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Sunday, July 4, 2010

हिन्दू धर्म संदेंश-शास्त्रों का सार ग्रहण करें (shastron ka sar grahan karen-hindu dharma sandesh)

हमारे अनेक धार्मिक ग्रन्थ हैं  और सभी का अपना अपना महत्व है परन्तु कुछ कथित ज्ञानी आत्मा प्रचार के लिए उनके विविध अर्थ निकाल कर समाज में भ्रम पैदा करते हैं जिसके कारन अनेक प्रकार के विवाद पैदा होते हैं। ऐसे में भर्तृहरि महाराज का यह सन्देश अत्यंत  महत्वपूर्ण है कि उनका सार ग्रहण करना चाहिए।
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अनन्तशास्त्रं बहुलाश्चय विद्याः अल्पश्च कालो बहुविघ्नता च।
यत्सारभूतं तदुपासनीयं हंसो यथा क्षरमिवाम्बुपमध्यात्
हिन्दी में भावार्थ-
शास्त्र और विद्या अनंत है। शास्त्रों में बहुत कुछ लिखा गया है। मनुष्य का जीवन संक्षिप्त है। उसके पास समय कम है जबकि जीवन में आने वाली बाधायें बहुत हैं। इसलिये उसे शास्त्रों का सार ग्रहण कर वैसे ही जीवन में आगे बढ़ना चाहिये जसे कि दूध में से हंस पानी को अलग ग्रहण करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे देश में जीवन दर्शन का रहस्य और ज्ञान का भंडार समेटे अनेक वेद, पुराण और उपनिषदों के साथ ही अनेक महापुरुषों की पुस्तकें हैं। हमारे देश पर प्रकृति की ऐसी कृपा रही है कि हर काल में एक अनेक महापुरुष एक साथ उपस्थित रहते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में ज्ञान का अपार भंडार भरा पड़ा है पर उसमें कथा और उदाहरणों से विस्तार किया गया है। मूल ज्ञान अत्यंत संक्षिप्त है और उसके निष्कर्ष भी अधिक व्यापक नहीं है। अतः ऐसे बृहद ग्रंथों को पढ़ने में समय लगाना एक सामान्य व्यक्ति के लिये संभव नहीं पर अनेक विद्वानों ने इसमें डुबकी लगाकर इन व्यापक ग्रंथों का सार समय समय पर प्रस्तुत किया है। इतना ही नहीं कुछ विद्वानों ने तो लोगों के हृदय में महापुरुष की उपाधि प्राप्त कर ली।
वैसे वेद, पुराण, और उपनिषदों के साथ अन्य अनेक पावन ग्रंथों का ज्ञान और सार तत्व श्रीमद्भागवत गीता में मिल जाता है। अगर जीवन में शांति और सुख प्राप्त करना है तो उसमें वर्णित ज्ञान को ग्रहण करना ही श्रेयस्कर है। वैसे प्राचीन ग्रंथों की कथायें और उदाहरण सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं और समय हो तो सत्संग में जाकर उनका भी श्रवण करना अच्छी बात है। जहां समय का अभाव हो वहां श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन अत्यंत फलदायी है। अगर श्रीगीता का अध्ययन और श्रवण करेंगे तो हंस के समान वैसे ही ज्ञान प्राप्त करेंगे जैसे वह दूध से पानी अलग कर ग्रहण करता है। एक बात निश्चित है कि उसका ज्ञान न तो गूढ़ है न कठिन जैसा कि कहा जाता है। उसे ग्रहण करने के लिये उसे पढ़ते हुए यह संकल्प धारण करना चाहिये कि उस ज्ञान को हम धारण कर जीवन में अपनायेंगे तभी उसे समझा जा सकता है।
संकलक,लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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Sunday, May 30, 2010

श्री गुरवाणी-अहंकार और आडम्बर बढ़ाने वाला दहेज़ किस काम का (dahej ki kaam ka-shri gurvani)

गुरुवाणी में कहा गया है
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होर मनमुख दाज जि रखि दिखलाहि,सु कूड़ि अहंकार कच पाजो
      हिंदी में भावार्थ-श्री गुरू ग्रन्थ साहिब के अनुसार लड़की के विवाह में  ऐसा दहेज दिया जाना चाहिए जिससे मन का सुख मिले और जो सभी को दिखलाया जा सके। ऐसा दहेज देने से क्या लाभ जिससे अहंकार और आडम्बर ही दिखाई दे।
हरि प्रभ मेरे बाबुला, हरि देवहु दान में दाजो।

           
हिन्दी में भावार्थ-श्री गुरुग्रंथ साहिब में दहेज प्रथा का आलोचना करते हुए कहा गया है कि वह पुत्रियां प्रशंसनीय हैं जो दहेज में अपने पिता से हरि के नाम का दान मांगती हैं।
     वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-दहेज हमारे समाज की सबसे बड़ी बुराई है। चाहे कोई भी समाज हो वह इस प्रथा से मुक्त नहीं है। अक्सर हम दावा करते हैं कि हमारे यहां सभी धर्मों का सम्मान होता है और हमारे देश के लोगों का यह गुण है कि वह विचारधारा को अपने यहां समाहित कर लेते हैं। इस बात पर केवल इसलिये ही यकीन किया जाता है क्योंकि यह लड़की वालों से दहेज वसूलने की प्रथा उन धर्म के लोगों में भी बनी रहती है जो विदेश में निर्मित हुए और दहेज लेने देने की बात उनकी रीति का हिस्सा नहीं है। कहने का आशय यह है कि दहेज लेने और देने को हम यह मानते हैं कि यह ऐसे संस्कार हैं जो हमारी पहचान हैं  मिटने नहीं चाहिए।  कोई भी धर्म या  समाज हो  कथित रूप से इसी पर इतराता है।
       इस प्रथा के दुष्परिणामों पर बहुत कम लोग विचार करते हैं। इतना ही नहीं आधुनिक अर्थशास्त्र की भी इस पर नज़र नहीं है क्योंकि यह दहेज प्रथा हमारे यहां भ्रष्टाचार और बेईमानी का कारण है और इस तथ्य पर कोई भी नहीं देख पाता। अधिकतर लोग अपनी बेटियों की शादी अच्छे घर में करने के लिये ढेर सारा दहेज देते हैं इसलिये उसके संग्रह की चिंता उनको नैतिकता और ईमानदारी के पथ से विचलित कर देती है। केवल दहेज देने की चिंता ही नहीं लेने की चिंता में भी आदमी अपने घर पर धन संग्रह करता है ताकि उसकी धन संपदा देखकर बेटे की शादी में अच्छा दहेज मिले। यह दहेज प्रथा हमारी अध्यात्मिक विरासत की सबसे बड़ी शत्रु हैं और इससे बचना चाहिये। यह अलग बात है कि अध्यात्मिक, धर्म और समाज सेवा के शिखर पुरुष ही अपने बेटे बेटियों की शादी कर समाज को चिढ़ाते हैं। सच बात तो यह है कि यह पर्थ हमारे समाज के अस्तित्व पर संकर खड़ा किये हुए है और अगर यह ख़त्म नहीं हुए तो एक दिन यह समाज भी कह्तं हो जाएगा।
---------संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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Thursday, May 13, 2010

