-धनहीन होने पर भी विद्वान रत्न के समान (garib vidvan bhee ratna saman-hindu dharma sandesh)

शास्त्रोपस्कृतशब्द सुंदरगिरः शिष्यप्रदेयाऽऽगमा विख्याताः कवयो वसन्ति विषये यस्य प्रभर्निर्धनाः।
तज्जाड्यं वसुधाधिपस्य कवयस्त्वर्थ विनाऽपीश्वराः कुत्स्या स्युः कुपरीक्षका हि मणयो यैरर्घतः पातिताः।।
हिन्दी में भावार्थ-
ग्रंथों का अध्ययन से उसमें वर्णित शब्दों के ज्ञान को धारण कर सुंदर वाणी बोलने के साथ ही शिष्यों को उनका उपदेश करने वाले विद्वान तथा काव्य की मधुर धारा प्रवाहित करने वाले कवि जिस राज्य में निर्धन होते हैं, उसका राजा या राज्य प्रमुख अयोग्य कहा जाता है। विद्वान धनहीन होने पर भी रत्न के समान है और उसका सम्मान सभी जगह होता है और जो ऐसे रत्नों का अपमान करता है वह निंदा योग्य है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम इस संदेश को आज की नई सभ्यता में देखें तो यह दायित्व पूरे समाज का है कि वह लोगों को तत्व ज्ञान तथा सत्य का उपदेश देने वाले विद्वानो के साथ ही कवियों और लेखकों को भी संरक्षण दे। राज्य प्रमुख का तो यह उच्चतर दायित्व है पर आजकल जिस तरह पूंजीवाद ने व्यापक आधार बनाया है तो उसके शिखर पुरुषों को भी इस तरह ध्यान देना चाहिए। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक शिखरों पर बैठे माननीय लोगों की उपेक्षा का ही यह परिणाम है कि आजकल समाज में कोई अपने बच्चे को अध्यात्मिक ज्ञान न तो देना चाहता है न ही किसी से प्राप्त करने के लिये प्रेरित करता है। यही हाल साहित्य का है। इस देश में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जो अपने लड़के या लड़की का किसी भी भाषा का लेखक होना पसंद करे-सिवाय अंग्रेजी के। इसका कारण यही है कि हमारे उच्च शिखर पुरुषों ने यह मान लिया है कि समाज को वैचारिक, साहित्यक तथा अध्यात्मिक मार्ग पर आगे ले जाने वाले विद्वानों, कवियों और लेखकों को संरक्षण देने की आवश्यकता नहीं है। उनकी उपेक्षा का ही यह परिणाम है कि समाज में हर कोई अपने बच्चे को चिकित्सक, अभियंता, उच्च श्रेणी का अध्यापक तथा प्रशासनिक अधिकारी बनाना चाहता है जो अधिक से अधिक धन का स्वयं दोहन कर सके क्योंकि विद्वानों या लेखकों को आश्रय देने वाला कोई नहीं है।
इसी कारण हमारे समाज में एक ‘खिचड़ी संस्कृति’ बन गयी है। आपने देखा होगा कि आजकल अनेक लोग यह शिकायत करते हैं कि ‘बुढ़ापे में बच्चे उनकी देखभाल नहीं करते।’ उनसे पूछिये कि ‘क्या आप इसके लिये जिम्मेदार नहीं हैं क्योंकि आपने ही ऐसे संस्कार नहीं दिये।’
हमारे शिखर पुरुष कानून के द्वारा समाज को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे हैं। यह एक बेकार का प्रयास है। एक तरफ आप पूरी तरह पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण न केवल स्वयं कर रहे बल्कि अपने बच्चों को भी उस पर चलते देखना चाहते हैं। फिर उनसे देशी व्यवहार की आशा करना कहां तक उचित है?
देश की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक प्रक्रिया में विद्वानों की निष्क्रियता समाज के लिये घातक होती है, इसलिये जितना हो सके सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक शिखर बैठे लोग उनको संरक्षण दें या फिर समाज के बिगड़ने का रोना बंद कर दें।
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Thursday, December 31, 2009

