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Wednesday, January 26, 2011

योग्य आदमी कभी अपनी प्रतिभा का दावा नहीं करते-हिन्दी धार्मिक लेख (yogyata aur pratibha-hindi dharmik lekh)

यह मानवीय स्वभाव है कि वह चाहता है कि उसका व्यक्तित्व दूसरे लोगों को आकर्षक लगे। दूसरों से मान पाने की भावना मनुष्य में तीव्रतर होती है मगर इसके लिये यह जरूरी है कि मनुष्य अपने हाथ से परोपकार के काम करे तथा अपने अच्छे आचरण का उदाहरण समाज के सामने प्रस्तुत करे। इसके लिये यह आवश्यक है कि कुछ कर्म निष्काम भाव से करने के साथ ही उद्देश्य हीन दया की जाये। यह सभी के लिये संभव नहीं है पर भला दिखने की चाहत होने के कारण मनुष्य आत्मप्रवंचना करता है। वह ऐसे कामों को अपने खाते में दिखाता है जो उसने किये ही नहीं-वरन् वह तो हुए भी नहीं।
सारा मनुष्य समुदाय अपना पूरा जीवन अपने तथा परिवार की स्वार्थपूर्ति में लगा देता है पर जहां अवसर मिले वहां अपने को बुद्धिमान तथा परोपकारी साबित करने के साथ ही दयालु होने का दावा करता है। विरले ही ज्ञानी तथा संत प्रवृत्ति के लोग होते हैं जो स्वार्थों की लीक से हटकर समाज के लिये निष्काम भाव से करने के साथ ही निष्प्रयोजन दया करते हैं। ऐसे लोग कभी दावे कर गाते नहीं है।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि
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बड़ा बड़ाई ना करै, बड़ा न बोले बोल।
हीरा मुख से ना कहै, लाख टका मेरी मोल।
‘‘जो आदमी अपने अंदर बड़प्पन का भाव लेकर जीता है वह बड़ी बातें नहीं करता जिस तरह हीरा कभी अपने मुख से अपनी लाख टके कीमत होने की बात नहीं कहता।’’
आदमी के अंदर अगर योग्यता, प्रतिभा तथा ज्ञान है तो उसके आचरण तथा कर्म से प्रकट होता है। इसलिये ही ज्ञानी लोग अपने जीवन में नियमित कर्म के साथ ही ज्ञान संग्रह का काम भी करते हैं। समय मिलने पर सत्संग तथा हृदय से भगवान की भक्ति करते हैं। उनकी साधना, तप और ज्ञान का प्रकाश स्वयं ही सभी के सामने फैलता है। वह कभी दावा नहीं करते कि वह श्रेष्ठ व्यक्ति हैं। इसके विपरीत जिनके पास न ज्ञान है न साधना और तप करने की प्रवृत्ति वह खाली पीली अपनी डींगें मारते हैं। उनको कोई सामने कहता नहीं क्योंकि उनकी संगत भी तो ऐसे ही लोगों से होती है।
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संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com

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