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हिंदी मित्र पत्रिका

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Sunday, December 29, 2013

दूसरे लोगों की पापपूर्ण तरक्की देखकर दुःखी न हों-मनुस्मृति के आधार पर चिंत्तन लेख(doosron ki paappoorn tarkki dekhkar dukhi n hon-hindi thought aritcle based on manu smriti)



                        विश्व के अधिकतर देशों में जो राजनीतक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्थायें हैं उनमें सादगी, सदाचार तथा सिद्धांतों के साथ विकास करते हुए उच्चत्तम शिखर पर कोई सामान्य मनुष्य नहीं पहुंच सकता।  अंग्रेज विद्वान जार्ज बर्नाड शॉ का मानना था कि कोई भी व्यक्ति ईमानदारी से अमीर नहीं बन सकता। अंग्रेजों  ने अनेक देशों में राज्य किया।  वहां से हटने से पूर्व  अपने तरह की व्यवस्थायें निर्माण करने के बाद ही किसी देश को आजाद किया।  यही कारण है सभी देशों में आधुनिक राज्यीय, सामाजिक, आर्थिक तथा प्रशासनिक व्यवस्थाओं के शिखर पर अब सहजता से कोई नहीं पहुंच पाता।  यही कारण है कि उच्च शिखर पर वही पहुंचते हैं जो साम, दाम, दण्ड और भेद सभी प्रकार की नीतियां अपनाने की कला जानते हैं। याद रहे यह नीतियां केवल राजसी पुरुष की पहचान है। सात्विक लोगों के लिये यह संभव नहीं है कि वह उस राह पर चलें। वैसे भी शिखर वाली जगहों पर राजसी वृत्ति से काम चलता है। ऐसे में उच्च स्थान पर पहुंचने वालों से यह आशा करना व्यर्थ है कि वह निष्काम भाव से कर्म तथा निष्प्रयोजन दया करें। 
मनु स्मृति में  कहा गया है कि

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अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति।

ततः सपत्नाञ्जयति समूलस्तु विनश्यति।।



            हिन्दी में भावार्थ-अधर्मी व्यक्ति अपने अधार्मिक कर्मों के कारण भले ही उन्नति करने के साथ ही अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता दिखे पर अंततः वह जड़ मूल समेत नष्ट हो जाता है।
            राजसी पुरुषों का आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा अन्य क्षेत्रों में जो तेजी से विकास होता है उसे देखकर सात्विक प्रवृत्ति के लोग भी दांतों तले उंगली दबा लेते हैं। खासतौर से युवा वर्ग को शिखर पुरुषों का जीवन इस तरह का तेजी से विकास की तरफ बढ़ता देखकर उनके आकर्षण का शिकार हो जाते हैं।  जिनकी प्रकृति सात्विक है वह तो अधिक देर तक इस पर विचार नहीं करते पर जिनकी राजसी प्रवृत्ति है वह अपना लक्ष्य ही यह बना लेते हैं कि वह अपने क्षेत्र में उच्च शिखर पर पहुंचे। न पहुंचे तो  कम से कम किसी बड़े आदमी की चाटुकारिता उसके नाम का लाभ उठायें।  यह प्रयास सभी को फलदायी नहीं होता। सच बात तो यह है कि कर्म और और उसके फल का नियम यही है कि जो जैसा करेगा वैसा भरेगा। देखा यह भी जाता है कि उच्च शिखर पर येन केन प्रकरेण पर पहुंचते हैं उनका पतन भी बुरा होता है।  इतना ही नहीं भले ही बाह्य रूप से प्रसन्न दिखें आंतरिक रूप से भय का तनाव पाले रहते हैं।  अतः दूसरों का कथित विकास देखकर कभी उन्हें अपना आदर्श पुरुष नहीं मानना चाहिये।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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Monday, December 9, 2013

राजकोष के अपराधियों की संपत्ति जब्त करना चाहिए-हिंदी चिंत्तन लेख(rajkhos ke apradhiyon ki sampatti jabta karana chahie-hindi thought article,hindu religion article)



                        हम कहते हैं कि देश में राजकीय क्षेत्र में बहुत भ्रष्टाचार व्याप्त है। कुछ लोग तो अपने देश इस प्रकार के भ्रष्टाचार से इतने निराश होते हैं कि वह देश के पिछड़ेपन को इसके लिये जिम्मेदार मानते हैं। इतना ही नहीं  कुछ लोग तो दूसरे देशों में ईमानदारी होने को लेकर आत्ममुग्ध तक हो जाते हैं।  उन्हें शायद यह पता नहीं कि कथित रूप से पश्चिमी देशों में बहुत सारा भ्रष्टाचार तो कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त है इसलिये उसकी गिनती नहीं  की जाती वरना भ्रष्टाचार तो वहां भी बहुत है।  हमारा अध्यात्मिक दर्शन मानता है कि जिन लोगों के पास राज्यकर्म करने का जिम्मा है उनमें भी सामान्य मनुष्यों की तरह अधिक धन कमाने की प्रवृत्ति होती है और राजकीय अधिकार होने से वह उसका गलत इस्तेमाल करने लगते हैं। यह स्वाभाविक है पर राज्य प्रमुख को इसके प्रति सजग रहना चाहिये।  उसका यह कर्तव्य है कि वह अपने कर्मचारियों की गुप्त जांच कराता रहे और उनको दंड देने के साथ ही अन्य कर्मचारियों को अपना काम ईमानदारी से काम करने के लिये प्रेरित करे। 
मनुस्मृति में कहा गया है कि