भर्तृहरि शतक-सच्चे तेजस्वी लोग दूसरों से ईर्ष्या नहीं करते (hindi dharama sandesh-tejsavi log aur eershaya)

सन्त्यन्येऽपि बृहस्पतिप्रभृतयः सम्भाविताः पञ्चषास्तान्प्रत्येष विशेष विक्रमरुची राहुनं वैरायते।

द्वावेव ग्रसते दिवाकर निशा प्राणेश्वरी भास्वरौ भ्रातः! पर्यणि पश्च दानवपतिः शीर्षवशेषाकृतिः।।

हिन्दी में भावार्थ-
आसमान में विचरने वाले बृहस्पति सहित पांच छह तेजवान ग्रह है लेकिन अपने पराक्रम में रुचि रखने वाला राहु उनसे ईष्र्या या बैर नहीं रखता। वह पूर्णिमा तथा अमास्या के दिन सूर्य और चंद्रमा को ग्रसित करता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-किसी भी व्यक्ति के गुण, ज्ञान और शक्ति की पहचान उसके लक्ष्य से होती है।  जिन लोगों को अपना  ज्ञान अल्प होते हुए सम्मान पाने का मोह होता है वह पूर्णता प्राप्त किये बिना ही अपना अभियान प्रारंभ करते हैं।  कहीं सम्मान तो कहीं धन पाने का मोह होने के कारण उनकी रुचि अपने ज्ञान, शक्ति या गुण से दूसरे को लाभ देने की बजाय अपना हित साधना होता है।  अल्पज्ञानी, धैर्य से रहित तथा मोह में लिप्त ऐसे लोग समय पड़ने पर आत्मप्रंवचना से भी बाज नहीं आते। उनका लक्ष्य किसी तरह दूसरे आदमी को प्रभावित कर उसे अपने चक्कर में फांसना होता है।

आजकल तो मायावी नायकों को ही असली नायक की तरह प्रचारित किया जाता है। ऐसे लोगों को देवता बनाकर प्रस्तुत किया जाता है जिन्होंने समाज में किसी का कल्याण करने की बजाय अपने लिये संपत्ति ही जुटाई है।  लोग भ्रमित हो जाते हैं कि क्या वाकई उनमें ऐसी कोई असाधारण बात है जो उनमें नहीं है।

इस संसार में माया को पाने का मोह रखने वाले दूसरे के भ्रम से ही कमाते हैं इसलिये अपने अंदर ज्ञान का होना जरूरी है ताकि उनकी चालों से विचलित न हों। जो वास्तव में तत्वज्ञानी, शक्तिशाली और गुणी हैं वह प्रदर्शन करने के लिये नहीं निकलते क्योंकि उनके पास ज्ञान, शक्ति और गुण संग्रह से ही अवसर नहीं मिलता। वह स्वयं बाहर निकल शिष्य ढूंढकर गुरु की पदवी से सुशोभित होने का मोह नहीं पालते। अक्सर लोग यह सवाल कहते हैं कि ‘आजकल अच्छे गुरु मिलते ही कहां है? अगर हैं तो हम उसे कैसे ढूंढें।’

उनहें भर्तृहरि महाराज के संदेश से प्रेरणा लेना चाहिए। उन्हें ऐसे व्यक्ति की तलाश करना चाहिये जो दूसरों की उपलब्धि से द्वेष न करते हुए अपने ही सृजन कार्य में लिप्त रहता हो। सम्मान और धन पाने के लिये लालच का मोह उसकी आंखों में दृष्टिगोचर नहीं होता।  वह गुरु बनने के लिये प्रचार नहीं करता।  उसका लक्ष्य तो केवल अपना जीवन मस्ती में जीने के साथ ही ज्ञान, शक्ति और गुण प्राप्त करने के लिये नियमित अभ्यास तथा परीक्षण करना होता है।

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Wednesday, December 30, 2009

