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Sunday, November 11, 2007

घर में टीवी पर है क्रिकेट देखने का मजा

हमारे बुजुर्ग कहते हैं कि जब तक जरूरी न हो जहाँ भीड़ हो मत जाओ, क्योंकि उसमें समय नष्ट होता है और अकारण शारीरिक परेशानी भी झेलनी पड़ती है। मगर आजकल लोग वहीं भागते हैं जहाँ भीड़ होती है। बात क्रिकेट की कर रहा हूँ। कहीं भी मैच होता है वहाँ भारी संख्या में लोग पहुँचते हैं। होता यह है कि कई लोगों को टिकिट होने के बावजूद अन्दर प्रवेश नहीं मिल पाता-और धक्के खाकर उनको घर लौटना पड़ता है।
मैंने जितनी क्रिकेट मैदान पर खेली है उससे अधिक रेडियो पर सुनी और टीवी पर देखी है। मैदान पर ऐसे मैच देखे हैं जो अंतर्राष्ट्रीय नहीं थे और अगर थे तो अनौपचारिक और जिनमें प्रवेश मुफ्त था। एक बार एक अंतर्राष्ट्रीय एक दिवसीय मैच मैदान पर देखने का भूत सवार हुआ और हमने अपने पैसे से टिकिट खरीदी और सुबह आठ बजे घर से मैदान की तरफ रवाना हुए। वहाँ देखा तो होश फाख्ता हो गए-सभी गेटों पर घुसने वालों की लाइन लगी हुई थी और चूंकि पैसे खर्च चुके इसलिए लाइन में लग गए। इतनी बड़ी लाइन हमने कभी राशन की दुकान पर भी नहीं देखी थी। बहरहाल मैच शुरू हो चुका था और भारत की बैटिंग पहले थी और भारतीय बल्लेबाजों द्वारा रन जुटाने पर स्टेडियम के अन्दर मौजूद दर्शकों की हो-हो की आवाज हमारे कानों में गूंग रही थी और हमें पहली बार लगा कि हम पूरा मैच देखने से चूक रहे हैं। घर पर टीवी पर मैच पहली गेंद से ही देखते थे और कहाँ यह पता ही नहीं लग रहा था कि क्या स्कोर चल रहा है।
जब हम किसी तरह अन्दर पहुचे तो बीस ओवर का मैच निकल चुका था। हमने अपने लिए बड़ी मुश्किल से बैठने की जगह ढूंढी। मैच देखना शुरू किया तब लगा ही नहीं कि मैच देख रहे हैं। बल्लेबाज आउट हुआ तो यह पता ही नहीं लगता कि सही आउट हुआ या गलत-क्योंकि वहाँ रिप्ले देखने की वहाँ कोई व्यवस्था नहीं थी। भारत की इनिंग ख़त्म हुई तो हम बाहर गए। पानी के लगी टंकियों पर भारी भीड़ थी। चाय के ठेलों पर जो चाय मिल रही थी वह दूने दाम पर और बेकार- यह पहले पी चुके लोगों ने बताया। उस समय पानी के पाउच का सिस्टम शुरू नहीं हुआ था। अब तो हमारी हालत बिगडी। एक बार ख्याल लाया कि घर वापस लौट जाएं पर फिर पैसे खर्च कर घर जाकर देखना गवारा नहीं हुआ।

स्टेडियम में वापस लौटे। फिर मैच शुरू हुआ तो अपनी तकलीफे मन से गायब हो गईं-पर मैच समाप्त होते-होते वह फिर परेशान करने लगीं। भारत वह मैच हारा तो हम भी अपने को हारा अनुभव करने लगे। पैसे खरीद कर देखा गया वह हमारा पहला और आखिरी मैच रहा। इसके कम से कम पांच वर्ष और बाद और छः वर्ष पहले फ्री में वहाँ कुछ मैच देखने गए। एक बार दक्षिण अफ्रीका और भारत के युवाओं का मैच देखने गए। दूधिया रोशनी में खेले गए मैच में बड़ा आनंद आया। लोग भी परिवार समेत ऐसे आ-जा रहे थे जैसे कि पार्क में आ रहे हों। पुलिस किसी को आने-जाने से नहीं रोक रही थी। परिवार सहित उस मैच का कुछ देर आनंद लेकर हम घर लौट आये। ऐसी तसल्ली से मैच देखना अब कहीं संभव नहीं है। अब लोग जिस तरह इन मैचों को देखने के लिए टूट रहे हैं उससे तो लगता ही नहीं है कि देश में कोई गंभीर समस्या है। टीवी पर उनके साक्षात्कारों में उनकी तकलीफ देखकर कोई सहानुभूति भी नहीं होती। जिस मैच को घर पर आसानी से और रिप्ले के साथ देखा जा सकता है उसके लिए धक्के खाने जाने वालों के साथ कैसी सहानुभूति? समाचार देने वाले इसे संवेदनशील बनाने की करते हैं पर मुझे नहीं लगता कि उसकी कोई लोगों पर प्रतिक्रिया होती है। क्योंकि कई जगह ऐसा हो चुका है और लोग देखते हुए भी अगर इसका अनुमान नहीं कर चलते तो क्या कहा जाये?
सच तो यह है की जितना मजा घर पर मैच देखने में आता है हमें मैदान पर कभी नहीं आया। फिर आजकल तो वातावरण में गर्मी भी अधिक है और मैदान में अपना पसीना बहाने से कोई फायदा नजर नहीं आता।

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