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Tuesday, June 14, 2011

पतंजलि योग साहित्य-तत्वज्ञान से विरक्ति होने पर मिलती है धर्ममेय समाधि (patanjali yog sahitya-dharmamey samadhi)

           हम जानते हैं कि हमारे हिमालयीन क्षेत्रों में अनेक ऐसे तपस्वी रहते हैं जो वहां से कभी नीचे या बाहर नहीं आते। अक्सर कुछ लोग उन पर आक्षेप करते हैं कि अगर वह वाकई तपस्वी हैं तो वह क्यों नहीं समाज का नेतृत्व करने के लिये बाहर आते। उन पर पर अकर्मण्यता का आरोप भी लगाया जाता है। इसके बावजूद उनके भक्त और शिष्य उनके पास जाते हैं। इनमें से कुछ ऋषि तो अपने भक्तों तथा शिष्यों की सेवा को भी स्वीकार नहीं करते और इसकी उनको आवश्यकता भी नहीं होती क्योंकि वह ज्ञानी महात्मा आहार विहार तथा प्रचार के लोभ में नहीं फंसते।
भले ही हमारे देश के कुछ अज्ञानी लोग उन पर आक्षेप करें पर सच यह है कि ऐसे लोग महान योगी होने के साथ महान तत्वज्ञानी भी होते हैं। हम लोग अक्सर ज्ञान की चरम सीमा यह समझते हैं कि उसे दूसरों को सुनाया जाये या उसका नकदीकरण हो। यह अल्पज्ञान के साथ ही अहंकार का भी प्रमाण हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में कहा भी है उनके ज्ञान का प्रचार केवल भक्तों में ही किया जाये जबकि हम देख रहे हैं कि व्यवसायिक प्रवचनकर्ता चाहे जहां उसे सुनाते रहते हैं। यह अलग बात है कि इसका प्रभाव कहीं परिलक्षित नहीं होता। दरअसल महाज्ञानी धर्ममेय समाधि में लीन रहते हैं जहां उनको मान पाने का लोभी नहीं होता। इस वजह से उनके सारे क्लेश भी समाप्त हो जाते हैं।
       पतंजलि योग में कहा गया है कि
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         प्रसंख्यानेऽप्यकुसीदस्य सर्वथा विवेक ख्यातेर्धर्ममेघः समाधिः।।
       ‘‘जिस योगी का तत्वज्ञान के महत्व में भी विरक्ति हो जाती है उसका विवेक और ज्ञान सर्वथा प्रकाशमान रहता है और उसे ही धर्ममेय समाधि कहा जाता है।
तत क्लेशकर्मनिवृत्तिः
         ‘‘उस समय उसके अंदर क्लेश और कर्मों का सर्वथा नाश हो जाता है।
        तद सर्वावरणमलापेतस्य ज्ञानस्यानन्त्याज्ज्ञेमल्पम्।।
      ‘उस समय उसके मन से सारे परदे और मल हट चुका होता है। ऐसा ज्ञान अनंत है इस कारण क्लेश पदार्थ कम हो जाते हैं।’
        देखा जाये तो हमारे अधिकतर संकट लोभ, लालच, तथा अहंकार के वजह से आते हैं।
जब मनुष्य इससे विरक्त हो जाता है तब उसका जीवन शांति से बीतता है। ऐसा तभी संभव है कि जब कोई धर्ममेय समाधि में दक्षता प्राप्त कर लेता है।
लेखक एवं संपादक दीपक राज कुकरेजा भारतदीपग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep',Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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Saturday, October 16, 2010

पतंजलि योग साहित्य-तप, स्वाध्याय तथा भक्ति हैं क्रियायोग (patanjali yoga sahitya-tap, swadhayay tathaa bhakti is kriya yog)

तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधान क्रियायोगः।।
हिन्दी में भावार्थ-
तप, स्वाध्याये तथा ईश्वर के प्रति प्राण केंद्रित करना तीनों ही क्रियायोग हैं।
समाधिभावनार्थः क्लेशतनुरणर्थश्च।।
हिन्दी में भावार्थ-
समाधि में प्राप्त सिद्धि से अज्ञान तथा अविद्या के कारण होने वाले क्लेशों का नाश होता है।
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशा।।
हिन्दी में भावार्थ-
अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश यह पांचों क्लेश है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-योग साधना के आठ भाग हैं जिसमें समाधि का अत्यंत महत्व है। समाधि ध्यान का वह चरम शिखर है जहां मनुष्य इस दैहिक संसार से प्रथक ईश्वरीय लोक में स्थित हो जाता है। उसका अपने अध्यात्म से इस तरह योग या जुड़ाव हो जाता है कि उसकी देह में स्थित इंद्रिया निष्क्रिय और शिथिल हो जाती हैं और जब योगी समाधि से वापस लौटता है तो उसके लिये पूरा संसार फिर नवीन हो जाता है क्योंकि वह मन के सारे विकारों से निवृत होता है।
योगासन तथा प्राणायाम के बाद परम पिता परमात्मा के प्रति ध्यान लगाना भी योग हैं और इनको क्रियायोग कहा जाता है। इसमे सिद्धि होने पर किसी विषय का अध्ययन न करने या उसमें जानकारी का अभाव होने पर भी उसको जाना जा सकता है। ऐसे में अविद्या और अज्ञान से उत्पन्न क्लेश नहीं रह जाता है। इस तरह यह कहा जा सकता है कि योग साधना की सीमा केवल योगासन और प्राणायाम तक ही केंद्रित नहीं है बल्कि ध्यान और समाधि भी उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा है। मनुष्य का अपना संकल्प भी इसमें महत्व रखता है।
सच तो यह है कि मनुष्य मन के इस संसार में दो ही मार्ग हैं एक तो है सहज योग जिसमें मनुष्य स्वयं संचालित होता है। दूसरा है असहज योग जिसमें मनुष्य अज्ञान तथा अविद्या के कारण इधर उधर प्रसन्नता तलाश करते हुए केवल तनाव ही पाता है। पूर्ण रूप से योग साधना का ज्ञान प्राप्त करने वाले मनुष्य तत्व ज्ञान की तरफ आकर्षित होते हैं तब उनका प्रयोजन इस नश्वर संसार से अधिक नहीं रह जाता है। योगासन तथा प्राणायाम करने वाले कुछ लोग अपने आपको सिद्ध समझने लगते हैं और तब वह दूसरों को चमत्कार दिखाकर अपनी दुकानें जमाते हैं। दरअसल वह योग का पूर्ण रूप नहीं जानते। जिन लोगों को योग साधना का पूर्ण ज्ञान होता है वह समाधि के द्वारा सिद्ध तो प्राप्त करते हैं पर उसकी आड़ में कोई धंधा नहीं करते क्योंकि उनके लिये इस संसार में कोई भी कार्य चमत्कार नहीं रह जाता।
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संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
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Saturday, July 24, 2010