मनुस्मृति-धन और काम में आसक्ति से परे हो, वही सच्चा धार्मिक उपदेशक (sachcha sant-manu smriti in hindi)

अर्थकामेष्वसक्तनां धर्मज्ञानं विधीयते।
धर्म जिज्ञासमानाना प्रमाणं परमं श्रुतिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
महाराज मनु के अनुसार धर्म का उपदेश और प्रचार का काम केवल उन्हीं लोगों को करना चाहिए जो काम और अर्थ के विषय में आसक्त नहीं है। जिनकी काम और अर्थ में आसक्ति है उनकी धर्म में अधिक रुचि नहीं रहती। इसके अलावा उनको धर्म के उपदेश स्वयं ही समझ में नहीं आता इसलिये उनके वचन प्रमाणिक नहीं होते।
श्रुतिद्वेघं तु यत्र स्यात्तत्र धर्मवुभोस्मृतौ।
उभावपि हि तौ धर्मो सम्यगुक्तौ मनाीषिभिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
वेदों में जहां किसी विषय पर आपस में विरोधी संदेश हों वहां पर संभव है कि संदर्भ के कारण अलग अलग अर्थ दिखते हैं पर ज्ञानी लोग इस बात समझते हैं और उनसे इस विषय में परामर्श करना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनु महाराज का स्पष्ट मानना है कि जो धर्मोपदेश या प्रवचन आदि करते हैं उनको काम और अर्थ में रुचि नहीं दिखाना चाहिये। आजकल ऐसी संत परंपरा प्रचलन में आई है कि जिसमें मठाधीश स्वयं ही धन की उगाही कर कथित रूप से धर्मार्थ काम कर रहे हैं। सच बात तो यह है कि एक संत को चाहिये कि वह जीवन रहस्यों से संबंधित विषयों पर ही अपनी बात अपने श्रोताओं के सामने रखे न कि उनकी सांसरिक समस्याओं को हल करे। बीमारी, गरीबी तथा अन्य घरेलू संकट आदमी के भौतिक परेशानी है और अगर उसका मन और शरीर स्वस्थ हो वह उनका सामना स्वयं ही कर सकता है। इसके लिये यह जरूरी है कि वह योग साधना तथा ध्यान से अपने मन, शरीर और विचारों के विकार निकाले तथा तत्व ज्ञान को धारण करे। वह वही खाये जो पचा सके और इसके लिये उसे किसी सलाह की आवश्यकता नही पड़े अगर वह प्रतिदिन योग आसन कर उसका निरीक्षण करे।
कहने की आवश्यकता है कि व्यक्ति निर्माण सांसरिक विषयों पर चर्चा कर नहीं किया जा सकता है बल्कि उसके लिये अध्यात्मिक ज्ञान आवश्यक है। इसके विपरीत अनेक कथित गुरु प्राचीन ग्रंथों की कथायें पर लोगों का मनोरंजन करते हैं पर दावा यह कि वह तो धर्म का काम रहे हैं। वह धन संचय के लिये अपने भक्तों के सामने झोली फैलाते हैं और दिखाने के लिये गरीबों की सेवा करने के साथ ही बीमारों के इलाव की व्यवस्था करते हैं। यह ढोंग है। कई संत तो ऐसे भी हैं जो यह दावा करते हैं कि वह तो जमीन पर सोते हैं भले ही उनके आश्रम पंचसितारा सुविधाओं से सुसज्जित है। अब यह कौन देख पाता है कि उनका अंदर रहन सहन कैसा है? इतना ही नहीं कुछ संत यह चाणक्य महाराज का यह कथन दोहराते हैं कि ‘धर्म निर्वाह के लिये धन का होना आवश्यक है’। दरअसल चाणक्य महाराज ने यह बात सामान्य गृहस्थ को सन्यासी जीवन से विरक्त करने के लिये लिखी है न कि कथित सन्यासियों के धन संग्रह की प्रवृत्ति जगाने के लिये ऐसा कहा है।
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Sunday, December 6, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-मुख से कभी कटु वाणी न बोलें (hindu dharm sandesh-kabhi katu vani n bolen)