संत कबीर के दोहे-बियावन वन के फूल बिना काम किसी के काम आये मुरझा जाते हैं

हाथी चढि के जो फिरै, ऊपर चंवर ढुराय
लोग कहैं सुख भोगवे, सीधे दोजख जाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि तो हाथी पर चढ़कर अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं और लोग समझते हैं कि वह सुख भोग रहे तो यह उनका भ्रम है वह तो अपने अभिमान के कारण सीधे नरक में जाते हैं।

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जोरे बड़ मति नांहि
जैसे फूल उजाड़ को, मिथ्या हो झड़ जांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि आदमी धन, पद और सम्मान पाकर बड़ा हुआ तो भी क्या अगर उसके पास अपनी मति नहीं है। वह ऐसे ही है जैसे बियावन उजड़े जंगल में फूल खिल कर बिना किसी के काम आये मुरझा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में सम्पादकीय व्याख्या-समय ने ऐसी करवट ली है कि इस समय धर्म और जनकल्याण के नाम पर भी व्यवसाय करने का चलन   हो गया है। इस मायावी दुनियां में यह पता ही नहीं लगता कि सत्य और माया है क्या? जिसे देखो भौतिकता की तरफ भाग रहा है। क्या साधु और क्या भक्त सब दिखावे की भक्ति में लगे हैं। राजा तो क्या संत भी अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं। उनको देखकर लोग वाह-वाह करते हैं। सोचते हैं हां, राजा और संत को इस तरह रहना चाहिये। सत्य तो यह है कि इस तरह तो  इस तरह लोग भी भ्रम में हो जाते हैं जिनके पास थोड़ी भी शक्ति और पद है। साथ ही  उनमें अहंकार आ जाता है और दिखावे के लिये सभी धर्म के कर्मकांडों का निर्वहन  करते हैं और फिर अपनी मायावी दुनियां में अपना रंग भी दिखाते हैं। ऐसे लोग पुण्य नहीं पाप में लिप्त है और उन्हें भगवान भक्ति से मिलने वाला सुख नहीं मिलता और वह अपने किये का दंड भोगते हैं।
यह शाश्वत सत्य है कि भक्ति का आनंद त्याग में है और मोह अनेक पापों को जन्म देता है। सच्ची भक्ति तो एकांत में होती है न कि ढोल नगाड़े बजाकर उसका प्रचार किया जाता है। हम जिन्हें बड़ा व्यक्ति या भक्त कहते हैं उनके पास अपना ज्ञान और बुद्धि कैसी है यह नहीं देखते। बड़ा आदमी वही है जो अपनी संपत्ति से वास्तव में छोटे लोगों का भला करता है न कि उसका दिखावा। आपने देखा होगा कि कई बड़े लोग अनेक कार्यक्रम गरीबों की भलाई के लिये करते हैं और फिर उसकी आय किन्हीं कल्याण संस्थाओं को देते हैं। यह सिर्फ नाटकबाजी है। वह लोग अपने को बड़ा आदमी सबित करने के लिये ही ऐसा करते हैं उनका और कोई इसके पीछे जनकल्याण करने का भाव नहीं होता। सच बात है कि जो परोपकार या दान करते हैं वह उसका प्रचार नहीं करते।
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Tuesday, May 11, 2010

संत कबीरदास के दोहे-स्वयं ठग जायें, पर दूसरे को न ठगे(sant kabir das ke dohe-khud kisi ko na thagen)

कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोय
आप ठगै सुख, ऊपजै और ठगे दुख होय
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर आपको कोई ठग जाता है तो कोई बात नहीं है, पर आप स्वयं किसी को ठगने का प्रयास मत करो। हम ठग जायें तो एक तरह से इस बात का तो सुख होता है कि हमने स्वयं कोई अपराध नहीं किया पर अगर हम किसी दूसरे को ठगते हैं तो मन में अपने पकड़े जाने का भय होता है और कभी न कभी तो उसका दंड भी भोगना पड़ता है।
जो तोको काटा बुवै, ताहि बुवै तू फूल
तोहि फूल को फूल है, वाको है तिरशूल
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं जो अगर कोई व्यक्ति तुम्हारे लिए कांटे बोता है, तुंम उसके लिए फूल बोओ। तुम्हारे तो फूल हमेशा ही फूल होंगे परंतु उसके लिये कांटे तिरशूल की तरह उसको लगेंगे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-ऐसा लगता है कि दूसरों को ठगने वाले लोग सुखी हैं, पर यह वास्तविकता नहीं है। जिन लोगों ने दूसरों के प्रति अपराध कर संपत्ति बनाई है उनको भी कहीं न कहीं मन में भय रहता है और कभी न कभी उनको दंड भोगना ही पड़ता है। यह दंड किसी भी प्रकार का हो सकता है। उनकी संतानें अयोग्य होतीं हैं या उनके घर मे बीमारियों का वास रहता है। पकड़े जाने पर सामाजिक रूप से भी वह अपमानित होते हैं। इसलिये स्वयं हमें किसी को ठगने का प्रयास नहीं करना चाहिए। हां, कभी स्वयं ठगे जाते हैं तब धन या वस्तु खोने का क्षणिक दुःख होता है पर समय के साथ उसे भूल जाते हैं पर अगर किसी और को हम ठगते हैं तो वह अपराध हमारे हृदय में शूल की तरह चुभा रहता है और इससे जीवन में हम सदैव विचलित रहते है।
जब हमारे पास धन संपदा का अभाव होता है तब अनेक विचलित होकर यह विचार करते हैं कि दूसरे अमीरों की तरह ठगी का व्यापार प्रारंभ कर दें। ऐसा कर नहीं पाते पर मन को व्यर्थ संताप देकर हम पाते भी कुछ नहीं है। सच बात तो यह है कि यहां गरीब सुखी नहीं है तो अमीर भी कोई आराम से रह नहीं पाते। पैसे से सुख मिलने का विचार केवल एक दृष्टिभ्रम है। आजकल तो ऐसी अनेक घटनायें हो रही हैं जिनमें बड़े बड़े भ्रष्टाचारी जेल की सींखचों के अंदर पहुंच जाते हैं। उनकी लूट की रकम की इतनी होती है कि सामान्य चोर भी शरमा जाये। कहने का अभिप्राय यह है कि लोगों के साथ ठगी करने से वाले कभी न कभी कहीं न कहीं दंड भोगते हैं। अतः भले ही कोई हमें ठग ले पर दूसरे को ठगने का प्रयास हमें नहीं करना चाहिए।

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Monday, May 10, 2010

रहीम संदेश-सुख दुःख तो चौसर की गोट की तरह हैं (rahim ke dohe-sukh dukh)

