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Wednesday, January 26, 2011

योग्य आदमी कभी अपनी प्रतिभा का दावा नहीं करते-हिन्दी धार्मिक लेख (yogyata aur pratibha-hindi dharmik lekh)

यह मानवीय स्वभाव है कि वह चाहता है कि उसका व्यक्तित्व दूसरे लोगों को आकर्षक लगे। दूसरों से मान पाने की भावना मनुष्य में तीव्रतर होती है मगर इसके लिये यह जरूरी है कि मनुष्य अपने हाथ से परोपकार के काम करे तथा अपने अच्छे आचरण का उदाहरण समाज के सामने प्रस्तुत करे। इसके लिये यह आवश्यक है कि कुछ कर्म निष्काम भाव से करने के साथ ही उद्देश्य हीन दया की जाये। यह सभी के लिये संभव नहीं है पर भला दिखने की चाहत होने के कारण मनुष्य आत्मप्रवंचना करता है। वह ऐसे कामों को अपने खाते में दिखाता है जो उसने किये ही नहीं-वरन् वह तो हुए भी नहीं।
सारा मनुष्य समुदाय अपना पूरा जीवन अपने तथा परिवार की स्वार्थपूर्ति में लगा देता है पर जहां अवसर मिले वहां अपने को बुद्धिमान तथा परोपकारी साबित करने के साथ ही दयालु होने का दावा करता है। विरले ही ज्ञानी तथा संत प्रवृत्ति के लोग होते हैं जो स्वार्थों की लीक से हटकर समाज के लिये निष्काम भाव से करने के साथ ही निष्प्रयोजन दया करते हैं। ऐसे लोग कभी दावे कर गाते नहीं है।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि
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बड़ा बड़ाई ना करै, बड़ा न बोले बोल।
हीरा मुख से ना कहै, लाख टका मेरी मोल।
‘‘जो आदमी अपने अंदर बड़प्पन का भाव लेकर जीता है वह बड़ी बातें नहीं करता जिस तरह हीरा कभी अपने मुख से अपनी लाख टके कीमत होने की बात नहीं कहता।’’
आदमी के अंदर अगर योग्यता, प्रतिभा तथा ज्ञान है तो उसके आचरण तथा कर्म से प्रकट होता है। इसलिये ही ज्ञानी लोग अपने जीवन में नियमित कर्म के साथ ही ज्ञान संग्रह का काम भी करते हैं। समय मिलने पर सत्संग तथा हृदय से भगवान की भक्ति करते हैं। उनकी साधना, तप और ज्ञान का प्रकाश स्वयं ही सभी के सामने फैलता है। वह कभी दावा नहीं करते कि वह श्रेष्ठ व्यक्ति हैं। इसके विपरीत जिनके पास न ज्ञान है न साधना और तप करने की प्रवृत्ति वह खाली पीली अपनी डींगें मारते हैं। उनको कोई सामने कहता नहीं क्योंकि उनकी संगत भी तो ऐसे ही लोगों से होती है।
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संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com

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Saturday, May 15, 2010

मनु दर्शन-क्रोध और गालियां देने के बुरे परिणाम होते हैं

मनु महाराज के अनुसार 
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अति वादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन्
न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित्

हिन्दी में भावार्थ-सन्यासी और श्रेष्ठ पुरुषों को दूसरे लोगों द्वारा कहे कटु वचनों को सहन करना चाहिए। कटु शब्द (गाली) का उत्तर वैसे ही शब्द से नहीं दिया जाना चाहिए और न किसी का अपमान करना चाहिए। इस नश्वर शरीर के लिये सन्यासी और श्रेष्ठ पुरुष को किसी से शत्रुता नहीं करना चाहिए।
क्रुद्धयन्तं न प्रतिक्रुध्येदाक्रृष्टः कुशलं वदेत्
साप्तद्वाराऽवकीर्णां च न वाचमनृतां वदेत्
।।
 हिन्दी में भावार्थ - सन्यासी एवं श्रेष्ठ पुरुषों को कभी भी क्रोध करने वाले के प्रत्युत्तर में क्रोध का भाव व्यक्त नहीं करना चाहिए। अपने निंदक के प्रति भी सद्भाव रखना चाहिए। अपनी देह के सातों द्वारों -पांचों ज्ञानेंद्रियों नाक, कान, आंख, हाथ वाणी और विचार, मन तथा बुद्धि-से सद्व्यवहार करते हुए कभी भी झूठ नहीं बोलना चाहिए।
वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-सामान्य मनुष्य में सहिष्णुता और ज्ञान का अभाव होता है जबकि ज्ञानी लोग शांत और सत्य पथ पर दृढ़ता पूर्वक चलते हैं। फिर आजकल खान पान और रहन सहन की वजह से समाज में क्रोध, निराशा तथा हिंसका की भावना बढ़ रही है।  श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार गुण ही गुणों को बरतते हैं। इस वैज्ञानिक सिद्धांत को ध्यान में रखें तो आजकल दवाईयों से उपजाये गये अन्न तथा सब्जियों का सेवन हर आदमी कर रहा है जिनसे शरीर के रक्त में विषैले तत्वों का बहना स्वाभाविक है। इन्हीं विषैले तत्वों का प्रभाव मनुष्य के मन, वचन, कर्म था वाणी पर पड़े बिना नहीं रह सकता जो अंततः व्यवहार में प्रकट होते हैं।  इसलिये जरा जरा सी बात पर उत्तेजित और निराश होने वाले लोगों को देखकर ज्ञानी विचलित नहीं होते क्योंकि वह जानते हैं कि मनुष्य तो गुणों के अधीन है और जिन तत्वों से वह संचालित हैं वह विषैले हैं।
तत्वज्ञानी इसलिये किसी की प्रशंसा से प्रसन्न होकर नाचते नहीं है तो गालियां देने पर भी अपने अंदर क्रोध को स्थान नहीं देते।  अगर कोई एक गाली देगा और उसके प्रत्तयुतर में दूसरा भी गाली देगा मगर फिर पहले वाला फिर गाली देगा। इस तरह अगर दोनों अज्ञानी हैं तो गालियां का समंदर बन जायेगा पर अगर एक ज्ञानी है तो वह चुपचाप गाली देने से वाले दूर हो जायेगा।  यही स्थिति क्रोध की है।  समय के अनुसार अच्छा और बुरा समय आता है और भले और लोग भी मिलते हैं। ज्ञानी लोग दूसरे का स्वभाव देखकर व्यवहार करते हैं जबकि अज्ञानी अपने स्वभाव के अनुसार दूसरे का चाल चरित्र देखना चाहते हैं। ऐसा न होने पर उनके अंदर क्रोध की उत्पति होती है जो कालांतर में मनुष्य देह को जलाता है।  
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
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Saturday, September 5, 2009

