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Tuesday, June 14, 2011

पतंजलि योग साहित्य-तत्वज्ञान से विरक्ति होने पर मिलती है धर्ममेय समाधि (patanjali yog sahitya-dharmamey samadhi)

           हम जानते हैं कि हमारे हिमालयीन क्षेत्रों में अनेक ऐसे तपस्वी रहते हैं जो वहां से कभी नीचे या बाहर नहीं आते। अक्सर कुछ लोग उन पर आक्षेप करते हैं कि अगर वह वाकई तपस्वी हैं तो वह क्यों नहीं समाज का नेतृत्व करने के लिये बाहर आते। उन पर पर अकर्मण्यता का आरोप भी लगाया जाता है। इसके बावजूद उनके भक्त और शिष्य उनके पास जाते हैं। इनमें से कुछ ऋषि तो अपने भक्तों तथा शिष्यों की सेवा को भी स्वीकार नहीं करते और इसकी उनको आवश्यकता भी नहीं होती क्योंकि वह ज्ञानी महात्मा आहार विहार तथा प्रचार के लोभ में नहीं फंसते।
भले ही हमारे देश के कुछ अज्ञानी लोग उन पर आक्षेप करें पर सच यह है कि ऐसे लोग महान योगी होने के साथ महान तत्वज्ञानी भी होते हैं। हम लोग अक्सर ज्ञान की चरम सीमा यह समझते हैं कि उसे दूसरों को सुनाया जाये या उसका नकदीकरण हो। यह अल्पज्ञान के साथ ही अहंकार का भी प्रमाण हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में कहा भी है उनके ज्ञान का प्रचार केवल भक्तों में ही किया जाये जबकि हम देख रहे हैं कि व्यवसायिक प्रवचनकर्ता चाहे जहां उसे सुनाते रहते हैं। यह अलग बात है कि इसका प्रभाव कहीं परिलक्षित नहीं होता। दरअसल महाज्ञानी धर्ममेय समाधि में लीन रहते हैं जहां उनको मान पाने का लोभी नहीं होता। इस वजह से उनके सारे क्लेश भी समाप्त हो जाते हैं।
       पतंजलि योग में कहा गया है कि
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         प्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेक ख्यातेर्धर्ममेघः समाधिः।।
       ‘‘जिस योगी का तत्वज्ञान के महत्व में भी विरक्ति हो जाती है उसका विवेक और ज्ञान सर्वथा प्रकाशमान रहता है और उसे ही धर्ममेय समाधि कहा जाता है।
तत क्लेशकर्मनिवृत्तिः
         ‘‘उस समय उसके अंदर क्लेश और कर्मों का सर्वथा नाश हो जाता है।
        तद सर्वावरणमलापेतस्य ज्ञानस्यानन्त्याज्ज्ञेमल्पम्।।
      ‘उस समय उसके मन से सारे परदे और मल हट चुका होता है। ऐसा ज्ञान अनंत है इस कारण क्लेश पदार्थ कम हो जाते हैं।’
        देखा जाये तो हमारे अधिकतर संकट लोभ, लालच, तथा अहंकार के वजह से आते हैं।
जब मनुष्य इससे विरक्त हो जाता है तब उसका जीवन शांति से बीतता है। ऐसा तभी संभव है कि जब कोई धर्ममेय समाधि में दक्षता प्राप्त कर लेता है।
लेखक एवं संपादक दीपक राज कुकरेजा भारतदीपग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep',Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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Sunday, May 30, 2010

श्री गुरवाणी-अहंकार और आडम्बर बढ़ाने वाला दहेज़ किस काम का (dahej ki kaam ka-shri gurvani)

गुरुवाणी में कहा गया है
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होर मनमुख दाज जि रखि दिखलाहि,सु कूड़ि अहंकार कच पाजो
      हिंदी में भावार्थ-श्री गुरू ग्रन्थ साहिब के अनुसार लड़की के विवाह में  ऐसा दहेज दिया जाना चाहिए जिससे मन का सुख मिले और जो सभी को दिखलाया जा सके। ऐसा दहेज देने से क्या लाभ जिससे अहंकार और आडम्बर ही दिखाई दे।
हरि प्रभ मेरे बाबुला, हरि देवहु दान में दाजो।

           
हिन्दी में भावार्थ-श्री गुरुग्रंथ साहिब में दहेज प्रथा का आलोचना करते हुए कहा गया है कि वह पुत्रियां प्रशंसनीय हैं जो दहेज में अपने पिता से हरि के नाम का दान मांगती हैं।
     वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-दहेज हमारे समाज की सबसे बड़ी बुराई है। चाहे कोई भी समाज हो वह इस प्रथा से मुक्त नहीं है। अक्सर हम दावा करते हैं कि हमारे यहां सभी धर्मों का सम्मान होता है और हमारे देश के लोगों का यह गुण है कि वह विचारधारा को अपने यहां समाहित कर लेते हैं। इस बात पर केवल इसलिये ही यकीन किया जाता है क्योंकि यह लड़की वालों से दहेज वसूलने की प्रथा उन धर्म के लोगों में भी बनी रहती है जो विदेश में निर्मित हुए और दहेज लेने देने की बात उनकी रीति का हिस्सा नहीं है। कहने का आशय यह है कि दहेज लेने और देने को हम यह मानते हैं कि यह ऐसे संस्कार हैं जो हमारी पहचान हैं  मिटने नहीं चाहिए।  कोई भी धर्म या  समाज हो  कथित रूप से इसी पर इतराता है।
       इस प्रथा के दुष्परिणामों पर बहुत कम लोग विचार करते हैं। इतना ही नहीं आधुनिक अर्थशास्त्र की भी इस पर नज़र नहीं है क्योंकि यह दहेज प्रथा हमारे यहां भ्रष्टाचार और बेईमानी का कारण है और इस तथ्य पर कोई भी नहीं देख पाता। अधिकतर लोग अपनी बेटियों की शादी अच्छे घर में करने के लिये ढेर सारा दहेज देते हैं इसलिये उसके संग्रह की चिंता उनको नैतिकता और ईमानदारी के पथ से विचलित कर देती है। केवल दहेज देने की चिंता ही नहीं लेने की चिंता में भी आदमी अपने घर पर धन संग्रह करता है ताकि उसकी धन संपदा देखकर बेटे की शादी में अच्छा दहेज मिले। यह दहेज प्रथा हमारी अध्यात्मिक विरासत की सबसे बड़ी शत्रु हैं और इससे बचना चाहिये। यह अलग बात है कि अध्यात्मिक, धर्म और समाज सेवा के शिखर पुरुष ही अपने बेटे बेटियों की शादी कर समाज को चिढ़ाते हैं। सच बात तो यह है कि यह पर्थ हमारे समाज के अस्तित्व पर संकर खड़ा किये हुए है और अगर यह ख़त्म नहीं हुए तो एक दिन यह समाज भी कह्तं हो जाएगा।
---------संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक भारतदीप
http://teradipak.blogspot.com

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Friday, May 21, 2010

संत कबीर दास के दोहे-प्रेम के घर तक पहुंचना आसान नहीं (prem ka ghar-sant kabir vani)