जब लगि जीवन जगत में, सुख दुख मिलन अगोट
रहिमन फूटे ज्यों, परत दुहुंन सिर चोट
कविवर रहीम कहते हैं कि इस जगत में जीवन है तब तक सुख और दुख और मिलते रहेंगे। यह ऐसे ही जैसे चौसर  की गोट को गोट मारने से दोनो के सिर पर चोट लगती है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-इस संसार में दुःख और सुख दोनों ही रहते हैं। जिस तरह किसी भी खेल में दो खिलाड़ी होते हैं तभी खेल हो पाता है उसी तरह ही जीवन की अनुभूति भी तभी हो पाती है जब दुख और सुख आते हैं। सूरज डूबता है तभी आकाश में समस्त तारे और चंद्रमा दिखाई पड़ता ह। अगर यह प्रकृति द्वारा निर्मित चक्र घूमे नहीं तो हमें दिल औ रात का पता ही न चले-ऐसे मे क्या यह एकरसता हमें तकलीफ नहीं देगी?
गर्मी के दिनों में भी जब हम कूलर में बैठे रहते हैं तो घबड़ाहट होने लगती है और उस समय भी थोड़ी घूप का सेवन  केवल हमें राहत देता है। गर्मी में धूप कितनी कठोर और दुखःदायी लगती है पर कूलर में भी बहुत देर तक बैठना दुखदायी हो जाता है। इस तरह यह दुख सुख का चक्र है। यह देखा जाये तो यह वास्तव में भ्रम भी है। दुख और सुख मन के भाव हैं। इसलिये अगर हमारे साथ जो परेशानियां हैं उनको सहज भाव से लें तो हमें दुख की अनुभूति नहीं होगी। अगर हम इस चक्र को लेकर प्रसन्न या दुखी होंगे तो उससे मस्तिष्क में तनाव उत्पन्न होता है जो कि वास्तव में कई रोगों का जनक है और उसका इलाज किसी के पास नहीं है। कहने का अभिप्राय यह है कि दुःख सुख तो मनस्थिति के अनुसार अनुभव होते हैं, पर हम सृष्टि के इस सत्य को नहीं समझ पाते और सुख मिलने पर उछलने लगते हैं और दुःख होने पर तनाव से घिर जाते हैं।
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Thursday, May 6, 2010

मनुस्मृति-श्रेष्ठ लोगों के साथ ही संबंध बनाने चाहिए (shreshth purush se sambandh-manu smruti)

उत्तमैरुत्तमैर्नित्यं संबंधनाचरेत्सह।
निनीषुः कुलमुत्कर्षमधमानधर्मास्त्यजेत्।
हिन्दी में भावार्थ-
अपने परिवार की रक्षा तथा सम्मान में वृद्धि के लिये अच्छे परिवारों के साथ अपनी कन्या और पुत्र के संबंध बनाने चाहिए। खराब आचरण तथा धर्म विरोधी पुरुषों के परिवारों के साथ किसी प्रकार का संबंध स्थापित करना ठीक नहीं है।
उत्तमानुत्तमान्गच्छन्हीनाश्च वर्जवन्।
ब्राम्हण श्रेष्ठतामेति प्रत्यावयेन शूद्रताम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
श्रेष्ठ पुरुषों से संबंध जोड़ने और नीच तथा अधम पुरुषों से परे रहने वाले विद्वान की प्रतिष्ठा बढ़ जाती है। इसके विपरीत श्रेष्ठ लोगों की बजाय नीच पुरुषों से संबंध बनाने वाला मनुष्य और उसका कुल कलंकित हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रेष्ठ व्यक्ति या परिवार के उच्च आचरण का पैमाना जाति, वर्ण, धन या भाषा नहीं वरन् चरित्र और व्यवहार है। आजकल तो मनुष्य जाति में जिस तरह पाखंड तथा ढोंग की प्रवृत्ति बढ़ गयी है ऐसे में किसी भी प्रकार के मैत्री या वैवाहिक संबंध सोच समझकर जोड़ना चाहिए। युवक युवतियां शैक्षणिक, व्यवसायिक तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों पर एक दूसरे से मिलते हैं। लच्छेदार बातों से एक दूसरे पर प्रभाव डालकर संबंध बना देते हैं। कोई यह देखने का विचार भी नहीं करता कि सामने वाले का बौद्धिक, वैचारिक तथा चारित्रिक स्तर क्या है? इसलिये ही आजकल अधिकतर लोग मैत्री और प्यार में धोखे की शिकायत करते नज़र आते हैं। इतना ही नहीं माता पिता की उपेक्षा कर वैवाहिक जीवन साथी चुनने को लालायित युवक युवतियां जब बाद में निराश होते हैं तो आत्महत्या तक कर बैठते हैं। यौवन की अग्नि उनकी बौद्धिक सोच को कुंठित कर देते हैं और समझते हैं कि जैसे जीवन का पूरा अनुभव उनको हो गया है। वह माता पिता के अनुभव को पुराना समझकर उनकी उपेक्षा तो करते हैं पर उसके परिणाम कोई अच्छे नहंी रहते।
एक बात दूसरी भी है कि हमारे समाज के अनेक लोगों ने श्रेष्ठता का प्रमाण जाति, भाषा और आर्थिक स्तर मान लिया है जो कि गलत हैं। दरअसल जिस परिवार में उच्च विचार वाले लोग हैं वही श्रेष्ठ है। जिनका आचरण धार्मिक प्रवृत्ति का है वही श्रेष्ठ लोग हैं। मनोरंजन, विलासिता तथा श्रम बचाने वाले सुविधाभोगी साधनों का संचय करना ही उच्च कुल या व्यक्ति होने का प्रमाण नहीं है। न ही किसी जाति, भाषा या समूह का श्रेष्ठता पर एकाधिकार है। मुख्य विषय यह है कि वैवाहिक तथा मैत्री संबंध स्थापित करने से पहले अपने सामने वाली की बौद्धिक, वैचारिक, सामाजिक तथा चारित्रिक दृढ़ता को प्रमाणित कर लेना चाहिए। केवल चेहरा और पहनावा देखकर किसी को श्र्रेष्ठ मानकर उससे संबंध जोड़ना खतरनाक भी हो सकता है।
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Tuesday, May 4, 2010

रहीम संदेश-सूखे तालाब पर जाने से लाभ नहीं (sukhe talab se labh nahin-rahim sandesh