श्रीगीता से-ज्ञानी लोग वेद पढ़ने के पुण्य का उल्लंघन कर जाते हैं (shri geeta-gyani log aur ved)

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदावादरताः पार्थ नान्यदरस्तीति वादिनः।।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।
भोगैश्वर्यप्रस्कतानां तयापहृतचेसाम्।।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।
(श्री गीता के अध्याय दो के श्लोक क्र. 42, 43, 44)
हिंदी में भावार्थ-जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है जो कहते हैं कि स्वर्ग से बढ़कर कोई वस्तु नहीं है, वे अविवेकी मनुष्य इस प्रकार दिखावटी आकर्षक वाणी कहते हैं, जो मनुष्य जन्म रूप कर्मफल देने वाले भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये अनेक प्रकार के प्रयास करते हैं और वाणी द्वारा जिनका चित हर लिया गया है, जिनकी बुद्धि भोग और ऐश्वर्य प्राप्ति के व्यवसाय में आसक्त है उनकी परमात्मा में निश्चयात्मक बुद्धि नहीं होती।
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रविष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।।
(श्री गीता के अध्याय 8 का श्लोक क्रमांक 28)
हिंदी में भावार्थ-योगी पुरुष ज्ञान रहस्य के तत्व को जानकर वेदों को पढ़ने तथा यज्ञ, तप दानादि के करने में पुण्यफल कहा है उन सबका निःसंदेह उल्लंघन कर जाता है और सनातन परमपद को प्राप्त होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कहा जाता है कि श्रीगीता चारों वेदों का सार भी है। अगर हम श्रीगीता के उपरोक्त श्लोकों को देखें तो उनसे यही आशय निकलता है कि भगवान श्रीकृष्ण जी ने वेदों में स्वर्ग दिलाने वाले कर्मकांडों को महत्व न देते हुए केवल उनमें ही लिप्त रहने को अज्ञान का प्रमाण माना है। हालांकि श्रीगीता में अनेक स्थानों पर वेदों की चर्चा है पर स्वर्ग के लिये कर्मकांडों में मनुष्य को लिप्त करने वाले उनके संदेशों को एक तरह से भगवान श्री कृष्ण ने द्वारा खारिज किया गया है।
दूसरे शब्दों में कहें तो भगवान श्रीकृष्ण जी ने इन पवित्र वेदों से तत्वज्ञान के साथ जीवन एवं सुष्टि रहस्यों का सार लेकर अपने गीता संदेश में प्रस्तुत किया और स्वर्ग के प्रयासों सकाम भक्ति मान लिया। यही कारण है कि उनके द्वारा निष्काम भक्ति तथा निष्प्रयोजन दया के सिद्धांत का प्रतिपादन करने से समाज में वेदों से अधिक श्रीगीता का महत्व बढ़ गया। यहां याद रहे वेदों में सभी प्रकार की भक्ति की बात कही गयी है। यही कारण है कि समाज में बहुदेव वादी संस्कृति और पूजा पद्धतियों का निर्माण हुआ। अपने समय में वेदों का बहुत महत्व रहा है पर श्रीगीता की स्थापना के बाद उनकी सहायक भूमिका ही रह गयी। अक्सर वेदों को लेकर देश के ही कुछ कथित विद्वान अपने ही धर्म की आलोचना करते हैं पर उनको पता ही नहीं कि श्रीगीता में ही अब भारतीय अध्यात्म में मूल तत्व विराजमान हैं।
भगवान श्रीकृष्ण समाज में धर्म के नाम पर वैमनस्य फैलने की प्रवृत्ति को रोकना चाहते थे और इसलिये उन्होंने श्रीगीता की स्थापना की। उसमें केवल अध्यात्मिक शांति के लिये तत्वज्ञान ही नहीं है बल्कि दैहिक रूप से मनुष्य अपना जीवन स्वस्थ और प्रसन्नचित होकर गुजारे इसके लिये विज्ञान रहस्य भी उसमें शामिल है। अक्सर अनेक लोग आलोचकों के प्रतिकार के लिये वेदों की प्रशंसा कर अपना समय नष्ट करते हैं उनको इस बात का आभास ही नहीं है कि भगवान श्रीकृष्ण ने अनेक स्थानों पर वेदों के ज्ञान को अस्वीकार किया है। दरअसल हमारा समाज सतत चलता रहता है और उसमें रूढ़ता की प्रवृत्ति नहीं है इसलिये वेदों से निकले ज्ञान को अनेक महापुरुष अपने उन वचनों और रचनाओं में स्थान देते रहे हैं जो हमेशा ही समाज के लिये हितकर हैं और समाज भी उनको ग्रहण करता रहा है। श्रीगीता की स्थापना ने भारतीय समाज को न केवल अध्यात्मिक रूप से दृढ़ता प्रदान की बल्कि सांसरिक कार्यों को संपन्न करने का संबल भी प्रदान किया। यही कारण है कि आज समाज में लोग वेदों में अधिक दिलचस्पी नहीं लेते क्योंकि श्रीगीता के साथ ही बाल्मीकी रामायण तथा श्रीमद्भागवत भी हृदय को प्रसन्न करने वाले ग्रंथ हैं। मजे की बात यह है कि भारतीय धर्मों के आलोचक वेदों से तो श्लोक उठाते हैं पर इन ग्रंथों में कुछ ढूंढने से कतराते हैं क्योंकि उनको अपने ही हृदय परिवर्तन की आशंका रहती है।
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Wednesday, July 29, 2009

भर्तृहरि नीति शतक-प्रमाद से धन नष्ट होता है (adhyatmik sandesh in hindi)

भर्तृहरि महाराज कहते है कि
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दौर्मन्त्र्यान्नृपतिर्विनष्यति यतिः सङगात्सुतालालनात् विप्रोऽन्ध्ययनात्कुलं कुतनयाच्छीलं खलोपासनात्
ह्यीर्मद्यादनवेक्षणादपि कृषिः स्नेहः प्रवासाश्रयान्मैत्री चाप्रणयात्सृद्धिरनयात् त्यागपमादाद्धनम्