प्रीति बहुत संसार में, नाना विधि की सोय
उत्तम प्रीति सो जानिए, सतगुरू से जो होय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि इस संसार में प्रेम करने वाले बहुत हैं और प्रेम करने के अनेक तरीके  और विधियां भीं हैं पर सच्चा प्रेम तो वही है जो परमात्मा से किया जाये।
जब लग मरने से डरैं, तब लगि प्रेमी नाहिं
बड़ी दूर है प्रेम घर, समझ लेहू मग माहिं
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक मृत्यु का भय है तब तक प्रेम हो नहीं सकता हैं प्रेम का घर तो बहुत दूर है और उसे पाना आसान नहीं है।
वर्तमान  सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे जन जीवन में फिल्मों का प्रभाव अधिक हो गया है जिसमें प्रेम का आशय केवल स्त्री पुरुष के आपस संबंध तक ही सीमित हैं। सच तो यह है कि अब कोई पिता अपनी बेटी से और भाई अपनी बहिन से यह कहने में भी झिझकता है कि ‘मैं तुमसे प्रेम करता हूं’ क्योंकि फिल्मी में नायक-नायिका के प्रेम प्रसंग लोगों के मस्तिष्क में इस तरह छाये हुए हैं कि उससे आगे कोई सोच ही नहीं पाता। किसी से कहा जाये कि मैं तुमसे प्रेम करता हूं तो उसके दिमाग में यह आता है कि शायद यह फिल्मी डायलाग बोल रहा हैं। वैसे इस संसार में प्रेम को तमाम तरह की विधियां हैं पर सच्चा प्रेम वह है जो भगवान भक्ति और स्मरण के रूप में किया जाये। प्रेम करो-ऐसा संदेश देने वाले अनेक लोग मिल जाते हैं पर किया कैसे किया जाये कोई नहीं बता सकता। प्रेम करने की नहीं बल्कि हृदय में धारण किया जाने वाला भाव है। उसे धारण तभी किया जा सकता है जब मन में निर्मलता, ज्ञान और पवित्रता हो। स्वार्थ पूर्ति की अपेक्षा में किया जाने वाला प्रेम नहीं होता यह बात एकदम स्पष्ट है।
अगर किसी आदमी के भाव में निच्छलता नहीं है तो वह प्रेम कभी कर ही नहीं सकता। हम प्रतिदिन व्यवहार में सैंकड़ों लोगों से मिलते हैं। इनमें से कई अपने व्यवहार से खुश कर देते हैं और स्वाभाविक रूप उनके प्रति प्र्रेम भाव आता है पर अगर उनमें से अगर किसी ने गलत व्यवहार कर दिया तो उस पर गुस्सा आता है। इससे जाहिर होता है कि हम उससे प्रेम नहीं करते। प्रेम का भाव स्थाई है जिससे किया जाता है उसके प्रति फिर कभी मन में दुर्भाव नहीं आना चाहिए।
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संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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Thursday, May 6, 2010

मनुस्मृति-श्रेष्ठ लोगों के साथ ही संबंध बनाने चाहिए (shreshth purush se sambandh-manu smruti)

उत्तमैरुत्तमैर्नित्यं संबंधनाचरेत्सह।
निनीषुः कुलमुत्कर्षमधमानधर्मास्त्यजेत्।
हिन्दी में भावार्थ-
अपने परिवार की रक्षा तथा सम्मान में वृद्धि के लिये अच्छे परिवारों के साथ अपनी कन्या और पुत्र के संबंध बनाने चाहिए। खराब आचरण तथा धर्म विरोधी पुरुषों के परिवारों के साथ किसी प्रकार का संबंध स्थापित करना ठीक नहीं है।
उत्तमानुत्तमान्गच्छन्हीनाश्च वर्जवन्।
ब्राम्हण श्रेष्ठतामेति प्रत्यावयेन शूद्रताम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
श्रेष्ठ पुरुषों से संबंध जोड़ने और नीच तथा अधम पुरुषों से परे रहने वाले विद्वान की प्रतिष्ठा बढ़ जाती है। इसके विपरीत श्रेष्ठ लोगों की बजाय नीच पुरुषों से संबंध बनाने वाला मनुष्य और उसका कुल कलंकित हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रेष्ठ व्यक्ति या परिवार के उच्च आचरण का पैमाना जाति, वर्ण, धन या भाषा नहीं वरन् चरित्र और व्यवहार है। आजकल तो मनुष्य जाति में जिस तरह पाखंड तथा ढोंग की प्रवृत्ति बढ़ गयी है ऐसे में किसी भी प्रकार के मैत्री या वैवाहिक संबंध सोच समझकर जोड़ना चाहिए। युवक युवतियां शैक्षणिक, व्यवसायिक तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों पर एक दूसरे से मिलते हैं। लच्छेदार बातों से एक दूसरे पर प्रभाव डालकर संबंध बना देते हैं। कोई यह देखने का विचार भी नहीं करता कि सामने वाले का बौद्धिक, वैचारिक तथा चारित्रिक स्तर क्या है? इसलिये ही आजकल अधिकतर लोग मैत्री और प्यार में धोखे की शिकायत करते नज़र आते हैं। इतना ही नहीं माता पिता की उपेक्षा कर वैवाहिक जीवन साथी चुनने को लालायित युवक युवतियां जब बाद में निराश होते हैं तो आत्महत्या तक कर बैठते हैं। यौवन की अग्नि उनकी बौद्धिक सोच को कुंठित कर देते हैं और समझते हैं कि जैसे जीवन का पूरा अनुभव उनको हो गया है। वह माता पिता के अनुभव को पुराना समझकर उनकी उपेक्षा तो करते हैं पर उसके परिणाम कोई अच्छे नहंी रहते।
एक बात दूसरी भी है कि हमारे समाज के अनेक लोगों ने श्रेष्ठता का प्रमाण जाति, भाषा और आर्थिक स्तर मान लिया है जो कि गलत हैं। दरअसल जिस परिवार में उच्च विचार वाले लोग हैं वही श्रेष्ठ है। जिनका आचरण धार्मिक प्रवृत्ति का है वही श्रेष्ठ लोग हैं। मनोरंजन, विलासिता तथा श्रम बचाने वाले सुविधाभोगी साधनों का संचय करना ही उच्च कुल या व्यक्ति होने का प्रमाण नहीं है। न ही किसी जाति, भाषा या समूह का श्रेष्ठता पर एकाधिकार है। मुख्य विषय यह है कि वैवाहिक तथा मैत्री संबंध स्थापित करने से पहले अपने सामने वाली की बौद्धिक, वैचारिक, सामाजिक तथा चारित्रिक दृढ़ता को प्रमाणित कर लेना चाहिए। केवल चेहरा और पहनावा देखकर किसी को श्र्रेष्ठ मानकर उससे संबंध जोड़ना खतरनाक भी हो सकता है।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Saturday, April 24, 2010

पतंजलि योग दर्शन-संयम से होते हैं अनेक लाभ (patanjali yog darshan-sanyam se labh)

