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Wednesday, July 6, 2011

संत कबीर वाणी-पैसा हो तो पचास गुरु मिल जाते हैं(sant kabir wani-paisa aur guru)

                लोग एकदूसरे से पूछते हैं कि आज के गुरु भी भ्रष्ट और अज्ञानी हैं ऐसे में किससे ज्ञान प्राप्त किया जाये? देखा जाये तो ऐसे गुरुओं की उपस्थिति हर काल में रही है जो अध्यात्मिक दर्शन का व्यापार करते हैं। उनका लक्ष्य कोई धर्म का प्रचार करना नहीं होता बल्कि वह शिष्यों को ग्राहक बनाकर अपना रटा हुआ ज्ञान बेचते है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि हमारे देश में गुरु शिष्य की उच्च परंपरा रही है पर उसकी आड़ में ऐसे गुरुओं और शिष्यों की भरमार भी रही है जो पाखंड तथा ढोंग कर धर्म का दिखावा करते हैं। शिष्य जहां धर्म और अध्यात्म से इतर अपने अन्य लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये गुरु बनाते हैं तो गुरु भी अपने निकट ऐसे ही शिष्यों को आने देते हैं जो उनके धर्म के व्यापार में दलाल की भूमिका निभा सके हैं।
         संत कबीर कहते हैं कि
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        गुरवा तो सस्ता भया, पैसा केर पचास।
       राम नाम धन बेचि के, शिष्य करन की आस।।
        ‘‘गुरु का पद तो सस्ता हो गया है। पैसा हो तो पचास गुरु बन जाते हैं। यह गुरु स्वयं राम नाम का धन बेचते हैं और शिष्य से अपनी उदरपूर्ति की आशा करते हैं।
       गुरु बिचारा क्या करे, शब्द न लागा अंग।
        कहें कबीर मैली गजी, केसे लागे रंग।।
      ‘‘कोई गुरु भी क्या करे कि उसके शब्दों का प्रभाव शिष्यों पर नहीं होता। उनके मन उसी तरह मैले हैं जिस तरह गंदा कपड़ा होता है जिस पर रंग चढ़ाना व्यर्थ हो जाता है।’’
              योग्य गुरु तथा शिष्य का संयोग बड़े भाग्य से बनता है। अगर कोई गुरु योग्य है तो उसके शिष्यों में मन में ज्ञान प्राप्त करने की बजाय दिखावे की प्रवृत्ति अधिक है। वह उसके ज्ञान को केवल मनोरंजन का विषय मानकर सुनते है। प्रवचन और सत्संग के बाद उनका घर जाकर जस की तरह आचरण हो जाता है। उसी तरह अगर कोई गुरु ज्ञानी है पर उसके पास अच्छे प्रबंधक और प्रचारक शिष्य नहीं है तो उसे कोई नहीं पूछता। यही स्थिति उन जिज्ञासु लोगों की भी है जो अपने लिये आध्यात्मिक गुरु ढूंढते हैं पर व्यवसायिक गुरुओं की बहुतायत होने के कारण वह निराश हो जाते हैं। हालांकि ऐसे में श्रीमद्भागवत गीता तथा अन्य धर्मग्रंथों का नियमित अध्ययन किया जाये तो ऐसे पावन ग्रंथ स्वतः गुरु बन जाते हैं। महर्षि चाणक्य कहते हैं कि प्रतिदिन एक पाठ और वह भी नहीं तो एक दोहे या श्लोक का अध्ययन कर भी ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। वह भी नहीं तो आधे श्लोक या दोहे का अध्ययन करें। गुरु का अर्थ यह कदापि नहीं है कि वह सदेह हा सामने हो एकलव्य का अभ्यास इस बात की पुष्टि भी करता है। मूल बात संकल्प की है और वह धारण कर लिया तो फिर ज्ञानमार्ग का द्वार स्वतः खुल जाता है।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',ग्वालियर
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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Wednesday, June 29, 2011

