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Monday, November 12, 2007

चिल्ला कर शांति की कोशिश बेकार

जब किसी विषय पर एक से अधिक लोगों के मध्य विचार होता है तब असहमति भी होती है और होना भी चाहिए क्योंकि उससे ही किसी नए मत के निर्माण की संभावना होती है। जब कोई अपना विचार किसी विषय पर व्यक्त इस उद्देश्य से करता है कि लोग उसकी बात को माने तो उसे इस बात के लिए भी तैयार रहना चाहिऐ कि उस पर कहीं सहमति तो कहीं असहमति होगी-और उसे दोनों पर दृष्टि रखते हुए ही अपने विचार का पुन:निरीक्षण भी करना चाहिए। पर ऐसा होता नहीं है। जिन लोगों के पास पद, प्रतिष्ठा और पैसा होता है उन्हें कभी कोई चुनौती स्वीकार्य नहीं है। जिनके पास अपने विचार व्यक्त करने के साधन है वह किसी असहमति को सुनने को तैयार नहीं होते और यहीं से शुरू होता है संघर्ष। विचारों का यह संघर्ष अनंतकाल से चल रहा है और आज तक कोई एक धारा- जिससे इस धरती पर शांति और विश्वास स्थापित हो सके-नहीं बह सकी।
कहते हैं कि झूठ मत बोलो पर बोलते सभी हैं। कहते हैं जीवन में आराम नहीं काम करना चाहिए पर आराम की तलाश सभी कर रहे हैं। दूसरे को सुख दो तो सुख मिलेगा और दुख दोगे तो वह भी तुम्हारे हिस्से में आयेगा, पर वास्तविकता में सभी अपने सुख जुटाने में लगे हैं और अवसर पाते ही दूसरे को दुख देते हैं। ज्ञान बघारने को सब तैयार पर चलने को तैयार नहीं है। आदमी का अहंकार उसे कभी अपने विचार से पीछे नहीं हटने देता। मानसिक अंतर्द्वंद में फंसा आदमी कभी भला किसी को सुख दे सकता है? रचना से अधिक विध्वंस में उसकी रूचि होती है। कहीं शांति हो उसका ध्यान नहीं जाता जहाँ द्वंद हो वहाँ वह मन और तन के साथ उपस्थित होने में उसे बहुत आनन्द आता है।
मेरा विचार सब माने-यह विचार हर आदमी का है। असहमति उसे उतेजित कर देती है और वह लड़ने पर आमादा हो जाता है। इस पूरे विश्व में तमाम तरह के वर्ग, जातियाँ, धर्म और भाषाएं हैं उनके आधार पर मनुष्यों ने अपने को अलग-अलग समूहों में बाँट लिया है, और इन समूहों के आपसी संघर्ष से इतिहास भरा पड़ा है । कहते हैं हम यह हैं और तुम वह हो ।कही लड़ते हैं तो कहीं एकता की बात करते हैं। यह दोनों ही बाते भ्रम हैं क्योंकि कहीं जब एकता की चर्चा होती है तो सब अपनी गाते हैं और इसमें असहमति है और फिर बात इस निष्कर्ष पर ख़त्म होती है कि समूहों में एकता क्यों होना चाहिए? कहीं कहीं तो शांति और समझौते के लिए एकत्रित लोग पहले से और झगडा करने लगते हैं।
कहते हैं शांति के लिए आपस में संवाद करेंगे पर निष्कर्ष आखिर निकलता है की शांति क्यों हो? क्योंकि लडाई हो रही है? आदमी हमेशा अपने मन में विचारों का अंतर्द्वंद पाले रहता है जब वह शांत रह नहीं रह सकता समाज कैसे शांत रह सकता है। समाज भी तो आदमी की इकाई से बना है।
भला अशांत मन कभी शांति ला सकते हैं। सहज नहीं होना चाहते बल्कि शांति चाहते हैं। हम चिल्लायें और बाकी लोग शांत हो जाएँ। हम कहें उसे सब माने और शांत हो जाएँ। कहीं लडाई विचारों की तो कहीँ शांति के लिए है। असहमति को खत्म करने के लिए सहमति बना रहे हैं और अधिक असहमत होते जा रहे हैं। भला सहमत हुए बिना भी कभी सहमति बन सकती है। अपने विचारों में बदलाव के बिना कभी हम जब किसी से सहमत नहीं हो सकते तो दूसरा कैसे हो जायेगा कभी सोचा है।

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