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Tuesday, June 28, 2011

संत कबीर वाणी-मनुष्य को अपनी देह का ज्ञान नहीं होता (sant kabir wani-manshya deh ka gyan)

           भारतीय योग विधा के बारे में अनेक लोग अनेक तरह के प्रचार करते हैं पर यह बात कम ही लोग बताते हैं कि योग साधना के अभ्यास से मनुष्य को अपनी देह और आत्मा के बीच के अंतर का आभास स्वतः होने लगता है। अज्ञानी मनुष्य देह को सर्वस्व मानकर पूरा जीवन नष्ट कर देता है जबकि ज्ञानी योग साधक अपने अभ्यास से देह और आत्मा के साथ ही परमात्मा के तत्व का भी आभास कर जीवन मजे से गुजारते हैं
सामान्य मनुष्य आंखों से देखते हैं पर दृश्य के संपूर्ण तत्व उनमें प्रविष्ट नहीं होते। अच्छे दृश्य का जहां वह पूरा आनंद नहीं उठा पाते वही बुरे दृश्य उनको अंदर तक हिला देते हैं। उसी तरह हर आदमी कान से अपनी प्रशंसा के साथ ही अपने को अच्छी बातें सुनना चाहता है। तत्व ज्ञान की बात सुनने की बजाय वह अपनी वाणी से सांसरिक बातों की बखान करता है।
             इस विषय पर संत कबीर कहते हैं कि
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            आंखि न देखि बावरा, शब्द सुनै नहिं कान।
           सिर के केस उज्वल भये, अबहुं निपट अज्ञान।।
          ‘‘संसार के लोगों को अपनी देह के संचालन का ही ज्ञान नहीं है। इन पगली आंखों से बावला नहीं देखता और न ही कानों से अच्छी बात सुनता है। सिर के बाल भी सफेद हो जाने पर भी लोग अज्ञानी बने रहते हैं।’’
             नर नारायन रूप हैं तू मति जानै देह।
            जो समझे तो समझ ले, खलक पलक में खेह।।
       ‘हे मनुष्य! तुम साक्षात नारायण हो इसलिये अपने को केवल देह मत जान। समझना है अपनी देह से प्रथक उस परमात्मा को समझ जो तेरी आत्मा का आधार है।’’
         कहने का अभिप्राय है कि देह से अलग आत्मा और आत्मा के अस्तित्व का ज्ञान होने पर जीवन का आनंद कम होने की बजाय बढ़ जाता है। जिन लोगों के पास अध्यात्मिक ज्ञान नहीं है वह अपने बाल सफेद हो जाने पर भी अज्ञानी बने रहते हैं। कुछ लोगो को लगता है कि तत्वज्ञान से आदमी जीवन से विरक्त हो जाता है यह बात गलत है। दरअसल तत्वज्ञानी जीवन में व्यर्थ चेष्टा, प्रमाद और निंदा से परे रहते हैं तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वह असांसरिक लोग हैं।

लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',ग्वालियर
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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Saturday, June 11, 2011