तेहि प्रमाण चलिबो भलो, जो सब दिन ठहराइ।
उमड़ि चलै जल पार तें, जो रहीम बढ़ि जाइ।।
कविवर रहीम का कहना है कि जिससे सब दिन आनंद प्राप्त हो वही सुख प्रमाणिक माना जाना चाहिये।  ऐसे सुख से क्या लाभ जो क्षणिक हो और वह ऐसे ही उतर जाये जैसे बाढ़ का पानी।
तासो ही कछु पाइए, कीजै जाकी आस।
रीते सरवर पर गए, कैसे बुझे पियास।
कविवर रहीम कहते हैं कि जिससे कुछ पाने की संभावना हो उससे ही कोई आशा करना चाहिये। खाली तालाब के पास जाकर कोई प्यास नहीं बुझती।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह जरूरी नहीं है कि जिसे धन, पद और अन्य भौतिक साधन हों वह समय पड़ने पर सहायता करने वाला हो। सबसे बड़ी बात यह है कि इंसान में दूसरे की मदद करने का भाव होना चाहिये। यही भाव मदद चाहने वाले के लिये रस बनकर प्रवाहित होता है।  जिस व्यक्ति के पास ढेर सारा धन हो पर अगर उसमें उदार भाव नहीं है तो उससे कोई आशा करना स्वयं को धोखा देना है।  कहने का अभिप्राय यही है कि अपने आसपास ऐसे लोगों का संग्रह करना चाहिये जिनके हृदय में शुद्धता और स्नेह का भाव हो वरना उनसे दूरी ही भली क्योंकि उनसे संकट में सहायता की आशा करना व्यर्थ है। आजकल विज्ञापन का युग है और हर तरफ सुख बिक रहा है। कहीं कोई व्यक्ति हृदय का नायक बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है तो कहीं जिंदगी भर का आराम दिलाने वाली वस्तुओं का प्रदर्शन हो रहा है।  यह केवल जेब से पैसा निकालने की नीति है जिस पर वणिक वर्ग चल रहा है।  याद रखिये हर मनुष्य में दोष होता है अतः कोई इतना पवित्र नहीं हो सकता कि उसे फरिश्ता मान लिया जाये। उसी तरह हम अपने सुख के लिये जो चीजें खरीदते हैं वह कभी न कभी खराब हो जाती हैं और तब हम जो काम हाथ से करते हैं वह नहीं हो पाता और हमारे लिये तनाव का कारण बनता है। उल्टे इन कथित सुख प्रदान करने वाले साधनों से हमारी देह काम करने की आदी नहीं रहती और इससे बीमारियां तो पैदा ही होती हैं मानसिक रूप से भी हम पंगु होते चले जाते हैं।  कहने का अभिप्राय यह है कि इस तरह के सुख क्षणिक हैं और फिर समय आने पर वह विदा हो जाते हैं। अतः जितना हो सके स्वावलंबी बने। जब मनुष्य स्वावलंबी होता है तभी अपने स्वाभिमान की रक्षा कर पाता है।


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Saturday, May 1, 2010

पतंजलि योग दर्शन-जातीय सीमाओं से मुक्त होने पर मनुष्य बन जाता है महावत (patanjali yog darshan-manushya aur jatipati)

जातिदेशकालसमयानमच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्।
हिन्दी में भावार्थ
-जाति, देश, काल तथा व्यक्तिगत सीमा से रहित होकर सावैभौमिक विचार का हो जाने पर मनुष्य एक महावत की तरह हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-महर्षि पतंजलि यहां पर मनुष्य को संकीर्ण विचाराधाराओं से बाहर आने का संदेश दे रहे हैं। योगासन और प्राणायाम के बाद मनुष्य की देह तथा मन में स्फूर्ति आती है तब उसके हृदय में कुछ नया कर गुजरने की चाहत पैदा होती है। ऐसे में वह अपने लक्ष्य निर्धारित करता है। उस समय उसे अपने मस्तिष्क की सारी खिड़कियां खुली रखना चाहिए।
हमारे देश में जाति, भाषा, वर्ण तथा क्षेत्र को लेकर संकीर्णता का भाव लोगों में बहुत देखा जाता है। सभी लोग अपने समाज की श्रेष्ठता का बखान करते हुए नहीं थकते। हमारे देश में समाज का विभाजन कर कल्याण की योजनायें बनायी जाती हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप से काम करने में जातीय, भाषाई, तथा क्षेत्रीय भावनाओं की प्रधानता देखती है जाती है। इस संकीर्ण सोच ने हमारे देश के लोगों को कायर और अक्षम बना दिया है। भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल रहा है क्योंकि हर आदमी अपने व्यक्तिगत दायरों में होकर सोचता है और उसे समाज से कोई सरोकार नहीं  है।
जिन लोगों को कुशल महावत की तरह अपने जिंदगी रूपी हाथी पर नियंत्रण करना है उनको अपने अंदर किसी प्रकार की संकीर्ण सोच को स्थान नहीं देना चाहिये। जब आदमी जातीय, भाषाई, वर्णिक तथा क्षेत्रीय सीमाओं के सोचता है तो उसकी चिंता अपने समाज पर ही क्रेद्रित होकर रह जाती है। तब उसे लगता है कि वह कोई ऐसा काम न करे करे जिससे उसका समाज नाराज न हो जाये। यहां तक कि इस डर से वह दूसरे समाज के लिये हित का न तो सोचता है न करता है कि वह उसके समाज का विरोधी है। इससे उसके अंदर असहजता का भाव उत्पन्न होता है। जब आदमी उन्मुक्त होकर जीवन में में विचरण करता है तब वह विभिन्न जातीय, भाषाई, तथा क्षेत्रीय समूहों में भी उसको प्रेम मिलता है जिससे उसका आनंद बढ़ जाता है।
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Wednesday, April 28, 2010

विदुर दर्शन-दुस्साहसी की अनदेखी करने पर प्रजा नाराज होती है

साहसे वर्तमानं तु यो मर्षयति पार्थिवः।
सः विनाशं व्रजत्याशु विद्वेषं चाधिगच्छति।।
हिन्दी में भावार्थ-
यदि राज्य प्रमुख  दुस्साहस करने वाले व्यक्ति को क्षमा या उसे अनदेखा करता है तो उसका अतिशीघ्र विनाश हो जाता है क्योंकि तब प्रजा में उसके विद्वेष की भावना पैदा होती है।
न मित्रकारणाद्राजा विपुलाद्वाधनागमात्।
समुत्सुजोत्साहसिकान्सर्वभुतभयावहान्।।
हिन्दी में भावार्थ-
राज्य प्रमुख को चाहिये कि वह स्नेह या लालच मिलने पर भी प्रजा में भय उत्पन्न करने वाले अपराधियों को क्षमा न करे।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-क्षमा जीवन का मूलमंत्र है पर एक परिवार, समाज और राज्य के मुखिया को कहीं न कहीं अपने आश्रितों को बचाने के लिये दंड का उपयोग करना ही पड़ता है।  अगर वह इस दंड का उपयोग नहीं करेगा तो उसके आश्रित या प्रजाजन उसे कायर मानकर घृणा करने लगते हैं।  कहा जाता है कि योगियों को क्षमाक्षील होना चाहिये पर हमारी प्राचीन कथायें इस बात का प्रमाण हैं कि समय आने पर वही कोमल भाव वाले योगी अपने भक्तों और शिष्यों के लिये उग्र रूप धारण करते हुए अपराधियों को दंडित करते हैं। 
जिस परिवार, समाज या राज्य का मुखिया  अपराधियों और हिंसक तत्वों को क्षमा करता है या उनकी अनदेखी में भलाई समझता है वह शीघ्र नष्ट हो जाता है। उसके समूह या राज्य के विरोधी उसके आश्रित या प्रजा को लक्ष्य नहीं करते बल्कि उनका लक्ष्य मुखिया ही होता है।  फिर उसके विरोधी आंतरिक विरोधियों को सबसे पहले मैदान में उतारते हैं इसलिये समझदार मुखिया को चाहिये कि वह अंतर्विरोधियों का समूल नाश करे।
ऐसे आंतरिक शत्रु जो प्रजा में भय करते हुए विचरते हैं उनकी अनदेखी करना खतरे से खाली नहीं है।  जिस परिवार, समाज, या राज्य का प्रमुख अपने आंतरिक खतरों की अनदेखी करता है वह कायर मान लिया जाता है और उसके आश्रित प्रजाजन ही उसका सम्मान नहीं करते। अहिंसा का सिद्धात केवल अपने निजी जीवन में लागू किया जा सकता है पर जहां सार्वजनिक विषय हो वहां दंड का उपयोग करना चाहिये अन्यथा परिवार, समाज तथा राज्य में असंतोष का परिणाम मुखिया को भोगना पड़ता है। राज्य या परिवार में उत्पाती तत्वों से सख्ती से निपटना ही एक सर्वश्रेष्ठ उपाय है।
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रहीम के दोहे-कमाने के लिये दूसरे के घर में सिर झुकाना बुरा लगता है (kamane ke vaste desh se bahar jana-rahim ke dohe)

