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Saturday, June 5, 2010

अपने सदगुरु स्वयं बने-विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष लेख (apne sadguru svyan bane-paryavaran par lekh)

पर्यावरण के लिये कार्य करने पर माननीय जग्गी सद्गुरु को सम्मानित किया जाना अच्छी बात है। जब कोई वास्तविक धर्मात्मा सम्मानित हो उस पर प्रसन्नता व्यक्त करना ही चाहिए वरना यही समझा जायेगा कि आप स्वार्थी हैं।
आज विश्व में पर्यावरण दिवस मनाया जा रहा है। दरअसल इस तरह के दिवस मनाना भारत में एक फैशन हो गया है जबकि सच यह है कि जिन खास विषयों के लिये पश्चिम को दिन चाहिये वह हमारी दिनचर्या का अटूट हिस्सा है मगर हमारी वर्तमान सभ्यता पश्चिम की राह पर चल पड़ी है तो इनमें से कई दिवस मनाये जाना ठीक भी लगता है।
पर्यावरण की बात करें तो भला किस देश में इतने बड़े पैमाने पर तुलसी के पौद्ये को प्रतिदिन पानी देने वाले होंगे जितना भारत में है। इसके अलावा भी हर दिन लोग धार्मिक भावनाओं की वजह से पेड़ों पौद्यों पर पानी डालते हैं और वह बड़ी संख्या में है। यह बात जरूर है कि प्राकृतिक संपदा की बहुलता ने इस देश के लोगों को बहुत समय तक उसके प्रति लापरवाह बना दिया था पर जब जंगल की कमियों की वजह से पूरे विश्व के साथ विश्व में गर्मी का प्रकोप बढ़ा तो विशेषज्ञों के सतत जागरुक प्रयासों ने लोगों में चेतना ला दी और अधिकतर नयी बनी कालोनी में अनेक लोग पेड़ पौद्ये लगाने का काम करने लगे हैं-यह अलग बात है कि इसके लिये वह सरकारी जमीन का ही अतिक्रमण करते हैं और नक्शे में अपने भूखंड में इसके लिये छोड़ी गयी जमीन पर अपना पक्का निर्माण करा लेते हैं। प्रकृति के साथ यह बेईमानी है पर इसके बावजूद अनेक जगह पेड़ पौद्यों का निवास बन रहा है।
एक बात सच है कि हमारे जीवन का आधार जल और वायु है और उनका संरक्षण करना हमारा सबसे बड़ा धर्म है। एक पेड़ दस वातानुकूलित यंत्रों के बराबर वायु विसर्जित करता है यही कारण है गर्मियों के समय गांवों में पेड़ों के नीचे लोगों का जमघट लगता है और रात में गर्मी की तपिश कम हो जाती है। इसके अलावा गर्मियों में शाम को उद्यानों में जाकर अपने शरीर को राहत भी दिलाई जा सकती है। कूलर और वाताकुलित यंत्र भले ही अच्छे लगते हैं पर प्राकृतिक हवा के बिना शरीर की गर्मी सहने की क्षमता नहीं बढ़ती है। उनकी ठंडी हवा से निकलने पर जब कहीं गर्मी से सामना हो जाये तो शरीर जलने लगता है।
इसलिये पेड़ पौद्यों का संरक्षण करना चाहिए। सच बात तो यह है कि पर्यावरण के लिये किसी सद्गुरु की प्रतीक्षा करने की बजाय स्वयं ही सद्गुरु बने। कोई भी महान धर्मात्मा सभी जगह पेड़ नहीं लगवा सकता पर उससे प्रेरणा लेना चाहिए और जहां हम पेड़ पौद्ये लगा सकते हैं या फिर जहां लगे हैं वहां उनका सरंक्ष कर सकते हैं तो करना चाहिए। दरअसल पेड़ पौद्यों को लगाना, उनमें खिलते हुए फूलों और लगते हुए फलों को देखने से मन में एक अजीब सी प्रसन्नता होती है और ऐसा मनोरंजन कहीं प्राप्त नहीं हो सकता। इसे एक ऐसा खेल समझें जिससे जीवन का दांव जीता जा सकता है।
प्रसंगवश एक बात कहना चाहिए कि पेड़ पौद्यों से उत्पन्न प्राणवायु का सेवन तो सभी करते हैं पर उनको धर्म के नाम स्त्रियां ही पानी देती हैं। अनेक महिलाऐं तुलसी के पौद्ये में पानी देते देखी जाती हैं। वैसे अनेक पुरुष भी यही करते हैं पर उनकी संख्या महिलाओं के अनुपात में कम देखी जाती है। इससे एक बात तो लगती है कि पेड़ पौद्यो तथा वन संरक्षण का काम हमारे लिये धर्म का हिस्सा है यह अलग बात है कि कितने लोग इसकी राह पर चल रहे हैं। आजकल उपभोक्तावादी युग में फिर भी कुछ सद्गुरु हैं जो यह धर्म निभा रहे हैं और जरूरत है उनके रास्ते पर चलकर स्वयं सद्गुरु बनने की, तभी इतने बड़े पैमाने पर हो रहे पर्यावरण प्रदूषण को रोका जा सकता है। 
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संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक भारतदीप
http://teradipak.blogspot.com

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Thursday, December 3, 2009

समाज जड़ नहीं है-आलेख (samajik chetna-hindi article)