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राज्ञो हि रक्षाधिकृताः परस्वादायिनः शठाः।

भृत्याः भवन्ति प्रायेण तेभ्योरक्षेदिमाः प्रजाः।।

                        हिन्दी में भावार्थ-प्रजा के लिये राज्य कर्मचारी अधिकतर अपने वेतन के अलावा भी कमाई क्रने के इच्छुक रहते हैं अर्थात उनमें दूसरे का माल हड़पने की प्रवृत्ति होती है। ऐसे राज्य कर्मचारियों से प्रजा की रक्षा के लिये राज्य प्रमुख को तत्पर रहना चाहिये।

ये कार्यिकेभ्योऽर्थमेव गृह्यीयु: पापचेतसः।

तेषां सर्वस्वामदाय राजा कुर्यात्प्रवासनम्।।

                        हिन्दी में भावार्थ-प्रजा से किसी कार्य के लिये अनाधिकार धन लेने वाले राज्य कर्मचारियों को घर से निकाल देना चाहिये।  उनकी सारी संपत्ति छीनकर उन्हें देश से निकाल देना चाहिये।
                        हम आज के युग में जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था को देख रहे हैं उसमें राज्यप्रमुख स्थाई रूप पद पर नहीं रहता। उसका कार्यकाल पांच या छह वर्ष से अधिक नही होता।  ऐसे में पद पर आने पर उसके पास राजकाज को समझने में एक दो वर्ष तो वैसे ही निकल जाते हैं फिर बाकी समय उसे यह प्रयास करना होता है कि वह स्वयं एक बेहतर राज्य प्रमुख कहलाये।  दूसरी बात यह भी है कि राज्य कर्मचारियेां के विरुद्ध कार्यवाही सहज नहीं रही। हालांकि छोटे कर्मचारियों के  विरुद्ध कार्यवाही की जा सकती है पर राज्य के उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों  को स्वयं भी तो ईमानदार होना चाहिये।  उच्च पदों पर बैठे राज्य कर्मचारियों की शक्ति इतनी होती है कि वह राज्य प्रमुख को भी नियंत्रित करते हैं। राज्य प्रमुख अस्थाई होता है जबकि उच्च पदों पर बैठे अधिकारी स्थाई होते हैं। स्थिति यह है कि अनेक देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था के रहते वहां के बुद्धिजीवी  इन्हीं स्थाई उच्च अधिकारियों को आज का स्थाई राजा मानते हैं।  राज्य प्रमुख बदलते हैं  पर ऐसे उच्च अधिकारी स्थाई रहते हैं। कार्य का अनुभव होने से वह राज्य प्रमुख के पद का पर्दे के पीछे से संचालन करते हैं।
                        एक स्थिति यह भी है कि आज के लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव की प्रक्रिया अपनायी जाती है। जिसमें विजय प्राप्त करने वाला ही राज्य प्रमुख बनता है।  चुनाव जीतने वालों में राजनीति शास्त्र का ज्ञान हो यह अनिवार्य नहीं है।  यही कारण है कि येनकेन प्रकरेण सत्ता सुख लेने की चाहत वाले लोग राजनीति क्षेत्र में आ जाते हैं। इनमें से कई लोग बड़े पद पर बैठकर भी अपनी इच्छा का काम नहीं कर पाते। आधुनिक लोकतंत्र में राजकीय अधिकारी का पद सुरक्षित है जबकि चुनाव के माध्यम से चुने गये लोकतांत्रिक प्रतिनिधि की वर्ष सीमा तय होती है।  इस कारण कुछ ही लोकतांत्रिक प्रतिनिधि ऐसे होते हैं जो मुखर होकर काम करते हैं जबकि सामान्यतः तो केवल अपने पद पर बने रहने से ही संतुष्ट रहते हैं।  इस स्थिति ने उन राज्यकर्मियों को आत्मविश्वास दिया है कि वह चाहे जो करें।  अनेक राज्यकर्मी तो प्रजा को काम न कर चाहे जो करने की धमकी तक देते हैं।  यही कारण है कि अनेक देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था के होते भी उस प्रश्नचिन्ह लगाया जाता है।
                        हमारे देश में अध्यात्मिक दर्शन राजस कर्म की मर्यादा और शक्ति बखान करता है।  मनुष्य स्वयं सात्विक भले हो पर अगर उसके जिम्मे राजस कर्म है तो वह उसे भी दृढ़ता पूर्व निभाये यही बात हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है।  हमारे अध्यात्मिक दर्शन को शायद इसलिये ही शैक्षणिक पाठ्यक्रम से दूर रखा गया है क्योंकि उसके अपराधियों के साथ ही भ्रष्टाचार के विरुद्ध भी कड़े दंड का प्रावधान किया गया।  हालांकि अब देश में चेतना आ रही है और अनेक जगह भ्रष्ट राज्यकर्मियों के विरुद्ध कार्यवाही होने लगी है। अनेक जगह तो भ्रष्ट अधिकारियों और कर्मचारियों की संपत्ति जब्त की जाने लगी है पर अभी भी देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक बड़े अभियान की आवश्यकता है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, November 30, 2013

आंखों से अधिक रस लेने की न सोचें-हिन्दी चिंत्तन लेख(aankhon ke ras mein adhik n dooben-hindi thought article)