संत कबीर के दोहे-आदमी कभी धन पाने के प्रयास से थकता नहीं

           प्रकृति में उत्पन्न समस्त जीवों में मनुष्य सबसे अधिक बुद्धिमान माना गया है और विचित्र बात यह है कि जहां अन्य जीव सीमित आवश्यकताओं के कारण अपना जीवन सामान्य रूप से गुजार लेते हैं जबकि मनुष्य असीम लालच और लोभ को अपने मन में स्थान देता है और सदैव संकट बुलाता है। संत कबीर दास जी ने अपने संदेशों में इसी तरफ इंगित किया है।
       कबीरा औंधी खोपड़ी, कबहूं धापै नाहिं
       तीन लोक की सम्पदा, कब आवै घर माहिं
          संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य की खोपड़ी उल्टी होती है क्योंकि वह कभी भी धन प्राप्ति से थकता नहीं है। वह अपना पूरा जीवन इस आशा में नष्ट कर देता है कि तीनों लोकों की संपदा उसके घर कब आयेगी।
            इस दुनिया में मनुष्य ही एक ऐसा जीवन जिसके पास बुद्धि में विवेक है इसलिये वह कुछ नया निर्माण कर सकता है। अपनी बुद्धि की वह से ही वह अच्छे और बुरे का निर्णय कर सकता है। सच तो यह कि परमात्मा ने उसे इस संसार पर राज्य करने के लिए ही बुद्धि दी है पर लालच और लोभ के वश में आदमी अपनी बुद्धि गुलाम रख देता है। वह कभी भी धन प्राप्ति के कार्य से थकता नहीं है। अगर हजार रुपये होता है तो दस हजार, दस हजार से लाख और लाख से दस लाख की चाहत करते हुए उसकी लालच का क्रम बढ़ जाता है। कई बार तो ऐसे लोग भी देखने में आ जाते है जिनके पेट में दर्द अपने खाने से नहीं दूसरे को खाते देखने से उठ खड़ा होता है।
         अनेक धनी लोग जिनको चिकित्सकों ने मधुमेह की वजह से खाने पर नियंत्रण रखने को कहा होता है वह गरीबों को खाता देख दुःखी होकर कहते भी हैं‘देखो गरीब होकर खा कैसे रहा है’। इतना ही नहीं कई जगह ऐसे अमीर हैं पर निर्धन लोगों की झग्गियों को उजाड़ कर वहां अपने महल खड़े करना चाहते हैं। आदमी एक तरह से विकास का गुलाम बन गया है। भक्ति भाव से पर आदमी बस माया के चक्कर लगाता है और वह परे होती चली जाती है। सौ रुपया पाया तो हजार का मोह आया, हजार से दस हजार, दस हजार से लाख और लाख से दस लाख के बढ़ते क्रम में आदमी चलता जाता है और कहता जाता है कि अभी मेरे पास कुछ नहीं है दूसरे के पास अधिक है। मतलब वह माया की सीढियां चढ़ता जाता है और वह दूर होती जाती है। इस तरह आदमी अपना पूरा जीवन नष्ट कर देता है।
       आजकल तो जिसे देखो उस पर विकास का भूत चढ़ा हुआ है। कहते हैं कि इस देश में शिक्षा की कमी है पर जिन्होने शिक्षा प्राप्त की है तो इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि उन्होंने ज्ञान भी प्राप्त कर लिया है। इसलिये शिक्षित आदमी तो और भी माया के चक्कर में पड़ जाता है और उसे तो बस विकास की पड़ी होती है पर उसका स्वरूप उसे भी पता नहीं होता। लोगों ने केवल भौतिक उपलब्धियों को ही सबकुछ मान लिया है और अध्यात्म से दूर हो गये हैं उसी का परिणाम है कि सामाजिक वैमनस्य तथा मानसिक तनाव बढ़ रहा है। अत: जितना हो सके उतना ही अपनी पर नियंत्रण रख्नना चाहिये।  मनुष्य को अपनी बुद्धि तथा मन को लेकर हमेशा आत्ममंथन करना चाहिए ताकि वह स्वयं भी अपने कर्म पर नियंत्रण रख सके 
लेखक एवं संपादक -nhid jkt dqdjstk ^Hkkjrnhi*Xokfy;j
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep',Gwalior
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Thursday, May 13, 2010

संत कबीर के दोहे-बियावन वन के फूल बिना काम किसी के काम आये मुरझा जाते हैं

हाथी चढि के जो फिरै, ऊपर चंवर ढुराय
लोग कहैं सुख भोगवे, सीधे दोजख जाय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि तो हाथी पर चढ़कर अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं और लोग समझते हैं कि वह सुख भोग रहे तो यह उनका भ्रम है वह तो अपने अभिमान के कारण सीधे नरक में जाते हैं।

