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Tuesday, December 9, 2008

कबीर सन्देश:भजन गाने वाले भगवान् के नाम का महत्त्व नहीं समझते

पद गावै मन हरषि के, साखी कहै अनंद
राम नाम नहिं जानिया, गल में परिगा फंद

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि ऐसे कई लोग हैं जो प्रसन्न होकर भजन गाते है और साखी कहते हैं पर वह राम का नाम और उसका महत्व नहीं समझते। अतः उनके गले में मृत्यु का फंदा पड़ा रहता है।
राम नाम जाना नहीं, जपा न अजपा जाप
स्वामिपना माथे पड़ा ,कोइ पुरबले पाप

संत शिरोमणि कबीरदास जी कि मनुष्य ने राम का नाम जाना नहीं और कभी जपा तो कभी नहीं जपा। मन में अहंकार है और अपने स्वामी होने के अनुभव से मनुष्य पाप करता हुआ फिर उसके परिणाम स्वरूप दुःख भोगता है।

वर्तमान संदर्भ में व्याख्या- भगवान राम के चरित्र और जीवन पर व्याख्या करने वाले अनेक कथित संत और साधु हैं जो भक्तों को सुनाते हैं पर यह उनका व्यवसाय है। अनेक लोग भगवान राम के भजन गाते हैं। उनके वीडियो और आडियो कैसिट जारी होते हैं पर यह कोई उनके भक्ति का प्रमाण नहीं है। इस तरह कथायें सुना और भजन गाकर व्यवसायिक संत और गायक अपनी छबि एक भक्त के रूप में समाज में बना लेते हैं पर यह लोगों का भ्रम हैं। राम के चरित्र पर अनेक लोग अपने हिसाब से व्याख्यायें करते हैं पर वह भगवान श्रीराम के नाम का महत्व नहीं जानते। भगवान राम तो अपने भक्तों के हृदय में बसते हैं पर उनका नाम लेकर जो व्यापार करते हैं वह तो अपने अहंकार में होते हैं। दिखाने को कभी कभार वह भी भगवान का नाम लेते हैं पर वह उनके व्यवसाय का हिस्सा होता है। राम के नाम हृदय में धारण करने के बाद आदमी उसका दिखावा नहीं करता और वह इस संसार के दुःख से मुक्त हो जाता है। केवल जुबान लेने पर उसे हृदय में न धारण करने वाले तो हमेशा विपत्ति में पड़े रहते हैं क्योंकि उन्हें अपने कर्तापन का अहंकार होता है।
भक्ति और साधना तो एकांत में की जाने वाली साधना है। जोर शोर से भजन गाते हुए नाचने से आदमी अपने अन्दर नहीं देख पाता अपने आपको बाहर प्रदर्शित करने का ही विचार उसके अन्दर घुमड़ रहा होता है। फिर भजन गाने वालों को उद्देश्य तो पैसा कमाना होता है न की भक्ति भाव स्थापित करना।ऐसे में जिस गीत और संगीत का सृजन ही पैसा कमाने के लिए हुआ है उससे किसी के मन में भक्ति भाव कैसे जाग सकता है। यहाँ इस बात को समझना जरूरी है कि जब आदमी में भक्ति और साधना का भाव होता है तब वह अंतर्मुखी हो जाता है और उसके सारी इन्द्रियाँ एकचित होकर आत्म केन्द्रित होतीं हैं-ऐसे में जो भी क्रिया उसे बहिर्मुखी बनाती है उसकी भक्ति और साधना में व्यवधान डालती है। भजनों पर नाचना गाना हो या शराब के गीतों पर, दोनों का भाव एक जैसा ही क्योंकि दोनों केवल मनोरंजन प्रदान करते हैं भक्ति नहीं।
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1 comment:

सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ said...

‘जपा न अजपा जाप’का अर्थ कभी जपा तो कभी नहीं जपा,समीचीन नहीं है।अजपा जप का अर्थ होता है स्वतः चलनें वाला जप।जब हम निरन्तर जप करते रहते हैं तो एक तनमयता एक समर्पण एक अविरल जपधारा सी निस्रत होनें लगती है और उस अवस्था में चाहे हम किसी से हल्की फुल्की बात कर रहे हों,चाहे कोई काम कर रहे हो जप अभ्यास और समर्पणवश चलता रहता है।उसी भांति जैसे हम स्वभाव वश साँस प्रस्वाँस लेते रहते हैं।

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