वाक्पारुध्यपरं लोक उद्वेजनमनर्थकम्।
न कुर्यात्प्रियया वाचा प्रकुर्याज्जगदात्मताम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जब मनुष्य अपनी वाणी में कठोरता बरतता है तब उससे सुनने वाले लोग उत्तेजित होते हैं। यह अनर्थकारी है, अतः ऐसी वाणी न बोलें तथा मीठी वाणी बोलकर सभी को अपने वश में करें।
हृदये वागस्तिीक्षणो मर्मच्छिद्धि पतन्मुहुः।
तेन च्छिन्नोनरपतिः स दीप्तो याति वैरिताम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जब वाणी रूप कटार से किसी मनुष्य का हृदय विदीर्ण होता है तो वह क्रोध में आकर बदला लेने के लिये तैयार होता है। आहत मनुष्य कटु वाक्य बोलने वाले से बैर बांध लेता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-मनुष्य की पहचान उसके बोलने से ही हो जाती है। कोई पढ़ा लिखा है या नहीं इसका पता वार्तालाप के दौरान सहजता से किया जा सकता है। उसी तरह जब कोई आदमी बोलता है तो उसके शब्दों को मन में तोलें तो उसकी मानसिकता उजागर हो जाती है। इतना ही नहीं अगर कोई व्यक्ति हमसे कटु भाषा में बर्ताव करे तो उसके प्रति बदले का भाव भी पैदा हमारे अंदर भी होता है। यह विचार करते हुए हमें दूसरों से सदैव मधुर वाक्यों का प्रयोग करते हुए बातचीत करना चाहिये क्योंकि जब हम किसी को सहन नहीं कर सकते तो दूसरा हमें सहन क्यों करेगा? अनेक वाद विवाद तो केवल इसलिये हो जाते हैं कि लोग एक दूसरे से कटु भाषा का प्रयोग करते हैं। मसला इतना गंभीर नहीं होता जितना शब्दों के प्रयोग से बन जाता है। समाचार पत्रोें में छपी खबरों के अनुसार परिवार, मोहल्ले, कालोनी तथा शहरों में केवल मुंहवाद को लेकर ही हिंसा हो जाती है। ऐसे झगड़ों की वजह ढूंढने निकलें तो लगता है कि वह इतनी बड़ी नहीं थी जितनी हिंसा हुई। यह अंतिम सत्य है कि हिंसा की तरह कटु वाणी से भी किसी का हल नहीं निकलता।
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Monday, November 16, 2009

संत कबीर वाणी- राम का नाम जपने वाले श्रेष्ठ (ram ka nam-sant kabir das)

मासांहारी मानवा, परतछ राछस जान।
ताकी संगति मति करै, होय भक्ति में हान।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मांसाहार मनुष्य को राक्षसीवृत्ति का स्वामी ही समझना चाहिए। उसकी संगति करने कभी न करें इससे भक्ति की हानि होती है।
मांस खाय ते ढेड़ सब, मद पीवै सो नीच।
कुल की दुरमति परिहरै, राम कहै सो ऊंच।।
संत शिरोमणि कबीरदास का कहना है कि जो मांस खाते हैं वह सब मूर्ख और मदिरा का सेवन करने वाले नीच होते हैं। जिनके कुल में यह परंपराएं हैं उनका त्याग कर जो भगवान श्रीराम का स्मरण करते है वहीं श्रेष्ठ है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कहा भी जाता है कि ‘जैसा खाये अन्न वैसा हो जाये मन’। श्रीगीता में भी कहा गया है कि ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं’। जिस तरह का आदमी भोजन करता है वही तत्व उसके रक्त कणों में मिल जाते हैं। यही रक्त हमारी देह के सभी तरफ बहकर समस्त अंगों को संचालित करता है। उसके तत्व उन अंगों पर प्रभाव डालते हैं। जिस जीव की हत्या की गयी है मरते समय उसकी पीड़ा के अव्यक्त तत्व भी उसके मांस में रह जाते हैं। यही तत्व आदमी के पेट में पहुंच जब अपनी पीड़ा का प्रदर्शन करते हैं जिससे मनुष्य में दिमागी और मानसिक विकृत्तियां पैदा होती है। पश्चिमी वैज्ञानिकों ने भी यह सिद्ध किया है कि मांसाहारी की बजाय शाकाहार मनुष्य अधिक उदार होते हैं।
दूसरी बात यह है कि मांस से मनुष्य की प्रवृत्ति भी मांसाहारी हो जाती है। उसमेें संवेदनशीलता के भाव की कमी आ जाती है। ऐसे लोगों से मित्रता या संगत करने से अपनी अंदर भी विकृत्तियां पैदा हो सकती हैं। अनेक ऐसे परिवार हैं जिसमें मांस भक्षण की परंपरा है पर उनमें में भी कुछ लोग ऐसे हैं जो शाकाहारी होने के कारण भगवान के भक्त हो जाते हैं। ऐसे लोगों की प्रशंसा की जानी चाहिए।
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Sunday, November 15, 2009