शब्दार्थप्रत्ययानामितोसराध्यासात् संक्रस्तत्प्रविभागसंयमात् सर्वभूतरुतज्ञानम्
हिन्दी में भावार्थ-
शब्द, अर्थ और ज्ञान का निरंतर अभ्यास हो जाने के कारण मिश्रण होता है। उसके विभाग में संयम करने संपूर्ण प्राणियों के वाणी का ज्ञान हो जाता है।
संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम्।
हिन्दी में भावार्थ-
संयम से अपने संस्कारों का साक्षात्कार करने पर पूर्वजन्म का ज्ञान हो जाता है।
प्रत्ययस्य परचित्तज्ञानम्।
हिन्दी में भावार्थ-
संयम से दूसरे के चित्त का साक्षात्कार करने पर उसके चित्त का ज्ञान हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-योग साधना से मनुष्य अंतर्मुखी हो जाता है उस समय उसकी आंतरिक इंद्रियां अत्यंत शक्तिशाली हो जाती हैं। तब उसे संसार का रहस्य बहुत अच्छी तरह से समझ में आता है। दरअसल योगासन और प्राणायाम से देह और मन के विकार अवश्य दूर होते हैं पर जो साधक उसके बावजूद संयम नहीं रखते उनको ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाता।
आजकल कतिपय व्यवसायिक योग शिक्षक समाज में फैले दैहिक तथा मानसिक तनाव से मुक्ति के लिये योगसाधना तथा प्राणायाम अवश्य सिखाते हैं पर उनको पतंजलि योग दर्शन का पूर्ण ज्ञान नहीं है। उन्होंने योग साधना को एक शारीरिक व्यायाम की तरह बना दिया है। योगासन और प्राणायम तो पंतजलि योग दर्शन के हिस्सा भर हैं।
पतंजलि योग दर्शन के अनुसार मनुष्य को सदैव संयम बरतना चाहिये। अंतर्मुखी होकर इस संसार का चिंतन करना चाहिये। अपने आसपास के वातावरण, वस्तुओं तथा व्यक्तियों के बारे में विचार करना चाहिये। ऐसा करते हुए किसी प्रकार का पूर्वाग्रह हृदय में न पालते हुए निरपेक्ष भाव रखना ही अच्छा है। जब संयम पूर्वक सभी विषयों पर विचार करेंगे तो अनेक बातें स्वयमेव हमारे दिमाग में आयेंगी। तब अपने समक्ष उपस्थित विषय पर निष्कर्ष निकालने में सुविधा होगी। इसके लिये जरूरी है कि अपने मस्तिष्क और इंद्रियों में हमेशा संयम रखा जाये। क्रोध या निराशा में आकर कोई न तो निर्णय करना चाहिये और न ही कोई कार्य प्रारंभ करना अच्छा है। शांत चित्त होकर एक दृष्टा की तरह इस संसार की गतिविधियां देखने से वैचारिक सिद्धि मिल जाती है।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Friday, April 23, 2010

मनुस्मृति-जिस से मानसिक तनाव हो, वह काम न करें (mansik tanan n palen-manu smruti

यद्यत्परवशं कर्म तत्तद्यलेन वर्जयेत्।
यद्यदात्मवशं तु स्यात्तत्तत्सेवेत यत्नतः।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस काम के लिये दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है उनका त्याग कर देना चाहिये तथा अपने हाथ से ही संपन्न होने वाले अनुष्ठान करना चाहिए।
यत्कर्मकुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्म्न्ः।
तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस कार्य से मन को शांति तथा अंतरात्मा को खुशी हो वही करना चाहिये। जिस काम से मन को अशांति हो उसे न ही करें तो अच्छा।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में चाहे कोई भी कार्य हो उसे पूरा करने से पहले अपने सामर्थ्य, साधन तथा सहयोगियों की उपलब्धता पर विचार करना चाहिये। अनेक लोग किसी भी कार्य में परिणाम की अनिश्चितता के बावजूद उसे इस आशा से प्रारंभ करते हैं कि उनका ‘भाग्य’ साथ देगा या फिर ऊपर वाले की कृपा होगी-यह अंधेरे में तीर चलाने जैसा है। संभव है कुछ लोगों का निशाना लग जाये पर सभी को ऐसा सौभाग्य नहीं मिलता।
दूसरों से अपने काम में सहयोग मिलने की अपेक्षा करना व्यर्थ है। अगर करें तो भी तो यह भी देखें कि आपने किसी को कितना सहयोग दिया है। फिर यह भी देखें कि जिसका सहयोग किया है कि उसमें प्रत्युपकार की भावना है कि नहीं। कहने का अभिप्राय यह है कि दूसरों पर निर्भर रहने वाले काम को प्रारंभ ही न करें तो अच्छा है।
इसके अलावा ऐसे भी काम न करें जिससे मानसिक क्लेश बढ़ता हो। आजकल खानपान तथा रहन सहन की वजह से लोगों में असहिष्णुता के साथ ही अहंकार की भावना बढ़ गयी है। अतः जरा जरा सी बात पर लोग उत्तेजित होकर लड़ने लगते हैं। अगर हमारे अंदर तनाव झेलने की क्षमता नहीं है तो फिर चुपचाप रहकर अपना काम करना चाहिये। अगर कोई व्यक्ति गलत काम कर रहा है तो उसे अनदेखा करें। कोई गलत व्यवहार करता है तो उसकी उपेक्षा कर दें। ऐस कुछ पल जिंदगी में आते हैं-यह सोचकर आगे बढ़ जायें। अगर आपने प्रतिवाद किया तो सामने वाले की उग्रता अधिक बढ़ेगी तब वह अधिक तनाव दे सकता है। ऐसे में हमें दूसरे का व्यवहार नहंी बल्कि अपनी मनस्थिति को देखना चाहिये जो तनाव नहीं झेल पाती।
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Thursday, April 22, 2010

श्रीगुरुग्रंथ साहिब-झगड़ा करने से झगड़ा ही मिलता है (shri gurugrantha sahib-Jhagada n karen)

कलह बुरी संसारि।’
हिन्दी में भावार्थ-
संसार में कलह बुरी चीज है।
‘झगरु कीए झगरउ पावा।‘
हिन्दी में भावार्थ-
झगड़ा करने से झगड़ा ही हासिल होता है।
‘उना पासि दुआसि न भिटीअै जिन अंतरि क्रोधु चंडालु।’
हिन्दी में भावार्थ-
जिन मनुष्यों के हृदय में क्रोध रूपी चंडाल रहता है उनके पास कभी न जाओ।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर इस संसार की गतिविधियों का अवलोकन ध्यान से करें तो पायेंगे कि अधिकतर झगड़े बिना बात के होते हैं। संत कबीर दास जी भी कह गये हैं कि ‘ न सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठमलट्ठा।’ हमारे देश में मुकदमों की संख्या बहुत है। कई मुकदमे तो ऐसे हैं जिनको दायर करने वालों की तीन तीन और चार पीढ़ियां गुजर गयी हैं पर उनका निपटारा नहीं हुआ। इसका कारण यह है कि लोग जरा जरा सी बात पर लड़ पड़ते हैं और जिन विवादों का निपटारा बातचीत और आपसी सहयोग से हो सकता है उसके लिये झगड़ा करते हैं। अहंकार वश अपने आपको श्रेष्ठ और विजेता साबित करने के लिये वह किसी भी हद तक चले जाते हैं। नतीजा यह होता है कि झगड़ा बढ़ जाता है। जिसमें धन, समय, और ऊर्जा का व्यर्थ क्षय होता है।
इतना ही नहीं जिन लोगों की छबि बाहूबली होने के साथ अनाचारी और दुराचारी की है लोग अपनी संभावित सरुक्षा के लिये उनसे संपर्क बनाते हैं। जबकि होना यह चाहिये कि उनसे दूर रहा जाये क्योंकि ऐसे लोग अपने अहंकार वश क्रोध में आकर कभी भी किसी पर आक्रमण कर सकते हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि जहां तक धन, पद तथा बाहूबल से संपन्न लोगों से मानवता की अपेक्षा नहीं करना चाहिये जब तक व्यवहार से उनके उत्तम पुरुष होने की अनुभूति न हो। निम्न प्रकृत्ति के लोगों से दूर रहना ही श्रेयस्कर है।
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Tuesday, April 20, 2010

