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Sunday, December 7, 2008

संत कबीरदास संदेशः मनुष्य से नहीं बल्कि सदगुरु के नाम से करे आशा

आस बास जग फंदिया, रहै जरथ लपटाय
नाम आस पूरन करै, सकल आस मिटि जाए

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि सुख पाने की आशा अन्य लोगों और वस्तुओं में मोह उत्पन्न करती हैं जिससे आदमी जीवन भर लिपटा रहता है। परमपिता परमात्मा के नाम लेकर अगर उस पर अपनी आशा केंद्रित करें तो फिर पूरी आशायें मिट जायें और उनके टूटने का आशंका से मन त्रस्त न हो।

आस आस घर पर फिरै, सहै दुखारी चोट
कहैं कबीर भरमत फिरै, ज्यों चौसर की गोट

संत कबीर जी का आशय यह है कि मन की आशायें इधर उधर भटकाती है। इसलिये आदमी अपने संपर्क बढ़ाता जाता है पर जब वह आशायें पूर्ण नहीं होती तब उसका मन आहत होता है।। आदमी को आशायें भ्रम में डाल देती हैं और वह चौसर की गोट की तरह हमेशा इधर से उधर भटकता रहता है।

संपादकीय व्याख्या-सबसे बेहतर यही है कि जीवन में अपना कार्य करते हुए भगवान का नाम स्मरण किया जाये। बुढ़ापे में कोई सेवा करे एसी आशा करने से अच्छा यही है कि प्रातः योग साधना,ध्यान और गायत्री मंत्र का जाप करते हुए अपने शरीर को स्वस्थ रखने का प्रयास करें। इसी तरह जीवन में अन्य कार्यों में दूसरे से सहयोग की आशा करना व्यर्थ हैं। ऐसा करने पर धोखा होता है और फिर मन विचलित हो जाता है। किसी का कार्य करें तो उससे कोई आशा न करें क्योंकि अगर उससे अपनी आशा पूरी नहीं हुई तो क्रोध और निराशा में अपना ही खून जलने लगता है। इससे दोहरा नुक्सान है। एक तो जिस आदमी का काम किया उस पर अपनी ऊर्जा व्यय की और जब उसने अपने व्यवहार से निराशा किया तो अपना खून जलाया। दूसरे से आशा करना भ्रम हैं और उससे जितना बचा जाये अच्छा है। सद्गुरु का नाम लेकर उस पर आशायें केंद्रित करना ही अच्छा है।
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