हिंदी में भावार्थ-कुमित्रता से राजा, विषयासक्ति और कामना योगी, अधिक स्नेह से पुत्र, स्वाध्याय के अभाव से विद्वान, दुष्टों की संगत से सदाचार, मद्यपान से लज्जा, रक्षा के अभाव से कृषि, परदेस में मित्रता, अनैतिक आचरण से ऐश्वर्य, कुपात्र को दान देने वह प्रमाद से धन नष्ट हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ संक्षिप्त व्याख्या-आशय यह है कि जीवन में मनुष्य जब कोई कर्म करता है तो उसका अच्छा और बुरा परिणाम यथानुसार प्राप्त होता है। कोई मनुष्य ऐसा नहीं है जो हमेशा बुरा काम करे या कोई हमेशा अच्छा काम करे। कर्म के अनुसार फल प्राप्त होता है। अच्छे कर्म से अर्थ और सम्मान की प्राप्ति होती है। ऐसे में अपनी उपलब्ध्यिों से जब आदमी में अहंकार या लापरवाही का भाव पैदा होता है तब अपनी छबि गंवाने लगता है। अतः सदैव अपने कर्म संलिप्त रहते हुए अहंकार रहित जीवन बिताना चाहिये।
अगर हमें अपने कुल, कर्म या कांति से धन और प्रतिष्ठा प्राप्त होती है तो उसका उपयोग परमार्थ में करना चाहिये न कि अनैतिक आचरण कर उसकी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए लोगों का प्रभावित करने का प्रयास करें। इससे वह जल्दी नष्ट हो जाता है।
यह मानकर चलना चहिये कि हमें मान, सम्मान तथा लोगों का विश्वास प्राप्त हो रहा है वह अच्छे कर्मों की देन है और उनमें निरंतरता बनी रहे उसके लिये कार्य करना चाहिये। अगर अपनी उपलब्धियों से बौखला कर जीवन पथ से हट गये तो फिर वह मान सम्मान और लोगों का विश्वास दूर होने लगता है।
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Saturday, January 3, 2009

कबीर के दोहेः जब रात का सपना टूट जाता है

कबीर सपनें रैन के, ऊपरी आये नैन
जीव परा बहू लूट में, जागूं लेन न देन

संत शिरोमणि कबीरदास जी का आशय यह है कि रात में सपना देखते देखते हुए अचानक आंखें खुल जाती है तो प्रतीत होता है कि हम तो व्यर्थ के ही आनंद या दुःख में पड़े थे। जागने पर पता लगता है कि उस सपने में जो घट रहा था उससे हमारा कोई लेना देना नहीं था।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सपनों का एक अलग संसार है। अनेक बार हमें ऐसे सपने आते हैं जिनसे कोई लेना देना नहीं होता। कई बार अपने सपने में भयानक संकट देखते हैं जिसमें कोई हमारा गला दबा रहा है या हम कहीं ऐसी जगह फंस गये हैं जहां से निकलना कठिन है। तब इतना डर जाते हैं कि हमारी देह अचानक सक्रिय हो उठती है और नींद टूट जाती है। बहुत देर तक तो हम घबड़ाते हैं जब थोड़ा संभलते हैं तो पता लगता है कि हम तो व्यर्थ ही संकट झेल रहे थे।

कई बार सपनों में ऐसी खुशियां देखते हैं जिनकी कल्पना हमने दिन में जागते हुए नहीं की होती है। ऐसे लोगों से संपर्क होता है जिनके पास जाने की हम सोच भी नहीं सकते। जागते हुए पुरानी साइकिल पर चलते हों पर सपने में किसी बड़ी गाड़ी पर घूमते हुए दिखाई देते हैं। ऐसे में जब खुशी चरम पर होती है और सपना टूट जाता है। आंखें खुलने पर भी ऐसा लगता है कि जैसे हम खुशियों के समंदर में गोता लगा रहे थे पर फिर जैसे धीरे धीरे होश आता है तो पता लगता है कि वह तो एक सपना था।

आशय यह है कि यह जीवन भी एक तरह से सपने ही है। इसमें दुःख और सुख भी एक भ्रम हैं। मनुष्य को यह देह इस संसार का आनंद लेने के लिये मिली है जिसके लिये यह जरूरी है कि भगवान भक्ति और ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त किया जाये न कि विषयों में लिप्त होकर अपने को दुःख की अनुभूति कराई जाये। जीवन में कर्म सभी करते हैं पर ज्ञानी और भक्त लोग उसके फल में आसक्त नहीं होते इसलिये कभी निराशा उनके मन में घर नहीं करती। ऐसे ज्ञानी और भक्तजन दुःख और सुख के दिन और रात में दिखने वाले सपने से परे होकर शांति और परम आनंद के साथ जीवन व्यतीत करते हैं।
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Tuesday, December 9, 2008

कबीर सन्देश:भजन गाने वाले भगवान् के नाम का महत्त्व नहीं समझते

पद गावै मन हरषि के, साखी कहै अनंद
राम नाम नहिं जानिया, गल में परिगा फंद

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि ऐसे कई लोग हैं जो प्रसन्न होकर भजन गाते है और साखी कहते हैं पर वह राम का नाम और उसका महत्व नहीं समझते। अतः उनके गले में मृत्यु का फंदा पड़ा रहता है।
राम नाम जाना नहीं, जपा न अजपा जाप
स्वामिपना माथे पड़ा ,कोइ पुरबले पाप

संत शिरोमणि कबीरदास जी कि मनुष्य ने राम का नाम जाना नहीं और कभी जपा तो कभी नहीं जपा। मन में अहंकार है और अपने स्वामी होने के अनुभव से मनुष्य पाप करता हुआ फिर उसके परिणाम स्वरूप दुःख भोगता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या- भगवान राम के चरित्र और जीवन पर व्याख्या करने वाले अनेक कथित संत और साधु हैं जो भक्तों को सुनाते हैं पर यह उनका व्यवसाय है। अनेक लोग भगवान राम के भजन गाते हैं। उनके वीडियो और आडियो कैसिट जारी होते हैं पर यह कोई उनके भक्ति का प्रमाण नहीं है। इस तरह कथायें सुना और भजन गाकर व्यवसायिक संत और गायक अपनी छबि एक भक्त के रूप में समाज में बना लेते हैं पर यह लोगों का भ्रम हैं। राम के चरित्र पर अनेक लोग अपने हिसाब से व्याख्यायें करते हैं पर वह भगवान श्रीराम के नाम का महत्व नहीं जानते। भगवान राम तो अपने भक्तों के हृदय में बसते हैं पर उनका नाम लेकर जो व्यापार करते हैं वह तो अपने अहंकार में होते हैं। दिखाने को कभी कभार वह भी भगवान का नाम लेते हैं पर वह उनके व्यवसाय का हिस्सा होता है। राम के नाम हृदय में धारण करने के बाद आदमी उसका दिखावा नहीं करता और वह इस संसार के दुःख से मुक्त हो जाता है। केवल जुबान लेने पर उसे हृदय में न धारण करने वाले तो हमेशा विपत्ति में पड़े रहते हैं क्योंकि उन्हें अपने कर्तापन का अहंकार होता है।
भक्ति और साधना तो एकांत में की जाने वाली साधना है। जोर शोर से भजन गाते हुए नाचने से आदमी अपने अन्दर नहीं देख पाता अपने आपको बाहर प्रदर्शित करने का ही विचार उसके अन्दर घुमड़ रहा होता है। फिर भजन गाने वालों को उद्देश्य तो पैसा कमाना होता है न की भक्ति भाव स्थापित करना।ऐसे में जिस गीत और संगीत का सृजन ही पैसा कमाने के लिए हुआ है उससे किसी के मन में भक्ति भाव कैसे जाग सकता है। यहाँ इस बात को समझना जरूरी है कि जब आदमी में भक्ति और साधना का भाव होता है तब वह अंतर्मुखी हो जाता है और उसके सारी इन्द्रियाँ एकचित होकर आत्म केन्द्रित होतीं हैं-ऐसे में जो भी क्रिया उसे बहिर्मुखी बनाती है उसकी भक्ति और साधना में व्यवधान डालती है। भजनों पर नाचना गाना हो या शराब के गीतों पर, दोनों का भाव एक जैसा ही क्योंकि दोनों केवल मनोरंजन प्रदान करते हैं भक्ति नहीं।
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Sunday, December 7, 2008