कबीर संदेश-लोग कर्मकांडों को धर्म के भ्रम मे पालते हैं (kabir sandesh-karmkand aur dharma)

          मूलतः भारतीय समाज प्रगतिवादी माना जाता है। हालांकि कुछ विदेशी भारतवासियों की धर्मभीरुता का मजाक उड़ाते हैं पर जिस तरह हमारा समाज समय के अनुसार नई शिक्षा, विज्ञान तथा साधनों के उपयोग की तरफ प्रवृत्त होता है उससे यह प्रमाणित होता है कि रूढ़ता का भाव उसमें नहीं है पर इसके बावजूद फिर भी धर्म के नाम पर अनेक कर्मकांड हैं जिसे लोग केवल सामाजिक दबाव में इसलिये अपनाते हैं कि लोग क्या कहेंगे। आधुनिक शिक्षा से जीवन में आगे बढ़े लोग भी अंधविश्वास और कर्मकांडों पर इसलिये विश्वास करते दिखते हैं क्योंकि उन पर कहीं न कहीं से दूसरे लोगो का दबाव होता है। स्थिति यह है कि अनेक धार्मिक ठेकेदार तो इन्हीं कर्मकांडों को ही धर्म का आधार कहकर प्रचारित करते हैं।
            इस विषय पर संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि
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            ‘कबीर’ मन फूल्या फिरै, करता हूं मैं ध्रंम।
                कोटि क्रम सिरि ले चल्या, चेत न देखै भ्रम।।
          "आदमी अपने सिर पर कर्मकांडों का बोझ ढोते हुए फूलता है कि वह धर्म का निर्वाह कर रहा है। वह कभी अपने विवेक का उपयोग करते हुए इस बात का विचार नहीं करता कि यह उसका एक भ्रम है।"
              संत कबीरदास जी ने अपने समाज के अंधविश्वासों और कुरीतियों पर जमकर प्रहार किये हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि अनेक संत और साधु उनके संदेशों को ग्रहण करने का उपदेश तो देते हैं पर समाज में फैले अंधविश्वास और कर्मकांडों पर खामोश रहते हैं। आदमी के जन्म से लेकर मृत्यु तक ढेर सारे ऐसे कर्मकांडों का प्रतिपादन किया गया है जिनका कोई वैज्ञानिक तथा तार्किक आधार नहीं है। इसके बावजूद बिना किसी तर्क के लोग उनका निर्वहन कर यह भ्रम पालते हैं कि वह धर्म का निर्वाह कर रहे हैं। किसी कर्मकांड को न करने पर अन्य लोग नरक का भय दिखाते हैं यह फिर धर्म भ्रष्ट घोषित कर देते हैं। इसीलिये कुछ आदमी अनचाहे तो कुछ लोग भ्रम में पड़कर ऐसा बोझा ढो रहे हैं जो उनके दैहिक जीवन को नरक बनाकर रख देता है। कोई भी स्वयं ज्ञान धारण नहीं करता बल्कि दूसरे की बात सुनकर अंधविश्वासों और रूढ़ियों का भार अपने सिर पर सभी उसे ढोते जा रहे हैं। इस आर्थिक युग में कई लोग तो ऋण लेकर ऐसी परंपराओं को निभाते हैं और फिर उसके बोझ तले आजीवन परेशान रहते हैं। इससे तो अच्छा है कि हम अपने अंदर भगवान के प्रति भक्ति का भाव रखते हुए केवल उसी कार्य को करें जो आवश्यक हो। अपना जीवन अपने विवेक से ही जीना चाहिए।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',ग्वालियर
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
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Saturday, June 11, 2011