                                    हमारी इंद्रियां हमेशा बाहर ही सक्रिय रहने को लालायित रहती है।  विशेष रूप से हमारी आंखें हमेशा ही दृश्य देखने को उत्साहित रहती है।  हम जिन दृश्यों को देखते हैं वह दरअसल प्रकृति में विचर रहे विभिन्न जीवों की लीला है।  जिनकी उत्पति भोग तथा मुक्ति के लिये होती है। कुंछ लोग अपने भोग करने के साथ ही उसके लिये साधन प्राप्त करने का उपक्रम करते हैं तो उनकी यह सक्रियता दूसरे मनुष्य के लिये दृश्य उपस्थिति करती है।  कुछ लोग मुक्ति के लिये योग साधन आदि करते हैं तो भी वह दृश्य दिखता है।  मुख्य विषय यह है कि हम किस प्रकार के दृश्य देखते हैं और उनका हमारे मानस पटल पर  क्या प्रभाव पड़ता है इस पर विचार करना चाहिये।
                        हम कहीं खिलते हुए फूल देखते हैं तो हमारा मन खिल उठता है। कहंी हम सड़क पर रक्त फैला देख लें तो एक प्रकार से तनाव पैदा होता है। यह दोनों ही स्थितियां भले ही विभिन्न भाव उत्पन्न करती हैं पर योग साधक के लिये समान ही होती है।  वह जानता है कि ऐसे दृश्य प्रकृति का ही भाग हैं। 
                        हम देख रहे हैं कि मनोरंजन व्यवसायी कभी सुंदर कभी वीभत्य तो कभी हास्य के भाव उत्पन्न करते हैं। वह एक चक्र बनाये रखना चाहते हैं जिसे आम इंसान उनका ग्राहक बना रहे। पर्दे पर फिल्म चलती है उसमें कुछ लोग  अभिनय कर रहे हैं।  वहां एक कहानी है पर उसे देखने वाले  व्यक्ति के हृदय में पर्दे पर चल रहे दृश्यों के साथ भिन्न भिन्न भाव आते जाते हैं। यह भाव इस तरह आते हैं कि जैसे वह कोई सत्य दृश्य देख रहा है।  ज्ञानियों के लिये पर्दे के नहीं वरन् जमीन पर चल रहे दृश्य भी उसके मन पर प्रभाव नहीं डालते।  वह जानता है कि जो घटना था वह तय था और जो तय है वह घटना ही है।  सांसरिक विषयों के जितने प्रकार के  रस हैं उतने ही मनुष्य तथा उसकी सक्रियता से उत्पन्न दृश्यों के रंग हैं।            

पतंजलि योग शास्त्र में कहा गया है कि

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प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थ दृश्यम

                        हिन्दी में भावार्थ-प्रकाश, क्रिया तथा स्थिति जिनका स्वभाव है भूत वह  इंद्रियां जिसका प्रकट स्वरूप है और  भोग और मुक्ति का संपादन करना ही जिसका लक्ष्य है ऐसा दृश्य है।

                        हम दृश्यों के चयन का समय या स्थान नहीं तय कर सकते पर इतना तय जरूर कर सकते हैं कि किस दृश्य का प्रभाव अपने दिमाग पर पड़ने दें या नहीं।  जिन दृश्यों से मानसिकता कलुषित हो उनकी उपेक्षा कर देनी चाहिये। हृदय विदारक दृश्य कोई शरीर का रक्त नहीं बढ़ाते।  हमें समाचारों में ऐसे दृश्य दिखाने का प्रयास होता है। आजकल सनसनी ऐसे दृश्यों से फैलती है हो हृदय विदारक होती हैं। लोग उसे पर्दे पर देखकर आहें भरते हैं।  अखबारों में ऐसी खबरे पढ़कर  मन ही मन व्यग्रता का भाव लाते हैं।  अगर आदमी ज्ञानी नहीं है तो वह यंत्रवत् हो जाता है। मनोरंजन व्यवसायी तय करते हैं कि इस यंत्रवत खिलौने में कभी श्रृंगार, तो कभी हास्य कभी वीभत्स भाव पैदा कर किस तरह संचालित किया जाये।  आनंद वह उठाते हैं यंत्रवत् आदमी सोचता है कि मैने आनंद उठाया। इस भ्रम में उम्र निकल जाती है। चालाक लोग कभी स्वयं इन रसों में नहीं डूबते। ठीक ऐसे ही जैसे हलवाई कभी अपनी मिठाई नहीं खाता। फिल्म और धारावाहिकों में अनेक पात्र मारे गये पर उनके अभिनेता हमेशा जीवित मिलते हैं मगर उनके अभिनय का रस लोगों में बना रहता है।  संसार के विषयों और दृश्यों  में रस है पर ज्ञानी उनमें डूबते नहीं यही उनके प्रतिदिन के मोक्ष की साधना होती है।

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Wednesday, October 16, 2013

मनु स्मृति-रात को खाने के बात गीत सगीत सुनना बुरा नहीं (not bad listen of song and music after night dinner-manu smriti)