भला भयो घर से छुट्यो, हंस्यो सीस परिखेत
काके काके नवत हम, अपन पेट के हेत
कविवर रहीम कहते हैं कि घर से छूटकर दूसरी जगह पर कमाना बहुत अच्छा लगता है पर इसके लिये वहां पर दूसरों के आगे सिर नवाना पड़ता है और हमारे ऊपर बैठा सबका रक्षक परमात्मा हंसता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सच तो यह है कि रोटी की बाध्यता के कारण आदमी को अपने गांव, शहर, प्रदेश या देश छोड़ना पड़ता है वरना कौन बाहर जाना चाहता है। अलबत्ता अब प्रवृत्ति बदल गयी है कि भविष्य के विकास के नाम पर लोग बाहर जाने के सपने देखते हैं। भौतिक उपलब्धता को ही विकास का पर्याय मान लिया गया है। दूसरा यह भी है कि हमारे देश की शिक्षा पद्धति अब तो ऐसी हो गयी है कि आदमी नौकरी ही कर सकता है और वह अपने देश में उपलब्ध नहीं है। इसलिये विश्व में जहां की धनी स्वामी है उनकी तरफ हमारे देश के शिक्षित तकनीकी विशेषज्ञ आकर्षित रहते हैं। वहां पहुंचने पर ही उनको इस बात की सच्चाई पता लगती है कि सब कुछ अपने देश जैसा नहीं है। देखने और सुनने में आता है कि जो लोग यूरोप,अमेरिका, ब्रिटेन तथा आस्ट्रेलिया वगैरह गये हैं वह तो फिर भी ठीक हैं पर जिनको मध्य एशिया के देशों में रहना पड़ रहा है वह इतने प्रसन्न नहीं है।
सबसे बड़ी समस्या धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को आती है। विदेशों में चाहे जितना आकर्षण हो पर वहां की अध्यात्मिक स्थिति यहां से भिन्न है। अनेक देशों में तो भारतीय धर्म की पूजा पद्धति ही स्वीकार नहीं की जाती। ऐसे में वहां के लोग धन तो कमाते हैं पर उनका मन हमेशा ही अपने देश के खुलेपन को याद करता है। इसलिये जिनकी प्रवृत्ति अध्यात्मिक है उनको अपने देश में अगर सूखी रोटी भी मिलती है तो उनको विदेश का मुंह नहीं ताकना चहिये।
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Monday, April 26, 2010

संत कबीर दर्शन-जैसे पदार्थ भक्षण करते हैं वैसे ही विचार हो जाते हैं

जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय
जैसा पानी पीजिये, तैसी वाणी होय
संत शिरोमणि कबीरदास कहते हैं कि जैसा भोजन करोगे, वैसा ही मन का निर्माण होगा और जैसा जल पियोगे वैसी ही वाणी होगी अर्थात शुद्ध-सात्विक आहार तथा पवित्र जल से मन और वाणी पवित्र होते हैं इसी प्रकार जो जैसी संगति करता है वैसा ही बन जाता है।
साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं
कबीर दास जीं कहते हैं कि संतजन तो भाव के भूखे होते हैं, और धन का लोभ उनको नहीं होता । जो धन का भूखा बनकर घूमता है वह तो साधू हो ही नहीं सकता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-श्रीमद्भागवत गीता के संदेश के अनुसार गुण ही गुणों में बरतते हैं। जिस तरह का मनुष्य भोजन ग्रहण करता है और जिस वातावरण में रहता है उसका प्रभाव उस पर पड़ता ही है। अगर हम यह मान लें कि हम तो आत्मा हैं और पंच तत्वों से बनी यह देह इस संसार के पदार्थों के अनुसार ही आचरण करती है तब इस बात को समझा जा सकता है। अनेक बार हम कोई ऐसा पदार्थ खा लेते हैं जो मनुष्य के लिये अभक्ष्य है तो उसके तत्व हमारे रक्त कणों में मिल जाते हैं और उसी के अनुसार व्यवहार हो जाता है।
आज जो हम समाज में तनाव और बीमारियों की बाहुलता देख रहे हैं वह सभी इसी खान पान के कारण उपजी हैं। कहते हैं कि स्वस्था शरीर में ही स्वस्थ मन निवास करता है, इसका आशय यही है कि सात्विक भोजन से जहां मन प्रसन्न रहता है वहीं तामस प्रकार का भोजन शरीर और मन के लिये कष्टकारक होता है।
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Saturday, April 24, 2010

पतंजलि योग दर्शन-संयम से होते हैं अनेक लाभ (patanjali yog darshan-sanyam se labh)

शब्दार्थप्रत्ययानामितोसराध्यासात् संक्रस्तत्प्रविभागसंयमात् सर्वभूतरुतज्ञानम्
हिन्दी में भावार्थ-
शब्द, अर्थ और ज्ञान का निरंतर अभ्यास हो जाने के कारण मिश्रण होता है। उसके विभाग में संयम करने संपूर्ण प्राणियों के वाणी का ज्ञान हो जाता है।
संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम्।
हिन्दी में भावार्थ-
संयम से अपने संस्कारों का साक्षात्कार करने पर पूर्वजन्म का ज्ञान हो जाता है।
प्रत्ययस्य परचित्तज्ञानम्।
हिन्दी में भावार्थ-
संयम से दूसरे के चित्त का साक्षात्कार करने पर उसके चित्त का ज्ञान हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-योग साधना से मनुष्य अंतर्मुखी हो जाता है उस समय उसकी आंतरिक इंद्रियां अत्यंत शक्तिशाली हो जाती हैं। तब उसे संसार का रहस्य बहुत अच्छी तरह से समझ में आता है। दरअसल योगासन और प्राणायाम से देह और मन के विकार अवश्य दूर होते हैं पर जो साधक उसके बावजूद संयम नहीं रखते उनको ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाता।
आजकल कतिपय व्यवसायिक योग शिक्षक समाज में फैले दैहिक तथा मानसिक तनाव से मुक्ति के लिये योगसाधना तथा प्राणायाम अवश्य सिखाते हैं पर उनको पतंजलि योग दर्शन का पूर्ण ज्ञान नहीं है। उन्होंने योग साधना को एक शारीरिक व्यायाम की तरह बना दिया है। योगासन और प्राणायम तो पंतजलि योग दर्शन के हिस्सा भर हैं।
पतंजलि योग दर्शन के अनुसार मनुष्य को सदैव संयम बरतना चाहिये। अंतर्मुखी होकर इस संसार का चिंतन करना चाहिये। अपने आसपास के वातावरण, वस्तुओं तथा व्यक्तियों के बारे में विचार करना चाहिये। ऐसा करते हुए किसी प्रकार का पूर्वाग्रह हृदय में न पालते हुए निरपेक्ष भाव रखना ही अच्छा है। जब संयम पूर्वक सभी विषयों पर विचार करेंगे तो अनेक बातें स्वयमेव हमारे दिमाग में आयेंगी। तब अपने समक्ष उपस्थित विषय पर निष्कर्ष निकालने में सुविधा होगी। इसके लिये जरूरी है कि अपने मस्तिष्क और इंद्रियों में हमेशा संयम रखा जाये। क्रोध या निराशा में आकर कोई न तो निर्णय करना चाहिये और न ही कोई कार्य प्रारंभ करना अच्छा है। शांत चित्त होकर एक दृष्टा की तरह इस संसार की गतिविधियां देखने से वैचारिक सिद्धि मिल जाती है।
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Friday, April 23, 2010