विदुर नीति-मित्र का पहले से परिचित या संबंधी होना जरूरी नहीं (hindu dharma sandesh-religion of friendship)

सत्कृतताश्च श्रुतार्थाश्च मित्राणं न भविन्त ये।
तान् मुतानपि क्रव्यादाः कृतध्नान्नोपर्भुजते।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो अपने मित्र से सम्मान और सहायता पाने के बाद भी उनके नहीे होते ऐसे कृतघ्न मनुष्य के मरने पर उनका मांस तो मांस खाने वाले जंतु भी नहीं खाते।
न कश्चिदप्यसम्बद्धो मित्रभावेन वर्तते।
स एवं बन्धुस्तमित्रं सा गतिस्तत् परायणम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
पूर्व में कोई परिचय या संबंध न होने पर भी जो मित्रता का कर्तव्य निभाये वही बंधु और मित्र है। वही सहारा और आश्रय देने वाला है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मित्रता का धर्म सबसे बड़ा है और इसे निभाना इतना आसान नहंी है जितना समझा जाता है। हमारे साथ कार्य तथा व्यवसायिक स्थल पर अनेक लोग प्रतिदिन मिलते हैं पर वह मित्र की श्रेणी में नहंी आते। उसी तरह बंधु बांधव भी बहुत होते हैंे पर विपत्ति में सभी नहीं आते। ऐसा भी अवसर आता है कि विपत्ति के समक्ष होने पर कोई अपरिचित या पूर्व में किसी भी प्रकार का संबंध न रखने वाला व्यक्ति भी उससे मुक्ति दिलवाता है। इस तरह तो मित्र वही कहा जाता है। कहने का अभिप्राय यह है मित्रता का धर्म यही है कि विपत्ति या काम करने पर किसी की सहायता की जाये। प्रतिदिन मिलते जुलते रहना, व्यर्थ के विषयों पर वाद विवाद करना या साथ साथ काम करना मित्रता की श्रेणी में नहीं आता।
जब कोई व्यक्ति हमारे साथ मित्रता निभाता है तो फिर उसकी सहायता के लिये भी तत्पर रहना चाहिये। ऐसा न करने पर बहुत बड़ा अधर्म हो जाता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है-यह बात नहीं भूलना चाहिये। इसका अभिप्राय यह है कि एक मनुष्य दूसरे की सहायता करे। इसे ही मित्रता निभाना कहा जाता है। मित्रता के लिये पूर्व परिचय या संबंध होना आवश्यक नहीं है।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Sunday, April 18, 2010

पतंजलि योग दर्शन-प्राणायाम से मन और विचार दृढ़ होते हैं (patanjali yog darshan-pranayam aur man)

प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य।
हिन्दी में भावार्थ-
प्राणवायु को बाहर निकालने और अंदर रोकने के निरंतर अभ्यास चित्त निर्मल होता है।
विषयवती वा प्रवृत्तिरुपन्न मनसः स्थितिनिबन्धनी।।
हिन्दी में भावार्थ-
विषयवाली प्रवृत्ति उत्पन्न होने पर भी मन पर नियंत्रण रहता है।
विशोका वा ज्योतिवस्ती।
हिन्दी में भावार्थ-
इसके अलावा शोकरहित प्रवृत्ति से मन नियंत्रण में रहता है।
वीतरागविषयं वा चित्तम्।
हिन्दी में भावार्थ-
वीतराग विषय आने पर भी मन नियंत्रण में रहता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भारतीय योग दर्शन में प्राणायाम का बहुत महत्व है। योगासनों से जहां देह के विकार निकलते हैं वहीं प्राणायाम से मन तथा विचारों में शुद्धता आती है। जैसा कि स्वास्थ्य विशेषज्ञ बताते आ रहे हैं कि इस विश्व में मनोरोगियों का इतना अधिक प्रतिशत है कि उसका सही आंकलन करना संभव नहीं है। अनेक लोगों को तो यह भी पता नहीं कि वह मनोविकारों का शिकार है। इसका कारण यह है कि आधुनिक विकास में भौतिक सुविधाओं की अधिकता उपलब्धि और उपयेाग के कारण सामान्य मनुष्य का शरीर विकारों का शिकार हो रहा है वहीं मनोरंजन के नाम पर उसके सामने जो दृश्य प्रस्तुत किये जा रहे है वह मनोविकार पैदा करने वाले हैं।
ऐसी अनेक घटनायें आती हैं जिसमें किसी फिल्म या टीवी चैनल को देखकर उनके पात्रों जैसा अभिनय कुछ लोग अपनी जिंदगी में करना चाहते हैं। कई लोग तो अपनी जान गंवा देते हैं। यह तो वह उदाहरण सामने आते हैं पर इसके अलावा जिनकी मनस्थिति खराब होती है और उसका दुष्प्रभाव मनुष्य के सामान्य व्यवहार पर पड़ता है उसकी अनुभूति सहजता से नहीं हो जाता।
प्राणायाम से मन और विचारों में जो दृढ़ता आती है उसकी कल्पना ही की जा सकती है मगर जो लोग प्राणायाम करते और कराते हैं वह जानते हैं कि आज के समय में प्राणायाम ऐसा ब्रह्मास्त्र है जिससे समाजको बहुत लाभ हो सकता है।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Saturday, April 17, 2010

श्रीगुरु ग्रंथ साहिब-प्रभु का नाम कभी पुराना नहीं पड़ता (shriguru granth sahib-prabhu ka naam)

‘निरभउ निरंकार सच नाम।
जा का कीआ सगल जहान।।
हिन्दी में भावार्थ-
निर्भय निरंकार का नाम ही सच है। उसी परमात्मा का यह पूरा संसार है।
‘सचु पुराणा होवे नाही।’
हिन्दी में भावार्थ-
इस संसार में समय के साथ सब वस्तु पुरानी हो जाती है लेकिन प्रभु का नाम कभी भी पुराना नहीं पड़ता।
‘आदि सच जुगादि सच।
है भी सच, नानक होसी भी सच।।
हिन्दी में भावार्थ-
परमात्मा का नाम अनेक युगों से सच के रूप में मौजूद है। उसके नाम की शक्ति को कोई चुनौती नहीं दे सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-मनुष्य देह शिशुकाल, बाल्यकाल, युवावस्था तथा वुद्धावस्था से गुजरती हुई अंततः समाप्त हो जाती है पर यह संसार सदैव बना रहता है क्योंकि उसका आधार परमात्मा का संकल्प है। भगवान के नाम स्मरण करने से नित एक नवीन स्फूर्ति अनुभव होती है। हृदय में प्रतिदिन श्रद्धा तथा विश्वास के नाम लेते रहें तब भी ऐसा नहीं लगता कि वह पुराना है।
नित ध्यान, स्मरण तथा सत्संग में रत रहने वालों को परमात्मा का नाम कभी पुराना अनुभव नहीं हो सकता। अनेक लोग यह कहते हैं कि भगवान का नाम तो केवल वृद्धावस्था में लिया जाना चाहिये पर यह उनका वहम है। भगवान का नाम लेने की प्रवृत्ति अगर बचपन में ही नहंी पड़ी तो फिर वृद्धावस्था में भी उसकी आदत नहीं पड़ सकती। देह पुरानी पड़ जाती है पर उसमें विचर रहा मन तो आदतों का दास है। इसलिये अगर प्रारंभ में उसे ध्यान, नाम स्मरण तथा सत्संग का अभ्यास नहीं मिला तो वह बाद में उसके लिये लालायित भी नहीं होता। इसलिये प्रारंभ से ही समय मिलने पर परमात्मा का स्मरण करना चाहिये ताकि बाद में उसके लिये पछताना न पड़े।
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Friday, April 16, 2010