      आमतौर से लोग यह समझते हैं कि भारतीय अध्यात्म दर्शन इंद्रियों पर नियंत्रण करने के लिये हर विषय का त्याग करने की बात करता है। वह मनोरंजन तथा खेल आदि का विरोधी है।  यकीनन यह विचार किसी के भी अज्ञानी होने का ही प्रमाण है।  यह अलग बात है कि जहां भारतीय अध्यात्मिक दर्शन जहां भक्ति तथा ध्यान साधना को एकांत करने की बात कहता है वहीं वह सांसरिक विषयों के साथ निर्लिप्त भाव से  जुड़ने की राय भी देता है।  इस देह की सभी इंद्रियां हमेशा सक्रिय रहती हैं। इंद्रियों का यह स्वभाव है कि वह विभिन्न रसों में लिप्त होने के लिये हमेशा उत्सुक रहती हैं। एकरसता उनको उबा देती है। इसलिये समय और स्थिति के अनुसार इंद्रियों पथ बदलना चाहिये पर उनके विषयों से जुड़ने का भी एक समय होता है। हमेशा भक्ति और साधना नहीं हो सकती तो हमेशा मनोरंजन भी नहीं हो सकता।  हमारी देह है तो उसे सांसरिक विषयों से जोड़ना ही पड़ता हैं। प्रातःकाल योग साधना के दौरान आसन, ध्यान, मंत्र जाप तथा पूजा करने से जहां देह, मन और विचारों की शुद्धि होती है वहीं सांयकाल मनोरंजन के दौरान गीत संगीत सुनने से भी मनोविकार दूर होने के साथ ही थकान भी दूर होती है। आदमी की थकी देह में बैठा मन जब मयूर की तरह नाचता है उसमें वह दोपहर अर्थोपार्जन के दौरान एकत्रित विष का नाश होता है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि

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तत्र भुजत्वा पुनः किञ्चित्तूर्वघोषैः प्रहर्षितः।

संविशेत्तु यथाकालमत्तिष्ठेच्य यतवलमः।।

                        हिन्दी में भावार्थ-भोजन करने के बाद कुछ समय हृदय को प्रसन्न करने के लिये गीत संगीत सुनने के बाद अपनी थकान दूर करने के लिये शयन करना चाहिये।
                        हमारे यहां भक्ति और साधना के साथ ही मनोरंजन का भी समय तय कर जीवन नहीं बिताया जाता।  प्रातःकाल गीत संगीत के साथ मनोंरजन के नाम पर भक्ति होती है तो सांयकाल भी कहीं भक्ति संगीत के नाम पर मनोरंजन कार्यक्रम होते हैं।  हैरानी तब होती है जब अनेक जगह भक्ति संध्या के नाम पर लगते हैं। भक्ति संध्या अर्थात यह  दो शब्द  ज्ञानसाधकों को हतप्रभ कर देते हैं। तब उनके मन में यह विचार भी आता है कि क्या संध्या को भी भक्ति होती है क्या? हां, इतना अवश्य है कि अनेक अध्यात्मिक ज्ञानी रात्रि शयन से पूर्व ध्यान कर सोने की सलाह देते हैं पर वास्तव में इससे निद्रा अच्छी आती है। ध्यान करने से दिन भर जो मन में एकत्रित विष  नष्ट हो जाता है।  शयन करते समय उन विषयों का विचार नहीं आता पर इसका यह आशय कतई नहीं है कि भक्ति के नाम पर मनोरंजन कर उस स्थिति को पाया जा सकता है।
                        कहने का अभिप्राय है कि हमारा अध्यात्मिक दर्शन किसी विषय से जुड़ने पर प्रतिबंध लगाने की राय नहीं देता पर समय तथा सीमा के अनुसार काम करने की राय देता है।  प्रातःकाल जहां एकांत साधना जीवन में पवित्रता लाती है वहीं सांयकाल मनोरंजन करना भी मन को प्रसन्नता देता है। यह मनोरंजन भी एकांत में या सीमित समूह में होना चाहिये न कि उसके लिये भारी भीड़ एकत्रित की जाये।  भीड़ में मनोरंजन का लाभ वैसे ही कम होता है जैसे कि सार्वजनिक रूप से भक्ति करने पर मिलता है। किसी भी भाव की सुखद अनुभूति अंदर केवल एकांत में ही जा सकती है भीड़ में मचा शोर मनोरंजन कम तनाव का कारण अधिक होता है।

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Tuesday, June 28, 2011

संत कबीर वाणी-मनुष्य को अपनी देह का ज्ञान नहीं होता (sant kabir wani-manshya deh ka gyan)

