समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढ़ें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका


हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर

Wednesday, April 28, 2010

रहीम के दोहे-कमाने के लिये दूसरे के घर में सिर झुकाना बुरा लगता है (kamane ke vaste desh se bahar jana-rahim ke dohe)

भला भयो घर से छुट्यो, हंस्यो सीस परिखेत
काके काके नवत हम, अपन पेट के हेत
कविवर रहीम कहते हैं कि घर से छूटकर दूसरी जगह पर कमाना बहुत अच्छा लगता है पर इसके लिये वहां पर दूसरों के आगे सिर नवाना पड़ता है और हमारे ऊपर बैठा सबका रक्षक परमात्मा हंसता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सच तो यह है कि रोटी की बाध्यता के कारण आदमी को अपने गांव, शहर, प्रदेश या देश छोड़ना पड़ता है वरना कौन बाहर जाना चाहता है। अलबत्ता अब प्रवृत्ति बदल गयी है कि भविष्य के विकास के नाम पर लोग बाहर जाने के सपने देखते हैं। भौतिक उपलब्धता को ही विकास का पर्याय मान लिया गया है। दूसरा यह भी है कि हमारे देश की शिक्षा पद्धति अब तो ऐसी हो गयी है कि आदमी नौकरी ही कर सकता है और वह अपने देश में उपलब्ध नहीं है। इसलिये विश्व में जहां की धनी स्वामी है उनकी तरफ हमारे देश के शिक्षित तकनीकी विशेषज्ञ आकर्षित रहते हैं। वहां पहुंचने पर ही उनको इस बात की सच्चाई पता लगती है कि सब कुछ अपने देश जैसा नहीं है। देखने और सुनने में आता है कि जो लोग यूरोप,अमेरिका, ब्रिटेन तथा आस्ट्रेलिया वगैरह गये हैं वह तो फिर भी ठीक हैं पर जिनको मध्य एशिया के देशों में रहना पड़ रहा है वह इतने प्रसन्न नहीं है।
सबसे बड़ी समस्या धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को आती है। विदेशों में चाहे जितना आकर्षण हो पर वहां की अध्यात्मिक स्थिति यहां से भिन्न है। अनेक देशों में तो भारतीय धर्म की पूजा पद्धति ही स्वीकार नहीं की जाती। ऐसे में वहां के लोग धन तो कमाते हैं पर उनका मन हमेशा ही अपने देश के खुलेपन को याद करता है। इसलिये जिनकी प्रवृत्ति अध्यात्मिक है उनको अपने देश में अगर सूखी रोटी भी मिलती है तो उनको विदेश का मुंह नहीं ताकना चहिये।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

No comments:

विशिष्ट पत्रिकायें