पतंजलि योग दर्शन-राग, द्वेष तथा भय का भाव स्वाभाविक (patanjli yog darshan-raag dwesh aur bhay ka bhav)

सुखानुशयी रागः।।
हिन्दी में भावार्थ-
सुख के भाव के पीछे राग है।
दुःखानुशयी द्वेषः।।
हिन्दी में भावार्थ-
दुःख के भाव के पीछे रहने वाला भाव क्लेश है।
स्वरसवाह विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य स्वभाव में भय का भाव परंपरा से चला आ रहा है जिसे अभिनिवेश भी कहा जाता है तथा यह मूढ़ों की तरह विवेकशील पुरुष में भी रहता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर जीव की तरह मनुष्य में भी राग, द्वेष तथा भय का भाव समय के अनुसार चलता रहता है। जब मनुष्य सुख की अनुभूति करता है तब उसके अंदर राग पैदा होता है। जब दुःख देखता है तक उसके अंदर द्वेष पैदा होता है। मुत्यु तय है पर फिर भी हर मनुष्य उसके भय के साथ जीता है। सुख प्राप्त होने पर मनुष्य उसकी अनुभूति में इतना रम जाता है कि उसे बाकी संसार का बोध नहंी रहता। दुःख आने पर उसे अन्य सुखी लोगों के प्रति द्वेष भाव उत्पन्न होता है। दोनों ही एक तरह से विष की तरह हैं। राग प्रारंभिक रूप से अच्छा प्रतीत होता है पर एक समय के बाद आदमी अपने सुख से भी उकता जाता है। फिर उससे उत्पन्न विकार उसे त्रास देते हैं। आजकल सुख सुविधा के साधन बहुत हैं पर उनके इस्तेमाल से राजरोग भी पनप रहे हैं इससे हम इस बात को समझ सकते हैं।
आज हमारे समाज में चारों तरफ वैमनस्य का वातावरण है। इसका कारण यह है कि समाज में धन का असमान वितरण है। एक तरफ धनिक वर्ग अपने धन का प्रदर्शन करता है तो दूसरी तरफ जिन लोगों के पास धन का अभाव है वह धनिकों से नाखुश हैं। यह स्वाभाविक है। समाज का धनिक वर्ग दान और परोपकार की प्रवृत्तियों से रहित हो गया है इसने समाज में द्वेषभाव का निर्माण किया है।
आखिर महर्षि पतंजलि के इस सूत्र का आशय क्या है? जो व्यक्ति दृष्टा की तरह जीवन को देखेगा उसे यह बात समझ में आ सकती है। दूसरी स्थिति यह है कि जो मनुष्य इन सूत्रों को समझ लेगा कि इस देह के साथ राग, देष तथा भय की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से लगी हुई हैं वह दृष्टा भाव को प्राप्त होकर जीवन का आनंद प्राप्त करेगा।


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Wednesday, April 14, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-संकटों से सामना करने का उपाय करें (apne sankatmochak swyan bane--kautilya arthshastra)

हुताश्नो जलं व्याधिर्दुभिक्षो मरकस्तया।
इति पंवविंधं दैव व्यसनं मानुषं परम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
अग्नि, जल, व्याधि,अकाल तथा मौत यह पांच तो भाग्य से निर्मित होकर मनुष्य को पीडा़ देते हैं पर व्यसन करना उसका निजी दोष है।
दैवं पुरुष्कारेण शान्तया चं प्रशमन्नयत्
उत्थायित्वेन नीत्या च मानुषं कार्यतत्ववित्।।
हिन्दी में भावार्थ-
अपने भाग्य से उत्पन्न पीड़ा को शांति कर्म और यज्ञ से अनुकूल करें और व्यसनों से उत्पन्न पीड़ा का उनका त्याग कर निवारण करें।
वर्तमान सन्दर्भ  में संपादकीय व्याख्या- दैहिक जीवन में कुछ संकट तो भाग्य से आते हैं और कुछ के लिये मनुष्य स्वयं जिम्मेदार होता है। भाग्य से उत्पन्न संकट के समय मनुष्य अपने मन और मस्तिष्क को शांत होकर उनका सामना करना चाहिये। उस समय भगवान का स्मरण या यज्ञ आदि कर समय निकालने का प्रयास करना ही श्रेयस्कर है क्योंकि उन पर मनुष्य का बस नहीं होता। अलबत्ता अपने व्यसनों के कारण भी मनुष्य अनेक प्रकार की पीड़ायें झेलता है। उनसे निपटने का एक ही उपाय है कि उनका त्याग किया जाये। कहते हैं कि शराब पीने से लीवर खराब होता है। लीवर खराब होने पर कितनी भी दवायें ली जायें पर शराब का सेवन नियमित रखें तो भी ठीक नहीं हो सकते और अगर शराब छोड़ दें तो दवा न लेने पर भी स्वास्थ्य की वापसी हो जाती है।
पश्चिमी स्वास्थ्य विशेषज्ञ भी कहते हैं कि किसी वस्तु के उपभोग या सेवन अगर शरीर में व्याधि पैदा होती है तो उसका त्याग करने पर चली भी जाती है। कहने का अभिप्राय यह है कि भाग्य से उत्पन्न संकट का निवारण हृदय में निर्मलता का भाव लाकर भक्ति करने से किया जा सकता है तो जिन संकटों के लिये हमारा कर्म जिम्मेदार है उनसे बचने के लिये उसका त्याग करना ही बेहतर है।
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Tuesday, April 13, 2010

मनु स्मृति-अपने ऊपर निर्भर काम को ही हाथ में लें (apna hath jagnnath-manu smriti)

यत्कर्मकुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः।
तत्प्रयतनेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस काम को करने से मन और अंतरात्मा को शांति मिलती हो वही करना चाहिए। जिससे इसके विपरीत स्थिति हो तो उस काम को त्याग देना चाहिए।
सर्वे परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।
एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो कार्य दूसरे के अधीन है वह दुःखदायी होता है। जिस काम पर अपना पूरी तरह से नियंत्रण हो उसी से ही सुख मिलता है। यही सुख और दुःख का लक्षण है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब भी हमारे सामने कोई कार्य उपस्थित होता है तो उसके परिणामों, प्रकृति तथा स्वरूप पर अवश्य विचार करना चाहिए। कभी कोई कार्य दबाव या परप्रेरणा से नहीं करना चाहिऐ। इसके अलावा जो कार्य पूरे या आंशिक रूप से दूसरे पर निर्भर हो उसे अपने हाथ में न लें तो ही अच्छा। क्योंकि तब लक्ष्य की प्राप्ति दूसरे की गतिविधि पर निर्भर हो जाती है। अनेक बार ऐसा भी होता है कि दूसरा आदमी अगर अंदर ही अंदर द्वेष रखता है तो वह जानबूझकर उस काम का अपना पूरा या आंशिक दायित्व नहीं निभाता तब अपना लक्ष्य या अभियान संकट में पड़ जाता है।
इसके अलावा किसी भी कार्य को करते हुए इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि उससे अपने मन और अंतरात्मा को संतोष मिलेगा या नहीं। जिस काम को करने से मन और अंतरात्मा में क्लेश होता हो उससे करने का विचार ही छोड़ दें तो ही अच्छा होगा। कहने का अभिप्राय यह है कि अपने हाथ से किये जाने वाले कार्यों पर विचार करना चाहिए ताकि उनके परिणामों को लेकर बाद में पछताना न पड़े। बुद्धिमान व्यक्ति किसी भी काम को करने से पहले उसके हर पहलू पर विचार कर लेते हैं।
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Monday, April 12, 2010