मनुस्मृति-जिस से मानसिक तनाव हो, वह काम न करें (mansik tanan n palen-manu smruti

यद्यत्परवशं कर्म तत्तद्यलेन वर्जयेत्।
यद्यदात्मवशं तु स्यात्तत्तत्सेवेत यत्नतः।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस काम के लिये दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है उनका त्याग कर देना चाहिये तथा अपने हाथ से ही संपन्न होने वाले अनुष्ठान करना चाहिए।
यत्कर्मकुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्म्न्ः।
तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस कार्य से मन को शांति तथा अंतरात्मा को खुशी हो वही करना चाहिये। जिस काम से मन को अशांति हो उसे न ही करें तो अच्छा।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन में चाहे कोई भी कार्य हो उसे पूरा करने से पहले अपने सामर्थ्य, साधन तथा सहयोगियों की उपलब्धता पर विचार करना चाहिये। अनेक लोग किसी भी कार्य में परिणाम की अनिश्चितता के बावजूद उसे इस आशा से प्रारंभ करते हैं कि उनका ‘भाग्य’ साथ देगा या फिर ऊपर वाले की कृपा होगी-यह अंधेरे में तीर चलाने जैसा है। संभव है कुछ लोगों का निशाना लग जाये पर सभी को ऐसा सौभाग्य नहीं मिलता।
दूसरों से अपने काम में सहयोग मिलने की अपेक्षा करना व्यर्थ है। अगर करें तो भी तो यह भी देखें कि आपने किसी को कितना सहयोग दिया है। फिर यह भी देखें कि जिसका सहयोग किया है कि उसमें प्रत्युपकार की भावना है कि नहीं। कहने का अभिप्राय यह है कि दूसरों पर निर्भर रहने वाले काम को प्रारंभ ही न करें तो अच्छा है।
इसके अलावा ऐसे भी काम न करें जिससे मानसिक क्लेश बढ़ता हो। आजकल खानपान तथा रहन सहन की वजह से लोगों में असहिष्णुता के साथ ही अहंकार की भावना बढ़ गयी है। अतः जरा जरा सी बात पर लोग उत्तेजित होकर लड़ने लगते हैं। अगर हमारे अंदर तनाव झेलने की क्षमता नहीं है तो फिर चुपचाप रहकर अपना काम करना चाहिये। अगर कोई व्यक्ति गलत काम कर रहा है तो उसे अनदेखा करें। कोई गलत व्यवहार करता है तो उसकी उपेक्षा कर दें। ऐस कुछ पल जिंदगी में आते हैं-यह सोचकर आगे बढ़ जायें। अगर आपने प्रतिवाद किया तो सामने वाले की उग्रता अधिक बढ़ेगी तब वह अधिक तनाव दे सकता है। ऐसे में हमें दूसरे का व्यवहार नहंी बल्कि अपनी मनस्थिति को देखना चाहिये जो तनाव नहीं झेल पाती।
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Thursday, April 22, 2010

श्रीगुरुग्रंथ साहिब-झगड़ा करने से झगड़ा ही मिलता है (shri gurugrantha sahib-Jhagada n karen)

कलह बुरी संसारि।’
हिन्दी में भावार्थ-
संसार में कलह बुरी चीज है।
‘झगरु कीए झगरउ पावा।‘
हिन्दी में भावार्थ-
झगड़ा करने से झगड़ा ही हासिल होता है।
‘उना पासि दुआसि न भिटीअै जिन अंतरि क्रोधु चंडालु।’
हिन्दी में भावार्थ-
जिन मनुष्यों के हृदय में क्रोध रूपी चंडाल रहता है उनके पास कभी न जाओ।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर इस संसार की गतिविधियों का अवलोकन ध्यान से करें तो पायेंगे कि अधिकतर झगड़े बिना बात के होते हैं। संत कबीर दास जी भी कह गये हैं कि ‘ न सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठमलट्ठा।’ हमारे देश में मुकदमों की संख्या बहुत है। कई मुकदमे तो ऐसे हैं जिनको दायर करने वालों की तीन तीन और चार पीढ़ियां गुजर गयी हैं पर उनका निपटारा नहीं हुआ। इसका कारण यह है कि लोग जरा जरा सी बात पर लड़ पड़ते हैं और जिन विवादों का निपटारा बातचीत और आपसी सहयोग से हो सकता है उसके लिये झगड़ा करते हैं। अहंकार वश अपने आपको श्रेष्ठ और विजेता साबित करने के लिये वह किसी भी हद तक चले जाते हैं। नतीजा यह होता है कि झगड़ा बढ़ जाता है। जिसमें धन, समय, और ऊर्जा का व्यर्थ क्षय होता है।
इतना ही नहीं जिन लोगों की छबि बाहूबली होने के साथ अनाचारी और दुराचारी की है लोग अपनी संभावित सरुक्षा के लिये उनसे संपर्क बनाते हैं। जबकि होना यह चाहिये कि उनसे दूर रहा जाये क्योंकि ऐसे लोग अपने अहंकार वश क्रोध में आकर कभी भी किसी पर आक्रमण कर सकते हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि जहां तक धन, पद तथा बाहूबल से संपन्न लोगों से मानवता की अपेक्षा नहीं करना चाहिये जब तक व्यवहार से उनके उत्तम पुरुष होने की अनुभूति न हो। निम्न प्रकृत्ति के लोगों से दूर रहना ही श्रेयस्कर है।
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Tuesday, April 20, 2010

विदुर नीति-मित्र का पहले से परिचित या संबंधी होना जरूरी नहीं (hindu dharma sandesh-religion of friendship)

