श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात्।।
तज्जः संस्कारऽप्रतिबन्धी।।
हिन्दी में भावार्थ-सुनने अथवा अनुमान से होने बुद्धि की अपेक्षा उस बुद्धि का विषय भिन्न है क्योंकि वह विशेष अर्थ वाली है। उससे उत्पन्न होने वाला संस्कार अन्य संस्कार का बोध कराने वाला होता है।
तज्जः संस्कारऽप्रतिबन्धी।।
हिन्दी में भावार्थ-सुनने अथवा अनुमान से होने बुद्धि की अपेक्षा उस बुद्धि का विषय भिन्न है क्योंकि वह विशेष अर्थ वाली है। उससे उत्पन्न होने वाला संस्कार अन्य संस्कार का बोध कराने वाला होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य का बौद्धिक विकास उसके सांसरिक अनुभवों के साथ बढ़ता जाता है। बुद्धि अनेक रूपों में काम करती है या कहें कि उसके अनेक रूप हैं। मनुष्य किसी की बात सुनकर या अपने अनुमान से किसी विषय पर विचार कर निष्कर्ष पर पहुंचता है। उसी तरह उसके व्यवहार से दूसरा भी उसके व्यक्तित्व पर अपनी राय कायम करता है। इनसे अलग एक तरीका यह भी है कि जब मनुष्य अपने संस्कार का प्रदर्शन करता है तो उससे अन्य संस्कारों का भी बोध होता है। कोई मनुष्य शराब या जुआखाने में जाता है तो उसके विषय में अन्य लोग यह राय कायम करते हैं कि वह ठीक आदमी नहीं है और उसका जीवन तामसी कर्म से भरा हुआ होगा। उसके परिवार के लोग ही उससे प्रसन्न नहीं होंगे। वह सम्मान का पात्र नहीं है।
उसी तरह कोई मनुष्य मंदिर जाता है या कहीं एकांत में साधना करता है तो उसके बारे में यह राय कायम होती है कि वह भला आदमी है और अपने से संबद्ध लोग उसका सम्मान करते होंगे। उसके पास ज्ञान अवश्य होगा। कहने का अभिप्राय यह है कि अगर समाज में अपनी छबि बनानी है तो उसके लिये मनुष्य को अपने कर्म भी सात्विक रखना चाहिये। व्यसनों में लिप्त रहते हुए उसे यह आशा नहीं करना चाहिये कि लोग उसका हृदय से सम्मान करेंगे। उसी तरह किसी दूसरे मनुष्य पर अपनी राय कायम करते हुए उसकी दिनचर्या में प्रकट होने वाले संस्कारों का अध्ययन करना चाहिये। पतंजलि योग दर्शन मे इस तरह का संदेश इस बात का प्रमाण भी है कि योग केवल योगासन या प्राणायम ही नहीं है बल्कि जीवन को संपूर्णता से जीने का एक तरीका है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorhttp://deepkraj.blogspot.com
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