मनुस्मृति-‘बक वृत्ति’ के लोगों की पहचान (manu dharma sandesh in hindi)

अधोदृष्टिनैष्कृतिकः स्वार्थसाधनतत्परः।
शठो मिथ्याविनीतश्च बकव्रतवरो द्विजः।।
हिन्दी में भावार्थ-
असत्य बोलने, कठोर वाणी में वार्तालाप करने तथा दूसरे के धन पर बुरी नज़र रखने वाले को बक वृत्ति का माना जाता है। ऐसा व्यक्ति अपने कल्याण की बात भी नहीं समझता और हमेशा ही स्वार्थ पूर्ति में लगा रहता है।
धर्मध्वजी सदा लुब्धश्छाùिको लोकदम्भका।
बैडालवृत्त्किो ज्ञेयो हिंस्त्रः सर्वाभिसंधकः।।
हिन्दी में भावार्थ-
प्रतिष्ठा पाने के लिये पाखंड के रूप में धर्म का आचरण करने वाला, दूसरों का धन छीनने वाला, ढोंग करने वाला, हिंसका स्वभाव तथा दूसरों का भड़काने वाला बिडाल वृत्ति का कहा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने स्वार्थ पूरी तो हर आदमी करता है पर कुछ लोग हैं जो केवल इसी धुन में रहते हैं कि अपना काम बने बाकी लोगों का कुछ भी हो। वह दूसरे की धन पर नज़र डालकर उसे अपने हाथ में करना चाहते हैं। उनकी वाणी में माधुर्य तो रत्ती भर भी नहीं रह जाता। ऐसे बक प्रवृत्ति के लोग इस धरती पर बोझ की तरह होते हैं क्योंकि वह किसी का भला करना तो दूर ऐसा करने का कभी सोच भी नहंी सकते। वह कूंऐ से पानी भरते रहेंगे पर उसमें कभी स्वयं पानी भरें, ऐसे किसी भी प्रयास में भागीदार नहंी बनेंगे। पेड़ की छाया तो चाहेंगे पर कहीं पौद्या रोपें-यह बात सोचेंगे भी नहीं। ऐसे बक पृवत्ति के लोगों की न केवल उपेक्षा कर देना चाहिए बल्कि अपना आत्ममंथन करते हुए यह भी देखना चाहिये कि कहंी हम ऐसी प्रवृत्ति का शिकार तो नहीं हो रहे।
उसी तरह धर्म की आड़ में केवल अपनी प्रतिष्ठा अर्जित करने के प्रयास को बिडाल वृत्ति कहा जाता है। आजकल हम ऐसे अनेक लोगों को अपने आसपास विचरण करते हुए देख सकते हैं जिनको धार्मिक पुस्तकों का ज्ञान रटा हुआ पर उसे वह धारण किये बिना ही दूसरों को सुनाते हैं। उनका मकसद धर्म प्रचार करना नहीं बल्कि धनार्जन करना होता है। ऐसे बिडाल वृत्ति के लोगों की संगत से बचना चाहिए।
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Friday, April 9, 2010

पतंजलि योग दर्शन-अभ्यास से ही चित्त दृढ़ होता है (patanjali yog darshan-abhyas

अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः।
हिन्दी में भावार्थ-
चित्तवृतियों पर नियंत्रण अभ्यास तथा वैराग्य से होता है।
तन्न स्थितो यत्नोऽभ्यासः।
हिन्दी में भावार्थ-
चित्त की स्थिरता के लिये जो प्रयास किया जाता है उसे अभ्यास कहा जाता है।
स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्काराऽसेवितो दृएभूमिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
अपने लक्ष्य का सम्मान करते हुए अभ्यास अगर निंरतर किया जाये तो चित्त को दृढ़ कर उसे प्राप्त किया जा सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मन की स्थिति पर नियंत्रण होना जरूरी है। अक्सर लोग योग साधना के समय आसनों के पूरी तरह न लग पाने तथा ध्यान में चित्त के अस्थिर होने की चर्चा करते हैं। जिनको योगाभ्यास, प्राणायाम तथा ध्यान में पारंगत होना है उनको किसी योग्य गुरु से ज्ञान प्राप्त कर अपने अभ्यास में लगे रहना चाहिये। जैसे जैसे वह अभ्यास करते जायेंगे उनको नित नित नई अनुभूतियां तथा ज्ञान मिलता जायेगा। एक दिन में न तो ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और किसी कला में पारंगता मिल सकती है। प्रत्येक मनुष्य सांसरिक कार्यों में लिप्त होकर बहुत सरलता से मानसिक, दैहिक तथा वैचारिक रोगों का शिकार हो जाता है। सच तो यह है कि मानव मन असहजता के भाव को जल्दी प्राप्त हो जाता है जहां से निकलना उसे नरक में जाने जैसा लगता है। ऐसे में सहज योग की धारा उसको एकदम अपने लक्ष्य से विपरीत दिशा में जाना लगता है।
सांसरिक वस्तुओं और व्यक्तियों के संपर्क में रहकर उनके प्रति उपजे मोह से जो असहजता का भाव है उसे कोई आदमी तक तक नहीं समझ सकता जब तक वह सहजता का स्वरूप नहीं देख लेता। इसलिये जब कोई व्यक्ति योगासन, प्राणायाम, ध्यान तथा मंत्रोच्चार करता है तो उसकी प्रवृत्तियां उसे रोकती हैं। ऐसे में यह जरूरी है कि बिना किसी विचार के अपना अभ्यास निरंतर जारी रखा जाये। इस तरह धीरे धीरे अपने कार्य में दक्षता प्राप्त होती जायेगी। एक दिन ऐसा भी आयेगा जब सहजता की अनुभूति होने पर हमें यह पता चलता है कि अभी तक हम वाकई बिना किसी कारण असहज जीवन व्यतीत कर रहे थे।
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Sunday, April 4, 2010

श्रीगुरुग्रंथ साहिब-चिंता तो अनहोनी घटना की करना चाहिये (shri guru granth sahib-chinta n karen