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जोरे बड़ मति नांहि
जैसे फूल उजाड़ को, मिथ्या हो झड़ जांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि आदमी धन, पद और सम्मान पाकर बड़ा हुआ तो भी क्या अगर उसके पास अपनी मति नहीं है। वह ऐसे ही है जैसे बियावन उजड़े जंगल में फूल खिल कर बिना किसी के काम आये मुरझा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में सम्पादकीय व्याख्या-समय ने ऐसी करवट ली है कि इस समय धर्म और जनकल्याण के नाम पर भी व्यवसाय करने का चलन   हो गया है। इस मायावी दुनियां में यह पता ही नहीं लगता कि सत्य और माया है क्या? जिसे देखो भौतिकता की तरफ भाग रहा है। क्या साधु और क्या भक्त सब दिखावे की भक्ति में लगे हैं। राजा तो क्या संत भी अपने ऊपर चंवर डुलवाते हैं। उनको देखकर लोग वाह-वाह करते हैं। सोचते हैं हां, राजा और संत को इस तरह रहना चाहिये। सत्य तो यह है कि इस तरह तो  इस तरह लोग भी भ्रम में हो जाते हैं जिनके पास थोड़ी भी शक्ति और पद है। साथ ही  उनमें अहंकार आ जाता है और दिखावे के लिये सभी धर्म के कर्मकांडों का निर्वहन  करते हैं और फिर अपनी मायावी दुनियां में अपना रंग भी दिखाते हैं। ऐसे लोग पुण्य नहीं पाप में लिप्त है और उन्हें भगवान भक्ति से मिलने वाला सुख नहीं मिलता और वह अपने किये का दंड भोगते हैं।
यह शाश्वत सत्य है कि भक्ति का आनंद त्याग में है और मोह अनेक पापों को जन्म देता है। सच्ची भक्ति तो एकांत में होती है न कि ढोल नगाड़े बजाकर उसका प्रचार किया जाता है। हम जिन्हें बड़ा व्यक्ति या भक्त कहते हैं उनके पास अपना ज्ञान और बुद्धि कैसी है यह नहीं देखते। बड़ा आदमी वही है जो अपनी संपत्ति से वास्तव में छोटे लोगों का भला करता है न कि उसका दिखावा। आपने देखा होगा कि कई बड़े लोग अनेक कार्यक्रम गरीबों की भलाई के लिये करते हैं और फिर उसकी आय किन्हीं कल्याण संस्थाओं को देते हैं। यह सिर्फ नाटकबाजी है। वह लोग अपने को बड़ा आदमी सबित करने के लिये ही ऐसा करते हैं उनका और कोई इसके पीछे जनकल्याण करने का भाव नहीं होता। सच बात है कि जो परोपकार या दान करते हैं वह उसका प्रचार नहीं करते।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Monday, December 28, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-कपटी से मित्रता में धर्म की हानि होती है (kautilya sandesh-kapti se dosto se dharm kee hani)

 मित्रं विचार्य बहुशो ज्ञातदोषं परित्येजेत्।

त्यंजन्नभूतेदोषं हि धर्मार्थावुपहन्ति हिं।।

हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद कौटिल्य के अनुसार अपने मित्रों के बारे में विचार करना चाहिए। अगर उनमें छल कपट या अन्य दोष दिखाई दे तो उसे त्याग दें।  ऐसा न करने पर न केवल धर्म की हानि होती है बल्कि जीवन में कष्ट भी उठाना पड़ता है।

सा बन्धुर्योऽनुबंघाति हितऽर्ये वा हितादरः।

अनुरक्तं विरक्त वा तन्मिंत्रमुपकारि यत्।।

हिन्दी में भावार्थ-
वही बंधु है जो हमारे उद्देश्य की पूर्ति में सहायक होने के साथ आदर करने वाला हो। अनुरक्त हो या विरक्त पर उपकार आवश्यक करे वही सच्चा बंधु है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समय के साथ समाज में खुलापन आ रहा है और मित्र संग्रह में लोगों की लापरवाही का नतीजा यह है कि सभी जगह खुद के साथ धोखे की शिकायत करते हुए मिलते हैं।  इतना ही नहीं युवा पीढ़ी तो हर मिलने और बातचीत करने वाले को अपना मित्र समझ लेती है। मित्र के गुणों की पहचान कोई नहीं करता।

मित्र का सबसे बड़ा गुण है कि वह हर समय सहयोग के लिये तत्पर दिखता  हो। इसके अलावा वह अन्य लोगों के सामने अपमानित न करे और साथ ही समान विचारधारा वाला हो। स्वभाव के विपरीत होने पर या विचारों की भिन्नता वाले से अधिक समय तक मित्रता नहीं चलती अगर चलती है तो धर्म की हानि उठानी पड़ सकती है।   इसके अलावा मित्र वह है जो कहीं अपने मित्र की गुप्त बातों को कहीं उजागर न करता हो।  इतना ही नहीं मित्र का अन्य मित्रों का समूह और कुल भी अनुकूल होना चाहिये।   अगर वह केवल दिखावे की मित्रता करता है तो आपके वह रहस्य जो दूसरों के जानने योग्य नहीं है सभी को पता चल जाते हैं।  दूसरी बात यह है कि मित्र जब हमारे साथ होता है तब हमारा लगता है पर जब दूसरी जगह होता है तो दूसरों का होता है-यह विचार भी करना चाहिये।