सत्कृतताश्च श्रुतार्थाश्च मित्राणं न भविन्त ये।
तान् मुतानपि क्रव्यादाः कृतध्नान्नोपर्भुजते।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो अपने मित्र से सम्मान और सहायता पाने के बाद भी उनके नहीे होते ऐसे कृतघ्न मनुष्य के मरने पर उनका मांस तो मांस खाने वाले जंतु भी नहीं खाते।
न कश्चिदप्यसम्बद्धो मित्रभावेन वर्तते।
स एवं बन्धुस्तमित्रं सा गतिस्तत् परायणम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
पूर्व में कोई परिचय या संबंध न होने पर भी जो मित्रता का कर्तव्य निभाये वही बंधु और मित्र है। वही सहारा और आश्रय देने वाला है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मित्रता का धर्म सबसे बड़ा है और इसे निभाना इतना आसान नहंी है जितना समझा जाता है। हमारे साथ कार्य तथा व्यवसायिक स्थल पर अनेक लोग प्रतिदिन मिलते हैं पर वह मित्र की श्रेणी में नहंी आते। उसी तरह बंधु बांधव भी बहुत होते हैंे पर विपत्ति में सभी नहीं आते। ऐसा भी अवसर आता है कि विपत्ति के समक्ष होने पर कोई अपरिचित या पूर्व में किसी भी प्रकार का संबंध न रखने वाला व्यक्ति भी उससे मुक्ति दिलवाता है। इस तरह तो मित्र वही कहा जाता है। कहने का अभिप्राय यह है मित्रता का धर्म यही है कि विपत्ति या काम करने पर किसी की सहायता की जाये। प्रतिदिन मिलते जुलते रहना, व्यर्थ के विषयों पर वाद विवाद करना या साथ साथ काम करना मित्रता की श्रेणी में नहीं आता।
जब कोई व्यक्ति हमारे साथ मित्रता निभाता है तो फिर उसकी सहायता के लिये भी तत्पर रहना चाहिये। ऐसा न करने पर बहुत बड़ा अधर्म हो जाता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है-यह बात नहीं भूलना चाहिये। इसका अभिप्राय यह है कि एक मनुष्य दूसरे की सहायता करे। इसे ही मित्रता निभाना कहा जाता है। मित्रता के लिये पूर्व परिचय या संबंध होना आवश्यक नहीं है।
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Friday, April 16, 2010

पतंजलि योग दर्शन-राग, द्वेष तथा भय का भाव स्वाभाविक (patanjli yog darshan-raag dwesh aur bhay ka bhav)

सुखानुशयी रागः।।
हिन्दी में भावार्थ-
सुख के भाव के पीछे राग है।
दुःखानुशयी द्वेषः।।
हिन्दी में भावार्थ-
दुःख के भाव के पीछे रहने वाला भाव क्लेश है।
स्वरसवाह विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः।।
हिन्दी में भावार्थ-
मनुष्य स्वभाव में भय का भाव परंपरा से चला आ रहा है जिसे अभिनिवेश भी कहा जाता है तथा यह मूढ़ों की तरह विवेकशील पुरुष में भी रहता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर जीव की तरह मनुष्य में भी राग, द्वेष तथा भय का भाव समय के अनुसार चलता रहता है। जब मनुष्य सुख की अनुभूति करता है तब उसके अंदर राग पैदा होता है। जब दुःख देखता है तक उसके अंदर द्वेष पैदा होता है। मुत्यु तय है पर फिर भी हर मनुष्य उसके भय के साथ जीता है। सुख प्राप्त होने पर मनुष्य उसकी अनुभूति में इतना रम जाता है कि उसे बाकी संसार का बोध नहंी रहता। दुःख आने पर उसे अन्य सुखी लोगों के प्रति द्वेष भाव उत्पन्न होता है। दोनों ही एक तरह से विष की तरह हैं। राग प्रारंभिक रूप से अच्छा प्रतीत होता है पर एक समय के बाद आदमी अपने सुख से भी उकता जाता है। फिर उससे उत्पन्न विकार उसे त्रास देते हैं। आजकल सुख सुविधा के साधन बहुत हैं पर उनके इस्तेमाल से राजरोग भी पनप रहे हैं इससे हम इस बात को समझ सकते हैं।
आज हमारे समाज में चारों तरफ वैमनस्य का वातावरण है। इसका कारण यह है कि समाज में धन का असमान वितरण है। एक तरफ धनिक वर्ग अपने धन का प्रदर्शन करता है तो दूसरी तरफ जिन लोगों के पास धन का अभाव है वह धनिकों से नाखुश हैं। यह स्वाभाविक है। समाज का धनिक वर्ग दान और परोपकार की प्रवृत्तियों से रहित हो गया है इसने समाज में द्वेषभाव का निर्माण किया है।
आखिर महर्षि पतंजलि के इस सूत्र का आशय क्या है? जो व्यक्ति दृष्टा की तरह जीवन को देखेगा उसे यह बात समझ में आ सकती है। दूसरी स्थिति यह है कि जो मनुष्य इन सूत्रों को समझ लेगा कि इस देह के साथ राग, देष तथा भय की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से लगी हुई हैं वह दृष्टा भाव को प्राप्त होकर जीवन का आनंद प्राप्त करेगा।


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Thursday, April 15, 2010

पतंजलि योग दर्शन-क्लेशों से मुक्ति दिलाती है समाधि (patanjali yog darshan-samadhi)

तपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रिया योग।।
हिन्दी में भावार्थ-
तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर की शरण लेना-ये तीनों क्रियायोग हैं।
समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च।
हिन्दी में भावार्थ-
जब समाधि में सिद्धि प्राप्त हो जाती है तब अज्ञान तथा क्लेश का नाश होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य का मन ही उसका संचालन करता है। इसी मन की दो प्रकार की स्थिति है-सहजता और असहजता। जब मनुष्य अपने अंदर आलस्य का भाव लाकर अपने काम की सिद्धि के लिये दूसरे पर निर्भर होने लगता है, या दूसरों की संपत्ति पर दृष्टि रखता है तथा भले ही वह भगवान का नाम लेता हो पर अपने कर्म के प्रति कर्तापन का अहकार उसके अंदर घर कर जाये तब वह असहजता की तरफ बढ़ जाता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति अपने कर्म संपन्न के लिये स्वयं ही तत्पर रहता है, जीवन को सुखी रखने के लिये इंद्रियों पर नियंत्रण करने के साथ ही ज्ञानार्जन में लिप्त होता है वह सहजता को प्राप्त कर लेता है। इस सहज भाव को प्राप्त करने पर कोई भी मनुष्य कर्तापन के अहंकार को त्यागकर दृष्टा भाव से इस संसार को देखने लगता है।
तप और ध्यान से जो मनुष्य समाधि में सिद्धि प्राप्त करता है वह इस संसार के क्लेशों से मुक्त हो जाता है। इस सिद्धि का आशय यह कतई नहीं लेना चाहिये है कि मनुष्य इससे संसार की सारी भौतिक उपलब्धियों प्राप्त कर लेता है बल्कि वह भौतिक साधनों के अभाव में भी अपने मन में क्लेश या चिंता के भाव को स्थान नहीं देता। दूसरी बात यह कि उसकी भौतिक आवश्यकतायें भी इतनी कम हो जाती हैं कि उसके अंदर लालच या लोभ के भाव का लोप हो जाता है जो सुखी जीवन का एक बहुत आधार माना जाता है।
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Wednesday, April 14, 2010

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-संकटों से सामना करने का उपाय करें (apne sankatmochak swyan bane--kautilya arthshastra)