संत कबीर के दोहे-आदमी कभी धन पाने के प्रयास से थकता नहीं

           प्रकृति में उत्पन्न समस्त जीवों में मनुष्य सबसे अधिक बुद्धिमान माना गया है और विचित्र बात यह है कि जहां अन्य जीव सीमित आवश्यकताओं के कारण अपना जीवन सामान्य रूप से गुजार लेते हैं जबकि मनुष्य असीम लालच और लोभ को अपने मन में स्थान देता है और सदैव संकट बुलाता है। संत कबीर दास जी ने अपने संदेशों में इसी तरफ इंगित किया है।
       कबीरा औंधी खोपड़ी, कबहूं धापै नाहिं
       तीन लोक की सम्पदा, कब आवै घर माहिं
          संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य की खोपड़ी उल्टी होती है क्योंकि वह कभी भी धन प्राप्ति से थकता नहीं है। वह अपना पूरा जीवन इस आशा में नष्ट कर देता है कि तीनों लोकों की संपदा उसके घर कब आयेगी।
            इस दुनिया में मनुष्य ही एक ऐसा जीवन जिसके पास बुद्धि में विवेक है इसलिये वह कुछ नया निर्माण कर सकता है। अपनी बुद्धि की वह से ही वह अच्छे और बुरे का निर्णय कर सकता है। सच तो यह कि परमात्मा ने उसे इस संसार पर राज्य करने के लिए ही बुद्धि दी है पर लालच और लोभ के वश में आदमी अपनी बुद्धि गुलाम रख देता है। वह कभी भी धन प्राप्ति के कार्य से थकता नहीं है। अगर हजार रुपये होता है तो दस हजार, दस हजार से लाख और लाख से दस लाख की चाहत करते हुए उसकी लालच का क्रम बढ़ जाता है। कई बार तो ऐसे लोग भी देखने में आ जाते है जिनके पेट में दर्द अपने खाने से नहीं दूसरे को खाते देखने से उठ खड़ा होता है।
         अनेक धनी लोग जिनको चिकित्सकों ने मधुमेह की वजह से खाने पर नियंत्रण रखने को कहा होता है वह गरीबों को खाता देख दुःखी होकर कहते भी हैं‘देखो गरीब होकर खा कैसे रहा है’। इतना ही नहीं कई जगह ऐसे अमीर हैं पर निर्धन लोगों की झग्गियों को उजाड़ कर वहां अपने महल खड़े करना चाहते हैं। आदमी एक तरह से विकास का गुलाम बन गया है। भक्ति भाव से पर आदमी बस माया के चक्कर लगाता है और वह परे होती चली जाती है। सौ रुपया पाया तो हजार का मोह आया, हजार से दस हजार, दस हजार से लाख और लाख से दस लाख के बढ़ते क्रम में आदमी चलता जाता है और कहता जाता है कि अभी मेरे पास कुछ नहीं है दूसरे के पास अधिक है। मतलब वह माया की सीढियां चढ़ता जाता है और वह दूर होती जाती है। इस तरह आदमी अपना पूरा जीवन नष्ट कर देता है।
       आजकल तो जिसे देखो उस पर विकास का भूत चढ़ा हुआ है। कहते हैं कि इस देश में शिक्षा की कमी है पर जिन्होने शिक्षा प्राप्त की है तो इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि उन्होंने ज्ञान भी प्राप्त कर लिया है। इसलिये शिक्षित आदमी तो और भी माया के चक्कर में पड़ जाता है और उसे तो बस विकास की पड़ी होती है पर उसका स्वरूप उसे भी पता नहीं होता। लोगों ने केवल भौतिक उपलब्धियों को ही सबकुछ मान लिया है और अध्यात्म से दूर हो गये हैं उसी का परिणाम है कि सामाजिक वैमनस्य तथा मानसिक तनाव बढ़ रहा है। अत: जितना हो सके उतना ही अपनी पर नियंत्रण रख्नना चाहिये।  मनुष्य को अपनी बुद्धि तथा मन को लेकर हमेशा आत्ममंथन करना चाहिए ताकि वह स्वयं भी अपने कर्म पर नियंत्रण रख सके 
लेखक एवं संपादक -nhid jkt dqdjstk ^Hkkjrnhi*Xokfy;j
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep',Gwalior
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