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Monday, December 28, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-कपटी से मित्रता में धर्म की हानि होती है (kautilya sandesh-kapti se dosto se dharm kee hani)

 मित्रं विचार्य बहुशो ज्ञातदोषं परित्येजेत्।

त्यंजन्नभूतेदोषं हि धर्मार्थावुपहन्ति हिं।।

हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद कौटिल्य के अनुसार अपने मित्रों के बारे में विचार करना चाहिए। अगर उनमें छल कपट या अन्य दोष दिखाई दे तो उसे त्याग दें।  ऐसा न करने पर न केवल धर्म की हानि होती है बल्कि जीवन में कष्ट भी उठाना पड़ता है।

सा बन्धुर्योऽनुबंघाति हितऽर्ये वा हितादरः।

अनुरक्तं विरक्त वा तन्मिंत्रमुपकारि यत्।।

हिन्दी में भावार्थ-
वही बंधु है जो हमारे उद्देश्य की पूर्ति में सहायक होने के साथ आदर करने वाला हो। अनुरक्त हो या विरक्त पर उपकार आवश्यक करे वही सच्चा बंधु है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समय के साथ समाज में खुलापन आ रहा है और मित्र संग्रह में लोगों की लापरवाही का नतीजा यह है कि सभी जगह खुद के साथ धोखे की शिकायत करते हुए मिलते हैं।  इतना ही नहीं युवा पीढ़ी तो हर मिलने और बातचीत करने वाले को अपना मित्र समझ लेती है। मित्र के गुणों की पहचान कोई नहीं करता।

मित्र का सबसे बड़ा गुण है कि वह हर समय सहयोग के लिये तत्पर दिखता  हो। इसके अलावा वह अन्य लोगों के सामने अपमानित न करे और साथ ही समान विचारधारा वाला हो। स्वभाव के विपरीत होने पर या विचारों की भिन्नता वाले से अधिक समय तक मित्रता नहीं चलती अगर चलती है तो धर्म की हानि उठानी पड़ सकती है।   इसके अलावा मित्र वह है जो कहीं अपने मित्र की गुप्त बातों को कहीं उजागर न करता हो।  इतना ही नहीं मित्र का अन्य मित्रों का समूह और कुल भी अनुकूल होना चाहिये।   अगर वह केवल दिखावे की मित्रता करता है तो आपके वह रहस्य जो दूसरों के जानने योग्य नहीं है सभी को पता चल जाते हैं।  दूसरी बात यह है कि मित्र जब हमारे साथ होता है तब हमारा लगता है पर जब दूसरी जगह होता है तो दूसरों का होता है-यह विचार भी करना चाहिये।

कुछ लोग केवल स्वार्थ की वजह से मित्रता करते हैं-वैसे आजकल अधिकतर संख्या ऐसे ही लोगों की है-इस विचार करना चाहिऐ। एकांत में  हमेशा अपने मित्र समूह पर चिंतन करते हुए जिनमें दोष दिखता है या जिनकी मित्रता सतही प्रतीत होती है उनका त्याग कर देना चाहिये।
इसके अलावा निकट रहने पर मित्र के प्रति अपने भाव का अवलोकन भी उससे कुछ समय दूर रहकर करना चाहिये। निकट रहने पर उसके प्रति मोह रहता है इसलिये यह पता नहीं लगता कि उसकी नीयत क्या है? दूर रहने पर उससे मोह कम हो जाता है तब यह पता लगता है कि उसके प्रति हमारे मन में क्या है? इतना ही न अपने बच्चों के मित्रों और मिलने जुलने वालों पर भी दृष्टिपात करना चाहिये। आजकल काम की व्यस्तताओं की वजह  से माता पिता को अपने बच्चों की देखभाल का पूरी तरह अवसर नहीं मिल पाता इसलिये उनको बरगलाने की घटनायें बढ़ रही है।  ऐसा उन्हीं माता पिता के साथ होता है जो अपने बच्चों के मित्रों की यह सोचकर उपेक्षा कर देते हैं कि ‘वह क्या कर लेगा?’
कहने का तात्पर्य यह है कि अपने घर के सदस्यों के मित्रों पर दृष्टिपात करना चाहिये। अगर अपने मित्र दोषपूर्ण लगें तो उनसे दूरी बनायें और घर के सदस्यों के हों तो उन्हें इसके लिये प्रेरित करें।  मित्र के गलत होने पर धर्म की हानि अवश्य होती है।


संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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