संत कबीर वाणी-चुपड़ी रोटी मांगने में डर लगता है (chupdi roti- kabir sandesh in hindi)

कबीर सांई मुझ को, रूखी रोटी देय।
चुपड़ी मांगत मैं डरूं, मत रूखी छिन लेय।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मैं तो सांईं से रूखी सूखी रोटी की मांग करता हूं। चुपड़ी रोटी मांगने से डर लगता है कि कहीं रूखी भी छिन न जाये।
जिभ्या कर्म कछोटरी, तीनों गृह में त्याग।
कबीर पहिले त्यागि के, पीछे ले बैराग।।
संत कबीर दास का कहना है कि जिव्हा के स्वाद, कर्म तथा विषय वासना के घर त्याग दो। पहिले उनका त्याग कर बाद में बैराग लो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीभ का स्वाद आदमी को जाने क्या क्या कराता है? अपने घर की रूखी रोटी खाते आदमी उससे उकता जाता है तब उसके मन में चुपड़ी रोटी खाने को मन करता है। मन तो मनुष्य से कभी खेलता है तो कभी खिलवाड़ करता है। कहते भी हैं कि सभी को दूसरे की थाली में घी अधिक नजर आता है। वैसे भोजन पेट भरने के लिये किया जाता है पर जीभ का अपना स्वाद है। इसलिये वह कई बार ऐसी चीजों के सेवन के लिये बाध्य करती है जो स्वास्थ्य के लिये अनुकूल नहीं होती। रास्ते पर चटपटी और स्वादिष्ट चीजों को देखकर उनको खाने को मन मचलता है। तब यह नहीं दिखता कि वह खुले में रखी हैं। पता नहीं कितने कीड़े मकौड़े वहां आकर बैठ चुके हैं।
शरीर का स्वास्थ्य तो सादा भोजन में है पर उसके साथ चटपटा और मीठा खाने के लिये जीभ लालायित रहती है। सच बात तो यह है कि आदमी अगर जीभ के स्वाद में न पड़े तो शायद उसको कोई बीमारी ही न हो। अनेक प्रकार के आकर्षक होटल बाजार में दिखते हैं पर उनके भोज्य पदार्थ किस तरह गंदे ढंग से बनते हैं? कौन देखने जाता है। कई होटलों में भोज्य पदार्थ परोसने वाले होटलों के कर्मचारी भी साफ सुथरे हाथों से काम नहीं करते दिखते। वह भी क्या करें? स्वामीवर्ग को तो अपने कर्मचारी और ग्राहक दोनों का दोहन करने के अलावा कुछ नहीं सूझता। कर्मचारी की स्वच्छता और ग्राहक के स्वास्थ्य से उनका कोई मतलब नहीं होता। मगर जो खा रहे हैं उनको सब देखना चाहिये। होटलों के चटपटे मसाले से बने भोज्य पदार्थ कितने भी स्वादिष्ट हों पर पेट के लिये स्वास्थ्यकर हों यह भी जरूरी है। अगर स्वास्थ्य खराब हुआ तो चटपटा तो छोड़िये फिर रूखा सूख भी खाना दुष्कर हो जाता है-चिकित्सक उससे परहेज को कहते हैं।
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Saturday, November 14, 2009