संत कबीरदास संदेशः मनुष्य से नहीं बल्कि सदगुरु के नाम से करे आशा

आस बास जग फंदिया, रहै जरथ लपटाय
नाम आस पूरन करै, सकल आस मिटि जाए

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सुख पाने की आशा अन्य लोगों और वस्तुओं में मोह उत्पन्न करती हैं जिससे आदमी जीवन भर लिपटा रहता है। परमपिता परमात्मा के नाम लेकर अगर उस पर अपनी आशा केंद्रित करें तो फिर पूरी आशायें मिट जायें और उनके टूटने का आशंका से मन त्रस्त न हो।

आस आस घर पर फिरै, सहै दुखारी चोट
कहैं कबीर भरमत फिरै, ज्यों चौसर की गोट

संत कबीर जी का आशय यह है कि मन की आशायें इधर उधर भटकाती है। इसलिये आदमी अपने संपर्क बढ़ाता जाता है पर जब वह आशायें पूर्ण नहीं होती तब उसका मन आहत होता है।। आदमी को आशायें भ्रम में डाल देती हैं और वह चौसर की गोट की तरह हमेशा इधर से उधर भटकता रहता है।

संपादकीय व्याख्या-सबसे बेहतर यही है कि जीवन में अपना कार्य करते हुए भगवान का नाम स्मरण किया जाये। बुढ़ापे में कोई सेवा करे एसी आशा करने से अच्छा यही है कि प्रातः योग साधना,ध्यान और गायत्री मंत्र का जाप करते हुए अपने शरीर को स्वस्थ रखने का प्रयास करें। इसी तरह जीवन में अन्य कार्यों में दूसरे से सहयोग की आशा करना व्यर्थ हैं। ऐसा करने पर धोखा होता है और फिर मन विचलित हो जाता है। किसी का कार्य करें तो उससे कोई आशा न करें क्योंकि अगर उससे अपनी आशा पूरी नहीं हुई तो क्रोध और निराशा में अपना ही खून जलने लगता है। इससे दोहरा नुक्सान है। एक तो जिस आदमी का काम किया उस पर अपनी ऊर्जा व्यय की और जब उसने अपने व्यवहार से निराशा किया तो अपना खून जलाया। दूसरे से आशा करना भ्रम हैं और उससे जितना बचा जाये अच्छा है। सद्गुरु का नाम लेकर उस पर आशायें केंद्रित करना ही अच्छा है।
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Tuesday, October 21, 2008

संत कबीर संदेशः तंबाकू के सेवन से हृदय में मलिनता उत्पन्न होती है

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
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हुक्का तो सोहै नहीं, हरिदासन के हाथ
कहैं कबीर हुक्का गहै, ताको छोड़ो साथ

इसका आशय यह है कि परमात्मा के सच्चे भक्तों के हाथ में हुक्का शोभा नहीं देता। जो व्यक्ति हुक्का पीते हैं उनका साथ ही छोड़ देना चाहिये।
भौंडी आवै बास मुख, हिरदा होय मलीन
कहैं कबीरा राम जन, मांगि चिलम नहिं लीन


आशय यह है कि जो चिलम आदि का सेवन करते हें उनके मूंह से गंदी बास आती है और उनका हृदय भी मलिन होता है। उनकी संगत न करना चाहिये और न उनसे ऐसी व्यसनों की सामग्री मांगना चाहिये।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-चाहे कितना भी कोई अपनी भक्ति का दिखावा करे पर अगर वह तंबाकू, सिगरेट और चिलम का सेवन करता है तो उसका विश्वास नहीं करना चाहिये। अब तो लोगों के लिये भक्ति भी एक तरह का फैशन हो गया है। कहीं भी किसी जगह धार्मिक मेले में जाईये वहां तंबाकू के पाउच बिकते मिल जायेंगे। वहां लोग खरीद कर उसका सेवन करते हैं। वह भले ही कहते हों कि वह तो भगवान के भक्त है पर अपने मन को खुश करने के लिये जब उनको तंबाकू वाले व्यसन जैसे सिगरेट या पाउच की जरूरत पड़ती है तो इसका आशय यह है केवल भक्ति से उनको राहत नहीं मिलती। यह उनकी मानसिक कमजोरी का परिचायक है। जो परमात्मा की सच्ची भक्ति करते हैं उनको ऐसी चीजों की आवश्यकता नहीं होती। वह तो भक्ति से ही अपने मन को सदैव प्रसन्न रखते हैं।

श्रीगीता में कहा गया है कि गुण ही गुणों को बरतते हैंं। जो लोग तंबाकू आदि का सेवन करते हैं तो उनके मूंह से बदबू आती है। इसका आशय यह है कि वह बदबू उनके शरीर में बैठी है और मन और मस्तिष्क को प्रभावित कर रही है। ऐसे में विचारों के केंद्र बिंदू मस्तिष्क में अच्छे विचार कैसे आ सकते हैं। क्या हम कहीं किसी गंदी गली से निकलते हैं तो हमारे मूंह में क्रोध या नाराजगी के भाव नहीं आते? फिर जो मस्तिष्क उस गंदी बदबू को झेल रहा है कैसे अच्छे विचार कर सकता है। इसलिये ऐसे लोगों के साथ भी नहीं रहना चहिये क्योंकि वह किसी तरह से सहायक नहीं होते।
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Monday, September 29, 2008

भृतहरि शतक: स्वाध्याय के अभाव में विद्वता नष्ट होने लगती है

दौर्मन्त्र्यान्नृपतिर्विनष्यति यतिः सङगात्सुतालालनात् विप्रोऽन्ध्ययनात्कुलं कुतनयाच्छीलं खलोपासनात्
ह्यीर्मद्यादनवेक्षणादपि कृषिः स्नेहः प्रवासाश्रयान्मैत्री चाप्रणयात्सृद्धिरनयात् त्यागपमादाद्धनम्