कुछ लोग केवल स्वार्थ की वजह से मित्रता करते हैं-वैसे आजकल अधिकतर संख्या ऐसे ही लोगों की है-इस विचार करना चाहिऐ। एकांत में  हमेशा अपने मित्र समूह पर चिंतन करते हुए जिनमें दोष दिखता है या जिनकी मित्रता सतही प्रतीत होती है उनका त्याग कर देना चाहिये।
इसके अलावा निकट रहने पर मित्र के प्रति अपने भाव का अवलोकन भी उससे कुछ समय दूर रहकर करना चाहिये। निकट रहने पर उसके प्रति मोह रहता है इसलिये यह पता नहीं लगता कि उसकी नीयत क्या है? दूर रहने पर उससे मोह कम हो जाता है तब यह पता लगता है कि उसके प्रति हमारे मन में क्या है? इतना ही न अपने बच्चों के मित्रों और मिलने जुलने वालों पर भी दृष्टिपात करना चाहिये। आजकल काम की व्यस्तताओं की वजह  से माता पिता को अपने बच्चों की देखभाल का पूरी तरह अवसर नहीं मिल पाता इसलिये उनको बरगलाने की घटनायें बढ़ रही है।  ऐसा उन्हीं माता पिता के साथ होता है जो अपने बच्चों के मित्रों की यह सोचकर उपेक्षा कर देते हैं कि ‘वह क्या कर लेगा?’
कहने का तात्पर्य यह है कि अपने घर के सदस्यों के मित्रों पर दृष्टिपात करना चाहिये। अगर अपने मित्र दोषपूर्ण लगें तो उनसे दूरी बनायें और घर के सदस्यों के हों तो उन्हें इसके लिये प्रेरित करें।  मित्र के गलत होने पर धर्म की हानि अवश्य होती है।


संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Saturday, October 3, 2009

विदुर नीति-विनय भाव से अपयश नष्ट होता है (vinay se apyash nasht hota hai-vidur niti)

नष्टं समुद्रे पतितं नष्टे वाक्यमश्रृण्वति।
अनात्मनि श्रुतं नष्टं नष्टं हुतमनगिनकम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस तरह समुद्र में गिरी वस्तु नष्ट हो जाती है उसी तरह किसी की न सुनने वाले मनुष्य से कही हुई बात नष्ट हो जाती है। जितेन्द्रिय पुरुष का शास्त्र ज्ञान और राख में किया हवन भी नष्ट हो जाता है।
अकीर्ति विनयो हन्ति हन्त्यनर्थ पराक्रमः।
हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधमाचारी हन्त्यलक्षणम्।।
हिंदी में भावार्थ-
विनय भाव ये अपयश का नाश होता है, पराक्रम के द्वारा अनर्थ दूर किया जा सकता है। क्षमा ही सदा क्रोध का नाश करती है और सदाचार का भाव अपने अंदर कुलक्षणों को समाप्त करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-इस संसार में ऐसे अनेक मनुष्य है जिनमें अहंकार की भावना बहुत होती है और ऐसे लोगों का समझाना न केवल कठिन काम है बल्कि एक तरह से अपना समय व्यर्थ करना है। आजकल तो ऐसे अनेक लोग दिखाई देते हैं जो किताबी ज्ञान प्राप्त करने के बाद विविध विषयों पर इस तरह बहस करते हैं कि जैसे कि उन जैसा कोई विद्वान इस संसार में नहीं है। वैसे भी कहा जाता है कि बुद्धिजीवियों की बहस के निष्कर्ष नहीं निकलते। उसी तरह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान ग्रंथ पढ़ कर उसे रटने वाले अनेक विद्वान भी हैं जिनको शब्द और अर्थ सभी याद है पर ज्ञान धारण भी किया जाता है वह नहीं जानते। इसलिये कहीं सत्संग चर्चा करिये तो हर कोई अपने ज्ञान बघारेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि आजकल कोई किसी की सुनता नहीं है इसलिये किसी से ज्ञान या सत्संग चर्चा करने की बजाय अकेले में बैठकर चिंतन या ध्यान करना ही श्रेयस्कर है।
अगर अपना कहीं अपयश फैल रहा हो तो विनम्रता पूर्वक अपनी बात रखना चाहिये। जो लोग जीवन में हमेशा ही दूसरों के साथ विनम्रता के साथ व्यवहार और वार्तालाप करते हैं उनका कभी भी अपयश नहीं फैलता। उसी तरह अगर अपने ऊपर आने वाले संकट का पराक्रम से ही किया जा सकता है। क्रोध और निराशा से कार्य करने वालों को न सफलता मिलती है न यश-यह बात ध्यान रखना चाहिये।
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Friday, October 2, 2009