      जहां तक भारतीय अध्यात्मिक विषय से जुध विद्वान लोगों का ज्ञान है वह इस बात की पुष्टि नहीं करता कि इस देश का पूरा समाज मूर्ख और रूढ़िवादी हैं जैसा कि कथित सुधारवादी मानते हैं| जिस तरह पिछले साठ वर्षों से राजनीति, सामाजिक तथा आर्थिक रूप से कुछ मुद्दे पेशेवर समाज सेवकों और बुद्धिजीवियों ने तय कर रखे हैं , उनमें कभी कोई बदलाव नहीं आया उससे तो लगता है कि वह यहां के आम आदमी को अपने जैसा ही जड़बुद्धि  ही समझते हैं। उनकी बहसें और प्रचार से तो ऐसा लगता है कि जैसे यहां का समाज बौद्धिकरूप से जड़ है और यह उन भ्रम उन विद्वानों को भी हो सकता है जो ज्ञान होते हुए भी कुछ देर अपना दिमाग इस तरह की बहसों और प्रचारित विषयों को देखने सुनने में लगा देते हैं। दरअसल जब राजनीति, समाज सेवा और अध्यात्मिक ज्ञान देना एक व्यापार हो गया हो तब यह आशा करना बेकार है कि इन क्षेत्रों में सक्रिय महानुभाव अपने प्रयोक्तओं या उपभोक्ताओं के समक्ष अपनी विक्रय कला का प्रदर्शन कर उनको प्रभावित न करें। हम उन पर आक्षेप नहीं कर सकते क्योंकि प्रयोक्ताओं और उपभोक्ताओं को भी अपने ढंग से सोचना चाहिये। अगर आम आदमी कहीं इस तरह के व्यापारों में सेद्धांतिक और काल्पनिक आदर्शवाद ढूंढता हो तो दोष उसमें उसकी सोच का है।  जिस तरह एक व्यवसायी अपना आय देने वाला व्यवसाय नहीं बदलता वैसे ही यह पेशेवर सुधारवादी अपने विचार व्यवसाय नहीं बदल सकते क्योंकि वह उनको पद, प्रतिष्ठा और पैसा देता है|
 हां, हम इसी सोच की बात करने जा रहे हैं जो हमारे लिये महत्वपूर्ण है। जिस तरह इस देह में स्थित मन के लिये दो  मार्ग है एक रोग का दूसरा योग का वैसे ही  बुद्धि के लिये भी दो मार्ग है एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। जब बुद्धि सकारात्मक मार्ग पर चलती है तब मनुष्य के अंतर्मन में कोई नयी रचना करने का भाव आने के साथ ही तार्किक ढंग से विचार करने की शक्ति पैदा होती है। जब बुद्धि नकारात्मक मार्ग का अनुसरण करती है तब मनुष्य कोई चीज तोड़ने को लालायित होता है और तर्क शक्ति  से तो उसका कोई वास्ता हीं नहीं रह जाता-वह असहज हो जाता है। यही असहजता उसे ऐसे मार्ग पर ले जाती है जहां उसका ऐसे ही भावनाओं के व्यापारी उसका भौतिक दोहन करते हैं जो स्वयं भी अनेक कुंठाओं और अशंकाओं का शिकार होते हैं और धन संचय में उनको अपने जीवन की सुरक्षा अनुभव होती है।
      अपने स्वार्थ के कारण ही आर्थिक, सामाजिक तथा वैचारिक शिखर पर बैठे शीर्ष पुरुष समाज में ऐसे विषयों का प्रतिपादन करते हैं जिनसे समाज की बुद्धि उनके अधीन रहे और नये विषय या व्यक्ति कभी समाज में स्थापित न हो पायें-एक तरह से उनका वंश भी उनके बनाये शिखर पर विराजमान रहे। वह अपने प्रयास में सफल रहते हैं क्योंकि समाज ऐसे ही कथित श्रेष्ठ पुरुषों का अनुसरण करता है। अगर कोई सामान्य वर्ग का कोई चिंतक उनको नयेपन की बात कहे तो पहले वह उसकी भौतिक परिलब्धियों की जानकारी लेते है। सामान्य लोगों की भी यही मानसिकता है कि जिसके पास भौतिक उपलब्धियां हैं वही श्रेष्ठ व्यक्ति है।
      बहरहाल यही कारण है कि बरसों से बना एक समाज है तो उसकी बुद्धि को व्यस्त रखने वाले विषय भी उतने ही पुराने हैं। मनुष्य द्वंद्व देखकर खुश होता है तो उसके लिये वैसे विषय हैं। उसी तरह उनमें कुछ लोग सपने देखने के आदी हैं तो उनको बहलाने के लिये काल्पनिक कथानक भी बनाये गये। इनमें भी बदलाव नहीं आता।
      पिछले एक सदी से इस देश में  भाषा, जाति, धर्म, और क्षेत्र के नाम पर विवाद खड़े किये गये। उनका लक्ष्य किसी समाज का भला करने से अधिक उसके नाम पर चलने वाले अभियानों के मुखियाओं का द्वारा अपने घर भरना था। इनमें से कईयों ने तो अपने संगठन दुकानों की तरह अपनी संतानों को दुकानों की तरह उत्तराधिकार में सौंपे| ऐसा करते हुए वह नये देवता बनते नजर आने लगे। सच बात तो यह है कि इस दुनियां में कभी भी कोई अभियान बिना माया के नहीं चल सकता। फिर जो लोग दावा करते हैं कि वह अमुक समूह का भला कर रहे हैं उनका कृत्य देखकर कोई नहीं कह सकता कि यह काम निस्वार्थ कर रहे हैं। ऐसे में बार बार एक ही सवाल आता है कि कौन लोग हैं जो उनको धन प्रदान कर रहे हैं। तय बात है कि यह धन उन्हीं मायावी लोगों द्वारा दिया जाता होगा जो इस समाज को सैद्धांतिक मनोरंजन प्रदान करने के लिये उनका आभार मानते हैं।
