समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढ़ें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका


हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर

Friday, December 18, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-सत्पुरुषों से मित्रता कभी व्यर्थ नहीं जाती (bhale logon ki dosti-hindu dharam sandesh)

 आदौ तन्त्र्यो बृहन्मध्या विस्तारिण्यः पदे पदे।

यामिन्यो न निवर्तन्ते सतां मैत्र्यः सरित्समाः।।

हिन्दी में भावार्थ-
मुख से सू़क्ष्म, मध्य में विस्तृत फिर आगे विस्तार से निरंतर बहने वाली नदी के समान ही सत्पुरुषों की मित्रता कभी व्यर्थ नहीं जाती।

औरसं कृतसम्बद्ध तथा वंशक्रमागतं।

रक्षितं व्यसनेभ्यभ्व मित्रं ज्ञेयं चतुर्विधं।।

हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य के जीवन में चार प्रकार के सहोदर, संबंधी, परंपरा तथा व्यसनों से रक्षित मित्र होते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मित्रों के चार प्रकार होते हैं जिनमें एक तो वह बंधु होते हैं जिनसे रक्त संबंध होता है। दूसरे वह जो रिश्ते में होते हैं। तीसरे वह होते हैं जो पारंपरिक पारिवारिक  संबंधों के कारण बनते हैं। चौथे वह जो एक ही जैसे व्यसनों के कारण बनते हैं।  दरअसल मित्रता के अर्थ व्यापक हैं और इसके आगे सारे संबंध व्यर्थ हो जाते हैं। यही कारण है कि रिश्तों के खटास हो जाती है पर मित्रता अक्षुण्ण रहती है क्योंकि उसमें कोई स्वार्थ नहीं होता।

महत्वपूर्ण बात यह है कि सज्जन पुरुषों में कभी प्रत्यक्ष तात्कालिक स्वार्थ पूरा होता नहीं दिखता पर समय पड़ने पर वही सबसे अधिक काम आते हैं।  इसके विपरीत जिनसे व्यसनों के कारण संबंध हैं वह तभी तक चलते हैं जब तक वह मनुष्य में बने रहते हैं।  कार्यस्थलों पर साथ चाय या शराब पीने को लेकर अनेक मित्र समूह बन जाते हैं पर जैसे ही कार्यस्थल बदलता है या व्यसन छूटता है वैसे ही वह मित्रता भी छूट जाती है। आजकल समस्या यही है कि लोग ऐसी सतही मित्रता में ही सत्य ढूंढते हैं और सत्पुरुषों से मित्रता करना उनको एक फालतू विषय लगता है जबकि वही ऐसे होते हैं जो बिना किसी स्वार्थ के समय पर संकट निवारण का कार्य करते हैं।

 
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

No comments:

विशिष्ट पत्रिकायें