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-शत्रुओं और विरोधियों के दो प्रकार (two type of friend and animy-kautilya

सहज कार्यजश्वव द्विविधः शत्रु सच्यते।
सहज स्वकुलोत्पन्न कार्यजः स्मृतः।
हिंदी में भावार्थ-
शत्रु दो प्रकार के होते हैं-एक तो जो स्वाभाविक रूप से बनते हैं दूसरे वह जो कार्य से बनते हैं। स्वाभाविक शत्रु कुल में उत्पन्न होता है तो दूसरा अपने कार्य के कारण बन जाता है।
उच्छेदापचयो काले पीडनं कर्षणन्तथा।
इति विधाविदः प्राहु, शत्रौ वृतं चतुविंघम्।।
हिंदी में भावार्थ-
उच्छेद, अपचय, समय पर पीड़ा देना और कर्षण यह चार प्रकार की स्थिति विद्वान बताते हैं।
वर्तमान संबंध में संपादकीय-ऐसा कोई जीव इस प्रथ्वी पर नहीं है जिसका कोई शत्रु न हो। बड़े बड़े महापुरुष इस प्रकृत्ति के नियम का उल्लंघन नहीं कर पाये। शत्रु दो प्रकार के बनते हैं। एक तो जो स्वाभाविक रूप होते ही हैं दूसरे हमारे कार्य से बनते हैं। स्वाभाविक रूप शत्रु या विरोधी परिवार, समाज तथा कुल की वजह से बनते हैं। जैसे बिल्ली चूहे की तो कुत्ता बिल्ली का दुश्मन होता है। उसी तरह इंसानों में भी कुछ रिश्ते आपस में प्रतिस्पर्धा पैदा करते हैं। जहां कुल बड़ा होता है वहां आपस में लोग एक दूसरे के विरोधी या दुश्मन पैदा होते हैं। आपने देखा होगा कि किसी आदमी को तब हानि नहीं पहुंचाई जा सकती जब उसका अपना कोई शत्रु न हो। बड़े शत्रु को हराने के लिये छोटे शत्रु से समझौता करना चाहिये यह इसलिये कहा गया है कि क्योंकि दो शत्रुओं से एक साथ लड़ना संभव नहीं होता।

हम यहां शत्रु के साथ विरोधी की भी चर्चा करें तो बात आसानी से समझी जा सकती है। हम जब कोई अपना कार्य करते हैं तो वही कार्य करने वाला अन्य व्यक्ति स्वाभाविक रूप से हमें शत्रु भाव से देखता है। वह इस बात से आशंकित रहता है कि कहीं उसका प्रतिस्पर्धी उससे आगे न निकल जाये। तब वह इस बात का प्रयास भी करता है कि आपको नाकाम किया जाये, आपकी मजाक उड़ायी जाये और तमाम तरह का दुष्प्रचार कर आपका मनोबल गिराया जाये। वह आपके ही छोटे शत्रु या विरोधी को अपना मित्र बना लेता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि इस दैहिक जीवन में शत्रु या विरोधी से मुक्त रहना संभव नहीं है। अतः शत्रु और विरोधी की गतिविधियों को नजर रखें। वह आपकी उपेक्षा करने के साथ ही आपके कार्यसिद्धि के साधनों को हानि पहुंचा सकते हैं। शत्रु या विरोधी की प्रकृत्ति को समझें तो हमेशा सतर्क रहकर उसका मुकाबला कर सकते हैं। याद रहे आपके शत्रु या विरोधी कभी भी आपकी सफलता को न तो स्वीकार कर सकते हैं न ही पचा सकते हैं।
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