      अभियान चल रहे हैं। आंदोलन इतने पुराने कि कब शुरु हुए उनका सन् तक याद नहीं रहता। आंदोलन के मुखिया देह छोड़ गये या इसके तैयार हैं तो उनके परिवार के पास वह विरासत में जाता है। पिता नहीं कर सका वह पुत्र करेगा-यानि समाज सेवा, अध्यात्मिक ज्ञान तथा कलाजगत का काम भी पैतृक संपदा की तरह चलने लगा है।
      सत्य और माया का यह खेल अनवरत है। ऐसा नहीं है इस संसार में ज्ञानी लोगों की कमी है अलबत्ता उनकी संख्या इतनी कम है कि वह समाज को बनाने या बिगाड़ने की क्षमता नहीं रखते। वैसे भी कहीं किसी नये विषय या वस्तु का सृजन चाहता भी कौन है? अमन में लोग जीना भी कहां चाहते हैं। अमन तो स्वाभाविक रूप से रहता है जबकि  लोग तो शोर से प्रभावित होते हैं। ऐसा शोर  जो उनको अंदर तक प्रसन्न कर सके। यह काम तो कोई  व्यापारी ही कर सकते हैं। इसके अलावा लोगों को चाहिये अनवरत अपने दिल बहलाने वाला विषय! यह तभी संभव है जब उसे अनावश्यक खींचा जाये-टीवी चैनलों में सामाजिक कथानकों को विस्तार देने के लिये यही किया जाता है। यह विस्तार बहस करने के लायक विषयों में अधिक नहीं हो सकता क्योंकि उसमें तो नारे और वाद ही बहुत है। समाज को नारी, बालक, वृद्ध, जवान, बीमार, भूखा, बेरोजगार तथा अन्य शीर्षकों के अंदर बांटकर उनके कल्याण का नारा देकर काम चल जाता है। इसके अलावा इतनी सारी भाषायें हैं जिसके लिये अनेक सेवकों की आवश्यकता पड़ती है जो सेवा करते हुए स्वामी बन जाते हैं। ऐसा हर सेवक अपनी भाषा, जाति, धर्म तथा क्षेत्र के विकास और उसकी रक्षा के लिये जुटा है।
      मगर क्या वाकई लोग इतने भोले हैं! नहीं! बात दरअसल यह है कि इस देश का आदमी कहीं न कहीं से अपने देश के अध्यात्मिक ज्ञान से सराबोर है। वह यह सब मनोरंजन के रूप में देखता है। सामने नहीं कहता पर जानता है कि यह सब बाजारीकरण है। यही कारण है कि कोई भी बड़ा आंदोलन या अभियान चलता है तब उसमें लोगों की संख्या सीमित रहती है। उसमें लोग  इसलिये अधिक दिखते हैं क्योंकि वहना नारों  शोर होता  हैं। शोर करने वाला दिखता है पर शांति रखने वाले की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता। पिछले अनेक महापुरुषों को पौराणिक कथानकों के नायकों की तरह स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा हैं इतनी  सारी पुण्यतिथियां और जन्म दिन घोषित  किये गये हैं कि लगता है कि सदियों में नहीं बल्कि हर वर्ष एक महापुरुष पैदा होता है। लोग सुनते हैं पर देखते और समझते नहीं है। यह जन्म दिन और पुण्यतिथियां उन लोगों के नाम पर भी बनाये गये जो भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के पुरोधा समझे जाते हैं जिसमें जन्म और मृत्यु को दैहिक सीमा में रखा गया है-दूसरे शब्दों में कहें तो उसकी अवधारणा को यह कहकर खारिज किया गया है कि आत्मा तो अमर है। जो लोग बचपन से ऐसे कार्यक्रम देख रहे हैं वह जानते हैं कि आम आदमी इनसे कितना जुड़ा है। हालांकि इसका परिणाम यह हो गया है कि लोगों ने अपने अपने जन्म दिन मनाना शुरु कर दिया है। प्रचार माध्यमों ने अति ही कर दी है। हर दिन उनके किसी खिलाड़ी या फिल्म सितारे का जन्म दिन होता है जिससे उनको उस पर समय खर्च करने का अवसर मिल जाता है। काल्पनिक महानायकों से पटा पड़ा है प्रचार माध्यमों को पूरा जाल।
      इसके बावजूद एक तसल्ली होती है यह देखकर कि काल्पनिक व्यवसायिक महानायकों का कितना भी जोरशोर से प्रचार किया जाता है पर उससे आम आदमी अप्रभावित रहता है। वह उन पर अच्छी या बुरी चर्चा करता है पर उसके हृदय में आज भी पौराणिक महानायक स्थापित हैं जो दैहिक रूप से यहां भले ही मौजूद न हों पर इंसानों के दिल में उनके लिये जगह है। यह काल्पनिक व्यवसायिक नायक तभी तक उसकी आंखो में चमककर उसकी जेब जरूर खाली करा लें जब तक वह देह धारण किये हुए हैं उसके बाद उनको कौन याद रखता है। सतही तौर पर जड़ समाज अपने अंदर चेतना रखता है यह संतोष का विषय है भले ही वह व्यक्त नहीं होती।
लेखक, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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Sunday, September 6, 2009