हुताश्नो जलं व्याधिर्दुभिक्षो मरकस्तया।
इति पंवविंधं दैव व्यसनं मानुषं परम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
अग्नि, जल, व्याधि,अकाल तथा मौत यह पांच तो भाग्य से निर्मित होकर मनुष्य को पीडा़ देते हैं पर व्यसन करना उसका निजी दोष है।
दैवं पुरुष्कारेण शान्तया चं प्रशमन्नयत्
उत्थायित्वेन नीत्या च मानुषं कार्यतत्ववित्।।
हिन्दी में भावार्थ-
अपने भाग्य से उत्पन्न पीड़ा को शांति कर्म और यज्ञ से अनुकूल करें और व्यसनों से उत्पन्न पीड़ा का उनका त्याग कर निवारण करें।
वर्तमान सन्दर्भ  में संपादकीय व्याख्या- दैहिक जीवन में कुछ संकट तो भाग्य से आते हैं और कुछ के लिये मनुष्य स्वयं जिम्मेदार होता है। भाग्य से उत्पन्न संकट के समय मनुष्य अपने मन और मस्तिष्क को शांत होकर उनका सामना करना चाहिये। उस समय भगवान का स्मरण या यज्ञ आदि कर समय निकालने का प्रयास करना ही श्रेयस्कर है क्योंकि उन पर मनुष्य का बस नहीं होता। अलबत्ता अपने व्यसनों के कारण भी मनुष्य अनेक प्रकार की पीड़ायें झेलता है। उनसे निपटने का एक ही उपाय है कि उनका त्याग किया जाये। कहते हैं कि शराब पीने से लीवर खराब होता है। लीवर खराब होने पर कितनी भी दवायें ली जायें पर शराब का सेवन नियमित रखें तो भी ठीक नहीं हो सकते और अगर शराब छोड़ दें तो दवा न लेने पर भी स्वास्थ्य की वापसी हो जाती है।
पश्चिमी स्वास्थ्य विशेषज्ञ भी कहते हैं कि किसी वस्तु के उपभोग या सेवन अगर शरीर में व्याधि पैदा होती है तो उसका त्याग करने पर चली भी जाती है। कहने का अभिप्राय यह है कि भाग्य से उत्पन्न संकट का निवारण हृदय में निर्मलता का भाव लाकर भक्ति करने से किया जा सकता है तो जिन संकटों के लिये हमारा कर्म जिम्मेदार है उनसे बचने के लिये उसका त्याग करना ही बेहतर है।
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Tuesday, April 13, 2010

मनु स्मृति-अपने ऊपर निर्भर काम को ही हाथ में लें (apna hath jagnnath-manu smriti)

यत्कर्मकुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः।
तत्प्रयतनेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस काम को करने से मन और अंतरात्मा को शांति मिलती हो वही करना चाहिए। जिससे इसके विपरीत स्थिति हो तो उस काम को त्याग देना चाहिए।
सर्वे परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।
एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जो कार्य दूसरे के अधीन है वह दुःखदायी होता है। जिस काम पर अपना पूरी तरह से नियंत्रण हो उसी से ही सुख मिलता है। यही सुख और दुःख का लक्षण है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब भी हमारे सामने कोई कार्य उपस्थित होता है तो उसके परिणामों, प्रकृति तथा स्वरूप पर अवश्य विचार करना चाहिए। कभी कोई कार्य दबाव या परप्रेरणा से नहीं करना चाहिऐ। इसके अलावा जो कार्य पूरे या आंशिक रूप से दूसरे पर निर्भर हो उसे अपने हाथ में न लें तो ही अच्छा। क्योंकि तब लक्ष्य की प्राप्ति दूसरे की गतिविधि पर निर्भर हो जाती है। अनेक बार ऐसा भी होता है कि दूसरा आदमी अगर अंदर ही अंदर द्वेष रखता है तो वह जानबूझकर उस काम का अपना पूरा या आंशिक दायित्व नहीं निभाता तब अपना लक्ष्य या अभियान संकट में पड़ जाता है।
इसके अलावा किसी भी कार्य को करते हुए इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि उससे अपने मन और अंतरात्मा को संतोष मिलेगा या नहीं। जिस काम को करने से मन और अंतरात्मा में क्लेश होता हो उससे करने का विचार ही छोड़ दें तो ही अच्छा होगा। कहने का अभिप्राय यह है कि अपने हाथ से किये जाने वाले कार्यों पर विचार करना चाहिए ताकि उनके परिणामों को लेकर बाद में पछताना न पड़े। बुद्धिमान व्यक्ति किसी भी काम को करने से पहले उसके हर पहलू पर विचार कर लेते हैं।
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Monday, April 12, 2010

मनुस्मृति-‘बक वृत्ति’ के लोगों की पहचान (manu dharma sandesh in hindi)

अधोदृष्टिनैष्कृतिकः स्वार्थसाधनतत्परः।
शठो मिथ्याविनीतश्च बकव्रतवरो द्विजः।।
हिन्दी में भावार्थ-
असत्य बोलने, कठोर वाणी में वार्तालाप करने तथा दूसरे के धन पर बुरी नज़र रखने वाले को बक वृत्ति का माना जाता है। ऐसा व्यक्ति अपने कल्याण की बात भी नहीं समझता और हमेशा ही स्वार्थ पूर्ति में लगा रहता है।
धर्मध्वजी सदा लुब्धश्छाùिको लोकदम्भका।
बैडालवृत्त्किो ज्ञेयो हिंस्त्रः सर्वाभिसंधकः।।
हिन्दी में भावार्थ-
प्रतिष्ठा पाने के लिये पाखंड के रूप में धर्म का आचरण करने वाला, दूसरों का धन छीनने वाला, ढोंग करने वाला, हिंसका स्वभाव तथा दूसरों का भड़काने वाला बिडाल वृत्ति का कहा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने स्वार्थ पूरी तो हर आदमी करता है पर कुछ लोग हैं जो केवल इसी धुन में रहते हैं कि अपना काम बने बाकी लोगों का कुछ भी हो। वह दूसरे की धन पर नज़र डालकर उसे अपने हाथ में करना चाहते हैं। उनकी वाणी में माधुर्य तो रत्ती भर भी नहीं रह जाता। ऐसे बक प्रवृत्ति के लोग इस धरती पर बोझ की तरह होते हैं क्योंकि वह किसी का भला करना तो दूर ऐसा करने का कभी सोच भी नहंी सकते। वह कूंऐ से पानी भरते रहेंगे पर उसमें कभी स्वयं पानी भरें, ऐसे किसी भी प्रयास में भागीदार नहंी बनेंगे। पेड़ की छाया तो चाहेंगे पर कहीं पौद्या रोपें-यह बात सोचेंगे भी नहीं। ऐसे बक पृवत्ति के लोगों की न केवल उपेक्षा कर देना चाहिए बल्कि अपना आत्ममंथन करते हुए यह भी देखना चाहिये कि कहंी हम ऐसी प्रवृत्ति का शिकार तो नहीं हो रहे।
उसी तरह धर्म की आड़ में केवल अपनी प्रतिष्ठा अर्जित करने के प्रयास को बिडाल वृत्ति कहा जाता है। आजकल हम ऐसे अनेक लोगों को अपने आसपास विचरण करते हुए देख सकते हैं जिनको धार्मिक पुस्तकों का ज्ञान रटा हुआ पर उसे वह धारण किये बिना ही दूसरों को सुनाते हैं। उनका मकसद धर्म प्रचार करना नहीं बल्कि धनार्जन करना होता है। ऐसे बिडाल वृत्ति के लोगों की संगत से बचना चाहिए।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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