भीड़ में जाकर शांति, सुख तथा स्वास्थ्य की कामना करना एक तरह से मूर्खता है। अक्सर लोग दुनियांदारी से ऊबकर कहीं सत्संग या पर्यटन के लिये जाना चाहते हैं पर उनको लगता है कि कोई दूसरा परिवार या समूह साथ होना चाहिये। समूह में जाकर आनंद प्राप्त करने की इच्छा अंततः मूल उद्देश्य से ही मनुष्य को भटका देती है। लोग एक भीड़ से ऊबकर दूसरी भीड़ में जानकर रस लेना चाहते हैं पर भला एक समय में दो लक्ष्य कैसे प्राप्त किये जा सकते हैं। साथी और सत्संग एकसाथ मिलना संभव नहीं है। दरअसल भीड़ में रहते हुए आदमी एकांत से घबड़ाने लगता है। समूह में चलने की उसकी आदत कहीं भी नहीं जाती। वह सुख, शांति और आनंद चाहता है पर अकेले नहीं जबकि इसकी अनुभूति केवल एकांत में ही की जा सकती है।
अपने शरीर को स्वस्थ रखना भी एक तरह से तप या यज्ञ है। इसके लिये हम चाहें सुबह योग साधना करें या पार्क की सैर यह महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह कि हम उसे यज्ञ या तप की तरह करते हैं या केवल मन बहलाने के लिये भीड़ के साथ चलते हैं। अनेक लोग सुबह झुंड बनाकर सैर के लिये निकलते हैं। उनके बीच वही बातें होती हैं जो उनके प्रतिदिन की दिनचर्या का बयान करती हैं। वह साथ चलते हुए निंदा, आलोचना तथा सांसरिक बातों में बिता देते हैं। चलने से शरीर को लाभ तो होता है पर उनकी चर्चाओं के चलते मन, बुद्धि तथा विचारों में शुद्धता नहीं आ पाती जिससे मस्तिष्क स्वस्थ रहता है। उसी तरह सत्संग या भ्रमण में लोगों को साथी चाहिए। अक्सर लोग कहते हैं कि ‘कोई साथी नहीं मिलता इसलिये अध्यात्मिक विषय से नहीं जुड़ पाते।’
यह कथन दरअसल आदमी के दिमागी आलस्य या मानसिक विलासिता के अलावा कुछ नहीं है। अगर स्वयं ही मन में संकल्प हो तब किसी साथ की आवश्यकता नहीं है। नीति विशारद चाणक्य इस विषय में कहते हैं कि-
एकाकिना तयो द्वाभ्यां पठनं गायनं त्रिभिः।
चतुर्भिर्गमनं क्षेत्रं पंचभिर्बहुभिरैयाः।।
‘‘तप अकेले होता है, अध्ययन दो के बीच, गाना तीन में होता है। यात्रा में चार व्यक्ति ठीक होते हैं। खेती पांच से भली भांति होती है और युद्ध हमेशा बहुतों के द्वारा होता है।’’
चतुर्भिर्गमनं क्षेत्रं पंचभिर्बहुभिरैयाः।।
‘‘तप अकेले होता है, अध्ययन दो के बीच, गाना तीन में होता है। यात्रा में चार व्यक्ति ठीक होते हैं। खेती पांच से भली भांति होती है और युद्ध हमेशा बहुतों के द्वारा होता है।’’
कुछ कामों के लिये समूह का होना आवश्यक है। जहां अध्यात्मिक विषय के अध्ययन का प्रश्न हो वहां किसी के साथ चर्चा करना ठीक है पर जब उस पर मनन या चिंतन करना हो तब एकांत ही अच्छा है। सत्संग में जाना चाहिए क्योंकि वहां अच्छी बातें सुनने को मिलती हैं। वहां जाकर अपना मन केवल श्रवण में ही लगाना चाहिए न कि इधर उधर की बातों में! बहरहाल जब जब कि किसी विषय पर अंतर्मुखी होकर विचार करना आवश्यक हो तब एकांत में चले जाना चाहिए क्योंकि बहिर्मुखी रहने पर मनन और चिंतन में बाधा पड़ती है। इसके साथ ही जहां हृदय से भक्ति करने का विचार हो वहां भी एकांत रखना चाहिए तभी मन, बुद्धि तथा विचारों में शुद्धता आ सकती है जो कि सहज जीवन के लिये आवश्यक है।
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संकलक लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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