कंप्यूटर चलायें तो ध्यान जरूर करें-आलेख (computer and dhyan-hindi lekh)

कई बार ऐसा पढ़ने को मिलता है कि कंप्यूटर पर काम करने वालों बीस मिनट से अधिक काम लगातार नहीं करना चाहिये। इस अवधि के बाद अगर काम करना हो तो वहीं दो मिनट आंखें बंद कर बैठें और फिर काम करें। यह सुझाव उन पश्चिमी विशेषज्ञों का ही है जहां कंप्यूटर का अविष्कार हुआ।
हम भारतीय उपभोग की प्रवृत्ति में इतना लिप्त हो जाते हैं कि पश्चिम द्वारा अविष्कृत वस्तुओं का उपभोग तो करते हैं पर सावधानियां नहीं बरतते बल्कि वही वस्तुऐं हमारा साध्य हो जाती हैं न कि साधन। आप सुनकर चैंकेंगे पश्चिमी चिकित्सक रंगीन टीवी देखने को एक खतरनाक वस्तु मानते हैं जिस पर हमारे देश का हर आदमी आंखें गड़ाकर तमाम तरह के दृश्य देखता ही रहता है। यही हाल अंग्रेजी शराब का है। अंग्रेज और अमेरिककन शराब घूंट घूंट कर पीते हैं जबकि हमारे देश के लोग तो इस पर ऐसे टूटते हैं जैसे कि पेट इसी से भरना हो। इसके अलावा पीने से अधिक तो इसकी चर्चा करते हैं। इसके अलावा खान पान के जो पश्चिमी तरीके हमने अपनाये हैं वह भी स्वास्थ्य के लिये अनुकूल नहीं है पर यहां हम केवल कंप्यूटर से होने वाली हानि पर ही विचार करेंगे।
दरअसल आंखें बंद करने से हमारे दिमाग की अनेक नसें शिथिल होती हैं जिससे आराम मिलता है। कंप्यूटर पर बीस मिनट काम करने के बाद आंखें करने का सुझाव बहुत अच्छा है पर इसके साथ अगर ध्यान की बात जोड़ी दी जाये तो सोने में सुहागा।
ध्यान से आशय यह है कि हम अपना ध्यान भृकुटि के मध्य नाक के ऊपर रखें। अगर अभ्यास हो जाये तो यह बहुत सरल है नहीं तो बहुत कठिन लगता है। आंखें बंद कर बस अपना ध्यान वहीं रख दीजिये। उस समय विचार आयेंगे आने दीजिये क्योंकि यह हमारे मानसिक विकार है जो वहंा भस्म होने वहां आते हैं। आप तो यही अनुभव करिये कि आंखें बंद करने से आपके पूरी शरीर को राहत मिल रही है यही अनुभूति भी एक तरह से ध्यान है। थोड़ी देर में आपको ऐसा लगेगा कि आपके अंदर नई ऊर्जा का संचय हो रहा है।
अगर आप प्रातः भी प्राणायम-टीवी पर सिखाने वाले बहुत लोग हैं जिनको देखकर सीख लीजिये-करने के बाद ध्यान अवश्य लगायें क्योंकि यह एक तरह से योग साधना और ध्यान की अभ्यास क्रिया का फिनिशिंग पौइंट (पूर्ण शुद्धता की अनुभूति का समय) होता है।
श्रीगीता में ध्यान की परम महत्ता है। ध्यान आत्म साक्षात्कार करने की एक ऐसी विधि है जिससे अगर संकल्प के साथ करें तो बहुत सहज लगती है और अगर टालने वाली बात है तो यह संभव नहीं है। आप जब ध्यान लगायेंगे तो तनाव में ऐसी कमी अनुभव होगी जिसे तभी समझ पायेंगे जब इसे करेंगे।
योगासन, प्राणायम तथा ध्यान करने का लाभ तभी हो सकता है जब हम उनको अनुभव करने के लिये अपने अंदर संकल्प धारण करें। एक बात याद रखिये यह कोई सिद्ध होने की विधि नहीं है। जहां आपने अंदर सिद्ध होने का भ्रम पाला वहां सब बेकार हो जायेगा। मुख्य बात हमें अपने अंदर सुख की अनुभूति करने से है कि दूसरे को यह दिखाने की हम उससे बड़े हैं।
आप एक बार कंप्यूटर पर हर बीस मिनट बाद जैसे ही आंखों बंद कर दो मिनट का ध्यान लगायेंगे और तब हो सुखानुभूति होगी तो यह एक आदत सी बन जायेगी। कुछ ऐसे पाठों पर अनेक पाठक लिखते हैं कि आप विधियां लिखिये। दरअसल ध्यान की विधि तो बस यही है कि भृकुटि पर अपना ध्यान रखें। इससे अधिक तो अनावश्यक प्रवचन करना होगा। योगासनों के लिये अनेक साधन हैं जहां से सीखें। हमारे पाठों का उद्देश्य तो केवल अपने मित्रों, पाठकों और साथियों में संकल्प पैदा करना होता है। याद रखिये संकल्प से सारी विधियां
फलीभूत होती है वरना तो अभ्यास करते रहिये उससे सीमित लाभ होगा चाहे वह ध्यान ही क्यों न हो? मुख्य बात यह है कि हम मन में ही यह विचार करें कि ‘मैं योगासन, प्राणायम, ध्यान और मंत्रोच्चार से अपने मन, विचार और बुद्धि को स्वच्छ रखते हुए इस संसार में विचरण करूंगा।’

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Friday, May 9, 2008

संत कबीर वाणी:ध्यान के लिए बाहर के द्वार बंद कर अन्दर के खोलें


सुमिरन सुरति लगाय के, मुख ते कछु न बोल
बाहर के पट देय के, अंतर के पट खोल


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मन का एकाग्र और वाणी पर नियंत्रण करते हुए परमात्मा का स्मरण करो। आपनी बाह्य इंदियों के द्वार बंद कर अंदर के द्वार खोलो।

संपादकीय व्याख्या-इससे पता चलता है कि कबीरदास जी ध्यान की चरम स्थिति प्राप्त कर चुके थे और यही उनकी भक्ति और शक्ति का निर्माण करता था। भगवान की भक्ति का श्रेष्ठ रूप भी ध्यान ही है। अक्सर लोग कहते हैं कि हमारा ध्यान नहीं लगता या थोड़ी देर लगता है फिर भटक जाता है। दरअसल हम लोग शोरशराबे से भक्ति करने के आदी हो जाते हैं इसलिये यह सब होता है। इसके अलावा ध्यान के लिये गुरू की आवश्यकता होती है वह मिलते नहीं है। अधिकतर गुरू सकाम भक्ति के लिए प्रेरित कर केवल अपने प्रति लोगों का आकर्षण बनाये रखना चाहते हैं।

ध्यान लगाना सरल भी है और कठिन भी। यह हम पर निर्भर करता है कि हमारे मन और विचारों पर हमारा नियंत्रण कितना है। इस संसार के दो मार्ग हैं। एक सत्य का दूसरा माया का। हमारा मन माया के प्रति इतना आकर्षित रहता है कि उसे वहां से हटाने के लिये दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है। अगर हमने तय कर लिया कि हमें ध्यान लगाना ही है तो दुनियां की कोई ताकत उसे लगने से रोक नहीं सकती और अगर संशय है तो कोई गुरू उसे लगवा नहीं सकता।
इन पंक्तियों का लेखक कोई सिद्ध पुरुष नहीं है पर ध्यान की विधि जो अनुभव से आई है उसे तो बता ही सकता है। कहीं शांत स्थान पर सुखासन में बैठ जाईये और आंखें बंद कर शरीर को ढीला छोड़ दें। अपने हृदय में चक्रधारी देव की कल्पना कर उसे पर अपनी दृष्टि रखें। अपना पूरा नाक के बीच में भृकुटि पर ही रखें। दुनियां के विचार आयें आने दीजिये। आप तो तय कर लीजिये कि मुझे ध्यान लगाना है। जो विचार आते हैं उनके बारे में चिंतित होने की बजाय यह सोचिये कि वह आपके जीवन के जो घटनाक्रम आपने देखे और अनुभव किये हैं उनसे उत्पन्न विकार है जो वहां भस्म हो रहे हैं। जिस तरह हम कोई पदार्थ मुख से ग्रहण करते हैं पर शरीर में वह गंदगी के रूप में बदल जाता है। हम मुख से करेला खायें यह क्रीमरोल उसका हश्र एक जैसा ही होता है। हम काढ़ा पियें या शर्बत वह भी कीचड़ के रूप में परिवर्तित हो जाता है। यही हाल आखों से देखे गये अच्छे बुरे दृश्य और कानों से सुने गये प्रिय और कटु स्वर का भी होता है। उसके विकार हम देख नहीं पाते पर वह हमारी देह में होते है और उसको वहां से निकालने के लिये ब्रह्मास्त्र का काम करता है ध्यान। जब ध्यान लगाते हैं और जो विचार हमारे दिमाग में आते हैं उनके बारे में यह समझना चाहिए कि वह विकार हैं जो वहां भस्म होने आ रहे हैं और हमारा मन शुद्ध हो रहा है। धीरे-धीरे हमारी बाह्य इंद्रियों के द्वार ध्यान के कारण स्वतः बंद होने लगेंगे। बस अपने अंदर दृढ़ इच्छा शक्ति की आवश्यकता है।