पतंजलि योग सूत्र-समाधि के मध्य में विषयों का ज्ञान पूर्व संस्कारों की वजह से आता है (patnjali yog sootra-samdhi pad)

पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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द्रष्टृदृश्यघोपरक्तं चितं सर्वार्थम्

           
हिन्दी में भावार्थ- द्रष्टा और दृश्य-इन दो रंगों से रंगा चित्त सभी अर्थवाला हो जाता है।
तदंसख्येयवासनाभिश्चिन्नमपि परार्थ संहृत्यकारित्वात।

           
हिन्दी में भावार्थ-वह चित्त असंख्येय वासनाओं से चित्रित होने पर भी दूसरे के लिए है क्योंकि वह सहकारिता के भाव से काम करने वाला है।
विशेषंषर्शिन आत्मभावभावनविनिवृत्तिः।।

           
हिन्दी में भावार्थ-चित्त और आत्मा के भेद को प्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष करने वाले योगी की आत्माभावविषयक भावना सर्वथा निवृत्त हो जाती है।
तदा विवेनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तम्।

           
हिन्दी में भावार्थ-उस समय चित्त विवेक की तरफ झुककर कैवल्य के अभिमुख हो जाता है।
तच्छिद्रेषु प्रत्ययान्राणि संसकारेभ्यः।

           
हिन्दी में भावार्थ-उसके अंतराल में दूसरे पदार्थों का ज्ञान पूर्वसंस्कारों से होता है।
            वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-महर्षि पतंजलि का योग सूत्र संस्कृत में है और उसके हिन्दी अनुवाद का अर्थ इतना किल्ष्ट होता है कि सीधी भाषा में बहुत कम विद्वान उसकी व्याख्या कर पाते हैं। हम यहां सीधी सादी भाषा में कहें तो हमारा चित्त या बुद्धि इस देह के कारण है और उसे आत्मा समझना अज्ञान का प्रमाण है। हमारे मन और बुद्धि में विचारों का क्रम आता जाता है जो केवल सांसरिक विषयों से संबंधित होता है। अध्यात्मिक विषयों के लिये हमें अपने अंदर संकल्प धारण करना पड़ता है और जब हम आत्मा और मन का अंतर समझ लेंगे तो दृष्टा की तरह जीने का आनंद ले पायेंगे।
एक तो संसार का दृश्य है और दूसरा वह दृष्टा आत्मा है जिसके बीच में यह देह स्थित है। पंच तत्वों से बनी इस देह की मन, बुद्धि तथा अहंकार की प्रकृतियों को अहंता, ममता और वासना की भावनायें बांधे रहती हैं। हम दृष्टा हैं पर कर्तापन का अहंकार कभी यह बात समझने नहीं देता। तत्वज्ञान के अभाव मनुष्य को दूसरा चतुर मायावी मनुष्य चाहे जब जहां हांक कर ले जाता है। इस संसार दो प्रकार के मनुष्य है एक वह जो शासक हैं दूसरे जो शासित हैं। निश्चित रूप से शासक चतुर मायावी मनुष्यों की संख्या कम और शासित होने वाले लोगों की संख्या अधिक है पर अगर तत्वज्ञान को जो समझ लें तो वह न तो शासक बनता है न शासित। योगी बनकर अपना जीवन आंनद से व्यतीत करता है।
      एक बात दूसरी यह भी है इस विश्व में मनुष्य मन के चलने के दो ही मार्ग हैं-सहज योग और असहज योग। योग तो हर मनुष्य कर रहा है पर जो बिना ज्ञान के चलते हैं वह सांसरिक विषयों में चक्कर में अपना जीवन तबाह कर लेते हैं और जो ज्ञानी हैं वह उसे संवारते रहते हुए सुख अनुभव करते हैं। अतः आत्मा और चित्त का भेद समझना जरूरी है।
      दूसरी बात हम समाधि या ध्यान के विषय में यह भी समझ लें कि जब हम उसमें लीन होने का प्रयास करते हैं तब हमारे अंदर विषयों का घेर आने लगता है। उनसे विचलित नहीं होना चाहिए क्योंकि यह उन विषयों से उत्पन्न विकार हैं जो उस समय भस्म होने आते हैं। जब वह पूरी तरह से भस्म होते हैं तब ध्यान आसानी से लग जाता है। ध्यान से जो मन को शांति मिलती है उससे बुद्धि में तीक्ष्णता आती है और प्रसन्न हो जाता है।
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संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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