हिंदी में भावार्थ-कुमित्रता से राजा, विषयासक्ति और कामना योगी, अधिक स्नेह से पुत्र, स्वाध्याय के अभाव से विद्वान, दुष्टों की संगत से सदाचार, मद्यपान से लज्जा, रक्षा के अभाव से कृषि, परदेस में मित्रता, अनैतिक आचरण से ऐश्वर्य, कुपात्र को दान देने वह प्रमाद से धन नष्ट हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ संक्षिप्त व्याख्या-आशय यह है कि जीवन में मनुष्य जब कोई कर्म करता है तो उसका अच्छा और बुरा परिणाम यथानुसार प्राप्त होता है। कोई मनुष्य ऐसा नहीं है जो हमेशा बुरा काम करे या कोई हमेशा अच्छा काम करे। कर्म के अनुसार फल प्राप्त होता है। अच्छे कर्म से अर्थ और सम्मान की प्राप्ति होती है। ऐसे में अपनी उपलब्ध्यिों से जब आदमी में अहंकार या लापरवाही का भाव पैदा होता है तब अपनी छबि गंवाने लगता है। अतः सदैव अपने कर्म संलिप्त रहते हुए अहंकार रहित जीवन बिताना चाहिये।

यह मानकर चलना चहिये कि हमें मान, सम्मान तथा लोगों का विश्वास प्राप्त हो रहा है वह अच्छे कर्मों की देन है और उनमें निरंतरता बनी रहे उसके लिये कार्य करना चाहिये। अगर अपनी उपलब्धियों से बौखला कर जीवन पथ से हट गये तो फिर वह मान सम्मान और लोगों का विश्वास दूर होने लगता है।
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Friday, August 22, 2008

संत कबीर वाणी:मन फटने पर कहीं ठिकाना नहीं मिलता

धरती फाटे मेघ मिलै, कपड़ा फाटे डौर
तन फाटे को औषधि, मन फाटे नहिं ठौर


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब पानी बरसता है तो फटी हुई धरती आपस में मिल जाती है और फटा हुआ कपडा डोरे से सिल जाता है और बीमार देह को औषधि से स्वस्थ किया जा सकता है पर अगर कही मन अगर फट गया तो उसके लिये कोई ठिकाना नहीं है।

बिना सीस का मिरग है, चहूं दिस चरने जाय
बांधि लाओ गुरुज्ञान सूं, राखे तत्व लगाय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि यह मन तो तो बिना सिर के मृग की तरह है जो चारों तरफ भागता रहता है। इस पर नियंत्रण करने के लिये किसी ज्ञानी गुरू से तत्वज्ञान प्राप्त कर नियंत्रण करना चाहिए तभी जीवन का आनंद लिया जा सकता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या- सब भौतिक चीजों पर हम अपना नियंत्रण कर लेते हैं पर मन पर कोई नियंत्रण नहीं कर पाता। वह चारों तरफ आदमी की दौड़ाता है। अपने देहाभिमान के चलते हम कभी नहीं अनुभव कर पाते कि अकारण तमाम तरह की उपलब्धियों के लिये दौड़ लगा रहे हैं। भक्ति भाव से दूर रहकर हम अपने आपको बहुत तकलीफ देते हैं। कोई भौतिक चीज मिल जाती है तो उसे पाकर पुलकित हो उठते हैं पर जल्द ही उससे ऊब जाते हैं फिर किसी नयी चीज की तलाश में लग जाते हैं। फिर सब चीजों से ऊब जाते हैं उससे बचने के लिये निरर्थक बोलने लगते हैं तमाम तरह के स्वांग रचते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि हम अपने आपको धोखा देने लगते हैं।

हम अपने मन के साथ भागते हैं पर अपने अंदर बैठे जीवात्मा को नहंी देखते जो भगवान भक्ति के लिये ताकता रहता है। हम भटकते हुए ऐसे गुरूओं की शरण में जाते हैं जो स्वयं तत्वज्ञान से रहित हैं और किताबों से रटकर हमें सुनाते हैं। ज्ञान का मतलब रटने से नहीं है बल्कि उसे धारण करने से है। ऐसे में हमें निष्काम भाव से ज्ञान देने वाले गुरूओं की शरण लेकर अपने मन पर नियंत्रण करने का प्रयास करना चाहिए।
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Wednesday, August 20, 2008

रहीम के दोहे:राम का नाम न जानने वालों का जीवन व्यर्थ

राम नाम जान्यो नहीं, जान्यो सदा उपाधि
कहि रहीम तिहिं आपुनो, जनम गंवायो वादि


कविवर रहीम कहते हैं कि जिन लोगों ने नाम का नाम धारण न कर अपने धन, पद और उपाधि को ही जाना और राम के नाम पर विवाद खडे किये उनका जन्म व्यर्थ है. वह केवल वाद-विवाद कर अपना जीवन नष्ट करते हैं।

राम नाम जान्यो नहीं, भइ पूजा में हानि
कहि रहीम क्यों मानिहै, जम के किंकर कानि


कविवर रही कहते हैं कि जिस मानव ने राम की महिमा नहीं समझी और अन्य देवों की ही पूजा की तो उसमें उसे हानि ही होती है। ऐसे में यमराज के सेवक किसी मर्यादा को नहीं मानेंगे।
भाव-राम का नाम ही सत्य है और बाक़ी अन्य देवों की पूजा से क्या लाभ. उससे तो मन इधर उधर भटकता है ऐसे में जब मृत्यु आती है तो बहुत तकलीफ होती है और पूरा जीवन भी राम का नाम लिए बिना बडे कष्ट से बीतता है।

rahim,hindi

Monday, August 18, 2008

संत कबीर वाणी:मन की तृष्णा की आग जितनी बुझाओ उतना ही बढ़ती जाती है

‘कबीर’ मन फूल्या फिरै, करता हूं मैं ध्रंम
कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम

संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि आदमी अपने सिर पर कर्मकांडों का बोझ ढोते हुए फूलता है कि वह धर्म का निर्वाह कर रहा है। वह कभी अपने विवेक का उपयोग करते हुए इस बात का विचार नहीं करता कि यह उसका एक भ्रम है।
त्रिज्ञणा सींची ना बुझै, दिन दिन बधती जाइ
जवासा के रूष ज्यूं, घण मेहां कुमिलाइ