Saturday, December 29, 2007

क्रिकेट, फिल्म और बाज़ार प्रबंधन

मैं जब भी टीवी और अखबारों में खेलों और फिल्मों के बारे में पढता हूँ तो ऐसा लगता है प्रचार माध्यमों को अब अपने केवल पाठको और दर्शकों के लिए न केवल पठनीय और दर्शनीय सामग्री चाहिऐ बल्कि उसके लिए उनको ऐसे माडल और फोटोजनिक चेहरे चाहिऐ जो उसमें सज सकें। यहीं बाजार के प्रबंधकों की सक्रियता बढ़ गयी लगती है। वह हर क्षेत्र में सक्रिय हैं और फिल्म में अभिनेता और खेल में खिलाडी नहीं बल्कि माडल ढूंढते हैं।

किसी क्रिकेट खिलाडी ने एक दो मैंच में रन बना लिए तो वह उसके प्रचार में जुट जाते हैं। उसके माँ-बाप, भाई-बहिन और दोस्त जो भी मिल जाये उसके बारे में चर्चा कर बचपन के संस्मरण अपने कार्यक्रमों और कालमों में छापते हैं गोया कि बचपन से उसमें बडे आदमी बनने के गुण मौजूद थे। इसी तरह नये फिल्म अभिनेता के-जिनमें अधिकतर के माँ-बाप फिल्मों में काम कर चुके हैं-के बारे में प्रचार माध्यम यह कहने में जरा भी कहने के संकोच नहीं करते कि अभिनय तो उसके खून में है-हालांकि क्या उनके माँ-बाप के भी खून में अभिनय है इस पर प्रकाश नहीं डालते।

कुछ लोग समझ नहीं पाते तो कुछ गुस्सा होते हैं पर उन्हें यह समझना चाहिए कि ऐसा प्रचार माध्यम इसलिए करते हैं ताकि उनके विज्ञापनोंदाताओं के लिए माडल जुटा सकें। पहले उनको जन्मजात नायक और खिलाडी के रूप में लोगों की दृष्टि में स्थापित किया जाता है फिर उसे भुनाया जाता है। ऐसे में जो क्रिकेट में खेल की तकनीकी और फिल्म में जो अभिनय देखना चाहते हैं उन्हें निराशा तो होगी उसके लिए अपने ऊपर कोई तनाव लेने की जरूरत नहीं हैं।

भारतीय फिल्में आस्कर अवार्ड के लिए जातीं है उसका प्रचार इस तरह होता है जैसे कि वह कोई पुरस्कार लाकर लौटेंगी-ऐसा हो नहीं सकता। हिन्दी फिल्मो के पास दर्शक बहुत है पर इसका मतलब यह नहीं है कि स्तर विश्व में कोई बहुत ऊंचा है-राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर जानदार और आकर्षक फिल बनाने का श्रेय इस देश के निर्देशकों और कलाकारों के पास नहीं बल्कि उन अंग्रेजों के पास है जिनके खिलाफ उन्होने आजादी की लड़ाई लड़ी । क्रिकेट में कई महान खिलाड़ी हैं तो केवल इसलिए कि उन्हें देश में देखने वाले बहुत है पर विश्व स्तर पर उनकी कोई अहमियत नहीं है। देश के लोगों भी उनको इसलिए अधिक जानते हैं कि प्रचार माध्यम उन्हें हमेशा उनके सामने किये रहते हैं ताकि लोग उन्हें याद रखें और उनके तेल, शैंपू, गाडियाँ और मोबाइल के विज्ञापनों से प्रभावित होकर अपनी जेब ढीली करे।