           भारतीय योग विधा के बारे में अनेक लोग अनेक तरह के प्रचार करते हैं पर यह बात कम ही लोग बताते हैं कि योग साधना के अभ्यास से मनुष्य को अपनी देह और आत्मा के बीच के अंतर का आभास स्वतः होने लगता है। अज्ञानी मनुष्य देह को सर्वस्व मानकर पूरा जीवन नष्ट कर देता है जबकि ज्ञानी योग साधक अपने अभ्यास से देह और आत्मा के साथ ही परमात्मा के तत्व का भी आभास कर जीवन मजे से गुजारते हैं
सामान्य मनुष्य आंखों से देखते हैं पर दृश्य के संपूर्ण तत्व उनमें प्रविष्ट नहीं होते। अच्छे दृश्य का जहां वह पूरा आनंद नहीं उठा पाते वही बुरे दृश्य उनको अंदर तक हिला देते हैं। उसी तरह हर आदमी कान से अपनी प्रशंसा के साथ ही अपने को अच्छी बातें सुनना चाहता है। तत्व ज्ञान की बात सुनने की बजाय वह अपनी वाणी से सांसरिक बातों की बखान करता है।
             इस विषय पर संत कबीर कहते हैं कि
                ---------------
            आंखि न देखि बावरा, शब्द सुनै नहिं कान।
           सिर के केस उज्वल भये, अबहुं निपट अज्ञान।।
          ‘‘संसार के लोगों को अपनी देह के संचालन का ही ज्ञान नहीं है। इन पगली आंखों से बावला नहीं देखता और न ही कानों से अच्छी बात सुनता है। सिर के बाल भी सफेद हो जाने पर भी लोग अज्ञानी बने रहते हैं।’’
             नर नारायन रूप हैं तू मति जानै देह।
            जो समझे तो समझ ले, खलक पलक में खेह।।
       ‘हे मनुष्य! तुम साक्षात नारायण हो इसलिये अपने को केवल देह मत जान। समझना है अपनी देह से प्रथक उस परमात्मा को समझ जो तेरी आत्मा का आधार है।’’
         कहने का अभिप्राय है कि देह से अलग आत्मा और आत्मा के अस्तित्व का ज्ञान होने पर जीवन का आनंद कम होने की बजाय बढ़ जाता है। जिन लोगों के पास अध्यात्मिक ज्ञान नहीं है वह अपने बाल सफेद हो जाने पर भी अज्ञानी बने रहते हैं। कुछ लोगो को लगता है कि तत्वज्ञान से आदमी जीवन से विरक्त हो जाता है यह बात गलत है। दरअसल तत्वज्ञानी जीवन में व्यर्थ चेष्टा, प्रमाद और निंदा से परे रहते हैं तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वह असांसरिक लोग हैं।

लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',ग्वालियर
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
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Thursday, May 13, 2010

संत कबीर के दोहे-बियावन वन के फूल बिना काम किसी के काम आये मुरझा जाते हैं

हाथी चढि के जो फिरै, ऊपर चंवर ढुराय
लोग कहैं सुख भोगवे, सीधे दोजख जाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि तो हाथी पर चढ़कर अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं और लोग समझते हैं कि वह सुख भोग रहे तो यह उनका भ्रम है वह तो अपने अभिमान के कारण सीधे नरक में जाते हैं।

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जोरे बड़ मति नांहि
जैसे फूल उजाड़ को, मिथ्या हो झड़ जांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि आदमी धन, पद और सम्मान पाकर बड़ा हुआ तो भी क्या अगर उसके पास अपनी मति नहीं है। वह ऐसे ही है जैसे बियावन उजड़े जंगल में फूल खिल कर बिना किसी के काम आये मुरझा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में सम्पादकीय व्याख्या-समय ने ऐसी करवट ली है कि इस समय धर्म और जनकल्याण के नाम पर भी व्यवसाय करने का चलन   हो गया है। इस मायावी दुनियां में यह पता ही नहीं लगता कि सत्य और माया है क्या? जिसे देखो भौतिकता की तरफ भाग रहा है। क्या साधु और क्या भक्त सब दिखावे की भक्ति में लगे हैं। राजा तो क्या संत भी अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं। उनको देखकर लोग वाह-वाह करते हैं। सोचते हैं हां, राजा और संत को इस तरह रहना चाहिये। सत्य तो यह है कि इस तरह तो  इस तरह लोग भी भ्रम में हो जाते हैं जिनके पास थोड़ी भी शक्ति और पद है। साथ ही  उनमें अहंकार आ जाता है और दिखावे के लिये सभी धर्म के कर्मकांडों का निर्वहन  करते हैं और फिर अपनी मायावी दुनियां में अपना रंग भी दिखाते हैं। ऐसे लोग पुण्य नहीं पाप में लिप्त है और उन्हें भगवान भक्ति से मिलने वाला सुख नहीं मिलता और वह अपने किये का दंड भोगते हैं।
यह शाश्वत सत्य है कि भक्ति का आनंद त्याग में है और मोह अनेक पापों को जन्म देता है। सच्ची भक्ति तो एकांत में होती है न कि ढोल नगाड़े बजाकर उसका प्रचार किया जाता है। हम जिन्हें बड़ा व्यक्ति या भक्त कहते हैं उनके पास अपना ज्ञान और बुद्धि कैसी है यह नहीं देखते। बड़ा आदमी वही है जो अपनी संपत्ति से वास्तव में छोटे लोगों का भला करता है न कि उसका दिखावा। आपने देखा होगा कि कई बड़े लोग अनेक कार्यक्रम गरीबों की भलाई के लिये करते हैं और फिर उसकी आय किन्हीं कल्याण संस्थाओं को देते हैं। यह सिर्फ नाटकबाजी है। वह लोग अपने को बड़ा आदमी सबित करने के लिये ही ऐसा करते हैं उनका और कोई इसके पीछे जनकल्याण करने का भाव नहीं होता। सच बात है कि जो परोपकार या दान करते हैं वह उसका प्रचार नहीं करते।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Monday, December 28, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-कपटी से मित्रता में धर्म की हानि होती है (kautilya sandesh-kapti se dosto se dharm kee hani)

 मित्रं विचार्य बहुशो ज्ञातदोषं परित्येजेत्।

त्यंजन्नभूतेदोषं हि धर्मार्थावुपहन्ति हिं।।

हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद कौटिल्य के अनुसार अपने मित्रों के बारे में विचार करना चाहिए। अगर उनमें छल कपट या अन्य दोष दिखाई दे तो उसे त्याग दें।  ऐसा न करने पर न केवल धर्म की हानि होती है बल्कि जीवन में कष्ट भी उठाना पड़ता है।