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मन में जो त्रृष्णा की अग्नि कभी बुझती नहीं है जैसे उस पर पानी डालो वैसे ही बढ़ती जाती है। जैसे जवासे का पौधा भारी वर्षा होने पर भी कुम्हला जाता है पर फिर हरा भरा हो जाता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-संत कबीरदास जी ने अपने समाज के अंधविश्वासों और कुरीतियों पर जमकर प्रहार किये हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि अनेक संत और साधु उनके संदेशों को ग्रहण करने का उपदेश तो देते हैं पर समाज में फैले अंधविश्वास और कर्मकांडों पर खामोश रहते हैं। आदमी के जन्म से लेकर मृत्यु तक ढेर सारे ऐसे कर्मकांडों का प्रतिपादन किया गया है जिनका कोई वैज्ञानिक तथा तार्किक आधार नहीं है। इसके बावजूद बिना किसी तर्क के लोग उनका निर्वहन कर यह भ्रम पालते हैं कि वह धर्म का निर्वाह कर रहे हैं। किसी कर्मकांड को न करने पर अन्य लोग नरक का भय दिखाते हैं यह फिर धर्म भ्रष्ट घोषित कर देते हैं। इसीलिये कुछ आदमी अनचाहे तो कुछ लोग भ्रम में पड़कर ऐसा बोझा ढो रहे हैं जो उनके दैहिक जीवन को नरक बनाकर रख देता है। कोई भी स्वयं ज्ञान धारण नहीं करता बल्कि दूसरे की बात सुनकर अंधविश्वासों और रूढि़यों का भार अपने सिर पर सभी उसे ढोते जा रहे हैं। इस आर्थिक युग में कई लोग तो ऋण लेकर ऐसी परंपराओं को निभाते हैं और फिर उसके बोझ तले आजीवन परेशान रहते हैं। इससे तो अच्छा है कि हम अपने अंदर भगवान के प्रति भक्ति का भाव रखते हुए केवल उसी कार्य को करें जो आवश्यक हो। अपना जीवन अपने विवेक से ही जीना चाहिए।

Saturday, August 16, 2008

रहीम के दोहे:नीच लोगों का साथ करने से स्वयं पर भी कलंक लगता है

रहिमन उजली प्रकृति को, नहीं नीच को संग
करिया वासन कर गहे, कालिख लागत अंग

कविवर रहीम कहते हैं कि जिनकी प्रवृत्ति उजली और पवित्र है अगर उनकी संगत नीच से न हो तो अच्छा ही है। नीच और दुष्ट लोगों की संगत से कोई न कोई कलंक लगता ही है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-सज्जन और उज्जवन प्रकृति के लोग शांत रहते हैं इसलिये उनको ऐसे लोगों की संगत नहीं करना चाहिये जो दुष्टता और अशांत प्रवृत्ति के होते हैं। वैसे आजकल के लोगों में यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है कि वह दलाल और दादा प्रवृत्ति के लोगों की संगत चाहते हैं ताकि कोई उनका कोई बिगाड़ नहीं सके। फिल्म देखकर यह धारणा बना लेते हैं कि दादा लोग किसी से किसी की भी रक्षा कर सकते हैं। कई सज्जन परिवार को लड़के भी भ्रमित होकर दादा किस्म के लड़कों के चक्कर में पड़ जाते हैं तो कई लड़कियां भी अपने लिये ऐसे मित्र चुनती है जो दादा टाईप के हों। उनको लगता है कि वह दादा किस्म के मित्र इस समाज में प्रतिष्ठित होते हैं। देश में इसलिये ही सभी जगह अपराधीकरण का बोलबाला हो रहा है क्योंकि जो उज्जवल और शांत प्रकृत्ति के हैं वह अपना विवेक खोकर ऐसे लोगों को संरक्षण देते हैं जो समाज के लिये खतरा है।

यह बात समझ लेना चाहिये कि बुरे का अंत बुरा ही होता है। दादा और दलाल आकर्षक लगते हैं पर उनकी समाज में कोई सम्मान नहीं होता। बुराई का अंत होता है और ऐसे में जो दुष्ट लोगों की संगत करते हैं उनको भी दुष्परिणाम भोगना पड़ता है।
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Tuesday, August 12, 2008

संत कबीर वाणी:शाब्दिक ज्ञान बघारना भक्ति का प्रमाण नहीं

हरि गुन गावे हरषि के, हिरदय कपट न जाय
आपन तो समुझै नहीं, औरहि ज्ञान सुनाय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भगवान के भजन और गुण तो नाचते हुए गाते तो बहुत लोग हैं पर उनके हृदय से कपट नहीं जाता। इसलिये उनमे भक्ति भाव और ज्ञान नहीं होता परंतु वह दूसरों के सामने अपना केवल शाब्दिक ज्ञान बघारते है।

पढ़त गुनत रोगी भया, बढ़ा बहुत अभिमान
भीतर ताप जू जगत का, घड़ी न पड़ती सान


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि पढ़ते और गुनते हुए आदमी का अभिमान बढ़ता गया। उसके अंतर्मन में जो तृष्णाओं और इच्छाओं की अग्नि जलती है उसके ताप से उसे मन में कभी शांति नहीं मिलती है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वर्तमान काल में शिक्षा का प्रचार प्रसार तो बहुत हुआ है पर अध्यात्मिक ज्ञान की कमी के कारण आदमी को मानसिक अशांति का शिकार हुआ है। वर्तमान काल में जो लोग भी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं उनका उद्देश्य उससे नौकरी पाना ही होता है-उसमें रोजी रोटी प्राप्त करने के साधन ढूंढने का ज्ञान तो दिया जाता है पर अध्यात्म का ज्ञान न होने के कारण भटकाव आता है। बहुत कम लोग हैं जो शिक्षा प्राप्त कर नौकरी की तलाश नहीं करते-इनमें वह भी उसका उपयोग अपने निजी व्यवसायों में करते हैं। कुल मिलाकर शिक्षा का संबंध किसी न किसी प्रकार से रोजी रोटी से जुड़ा हुआ है। ऐसे में आदमी के पास सांसरिक ज्ञान तो बहुत हो जाता है पर अध्यात्मिक ज्ञान से वह शून्य रहता है। उस पर अगर किसी के पास धन है तो वह आजकल के कथित संतों की शरण में जाता है जो उस ज्ञान को बेचते हैं जिससे उनके आश्रमों और संस्थानों के अर्थतंत्र का संबल मिले। जिसे अध्यात्मिक ज्ञान से मनुष्य के मन को शांति मिल सकती है वह उसे इसलिये नहीं प्राप्त कर पाता क्योंकि वह अपनी इच्छाओं और आशाओं की अग्नि में जलता रहता है। कुछ पल इधर उधर गुजारने के बाद फिर वह उसी आग में आ जाता है।
जिन लोगों को वास्तव में शांति चाहिए उन्हें अपने प्राचीन ग्रंथों में आज भी प्रासंगिक साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। यह अध्ययन स्वयं ही श्रद्धा पूर्वक करना चाहिए ताकि ज्ञान प्राप्त हो। हां, अगर उन्हें कोई योग्य गुरू इसके लिये मिल जाता है तो उससे ज्ञाना भी प्राप्त करना चाहिए। यह जरूरी नहीं है कि गुरु कोई गेहुंए वस्त्र पहने हुए संत हो। कई लोग ऐसे भी भक्त होते हैं और उनसे चर्चा करने से भी बहुत प्रकार का ज्ञान प्राप्त होता है। इसलिये सत्संग में जाते रहना चाहिये।
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Tuesday, July 22, 2008