Sunday, November 11, 2007

घर में टीवी पर है क्रिकेट देखने का मजा

हमारे बुजुर्ग कहते हैं कि जब तक जरूरी न हो जहाँ भीड़ हो मत जाओ, क्योंकि उसमें समय नष्ट होता है और अकारण शारीरिक परेशानी भी झेलनी पड़ती है। मगर आजकल लोग वहीं भागते हैं जहाँ भीड़ होती है। बात क्रिकेट की कर रहा हूँ। कहीं भी मैच होता है वहाँ भारी संख्या में लोग पहुँचते हैं। होता यह है कि कई लोगों को टिकिट होने के बावजूद अन्दर प्रवेश नहीं मिल पाता-और धक्के खाकर उनको घर लौटना पड़ता है।
मैंने जितनी क्रिकेट मैदान पर खेली है उससे अधिक रेडियो पर सुनी और टीवी पर देखी है। मैदान पर ऐसे मैच देखे हैं जो अंतर्राष्ट्रीय नहीं थे और अगर थे तो अनौपचारिक और जिनमें प्रवेश मुफ्त था। एक बार एक अंतर्राष्ट्रीय एक दिवसीय मैच मैदान पर देखने का भूत सवार हुआ और हमने अपने पैसे से टिकिट खरीदी और सुबह आठ बजे घर से मैदान की तरफ रवाना हुए। वहाँ देखा तो होश फाख्ता हो गए-सभी गेटों पर घुसने वालों की लाइन लगी हुई थी और चूंकि पैसे खर्च चुके इसलिए लाइन में लग गए। इतनी बड़ी लाइन हमने कभी राशन की दुकान पर भी नहीं देखी थी। बहरहाल मैच शुरू हो चुका था और भारत की बैटिंग पहले थी और भारतीय बल्लेबाजों द्वारा रन जुटाने पर स्टेडियम के अन्दर मौजूद दर्शकों की हो-हो की आवाज हमारे कानों में गूंग रही थी और हमें पहली बार लगा कि हम पूरा मैच देखने से चूक रहे हैं। घर पर टीवी पर मैच पहली गेंद से ही देखते थे और कहाँ यह पता ही नहीं लग रहा था कि क्या स्कोर चल रहा है।
जब हम किसी तरह अन्दर पहुचे तो बीस ओवर का मैच निकल चुका था। हमने अपने लिए बड़ी मुश्किल से बैठने की जगह ढूंढी। मैच देखना शुरू किया तब लगा ही नहीं कि मैच देख रहे हैं। बल्लेबाज आउट हुआ तो यह पता ही नहीं लगता कि सही आउट हुआ या गलत-क्योंकि वहाँ रिप्ले देखने की वहाँ कोई व्यवस्था नहीं थी। भारत की इनिंग ख़त्म हुई तो हम बाहर गए। पानी के लगी टंकियों पर भारी भीड़ थी। चाय के ठेलों पर जो चाय मिल रही थी वह दूने दाम पर और बेकार- यह पहले पी चुके लोगों ने बताया। उस समय पानी के पाउच का सिस्टम शुरू नहीं हुआ था। अब तो हमारी हालत बिगडी। एक बार ख्याल लाया कि घर वापस लौट जाएं पर फिर पैसे खर्च कर घर जाकर देखना गवारा नहीं हुआ।

स्टेडियम में वापस लौटे। फिर मैच शुरू हुआ तो अपनी तकलीफे मन से गायब हो गईं-पर मैच समाप्त होते-होते वह फिर परेशान करने लगीं। भारत वह मैच हारा तो हम भी अपने को हारा अनुभव करने लगे। पैसे खरीद कर देखा गया वह हमारा पहला और आखिरी मैच रहा। इसके कम से कम पांच वर्ष और बाद और छः वर्ष पहले फ्री में वहाँ कुछ मैच देखने गए। एक बार दक्षिण अफ्रीका और भारत के युवाओं का मैच देखने गए। दूधिया रोशनी में खेले गए मैच में बड़ा आनंद आया। लोग भी परिवार समेत ऐसे आ-जा रहे थे जैसे कि पार्क में आ रहे हों। पुलिस किसी को आने-जाने से नहीं रोक रही थी। परिवार सहित उस मैच का कुछ देर आनंद लेकर हम घर लौट आये। ऐसी तसल्ली से मैच देखना अब कहीं संभव नहीं है। अब लोग जिस तरह इन मैचों को देखने के लिए टूट रहे हैं उससे तो लगता ही नहीं है कि देश में कोई गंभीर समस्या है। टीवी पर उनके साक्षात्कारों में उनकी तकलीफ देखकर कोई सहानुभूति भी नहीं होती। जिस मैच को घर पर आसानी से और रिप्ले के साथ देखा जा सकता है उसके लिए धक्के खाने जाने वालों के साथ कैसी सहानुभूति? समाचार देने वाले इसे संवेदनशील बनाने की करते हैं पर मुझे नहीं लगता कि उसकी कोई लोगों पर प्रतिक्रिया होती है। क्योंकि कई जगह ऐसा हो चुका है और लोग देखते हुए भी अगर इसका अनुमान नहीं कर चलते तो क्या कहा जाये?
सच तो यह है की जितना मजा घर पर मैच देखने में आता है हमें मैदान पर कभी नहीं आया। फिर आजकल तो वातावरण में गर्मी भी अधिक है और मैदान में अपना पसीना बहाने से कोई फायदा नजर नहीं आता।

Thursday, November 8, 2007

दूध की नदी तो अब भी बह रही है

आज एक टीवी चैनल पर रसायनों से दूध बनाने के संबंध में एक रिपोर्ट प्रसारित की गयी जा रही थी। कपडे धोने की सोडा, नकली आयल तथा अन्य खतरनाक वस्तुएं नकली दूध बनाने के लिए इस्तेमाल हो रहीं थीं। शरीर को भयानक हानि पहुँचाने का यह कार्यक्रम बाकायदा कैमरे में रिकार्ड किया और दुष्कर्म करने वाले अपने बयान इस तरह दे रहे थे जैसे उनके लिए आम बात हो।

वैसे सिंथेटिक दूध बनाकर बेचने की बात कोई नई नहीं है और उसके खतरनाक होने की बात भी कही जाती रही है पर अब यह एक संगठित उद्योग बन गया है। सबसे बड़ी बात यह है की यह अब उन गावों में खुलेआम होने लगा है जिन्हें भारतीय समाज का मुख्य आधार माना जाता है। वैसे दीपावली के आते कई कार्यक्रम ऐसे प्रसारित हुए हैं जो भयभीत तो करते हैं पर मन में चेतना भी लाते हैं। नकली खोये की भी चर्चा बहुत हो रही है और उसकी जगह अन्य स्वीट-जैसे छेने की मिठाई और फल आदि-के इस्तेमाल का सुझाव दिया जा रहा है। विशेषज्ञ शहरों में बिक रही खोये की मिठाई और वहाँ के दुग्ध उत्पादन की मात्रा के आंकडे देकर यही कह रहे हैं की बहुत बडे पैमाने पर नकली खोये की मिठाई बिक रही है। नकली और मिलावट वस्तुओं का मिलना कोई बड़ी बात नहीं थी पर अब उसका अनुपात इतना बढ गया है कि असल और शुद्ध का अस्तित्व ढूंढना कठिन हो गया है।

वैसे तो इस धरती पर धर्म के साथ अधर्म,सच के साथ झूठ और शुद्ध के साथ अशुद्ध, विष के साथ अमृत और असल के साथ नकल रहा है पर जब सहअस्तित्व के साथ। समाज में अच्छे के साथ बुरा भी होता है पर अब तो शुद्धता को जिस तरह अस्तित्व के संकट में डाल दिया गया है उससे भारी चिंता हो रही है।

