आज एक टीवी चैनल पर रसायनों से दूध बनाने के संबंध में एक रिपोर्ट प्रसारित की गयी जा रही थी। कपडे धोने की सोडा, नकली आयल तथा अन्य खतरनाक वस्तुएं नकली दूध बनाने के लिए इस्तेमाल हो रहीं थीं। शरीर को भयानक हानि पहुँचाने का यह कार्यक्रम बाकायदा कैमरे में रिकार्ड किया और दुष्कर्म करने वाले अपने बयान इस तरह दे रहे थे जैसे उनके लिए आम बात हो।
वैसे सिंथेटिक दूध बनाकर बेचने की बात कोई नई नहीं है और उसके खतरनाक होने की बात भी कही जाती रही है पर अब यह एक संगठित उद्योग बन गया है। सबसे बड़ी बात यह है की यह अब उन गावों में खुलेआम होने लगा है जिन्हें भारतीय समाज का मुख्य आधार माना जाता है। वैसे दीपावली के आते कई कार्यक्रम ऐसे प्रसारित हुए हैं जो भयभीत तो करते हैं पर मन में चेतना भी लाते हैं। नकली खोये की भी चर्चा बहुत हो रही है और उसकी जगह अन्य स्वीट-जैसे छेने की मिठाई और फल आदि-के इस्तेमाल का सुझाव दिया जा रहा है। विशेषज्ञ शहरों में बिक रही खोये की मिठाई और वहाँ के दुग्ध उत्पादन की मात्रा के आंकडे देकर यही कह रहे हैं की बहुत बडे पैमाने पर नकली खोये की मिठाई बिक रही है। नकली और मिलावट वस्तुओं का मिलना कोई बड़ी बात नहीं थी पर अब उसका अनुपात इतना बढ गया है कि असल और शुद्ध का अस्तित्व ढूंढना कठिन हो गया है।
वैसे तो इस धरती पर धर्म के साथ अधर्म,सच के साथ झूठ और शुद्ध के साथ अशुद्ध, विष के साथ अमृत और असल के साथ नकल रहा है पर जब सहअस्तित्व के साथ। समाज में अच्छे के साथ बुरा भी होता है पर अब तो शुद्धता को जिस तरह अस्तित्व के संकट में डाल दिया गया है उससे भारी चिंता हो रही है।
महात्मा गांधी कहते थे की असल भारत तो गाँवों में रहता है-और टीवी पर प्रसारित कार्यक्रम में देखा जाये तो यह सब गाँवों में हो रहा है मतलब असल भारत जहाँ दूध की नदियाँ बह रहीं थीं वहाँ अब विष की नदियाँ बहने लगीं हैं। कहा जाता है की गाँवों में अभी शुद्ध वायु और खाने-पीने की सामग्री मिलती है रिपोर्ट उसका खंडन करती है। वैसे गाँवों में गरीबी बहुत है पर लगता है ऐसे कामों से वह दूर हो जायेगी। देश में आबादी बढ़ी है, कृषि योग्य और पशुओं के लिए चरनोई की जमीन कम होती जा रही है-और जहाँ है भी तो उसमें मेहनत अधिक और आय काम होती है- ऐसे में बिना पशुओं के और कम मेहनत के नकली दूध और खोवा बनाकर आय ज्यादा अर्जित करना बहुत आसान है।
याद रखने वाली बात यह है की यह दूध बाजार में बिकता है और लोग इसे पीते हैं। बच्चों को दूध पिलाकर उन्हें भविष्य के एक विजेता बनाने के सपने देखे जाते हैं, पर यह दूध तो उनके स्वास्थ्य के लिए ही बडा संकट है इसलिए ही आजकल छोटी उम्र में बड़ी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। शीत पेय कंपनियों पर अपने उत्पाद में कीटाणु नाशक तय मात्र से अधिक डालने का आरोप लगा तो कई समझदार लोगों ने युवाओं को दूध पीने की सलाह दी थी पर ऐसी रिपोर्ट देखकर क्या सलाह देंगे? दूसरा सहारों में मिलावट और नकली सामान बेचने की जो बीमारी थी वह अब गावों में भी पहुंच गयी है-मतलब असल भारत के सामने अब नकली भारत भी चुनौती के रूप ने खडा है। आशय यह की नैतिकता और सदाशयता का भाव अब हमारे रक्त में कम होता जा रहा है। जब दूध में ऐसे विष होगा तो खून में क्या होगा यह आसानी से समझा जा सकता है। हमारे देश के बारे में कहा जाता था की यहाँ कभी दूध की नदियाँ बहती थीं-बह तो अब भी रही हैं पर असली नहीं नकली दूध की वह भी विष लिए हुए।