रहीम के दोहेःमन पर नियंत्रण हो तो चिंता की बात नहीं

जो रहीम होती कहूं, प्रभू गति अपने हाथ
तो काधों केहि मानतो, आप बढ़ाई साथ

कविवर रहीम कहते हैं कि यदि परमात्मा ने मनुष्य को अपना भाग्य स्वयं लिखन की शक्ति दी होती तो जाने क्या होता? सभी अपनी महिमा बढ़ाने करने का प्रयास करते और कोई किसी को नहीं मानता।

जो रहीम मन हाथ है, तो तन कहुं किन जाहिं
ज्यों जल में छाया परे, काया भीजत नाहिं


कविवर रहीम कहते हैं कि यदि मन अपने वश में है तो चाहे जहां जायें उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। चाहे कोई कितना भी प्रेरित करे अगर मन पर नियंत्रण है तो कोई बुरे मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित नहीं कर सकता।

संपादकीय व्याख्या-मनुष्य की पहचान उसके मन से ही है। वह उसका संचालन करता है और मनुष्य को स्वयं ही चलने का भ्रम होता है। परमात्मा ने मन की गति को बहुत तीव्र बनाया है पर मनुष्य की देह की शक्ति को सीमित रखा है अगर वह ऐसा नहीं करता तो इस पूरी दुनियां में सिवाय खून खराबे के कुछ नहीं होता। मनुष्य को अपनी नियति तय करने की शक्ति नहीं है तब यह हाल है कि अहंकार को त्यागने को तैयार नहीं होता अगर होती तो वह सिवाय अपने किसी को सहन नहीं करता।

जो मनुष्य अपने मन पर नियंत्रण करते हैं वह आत्मसंयम के साथ जीवन सुख पूर्वक व्यतीत करते हैं पर जो अनियंत्रित गति के साथ दौड़ रहे मन के साथ चलने का प्रयास करते हैं उनको भारी कष्ट उठाने पड़ते हैंं। दुर्घटनाओं का भय तो लगा ही रहता है। मन के मार्ग में भला कोई आता है पर देह का मार्ग में तो अन्य देह और वाहन आ जाते हैं और उनसे टक्कर होने की आशंक रहती है।
दीपक भारतदीप, संकलक एवं संपादक

Thursday, June 5, 2008

संत कबीर वाणी:भिखारी के लिए बोलना और चोर के लिए चुप रहना अच्छा

चातुर को चिन्ता घनी, नहिं मूरख को लाज
सर अवसर जानै नहीं, पेट भरन सूं काज


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो चतुर और ज्ञानी होते हैं उनके ढेर सारी चिंताएं होती हैं जबकि जो अज्ञानी और मूर्ख है उसे किसी प्रकार की चिंता नहीं सताती और वह शर्म से परे होता है। उसे तो किसी तरह अपना पेट भरने से मतलब होता है। वह तो समय असमय को नहंी जानता उसे तो अपना पेट भरने से मतलब होता है।

मांगन को भल बोलनो, चोरन को भल चूप
माली को भल बरसनो, धोबी को भल धूप


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि भिक्षा मांगने वालों के लिए बोलना अच्छा है, क्योंकि उसी से उनको कार्य में सिद्धि मिलेगी। चोरों के लिए चुप रहना ही अच्छा है, अन्यथा उसे पकड़ लिया जायेगा। माली के लिए वर्षा का होना बहुत अच्छा है जबकि धोबी के लिए धूप अच्छी है ताकि उसके कपड़े सूखते रहें।

Saturday, May 31, 2008

भर्तृहरि नीति शतक:विद्वान यदि दुष्ट हो तो उसका त्याग करें

                     पहले समाज में सभी लोगों को शिक्षा प्राप्त करने का अवसर नहीं मिल पाता था जबकि आज सभी के लिये समान अवसर सुलभ हैं। ऐसे में अनेक लोग विद्यालयों और महाविद्यालयों में  किताबों को रटकर परीक्षाएं उत्तीर्ण कर लेते हैं। कहीं कहीं तो नकल कर भी लोग पास हो जाते हैं। ऐसे लोगों को ज्ञान तो जुबान पर रट जाता है पर उसका उनके स्वयं के हृदय पर कोई प्रभाव नहीं होता। ऐसे लोग बातचीत में तो अपनी विद्वता दिखाकर दूसरों को प्रभावित कर लेते हैं और फिर कहीं कहीं ठगी और धोखा भी करते हैं।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है  कि
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दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययाऽलङ्कृत्तोऽपि सन्।
मणिनाः भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकर
                    हिंदी में भावार्थ- यदि विद्वान में भी दुष्टता का भाव दिखने लगे तो उसकी संगत का त्याग कर देना चाहिए। विषधर में मणि सुशोभित होती है पर इससे उसका भय कम नहीं हो जाता क्योंकि उसका विषय भयंकर होता है।
                    खासतौर से अध्यात्म के विषय में यह बात आम हो गयी है। कई लोगों ने धर्मग्रंथों को पढ़कर उनके श्लोक और दोहे रट लिये हैं और लोगों में विद्वान की तरह प्रवचन करते हैं। कई लोग उनके जाल में फंस जाते हैं और उन पर अपना सर्वस्व लुटा बैठते हैं क्योंकि उनको ऐसे लोगों में दुष्ट भाव दिखाई नहीं देता। अनेक संतों पर तमाम तरह के आरोप लगते हैं। कई स्थानों पर तो उन पर इतने गंभीर आरोप लगते हैं कि हम उनका यहां जिक्र करने में भी संकोच करते हैं। समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर ऐसे समाचार आये दिन आते हैं। इसलिये हमें अगर किसी में विद्वता का आभास होता है तो यह भी देखना चाहिए कि वह सात्विक मार्ग पर चल रहा है कि नहीं। अगर वह पथभ्रष्ट है तो उसका त्याग कर देना चाहिए। 

Saturday, May 17, 2008

भृतहरि शतक:स्त्री को अबला मानने वाले कवि विपरीत बुद्धि के

नूनं हि ते कविवरा विपरीत वाचो
ये नित्यमाहुरबला इति कामिनीनाम् ।
याभिर्विलालतर तारकदृष्टिपातैः
शक्रायिऽपि विजितास्त्वबलाः कथं ताः