महात्मा गांधी कहते थे की असल भारत तो गाँवों में रहता है-और टीवी पर प्रसारित कार्यक्रम में देखा जाये तो यह सब गाँवों में हो रहा है मतलब असल भारत जहाँ दूध की नदियाँ बह रहीं थीं वहाँ अब विष की नदियाँ बहने लगीं हैं। कहा जाता है की गाँवों में अभी शुद्ध वायु और खाने-पीने की सामग्री मिलती है रिपोर्ट उसका खंडन करती है। वैसे गाँवों में गरीबी बहुत है पर लगता है ऐसे कामों से वह दूर हो जायेगी। देश में आबादी बढ़ी है, कृषि योग्य और पशुओं के लिए चरनोई की जमीन कम होती जा रही है-और जहाँ है भी तो उसमें मेहनत अधिक और आय काम होती है- ऐसे में बिना पशुओं के और कम मेहनत के नकली दूध और खोवा बनाकर आय ज्यादा अर्जित करना बहुत आसान है।

याद रखने वाली बात यह है की यह दूध बाजार में बिकता है और लोग इसे पीते हैं। बच्चों को दूध पिलाकर उन्हें भविष्य के एक विजेता बनाने के सपने देखे जाते हैं, पर यह दूध तो उनके स्वास्थ्य के लिए ही बडा संकट है इसलिए ही आजकल छोटी उम्र में बड़ी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। शीत पेय कंपनियों पर अपने उत्पाद में कीटाणु नाशक तय मात्र से अधिक डालने का आरोप लगा तो कई समझदार लोगों ने युवाओं को दूध पीने की सलाह दी थी पर ऐसी रिपोर्ट देखकर क्या सलाह देंगे? दूसरा सहारों में मिलावट और नकली सामान बेचने की जो बीमारी थी वह अब गावों में भी पहुंच गयी है-मतलब असल भारत के सामने अब नकली भारत भी चुनौती के रूप ने खडा है। आशय यह की नैतिकता और सदाशयता का भाव अब हमारे रक्त में कम होता जा रहा है। जब दूध में ऐसे विष होगा तो खून में क्या होगा यह आसानी से समझा जा सकता है। हमारे देश के बारे में कहा जाता था की यहाँ कभी दूध की नदियाँ बहती थीं-बह तो अब भी रही हैं पर असली नहीं नकली दूध की वह भी विष लिए हुए।

Thursday, November 1, 2007

कभी-कभी ऐसा भी समय आता है

कभी दिन खराब हो सकता है और तो कभी समय! ऐसे में दिमाग मी तनाव आता है पर अगर हम मान लें की जब अच्छा समय नहीं रहा तो बुरा समय भी नहीं रहेगा तो अपने अन्दर आत्मविश्वास उत्पन्न हो जाता है।

हुआ यूं कि एक शाम मैं एटीएम से पैसे निकालता भूल गया। रात को एक बार ख्याल आया कि जाकर पैसे निकाल लाऊँ पर फिर आलस्य आ गया। आज सुबह जब मैं घर से निकला तो मेरे में ढाई सौ रूपये थे। स्कूटर पर मैं अपने काम से इधर-उधर चलता गया। कई जगह एटीएम मिलने के बावजूद यह सोचता रहा कि अभी तो मेरे पास समय है और काम समाप्त करने के बाद निकाल लूंगा। होते-होते शाम हो गई और घर वापस लौटने का समय हो गया और फिर मैं एक एटीएम में गया तो वहाँ भीड़ थी। तब मुझे ध्यान आया कि आज एक तारीख को वेतन आदि के भुगतान का समय होने के कारण भीड़ अधिक रहती है। अब मेरा माथा ठनका। मैं अन्य भी एटीएम पर गया पर पर सब जगह भीड़ थी। आखिर एक एटीएम पर मन मसोस कर रुकना पडा सोचा-'आज पैसे निकालना जरूरी है, अब जितनी बडी लाइन है उसमें लग ही जाता हूँ।

वहाँ एक बार तो एटीएम मशीन लोगों के कार्ड को तो स्वीकार नहीं कर रहा था और दूसरी बार पर करने पर ही काम चल रहा था। लोग पैसे क्या निकाल रहे थे। कहा जाये कि जूझ रहे थे। कुछ लोगों ने अपने नोट गिने तो पांच-पांच सौ से नोट भी पन्नी से जुडे हुए थे। मतलब वह कटे-फटे नोटों की श्रेणी के थे पर एटीएम से निकल रहे थे। अब मेरा माथा ठनका। हालांकि लोग कह रहे थे कि 'बाद में बैंक इसे बदल देगा।'

अब समस्या थी कि उस एटीएम के रास्ते पर मेरा प्रतिदिन का आना-जाना नहीं होता। भला मैं कब वहाँ नोट बदलवाने आता? मैंने निर्णय लिया कि अब तो कल ही पैसे निकाल लूंगा। अपने स्कूटर पर वहाँ भी चल पडा। एक रास्ते पर मैं उलटा चल पडा और इसकी वजह से पडा और थोडा रास्ता तय किया तो सामने से आ रहे ट्रैफिक में फंस गया और आगे ट्रेफिक वैन मैं कि खडे देखा। मुझे लगा कि वहाँ से किसी की मुझ पर नजर पड़ सकती है इसलिए तत्काल एक नमकीन की दुकान की तरफ मुड़ गया ताकि किसी ने देखा हो उसको लगे के मैं वहाँ कुछ खरीदने के रुका हूँ। स्कूटर खडा कर उससे आधा किलो नमकीन खरीद लिया जिसमें मुझे चालीस रूपये खर्च करना पडा। अब मैं वहीं से स्कूटर लेकर निकला सीधे रास्ते चला। थोडा आगे चला तो स्कूटर का साइलेंसर खराब हो गया और वह भयानक आवाज करने लगा। किसी तरह तीन किलोमीटर चलने पर एक मैकनिक मिला। उससे वह स्कूटर ठीक कराया। जब स्कूटर खराब हुआ तो मैं सोच रहा था कि काश मेरे पास अधिक पैसे होते! हालांकि थोडी देर के तनाव आया पर मैं जल्दी अपने पर यह सोचकर नियंत्रण पाया कि" आखिर समय और दिन है। कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है-"।