सा बन्धुर्योऽनुबंघाति हितऽर्ये वा हितादरः।

अनुरक्तं विरक्त वा तन्मिंत्रमुपकारि यत्।।

हिन्दी में भावार्थ-
वही बंधु है जो हमारे उद्देश्य की पूर्ति में सहायक होने के साथ आदर करने वाला हो। अनुरक्त हो या विरक्त पर उपकार आवश्यक करे वही सच्चा बंधु है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समय के साथ समाज में खुलापन आ रहा है और मित्र संग्रह में लोगों की लापरवाही का नतीजा यह है कि सभी जगह खुद के साथ धोखे की शिकायत करते हुए मिलते हैं।  इतना ही नहीं युवा पीढ़ी तो हर मिलने और बातचीत करने वाले को अपना मित्र समझ लेती है। मित्र के गुणों की पहचान कोई नहीं करता।

मित्र का सबसे बड़ा गुण है कि वह हर समय सहयोग के लिये तत्पर दिखता  हो। इसके अलावा वह अन्य लोगों के सामने अपमानित न करे और साथ ही समान विचारधारा वाला हो। स्वभाव के विपरीत होने पर या विचारों की भिन्नता वाले से अधिक समय तक मित्रता नहीं चलती अगर चलती है तो धर्म की हानि उठानी पड़ सकती है।   इसके अलावा मित्र वह है जो कहीं अपने मित्र की गुप्त बातों को कहीं उजागर न करता हो।  इतना ही नहीं मित्र का अन्य मित्रों का समूह और कुल भी अनुकूल होना चाहिये।   अगर वह केवल दिखावे की मित्रता करता है तो आपके वह रहस्य जो दूसरों के जानने योग्य नहीं है सभी को पता चल जाते हैं।  दूसरी बात यह है कि मित्र जब हमारे साथ होता है तब हमारा लगता है पर जब दूसरी जगह होता है तो दूसरों का होता है-यह विचार भी करना चाहिये।

कुछ लोग केवल स्वार्थ की वजह से मित्रता करते हैं-वैसे आजकल अधिकतर संख्या ऐसे ही लोगों की है-इस विचार करना चाहिऐ। एकांत में  हमेशा अपने मित्र समूह पर चिंतन करते हुए जिनमें दोष दिखता है या जिनकी मित्रता सतही प्रतीत होती है उनका त्याग कर देना चाहिये।
इसके अलावा निकट रहने पर मित्र के प्रति अपने भाव का अवलोकन भी उससे कुछ समय दूर रहकर करना चाहिये। निकट रहने पर उसके प्रति मोह रहता है इसलिये यह पता नहीं लगता कि उसकी नीयत क्या है? दूर रहने पर उससे मोह कम हो जाता है तब यह पता लगता है कि उसके प्रति हमारे मन में क्या है? इतना ही न अपने बच्चों के मित्रों और मिलने जुलने वालों पर भी दृष्टिपात करना चाहिये। आजकल काम की व्यस्तताओं की वजह  से माता पिता को अपने बच्चों की देखभाल का पूरी तरह अवसर नहीं मिल पाता इसलिये उनको बरगलाने की घटनायें बढ़ रही है।  ऐसा उन्हीं माता पिता के साथ होता है जो अपने बच्चों के मित्रों की यह सोचकर उपेक्षा कर देते हैं कि ‘वह क्या कर लेगा?’
कहने का तात्पर्य यह है कि अपने घर के सदस्यों के मित्रों पर दृष्टिपात करना चाहिये। अगर अपने मित्र दोषपूर्ण लगें तो उनसे दूरी बनायें और घर के सदस्यों के हों तो उन्हें इसके लिये प्रेरित करें।  मित्र के गलत होने पर धर्म की हानि अवश्य होती है।


संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Thursday, December 24, 2009

भर्तृहरि शतक-जब आदमी धन की गरमी से रहित हो जाता है (money and socity-hindu dharm sandesh)

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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यसयास्ति वित्तं स नरः कुलीन स पण्डित स श्रुतवान्गुणज्ञः।

स एव वक्ता स च दर्शनीयः।

सर्वे गुणा कांचनमाश्रयन्ति।।

     हिन्दी में भावार्थ-जिस मनुष्य के पास माया का भंडार उसे ही कुलीन, ज्ञानी, गुणवान माना जाता है। वही आकर्षक है। स्पष्टतः सभी के गुणों का आंकलन उसके धन के आधार पर किया जाता है।
तानीन्द्रियाण्यविकलानि तदेव नाम सा बुद्धिप्रतिहता वचनं तदेव।