इस श्लोक का आशय यह है कि जो कवि सुंदर स्त्री को अबला मानते हैं उनको तो विपरीत बुद्धि का माना जाना चाहिए। जिन स्त्रियों ने अपने तीक्ष्ण दृष्टि से देवताओं तक को परास्त कर दिया उनको अबला कैसे माना जा सकता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अधिकतर कवि और रचयिता स्त्री को अबला मानते हैं पर भर्तुहरि महाराज ने उसके विपरीत उन्हें सबला माना है। सुंदर स्त्री से आशय समूची स्त्री जाति से ही माना जाना चाहिए, क्योंकि स्त्री का सौंदर्य उसके हृदय में स्थित लज्जा और ममता भाव में है जो कमोवेश हर स्त्री में होती है। माता चाहे किसी भी रंग या नस्ल की हो बच्चे पर अपनी ममता लुटा देती है। बच्चा भी अपनी मां को बड़े प्रेम से निहारता है। पूरे विश्व मेंे अनेक कवि और लेखक नारी को अबला मानकर उस पर अपनी विषय सामग्री प्रस्तुत करते हैं। वास्तव में बहुत अज्ञानी होते हैं। उन्हें अपनी रचना के समय यह आभास नहीं होता कि हर स्त्री का किसी न किसी पुरुष-जिसमें पिता, भाई, पति और रिश्ते-से संबंध होता है। वह सबके साथ निभाते हुए उनसे संरक्षण पाती है। जो लोग स्त्री को अबला मानकर अपनी रचना लिखते हैं वह वास्तव में अपने आसपास स्थित नारियों से अपने संबंधों पर दृष्टिपात किये बिना ही केवल नाम पाने के लिये लिखते हैं और इसी कारण आजकल पूरे विश्व में नारी को लेकर असत्य साहित्य की भरमार है। अनेक कहानियां और कवितायें नारियों को अबला और शोषित मानकर कर लिखीं जातीं हैं और उनमें सच कम कल्पना अधिक होती है। ऐसे लोग विपरीत बुद्धि के महत्वांकाक्षी लेखक लोगों की बुद्धि तरस योग्य है।

Thursday, May 8, 2008

संत कबीर वाणी:टोना-टोटका सब झूठ है

जंत्र मंत्र झूठ है, मति भरमो जग कोय
सार शब्द जानै बिना, कागा हंस न होय


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि यंत्र और मंत्र एकदम बेकार है और इसके भ्रम में कभी मत पड़ो। जब तक परम सत्य और शब्द को नहीं जानेगा तब तक वह सिद्ध नहीं हो सकता। कौवा कभी हंस नहीं हो सकता।

जिहि शब्दे दुख ना लगे, सोईं शब्द उचार
तपत मिटी सीतल भया, सोई शब्द ततसार


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपने मुख से ऐसे शब्द बोलना चाहिए जिससे दूसरा प्रसन्न हो जाये। अगर दूसरा व्यक्ति हमारे बोलने से प्रसन्न होता है तो हमें स्वाभाविक रूप से आत्मिक सुख की प्राप्ति होती है।

संपादकीय व्याख्या-कहते हैं कि शिक्षा व्यक्ति को जागरूक बनाती है पर कुछ हमारे देश में कुछ लोग ऐसे है जो शिक्षित होने के बावजूद टोने टोटके वालों के पास जाकर अपनी समस्याओं का हल ढूंढते हैं या कथित ढोंगी साधुओं की दरबार में उपस्थित होकर उनका आशीर्वाद लेते हैं। यह यंत्र-मंत्र और टोना टोटका कई लोगों के लिये व्यापार बना हुआ है। कहीं पैसा लेकर यज्ञ हो रहा है तो कही तावीज आदि बेचा जाता है। किसी के हाथ में कोई सिद्धि नहीं है पर सिद्ध कहलाने वाले बहुत लोग मिल जायेंगे। सच तो यह है जीवन का पहिया घूमता है तो कई काम स्वतः बनते हैं तो कई आदमी के बनाने के बावजूद बिगड़ जाते हैं। ऐसे में अंधविश्वासों की सहायता लेना अपने आपको धोखा देना है।

Monday, April 21, 2008

रहीम के दोहे:समय छोटे को भी बड़ा बना देता है


छोटेन सों साहैं बंड़े, कहि रहीम यह लेख
सहसन का हय बांधियत, लै दमरी की मेख


कविवर रहीम कहते हैं कि छोटा आदमी भी कम महत्वपूर्ण नहीं होता। समय छोटे को कभी कभी महत्वपूर्ण बना देता है। हजारों में मोल वाली गाय भैंस और घोड़े को जिस खूंटे में बांधा जाता है वह सस्ता मिलता है, पर वह अपने से कीमती पशु को बाँधने के काम आते है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-जब कमीज में बटन नहीं होता तो उसे पहनने में संकोच होता है और उसे टांकने के लिये घर में हम सुई ढूंढते हैं। होता यह है कि एक कमीज को बटन टांगने के लिये सुई लाते हैं और फिर उसे कहीं लापरवाही से रख देते हैं। सस्ती होती है तो परवाह नहीं करते पर वक्त पर वह भी काम आती है। ऐसे ही लोगों की मनोवृत्ति होती है कि छोटे आदमी की परवाह नहीं करता। वैसे अगर थोड़ा चिंतन करें तो अनेक मौके पर छोटे आदमी ही काम करते हैं। ऐसा हो सकता है कि हमारी मित्रता और संपर्क बड़े लोगों से हैं पर क्या हम अपना कोई काम उनको सामने कह सकते हैं। घर में कोई कार्यक्रम है तो हम अपने से अमीर और बड़े रिश्तेदार से काम नहीं कह पाते जबकि छोटे और गरीब रिश्तेदार से कह सकते हैं।
इतना ही नहीं आपने देखा होगा कि अनेक जगह नौकरों द्वारा मालिक के प्रति अपराध के समाचार आते हैं होता यह है कि या तो कभी वह मालिक के रवैये से क्षुब्ध होकर अपराध करते हैं या फिर मालिक नौकर से यह सोचकर लापरवाह हो जाते हैं कि यह क्या कर लेगा। दोनों ही स्थितियों से बचने का एक ही रास्ता है वह यह कि हम समदर्शी हो जायें। इससे एक लोग हमसे नाराज नहीं होंगे और सतर्कता का भाव भी पैदा होगा। चुभ जाये तो कांटा भी भारी तकलीफ देता है और काम आये तो सुई भी काम आती है-यह ध्यान हमेशा रखना चाहिए।

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