जो बात मेरे मन में आई और उस पर मैं स्वयं भी मुस्काया कि'पैसे का महत्त्व है या नहीं यह अलग चिंतन का विषय है पर इसमें कोई शक नहीं है कि वह आदमी के लिए आत्मविश्वास का बहुत बड़ा स्त्रोत होता है, इसलिए अपनी जेब पर भी नजर रखना चाहिए कि वह उसमें पर्याप्त मात्रा में हो।

Thursday, October 11, 2007

मनु स्मृति: राज्य के दण्ड से ही अनुशासन संभव

  1. देश, काल, विद्या एवं अन्यास में लिप्त अपराधियों की शक्ति को देखते हुए राज्य को उन्हें उचित दण्ड देना चाहिए।
  2. सच तो यह है कि राज्य का दण्ड ही राष्ट्र में अनुशासन बनाए रखने में सहायक तथा सभी वर्गों के धर्म-पालन कि सुविधाओं की व्यवस्था करने वाला मध्यस्थ होता है।
  3. सारी प्रजा के रक्षा और उस पर शासन दण्ड ही करता है, सबके निद्रा में चले जाने पर दण्ड ही जाग्रत रहता है।
  4. भली-भांति विचार कर दिए गए दण्ड के उपयोग से प्रजा प्रसन्न होती है। इसके विपरीत बिना विचार कर दिए गए अनुचित दण्ड से राज्य की प्रतिष्ठा तथा यश का नाश हो जाता है।
  5. यदि अपराधियों को साजा देने में राज्य सदैव सावधानी से काम नहीं लेता, तो शक्तिशाली व्यक्ति कमजोर लोंगों को उसी प्रकार नष्ट कर देते हैं, जैसे बड़ी मछ्ली छोटी मछ्ली को खा जाती है।
  6. संसार के सभी स्थावर-जंगम जीव राजा के दण्ड के भय से अपने-अपने कर्तव्य का पालने करते और अपने-अपने भोग को भोगने में समर्थ होते हैं ।

Wednesday, April 4, 2007

क्रिकेट पर एक फालतू संपादकीय

आख़िर सचिन प्रकट हो गये। उनके भक्त उन्हें भारत के विश्व कप से बाहर होने के बाद से से ढूँढ रहे थे। उन्हें भी इंतज़ार था कि कब मोका मिले और बयाँ देकर यह जटाएं कि भईया हम अभी क्रिकेट खेलेंगे। वह ग्रेग चैपल के ऐसे बयाँ पर प्रतिक्रिया देने के लिया बाहर आये जिसकी पुष्टि होना बाकी है कि वह उन्होने दिया भी कि नहीं। यह बयां टीवी और अखबारों में प्रकाशित हुआ था। ऐसा लगता है कि सचिन के ऐसे भक्त पत्रकारों ने लीक करवाया जो उन्हें बाहर आने का अवसर देना चाहते थे । उनकी मदद क्रिकेट से जुडे ऐसे लोगों ने की जिनके हाथ वह रिपोर्ट हाथ लग गयी जिसमें उन्होने सचिन सहित पांच खिलाड़ियों को अनुशासन हीनता में लिप्त बताया था।
ऐसा लगता है कि बोर्ड केलोगों ने शायद विदेशी कोच इसलिये रखा था कि बडे नाम वाले इन खिलाड़ियों को तो हटा नहीं सकते क्यौंकी इनके आका सभी जगह बैठें हैं और क्रिकेट उनके पैसे या ताकत के बिना चल भी नहीं सकता।
एक बात और है कि भारतीय टीम की ऎसी दुर्दशा का अंदेशा उन्हें पहले से ही था यही वजह थी कि उन्होने विदेशी कोच रखा ताकी खिलाडी उस पर बरस कर देश के लोगों का ध्यान बँटा सकें।
मैं सचिन के इस बयां के बाद टीवी चैनलों पर उनके समर्थक खेलप्रेमियों के संदेश देखकर यह समझ सकता हूँ कि अब लोगों के जज्बातों से खेलने का दूसरा दौर शुरू हो चूका है। सचिन जिस तरह बाहर आया है वह उसकी अपनी योजना का हिस्सा नहीं हो सकता। कल जब मैंने चैपल का बयां देखा था तभी यह समझ में आ गया था कि अब देशी विदेशी का मामला बनेगा। सचिन अभी भी यह सोच रहे हैं कि लोगों के वह हीरो हैं तो अपनी गलतफहमी दूर कर लें । काठ की हांडी एक बार चढ़ती है वह तो भाग्शाली हैं कि चार बार इसे चार बार चडा गये। अब कहते हैं कि मैंने देश के लिया बहुत क्रिकेट खेली है। क्रिकेट मेरा जीवन है , इसके द्वारा मैंने देश की भारी सेवा की है।
हम उनका हर दावा मान लेते हैं। पर हमारा कहना है कि आप अब दुसरे खिलाड़ियों को अवसर देने के लिए वहन से हटने की घोषणा क्यों नहीं कर देते/ जाहिर है वह ऐसा नही करेंगे क्योंकि उनके लोगों ने बढ़ी कठिनाई से उन्हें जनता के सामने आनी का मौका बनाया है इसीलिये नही कि वह सन्यास ले लें ।
बहुत कम लोगों का ध्यान इस तरफ जाएगा कि अभी भी एक मौका और आने वाला है टीम इंडिया की लुटिया डुबोने का। अभी कुछ दिनों में दखिन अफ्रीका में बीस-बीस ओवेरों का एक विश्वकप होने वाला है। यह उसकी तैयारी है। एक बात और बता दूं एक दिवसीय क्रिकेट के समय बीट गया। अब बीस-बीस ओवेरों का समय आने वाला है। अपने सचिन भईया अ ब उस पर अपनी द्रष्टि जमाये हुए हैं। उनके साथ जुडे लोगों को अभी भी उन पर भरोसा है। इस समय जो विज्ञापन आऊट देतेद हो गये भारतीय टीम के बाहर होने से वह उस समय काम आएंगे।

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