भर्तृहरि शतक-पृथ्वी केवल पानी के चारों और घिरा मिट्टी का गोला (pruthvi mitti ka gola-bhartrihari shatak)

मृतिपण्डो जलरेखया वलचितः सर्वोऽप्ययं न नन्वणुः स्वांशीकृत्य स एवं संगरशतै राज्ञां गणैर्भुज्यते।
ते दद्युर्ददतोऽथवा किमपरं क्षंुद्रदरिद्रं भृशं धिग्धिक्तान्युरुषाधमान्धनकणान् वांछन्ति तेभ्योऽपि ये।।
हिन्दी में भावार्थ-
यह पृथ्वी पानी से चारों तरफ घिरा मिट्टी का एक गोलामात्र है। इस पर अनेक लोगों ने राजा बनकर शासन किया। यह राजा लोग किसी को कुछ नहीं देते। फिर भी राजाओं का मुख ताकते हुए कुछ लोग पाने की उम्मीद में रहते हैं। ऐसे लोगों को धिक्कार है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-राजशाही समाप्त हो गयी पर लोगों के मुख ताकने की आदत नहीं गयी। फिर लोकतंत्र में तो केवल प्रत्यक्ष ही नहीं अप्रत्यक्ष रूप से राज्य करने वाले भी सक्रिय रहते हैं। ऐसे लोग अपने बाहुबल, धन बल तथा बुद्धिबल-चालाकी और बेईमानी-से प्रत्यक्ष रूप से शासन करने वालों पर नियंत्रण रखते हैं। इसका प्रमाण यह है कि अमेरिका की एक पत्रिका दुनियां के शक्तिशाली लोगों की सूची जारी करती है। उसमें कुख्यात लोगों के नाम भी शामिल होते हैं । इस शक्तिशाली शब्द का लोग सही अर्थ नहीं जानते। दरअसल केवल राजकाज और समाज पर नियंत्रण करने वाले व्यक्ति को ही शक्तिशाली माना जाता है। कभी कभी तो यह लगता है कि इस तरह पर्दे के पीछे यही शक्तिशाली विश्व भर के राजाओं में हैं। अनेक देशों की सरकारें उनके आगे पानी भरती नजर आती हैं। उस सूची से यह तो जाहिर हो जाता है कि कहीं न कहीं इन कुख्यात लोगों की पहुंच दूर तक है। यही अपराधी फिल्म, राजनीति, व्यापार, उद्योग में भी धन लगाकर वहां सक्रिय कुछ लोगों को अपना मातहत बना लेेते हैं। यही मातहत जनता को सामने तो राजा दिखते है पर उनकी डोर उनके पीछे खड़े इन कथित शक्तिशाली लोगों के हाथ में होती है जिनको जनता केवल कुख्यात रूप में पहचानती है। इसी अज्ञान के कारण वह उन्हीं मातहतों की तरफ मूंह ताकती रहती है कि वह शायद उसका भला करें। इसके अलावा इन शक्तिशाली तत्वों के मातहतों के आसपास अनेक कलाकार, लेखक, विद्वान तथा सामान्य लोग चक्कर लगाते हैं कि शायद वह उनके आगे बढ़ने का अवसर प्रदान करें। यह उनका केवल एक भ्रम है। शक्तिशाली तथा राजशाही वाले लोेग किसी का भला नहीं करते। उनका न तो देशभक्ति से लगाव होता है न समाज सेवा से और न ही भगवान भक्ति से! उनका उद्देश्य केवल अपनी आर्थिक, सामाजिक तथा व्यक्ति सत्ता बनाये रखना ही होता है। अतः अपने हित के लिये उनका मुख ताकना केवल मूर्खता है।
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