अर्थोष्मणा विरहितः पुरुष क्षणेन सोऽप्यन्य एव भवतीति विचित्रमेतत्।।


     हिन्दी में भावार्थ-एक जैसी इंद्रियां, एक जैसा नाम और काम, एक ही जैसी बुद्धि और वाणी पर फिर भी जब आदमी धन की गरमी से क्षण भर में रहित हो जाता है तब उसकी स्थिति बदल जाते है। इस धन की बहुत विचित्र महिमा है।
     वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह समाज भर्तृहरि महाराज के समय में भी था और आज भी है। हम बेकार में परेशान होकर कहते हैं कि आजकल का जमाना खराब हो गया है।सच बात तो यह है कि सामान्य मनुष्य की प्रवृत्तियां ही ऐसी है कि वह केवल भौतिक उपलब्धियां देखकर ही दूसरे के गुणों का आंकलन  करता है। इधर गुणवान मनुष्य अपने अंदर गुणों का संचय करते हुए इतना ज्ञानी हो जाता है कि वह इस बात को समझ लेता है कि धन से नहीं वरन गुणों से  ही उसके जीवन की रक्षा होगी। इसलिये वह समाज में प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिये कोई अधिक प्रयास नहीं करता। उधर अल्पज्ञानी और ढोंगी लोग थोड़ा पढ़लिखकर सामान्य व्यक्तियों के सामने अपनी चालाकियों के सहारे उन्हीं से धन वसूल कर प्रतिष्ठित भी हो जाते हैं। यह अलग बात है कि इतिहास हमेशा ही उन्हीं महान लोगों को अपने पन्नों में दर्ज करता है जिन्होंने अपने गुणों से वास्तव में समाज को प्रभावित किया जाता है।
      इसका एक दूसरा पहलू भी है। अगर हमारे पास अधिक धन नहीं है तो इस बात की परवाह नहीं करना चाहिए। समाज के सामान्य लोगों की संकीर्ण मानसिकता का विचार करके अपने सम्मान और असम्मान की उपेक्षा कर देना चाहिए।  जिसके पास धन है उसे सभी मानेंगे। आप अच्छे लेखक, कवि, चित्रकार या कलाकार हैं पर उसकी अगर भौतिक उपलब्धि नहीं होती तो फिर सम्मान की आशा न करें। इतना ही नहीं अगर आप परोपकार के काम में लगे हैं तब भी यह आशा न करें  कि बिना दिखावे अथवा विज्ञापन के आपको कोई सम्मान करेगा। सम्मान या असम्मान से उपेक्षा करने के बाद आपके अंदर एक आत्मविश्वास पैदा होगा जिससे जीवन में अधिक आनंद प्राप्त कर सकेंगे। संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Saturday, October 3, 2009

विदुर नीति-विनय भाव से अपयश नष्ट होता है (vinay se apyash nasht hota hai-vidur niti)

नष्टं समुद्रे पतितं नष्टे वाक्यमश्रृण्वति।
अनात्मनि श्रुतं नष्टं नष्टं हुतमनगिनकम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस तरह समुद्र में गिरी वस्तु नष्ट हो जाती है उसी तरह किसी की न सुनने वाले मनुष्य से कही हुई बात नष्ट हो जाती है। जितेन्द्रिय पुरुष का शास्त्र ज्ञान और राख में किया हवन भी नष्ट हो जाता है।
अकीर्ति विनयो हन्ति हन्त्यनर्थ पराक्रमः।
हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधमाचारी हन्त्यलक्षणम्।।
हिंदी में भावार्थ-
विनय भाव ये अपयश का नाश होता है, पराक्रम के द्वारा अनर्थ दूर किया जा सकता है। क्षमा ही सदा क्रोध का नाश करती है और सदाचार का भाव अपने अंदर कुलक्षणों को समाप्त करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में ऐसे अनेक मनुष्य है जिनमें अहंकार की भावना बहुत होती है और ऐसे लोगों का समझाना न केवल कठिन काम है बल्कि एक तरह से अपना समय व्यर्थ करना है। आजकल तो ऐसे अनेक लोग दिखाई देते हैं जो किताबी ज्ञान प्राप्त करने के बाद विविध विषयों पर इस तरह बहस करते हैं कि जैसे कि उन जैसा कोई विद्वान इस संसार में नहीं है। वैसे भी कहा जाता है कि बुद्धिजीवियों की बहस के निष्कर्ष नहीं निकलते। उसी तरह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान ग्रंथ पढ़ कर उसे रटने वाले अनेक विद्वान भी हैं जिनको शब्द और अर्थ सभी याद है पर ज्ञान धारण भी किया जाता है वह नहीं जानते। इसलिये कहीं सत्संग चर्चा करिये तो हर कोई अपने ज्ञान बघारेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि आजकल कोई किसी की सुनता नहीं है इसलिये किसी से ज्ञान या सत्संग चर्चा करने की बजाय अकेले में बैठकर चिंतन या ध्यान करना ही श्रेयस्कर है।
अगर अपना कहीं अपयश फैल रहा हो तो विनम्रता पूर्वक अपनी बात रखना चाहिये। जो लोग जीवन में हमेशा ही दूसरों के साथ विनम्रता के साथ व्यवहार और वार्तालाप करते हैं उनका कभी भी अपयश नहीं फैलता। उसी तरह अगर अपने ऊपर आने वाले संकट का पराक्रम से ही किया जा सकता है। क्रोध और निराशा से कार्य करने वालों को न सफलता मिलती है न यश-यह बात ध्यान रखना चाहिये।
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Friday, October 2, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-शत्रुओं और विरोधियों के दो प्रकार (two type of friend and animy-kautilya

