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Saturday, May 31, 2008

भर्तृहरि नीति शतक:विद्वान यदि दुष्ट हो तो उसका त्याग करें

                     पहले समाज में सभी लोगों को शिक्षा प्राप्त करने का अवसर नहीं मिल पाता था जबकि आज सभी के लिये समान अवसर सुलभ हैं। ऐसे में अनेक लोग विद्यालयों और महाविद्यालयों में  किताबों को रटकर परीक्षाएं उत्तीर्ण कर लेते हैं। कहीं कहीं तो नकल कर भी लोग पास हो जाते हैं। ऐसे लोगों को ज्ञान तो जुबान पर रट जाता है पर उसका उनके स्वयं के हृदय पर कोई प्रभाव नहीं होता। ऐसे लोग बातचीत में तो अपनी विद्वता दिखाकर दूसरों को प्रभावित कर लेते हैं और फिर कहीं कहीं ठगी और धोखा भी करते हैं।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है  कि
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दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययाऽलङ्कृत्तोऽपि सन्।
मणिनाः भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकर
                    हिंदी में भावार्थ- यदि विद्वान में भी दुष्टता का भाव दिखने लगे तो उसकी संगत का त्याग कर देना चाहिए। विषधर में मणि सुशोभित होती है पर इससे उसका भय कम नहीं हो जाता क्योंकि उसका विषय भयंकर होता है।
                    खासतौर से अध्यात्म के विषय में यह बात आम हो गयी है। कई लोगों ने धर्मग्रंथों को पढ़कर उनके श्लोक और दोहे रट लिये हैं और लोगों में विद्वान की तरह प्रवचन करते हैं। कई लोग उनके जाल में फंस जाते हैं और उन पर अपना सर्वस्व लुटा बैठते हैं क्योंकि उनको ऐसे लोगों में दुष्ट भाव दिखाई नहीं देता। अनेक संतों पर तमाम तरह के आरोप लगते हैं। कई स्थानों पर तो उन पर इतने गंभीर आरोप लगते हैं कि हम उनका यहां जिक्र करने में भी संकोच करते हैं। समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर ऐसे समाचार आये दिन आते हैं। इसलिये हमें अगर किसी में विद्वता का आभास होता है तो यह भी देखना चाहिए कि वह सात्विक मार्ग पर चल रहा है कि नहीं। अगर वह पथभ्रष्ट है तो उसका त्याग कर देना चाहिए। 

1 comment:

Udan Tashtari said...

अच्छा भावार्थ दिया है, आभार.

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