वैसे सिंथेटिक दूध बनाकर बेचने की बात कोई नई नहीं है और उसके खतरनाक होने की बात भी कही जाती रही है पर अब यह एक संगठित उद्योग बन गया है। सबसे बड़ी बात यह है की यह अब उन गावों में खुलेआम होने लगा है जिन्हें भारतीय समाज का मुख्य आधार माना जाता है। वैसे दीपावली के आते कई कार्यक्रम ऐसे प्रसारित हुए हैं जो भयभीत तो करते हैं पर मन में चेतना भी लाते हैं। नकली खोये की भी चर्चा बहुत हो रही है और उसकी जगह अन्य स्वीट-जैसे छेने की मिठाई और फल आदि-के इस्तेमाल का सुझाव दिया जा रहा है। विशेषज्ञ शहरों में बिक रही खोये की मिठाई और वहाँ के दुग्ध उत्पादन की मात्रा के आंकडे देकर यही कह रहे हैं की बहुत बडे पैमाने पर नकली खोये की मिठाई बिक रही है। नकली और मिलावट वस्तुओं का मिलना कोई बड़ी बात नहीं थी पर अब उसका अनुपात इतना बढ गया है कि असल और शुद्ध का अस्तित्व ढूंढना कठिन हो गया है।
वैसे तो इस धरती पर धर्म के साथ अधर्म,सच के साथ झूठ और शुद्ध के साथ अशुद्ध, विष के साथ अमृत और असल के साथ नकल रहा है पर जब सहअस्तित्व के साथ। समाज में अच्छे के साथ बुरा भी होता है पर अब तो शुद्धता को जिस तरह अस्तित्व के संकट में डाल दिया गया है उससे भारी चिंता हो रही है।
महात्मा गांधी कहते थे की असल भारत तो गाँवों में रहता है-और टीवी पर प्रसारित कार्यक्रम में देखा जाये तो यह सब गाँवों में हो रहा है मतलब असल भारत जहाँ दूध की नदियाँ बह रहीं थीं वहाँ अब विष की नदियाँ बहने लगीं हैं। कहा जाता है की गाँवों में अभी शुद्ध वायु और खाने-पीने की सामग्री मिलती है रिपोर्ट उसका खंडन करती है। वैसे गाँवों में गरीबी बहुत है पर लगता है ऐसे कामों से वह दूर हो जायेगी। देश में आबादी बढ़ी है, कृषि योग्य और पशुओं के लिए चरनोई की जमीन कम होती जा रही है-और जहाँ है भी तो उसमें मेहनत अधिक और आय काम होती है- ऐसे में बिना पशुओं के और कम मेहनत के नकली दूध और खोवा बनाकर आय ज्यादा अर्जित करना बहुत आसान है।
याद रखने वाली बात यह है की यह दूध बाजार में बिकता है और लोग इसे पीते हैं। बच्चों को दूध पिलाकर उन्हें भविष्य के एक विजेता बनाने के सपने देखे जाते हैं, पर यह दूध तो उनके स्वास्थ्य के लिए ही बडा संकट है इसलिए ही आजकल छोटी उम्र में बड़ी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। शीत पेय कंपनियों पर अपने उत्पाद में कीटाणु नाशक तय मात्र से अधिक डालने का आरोप लगा तो कई समझदार लोगों ने युवाओं को दूध पीने की सलाह दी थी पर ऐसी रिपोर्ट देखकर क्या सलाह देंगे? दूसरा सहारों में मिलावट और नकली सामान बेचने की जो बीमारी थी वह अब गावों में भी पहुंच गयी है-मतलब असल भारत के सामने अब नकली भारत भी चुनौती के रूप ने खडा है। आशय यह की नैतिकता और सदाशयता का भाव अब हमारे रक्त में कम होता जा रहा है। जब दूध में ऐसे विष होगा तो खून में क्या होगा यह आसानी से समझा जा सकता है। हमारे देश के बारे में कहा जाता था की यहाँ कभी दूध की नदियाँ बहती थीं-बह तो अब भी रही हैं पर असली नहीं नकली दूध की वह भी विष लिए हुए।
1 comment:
दीपक जी,सिर्फ दूध ही नही आज सब कुछ मिलावटी ही बिक रहा है।चाहे वह सब्जी हो या फल।हमारी सरकारे सब देख सुन कर भी सो रही है...ऐसे में आम आदमी कितना भी हाय तौबा मचाएं ..उन की नीदं नही टूटनें वाली।...
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