सहज कार्यजश्वव द्विविधः शत्रु सच्यते।
सहज स्वकुलोत्पन्न कार्यजः स्मृतः।
हिंदी में भावार्थ-
शत्रु दो प्रकार के होते हैं-एक तो जो स्वाभाविक रूप से बनते हैं दूसरे वह जो कार्य से बनते हैं। स्वाभाविक शत्रु कुल में उत्पन्न होता है तो दूसरा अपने कार्य के कारण बन जाता है।
उच्छेदापचयो काले पीडनं कर्षणन्तथा।
इति विधाविदः प्राहु, शत्रौ वृतं चतुविंघम्।।
हिंदी में भावार्थ-
उच्छेद, अपचय, समय पर पीड़ा देना और कर्षण यह चार प्रकार की स्थिति विद्वान बताते हैं।
वर्तमान संबंध में संपादकीय-ऐसा कोई जीव इस प्रथ्वी पर नहीं है जिसका कोई शत्रु न हो। बड़े बड़े महापुरुष इस प्रकृत्ति के नियम का उल्लंघन नहीं कर पाये। शत्रु दो प्रकार के बनते हैं। एक तो जो स्वाभाविक रूप होते ही हैं दूसरे हमारे कार्य से बनते हैं। स्वाभाविक रूप शत्रु या विरोधी परिवार, समाज तथा कुल की वजह से बनते हैं। जैसे बिल्ली चूहे की तो कुत्ता बिल्ली का दुश्मन होता है। उसी तरह इंसानों में भी कुछ रिश्ते आपस में प्रतिस्पर्धा पैदा करते हैं। जहां कुल बड़ा होता है वहां आपस में लोग एक दूसरे के विरोधी या दुश्मन पैदा होते हैं। आपने देखा होगा कि किसी आदमी को तब हानि नहीं पहुंचाई जा सकती जब उसका अपना कोई शत्रु न हो। बड़े शत्रु को हराने के लिये छोटे शत्रु से समझौता करना चाहिये यह इसलिये कहा गया है कि क्योंकि दो शत्रुओं से एक साथ लड़ना संभव नहीं होता।

हम यहां शत्रु के साथ विरोधी की भी चर्चा करें तो बात आसानी से समझी जा सकती है। हम जब कोई अपना कार्य करते हैं तो वही कार्य करने वाला अन्य व्यक्ति स्वाभाविक रूप से हमें शत्रु भाव से देखता है। वह इस बात से आशंकित रहता है कि कहीं उसका प्रतिस्पर्धी उससे आगे न निकल जाये। तब वह इस बात का प्रयास भी करता है कि आपको नाकाम किया जाये, आपकी मजाक उड़ायी जाये और तमाम तरह का दुष्प्रचार कर आपका मनोबल गिराया जाये। वह आपके ही छोटे शत्रु या विरोधी को अपना मित्र बना लेता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि इस दैहिक जीवन में शत्रु या विरोधी से मुक्त रहना संभव नहीं है। अतः शत्रु और विरोधी की गतिविधियों को नजर रखें। वह आपकी उपेक्षा करने के साथ ही आपके कार्यसिद्धि के साधनों को हानि पहुंचा सकते हैं। शत्रु या विरोधी की प्रकृत्ति को समझें तो हमेशा सतर्क रहकर उसका मुकाबला कर सकते हैं। याद रहे आपके शत्रु या विरोधी कभी भी आपकी सफलता को न तो स्वीकार कर सकते हैं न ही पचा सकते हैं।
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Wednesday, September 30, 2009

चाणक्य नीति-डसें नहीं फन तो फैलायें (chankya niti-fun)

निर्विषेणाऽपि सर्पेण कत्र्तव्या महती फणा।
विषमस्तु न चाष्यस्तु घटाटोपो भयंकरः।।
हिंदी में भावार्थ-
भले ही अपने पास विष न हो पर विषहीन सर्प को फिर भी फन फैलाने का आडंबर करना चाहिये। उसके बचाव के लिये यह जरूरी होता है।
प्रातद्र्यूतप्रसंगेन मध्याह्ये स्त्रीप्रसंगतः।
रात्रौ चैर्यप्रसंगेन कालो गच्छत्यधीमातम्।।
हिंदी में भावार्थ-
मूर्ख लोगों का समय प्रातःकाल जुआ, दोपहर प्रेम प्रसंग और रात्रि चोरी करने में व्यतीत होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य को अपने हृदय में दूसरों के प्रति स्वच्छता, स्नेह और दया का भाव रखना चाहिये। जहां तक हो सके दूसरे का भला करें पर यह भी आवश्यक है कि अपनी रक्षा के लिये सतर्कता बरतें। इस संसार में मनुष्य में ही देवता और राक्षस बैठा है। पता नहीं कब किस मनुष्य में राक्षसत्व का भाव पैदा हो इसलिये सभी लोगों से सतर्कता आवश्यक है। वैसे कुछ लोगों में तो हमेशा ही दुष्टता का भाव भरा होता है। ऐसे लोग जिसे कमजोर या असहाय समझते हैं उससे परेशान करने लगते हैं। हालांकि उनके द्वारा संकट पैदा करने पर लोगों पर प्रतिकार भी कर सकते हैं पर वह हमला ही न करें इसलिये अपनी शक्ति का प्रदर्शन समय आने पर करना पहले ही चाहिए। इस प्रदर्शन से दुष्ट हम पर हमला करने का दुस्साहस ही न करे। स्वयं किसी को हानि पहुंचाने का विचार करना भी दुष्टता है पर बाह्य विरोधी से निपटने के लिये अपने पास शक्ति का संचय अवश्य करते रहना चाहिये। इतना ही नहीं कोई अन्य आक्रमण न करे ताकि शक्ति का व्यर्थ उपयोग करने से बचें इस उद्देश्य से समय समय पर उसका प्रदर्शन भी करना चाहिये। जरूरत पड़े तो गुस्सा भी दिखाना चाहिए ताकि दुष्ट लोग सहमें रहें। इस बात का ध्यान रहे कि हमारे व्यवहार या गुस्से से किसी सज्जन का दिल न दुखे।
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