‘चिंता ता की कीजीअै जो अनहोनी होइ।’
इहु मारगु संसार को नानक थिरु नहीं कोइ।।
हिन्दी में भावार्थ-
चिंता तो उस घटना की करना जो अनहोनी हो। इस संसार में तो सभी कुछ स्वाभाविक रूप घटता रहता है और यहां कुछ भी स्थिर नहीं है।
‘सहस सिआणपा लख होहि त इ न चलै नालि।’
हिन्दी में भावार्थ-
गुरुवाणी के अनुसार मनुष्य चाहे लाख चतुराईयां कर ले उसके साथ एक भी नहीं जाती।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर हम दृष्टा की तरह अपने जीवन को देखें तो सारे संसार में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं दिखाई देता। श्रीमद्भागवत गीता के मतानुसार ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं’। इसका आशय यह है कि मनुष्य को उसके कर्म के अनुसार ही फल प्राप्त होता है और जैसा व्यवहार दूसरों से वह करता है वैसा ही आता है। वह जैसी वस्तुओं का उपभोग करता है वैसा ही उसका स्वभाव होता है। जब यह बात समझ में आयेगी तब ही इस जीवन को सहजता से देखा जा सकता है। आजकल के युग में टीवी चैनल तथा अन्य प्रकाशन उद्योग विज्ञापन पर चल रहे हैं। उनको जिन स्त्रोतों से विज्ञापन मिलते हैं वह उनकी नीतियों के अनुसार ही काम करते हैं। इन विज्ञापनों के द्वारा उनको अपने ग्राहकों के उत्पाद लोगों के सामने प्रस्तुत करना होता है। ऐसे में वह अपने विज्ञापनों में ऐसे शब्द और नारे भरते हैं कि देखने, सुनने और पढ़ने वाले के मन में आकर्षण पैदा हो और वह अपनी जेब ढीली करे। अब आदमी आकर्षण के वश में आकर पैसा तो खर्च करता है पर उसकी सहजता का दौर। चीज अगर कर्जा लेकर खरीदी गयी है तो उसको चुकाने की चिंता और अगर चीज खराब हो गयी तो उसको बनवाने के लिये जूझना।
इतना ही नहीं टीवी, फिल्म और समाचार पत्रों में किसी की शादी के तो किसी के स्वयंवर के तथा किसी मर जाने पर इतना शोर मचाया जाता है जैसे कि अस्वाभाविक रूप से सब कुछ घटित हुआ हो। लोग भी उनको देखते हैं और उनका मन कभी खुशी से झूमता है तो की द्रवित होता है। यह काल्पनिक मनोरंजन कभी हृदय के लिये प्रसन्नतादायक नहीं हो सकता।

भगवान श्रीगुरुनानक देव इसलिये ही लोगों को अपने संदेशों में सहज भाव धारण करने का संदेश देते रहे क्योंकि वह जानते थे कि मनुष्य मन को विचलित कर उससे मानसिक रूप से बंधक बनाया जाता है। तमाम तरह के कर्मकांडों का निर्माण मनुष्य के मन में भय पैदा करने के लिये ही किया गया है। जन्म खुशी तो मृत्यु दुःख का विषय बन जाती है। जबकि दोनों सहज घटनायें हैं। जो बना है वह नष्ट होगा, यह इस दुनियां का सर्वमान्य सत्य है। तब चिंता किस बात की करना? चिंता को उस बाद की करना चाहिये जिसका घटना अस्वाभाविक है। मनुष्य का मन चंचल, बुद्धि भयभीत और अहंकार आसमान में टंगा है। उन पर नियंत्रण न होना ही अस्वाभाविक बात है इसलिये उसकी चिंता करना चाहिये। इसके लिये जरूरी है कि भगवान की हृदय से भक्ति की जाये।

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Friday, April 2, 2010

मनुस्मृति-भोजन के बाद गीत-संगीत सुनकर ही शयन करें (dinner and music-hindi adhyamik sandesh)

तत्र भुक्तपर पुनः किंचित्तूर्यघोषैः प्रहर्षितः।
संविशेत्तु यथाकालमुत्तिष्ठेच्च गतक्लमः।
हिन्दी में भावार्थ-
भोजन करने के बाद गीत संगीत का आनंद उठाना चाहिये। उसके बाद ही शयन के लिये प्रस्थान करना उचित है।
एतद् विधानमातिष्ठेदरोगः पृथिवीपतिः।
अस्वस्थः सर्वमेत्त्ु भृत्येषु विनियोजयेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
स्वस्थ होने पर अपने सारे काम स्वयं ही करना चाहिये। अगर शरीर में व्याधि हो तो फिर अपना काम विश्वस्त सेवकों को सौंपकर विश्राम भी किया जा सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-एक तरफ मनुस्मृति में प्रमाद से बचने का सुझाव आता है तो दूसरी जगह भोजन के बाद गीत संगीत सुनने की राय मिलती है। इसमें कहीं विरोधाभास नहीं समझा जा सकता। दरअसल मनुष्य की दिनचर्या को चार भागों में बांटा गया है। प्रातः धर्म, दोपहर अर्थ, सायं काम या मनोरंजन तथा रात्रि मोक्ष या निद्रा के लिये। जिस तरह आजकल चारों पहर मनोरंजन की प्रवृत्ति का निर्माण हो गया है उसे देखते हुए मनृस्मृति के संदेशों का महत्व अब समझ में आने लगा है।
आजकल रेडियो, टीवी तथा अन्य मनोंरजन के साधनों पर चौबीस घंटे का सुख उपलब्ध है। लोग पूरा दिन मनोरंजन करते हैं पर फिर भी मन नहीं भरता। इसका कारण यह है कि मनोंरजन से मन को लाभ मिले कैसे जब उसे कोई विश्राम ही नहीं मिलता। जब कोई मनुष्य प्रातः धर्म का निर्वहन तथा दोपहर अर्थ का अर्जन ( यहां आशय अपने रोजगार से संबंधित कार्य संपन्न करने से हैं) करता है वही सायं भोजन और मनोरंजन का पूर्ण लाभ उठा पाता है। उसे ही रात्रि को नींद अच्छी आती है और वह मोक्ष प्राप्त करता है।
शाम को भोजन करने के बाद गीत संगीत सुनना चाहिये। अलबत्ता टीवी देखने से कोई लाभ नहीं है क्योंकि उसमें आंखें ही थकती हैं और दिमाग को कोई राहत नहीं मिलती। इसलिये टेप रिकार्ड या रेडियो पर गाने सुनने का अलग मजा है। वैसे भी देखा जाये तो आजकल अधिकर टीवी चैनल फिल्मों पर गीत संगीत बजाकर ही गाने प्रस्तुत किये जाते हैं-चाहे उनके हास्य शो हों या कथित वास्तविक संगीत प्रतियोगितायें फिल्मी धुनों से सराबोर होती हैं। देश के व्यवसायिक मनोरंजनक प्रबंधक जानते हैं कि गीत संगीत मनुष्य के लिये मनोरंजन का एक बहुत बड़ा स्त्रोत हैं इसलिये वह उसकी आड़ में अपने पंसदीदा व्यक्तित्वों को थोपते हैं। प्रसंगवश अभी क्रिकेट में भी चौका या छक्का लगने पर नृत्यांगना के नृत्य संगीत के साथ प्रस्तुत किये जाते हैं। स्पष्टतः यह मानव मन की कमजोरी का लाभ उठाने का प्रयास है।
टीवी पर इस तरह के कार्यक्रम देखने से अच्छा है सीधे ही गाने सुने जायें। अलबत्ता यह भोजन करने के बाद कुछ देर तक ठीक रहता है। अर्थशास्त्र के उपयोगिता के नियम के अनुसार हर वस्तु की प्रथम इकाई से जो लाभ होता है वह दूसरी से नहीं होता। एक समय ऐसा आता है कि लाभ की मात्रा शून्य हो जाती है। अतः जबरदस्ती बहुत समय तक मनोरंजन करने का कोई लाभ नहीं है। सीमित मात्रा में गीत संगीत सुनना कोई बुरी बात नहीं है-मनोरंजन को विलासिता न बनने दें।
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Thursday, April 1, 2010

संत कबीर वाणी-मन की दुविधा दूर करो (man ki duvidha door karo-hindi adhyamik gyan sandesh)

‘कबीर’दुविधा दूरि करि, एक अंग है लागि।
यहु सीतल बहु तपति है, दोऊ कहिये आगि।।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि मन की दुविधा को दूर करो। एक परमात्मा का ही स्मरण करो। वही शीतलता भी प्रदान करता है तो आग जैसा तपाता भी है। अगर सांसरिक मोह और भगवान भक्ति में बीच में फंसे रहोगे तो दोनों तरफ आग अनुभव होगी।
भूखा भूखा क्या करैं, कहा सुनावै लोग।
भंडा घड़ि जिनि मुख यिका, सोई पूरण जोग।।
संत कबीरदास जी का कहना है कि अपनी भूख को लेकर परेशान क्यों होते हो? सभी के सामने अपने संकट का बयान करने से कोई लाभ नहीं है। जिसने मुख दिया है उसने पेट भरने के योग का निर्माण भी कर दिया है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब मनुष्य के मन में कर्तापन का बोध बढ़ने लगता है तो उसें अहंकार का भाव पैदा होता है और जिसकी वजह से उसे अनेक बार भारी निराशा मिलती है। मनुष्य सोचता है कि वह अपना काम स्वयं कर रहा है। उसके मन में अपने कर्म फल को पाने की तीव्र इच्छा पैदा हो जाती है और जब वह पूर्ण न हो तब वह निराशा हो जाता है। अनेक लोग इस संशय में पड़े रहते हैं कि हम अपने कर्म के फल का प्रदाता भगवान को माने या स्वयं ही उसे प्राप्त करने के लिये अधिक प्रयास करें। वह भगवान की भक्ति तो करते हैं पर अपने जीवन को दृष्टा की तरह न देखते हुए अपने कर्म फल के लिये स्वयं अपनी प्रशंसा स्वयं करते हैं। यह कर्तापन का अहंकार उन्हें सच्ची ईश्वर भक्ति से परे रखता है।
ईश्वर भक्ति के लिये विश्वास होना चाहिये। अपने सारे कर्म परमात्मा को समर्पित करते हुए जीवन साक्षी भाव से बिताने पर मन में अपार शांति मिलती है। किसी कार्य में परिणाम न मिलने या विलंब से मिलने की दशा में तो निराशा होती है या उतावली से हानि की आशंका रहती है। अतः अपने नियमित कर्म करते हुए परमात्मा की भक्ति करने के साथ ही उसे कर्म प्रेरक और परिणाम देने वाला मानते हुए विश्वास करना चाहिये।
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Friday, March 26, 2010

पतंजलि योग दर्शन-एक संस्कार से दूसरे का भी बोध होता है (patanjali yog darshan in hindi)

श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात्।।
तज्जः संस्कारऽप्रतिबन्धी।।
हिन्दी में भावार्थ-
सुनने अथवा अनुमान से होने बुद्धि की अपेक्षा उस बुद्धि का विषय भिन्न है क्योंकि वह विशेष अर्थ वाली है। उससे उत्पन्न होने वाला संस्कार अन्य संस्कार का बोध कराने वाला होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य का बौद्धिक विकास उसके सांसरिक अनुभवों के साथ बढ़ता जाता है। बुद्धि अनेक रूपों में काम करती है या कहें कि उसके अनेक रूप हैं। मनुष्य किसी की बात सुनकर या अपने अनुमान से किसी विषय पर विचार कर निष्कर्ष पर पहुंचता है। उसी तरह उसके व्यवहार से दूसरा भी उसके व्यक्तित्व पर अपनी राय कायम करता है। इनसे अलग एक तरीका यह भी है कि जब मनुष्य अपने संस्कार का प्रदर्शन करता है तो उससे अन्य संस्कारों का भी बोध होता है। कोई मनुष्य शराब या जुआखाने में जाता है तो उसके विषय में अन्य लोग यह राय कायम करते हैं कि वह ठीक आदमी नहीं है और उसका जीवन तामसी कर्म से भरा हुआ होगा। उसके परिवार के लोग ही उससे प्रसन्न नहीं होंगे। वह सम्मान का पात्र नहीं है।
उसी तरह कोई मनुष्य मंदिर जाता है या कहीं एकांत में साधना करता है तो उसके बारे में यह राय कायम होती है कि वह भला आदमी है और अपने से संबद्ध लोग उसका सम्मान करते होंगे। उसके पास ज्ञान अवश्य होगा। कहने का अभिप्राय यह है कि अगर समाज में अपनी छबि बनानी है तो उसके लिये मनुष्य को अपने कर्म भी सात्विक रखना चाहिये। व्यसनों में लिप्त रहते हुए उसे यह आशा नहीं करना चाहिये कि लोग उसका हृदय से सम्मान करेंगे। उसी तरह किसी दूसरे मनुष्य पर अपनी राय कायम करते हुए उसकी दिनचर्या में प्रकट होने वाले संस्कारों का अध्ययन करना चाहिये। पतंजलि योग दर्शन मे इस तरह का संदेश इस बात का प्रमाण भी है कि योग केवल योगासन या प्राणायम ही नहीं है बल्कि जीवन को संपूर्णता से जीने का एक तरीका है।
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Thursday, March 25, 2010

विदुर नीति-अपने से प्रेम करने वालों को छोड़ना मूर्खता

अकामान् कामयति यः कामयानान् परित्यजेत्।
बलवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुर्मुढचेतसम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो अपने से प्रेम करने वाले को त्याग देता है और न प्रेम करने वालों से संपर्क जोड़ता है तथा जो बलवान् के साथ बैर बांधता है उसे मूर्ख कहा जाता है।
अनाहूतः प्रविशति अपुष्टो वहु भाषते।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः।।
हिन्दी में भावार्थ-
मूढ़बुद्धि वाला मनुष्य बिन बुलाये ही कहीं भी चला जाता है और बिना पूछे ही बोलता है तथा अविश्वसनीय व्यक्ति पर विश्वास करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-अपने साथ जुड़े व्यक्तियों के बारे में एकांत मिलने पर विचार अवश्य करना चाहिए अन्यथा हम अनजाने में ही मूढ़ता की स्थिति को प्राप्त हो जाते हैं। इस आत्ममंथन से ही यह स्पष्ट होता है कि कौन हमें वाकई चाहता है और कौन नहीं। अगर हम ऐसा नहीं करते तो अपने से प्रेम करने वालों को अनजाने में त्याग देते हैं और जिनका मन कलूषित है और केवल हमसे दिखावे का प्रेम करते हैं उनकी चिकनी चुपड़ी बातें सुनकर उनसे ही चिपके रहते हैं।
महात्मा विदुर की तरह नीति विशारद चाणक्य भी कहते हैं कि एकांत में बैठकर अपने मित्रों, परिवार के सदस्यों और सहयोगियों के बारे में विचार अवश्य करना चाहिये।
अनेक लोग ऐसे होते हैं जो चिकनी चुपड़ी बातें नहीं करते पर उनका प्रेम निच्छल होता है। हितैषी होने के कारण वह समय पर कटु बात भी कह देते हैं पर उसका बुरा नहीं मानना चाहिये। ऐसे लोगों से अधिक खतरनाक वह हैं जो सामने प्रशंसा करते हुए ऐसे मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित करते हैं जिसका परिणाम दुःखद होता है या वह किसी दुष्परिणाम देने वाला काम करते देख अपने मित्र को उससे रोकते नहीं है। आजकल तो चाटुकारिता का जमाना है और ऐसे में अपने हितैषियों को अपने साथ रखना जरूरी है पर इसके लिये यह जरूरी है कि हम अपने पास रहने वाले लोगों का विश्लेषण करते रहें।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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