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Saturday, September 20, 2014

दौलत और दिमाग के बीमारों से संपर्क रखना कठिन-भर्तृहरि नीति शतक के आधार पर चिंत्तन लेख(daulat aur dimag kie bimoron se sampark rakhna kathin-A Hindu hindi religion though based on bhartrihari niti shaak)



            विश्व में जैसे जैसे भौतिक विकास हुआ है वैसे वैसे समाज में नैतिकता का पतन भी सामने आता गया है। संचार, परिवहन, मनोरंजन और आम रहन सहन में उपभोग के जैसे जैसे नये साधन बनते गये वैसे ही उनके दुरुपयोग की प्रवृत्ति भी लोगों में आती गयी। आज मोबाइल और कंप्यूटर का प्रचलन बढ़ा है तो हम यह भी देख रहे हैं कि अपराधी उनका उपयोग कर अधिक बुरे ढंग से कर समाज को प्रताड़ित कर रहे हैं।  यही स्थिति इंटरनेट पर भी बन गयी है। अनेक बड़े अपराधी अब वहां भी सक्रिय हो गये हैं।
            कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य समाज में दैवीय और आसुरी दो तरह की प्रकृत्ति के लोग होते हैं।  इसके अलावा सात्विक, राजसी और तामसी तीन प्रकार के कर्मों में लिप्त लोग अपने अपने स्वभाव के अनुसार व्यवहार करते हैं। श्रीमद्भागवत गीता के इस ज्ञान और विज्ञान के इस संयुक्त सूत्र को समझने वाले कभी भी किसी में दोष देखने की बजाय अपने अनुसार अपने संपर्क बनाते हैं।  वह ऐसे लोगों से बचते हैं जो उनको राजसी और तामसी कर्मों में लगने के लिये बाध्य कर सकते हैं।

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

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पुण्यैर्मूलफलैस्तथा प्रणयिनीं वृत्तिं कुरुष्वाधुना
भूश्ययां नवपल्लवैरकृपणैरुत्तिष्ठ यावो वनम्।
क्षधद्राणामविवेकमूढ़मनसां यन्नश्वाराणां सदा
वित्तव्याधिविकार विह्व्लगिरां नामापि न श्रूयते।।


     हिन्दी में भावार्थ-भर्तृहरि महाराज अपने प्रजाजनों से कहते हैं कि अब तुम लोग पवित्र फल फूलों खाकर जीवन यापन करो। सजे हुए बिस्तर छोड़कर प्रकृति की बनाई शय्या यानि धरती पर ही शयन करो। वृक्ष की छाल को ही वस्त्र बना  लो। अब यहां से चले चलो क्योंकि वहां उन मूर्ख और संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों का नाम भी सुनाई नहीं देगा जो अपनी वाणी और संपत्ति से रोगी होने के कारण अपने वश में नहीं है।

     इस संसार में तीन प्रकार के लोग पाये जाते हैं-सात्विक, राजस और तामस! श्रेष्ठता का क्रम जैसे जैस नीचे जाता है वैसे ही गुणी लोगों की संख्या कम होती जाती है। कहने का अभिप्राय यह है कि तामस प्रवृत्ति की संख्या वाले लोग अधिक हैं। उनसे कम राजस तथा उनसे भी कम सात्विक होते हैं। धन का मद न आये ऐसे राजस और सात्विक तो देखने को भी नहीं मिलते। जिन लोगों को भगवान ने वाणी या जीभ दी है वह उससे केवल आत्मप्रवंचना या निंदा में नष्ट करते हैं। किसी को नीचा दिखाने में अधिकतर लोगों को मज़ा आता है। किसी की प्रशंसा कर उसे प्रसन्न करने वाले तो विरले ही होते हैं। इस संसार के वीभत्स सत्य को ज्ञानी जानते हैं इसलिये अपने कर्म में कभी अपना मन लिप्त नहीं करते।
      विलासिता और अहंकार में  लिप्त इस सांसरिक समाज  में  यह तो संभव नहीं है कि परिवार या अपने पेट पालने का दायित्व पूरा करने की बज़ाय वन में चले जायें, अलबत्ता अपने ऊपर नियंत्रण कर अपनी आवश्यकतायें सीमित करें और अनावश्यक लोगों से वार्तालाप न करें। उससे भी बड़ी बात यह कि परमार्थ का काम चुपचाप करें, क्योंकि उसका प्रचार करने पर लोग हंसी उड़ा सकते हैं। सन्यास का आशय जीवन का सामान्य व्यवहार त्यागना नहीं बल्कि उसमें मन को  लिप्त न होने देने से हैं। अपनी आवश्यकतायें कम से कम करना भी श्रेयस्कर है ताकि हमें धन की कम से कम आवश्यकता पड़े। जहां तक हो सके अपने को स्वस्थ रखने का प्रयास करें ताकि दूसरे की सहायता की आवश्यकता न करे। इसके लिये योगासन, प्राणायाम तथा ध्यान करना एक अच्छा उपाय है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Saturday, September 6, 2014

शुद्ध भाव होने पर ही सत्संग से लाभ संभव-रहीम दर्शन के आधार पर चिंत्तन(shuddha bhaw hone par he satsang se labh sambhav-a Hindu hindu religion thought based on rahim darshan)



                      हमारे देश में धर्म पर व्याख्यान करना भी एक तरह से पेशा रहा है। यह अलग बात है कि कथित धर्म प्रचारक कभी प्रत्यक्ष रूप से अपने परिश्रम का प्रतिफल शुल्क या मूल्य के रूप में नहीं लेते देखे गये  पर दान दक्षिणा के नाम पर उन्हें इतना मिल जाता है कि वह अपना घर चला ही लेते हैं। अब तो यह देखा जा रहा है कि धार्मिक संगठनों के प्रमुख किसी पूंजीपति  से कम नहीं रह गये।  दवा, कपड़े, खानेपीने का सामान तथा पूजा सामग्री बेचने के अलावा अनेक धार्मिक संगठन तीर्थयात्राओं का भी इंतजाम करने लगे हैं। अनेक धार्मिक प्रमुखों के आश्रम राजमहल की तरह हैं तो उनके शिष्यों के आवास भी होटल से कम नहीं होते।
                      हम जिस धर्म को आचरण में लाने पर प्रमाणिक मानते हैं वही वस्तुओं के विक्रय तथा अनेक सेवाओं के लिये एक विज्ञापन की छाप बन गया है। एक तरह से बाज़ार स्वामियों  का एक बहुत बड़ा भाग धर्म की आड़ लेकर व्यापार कर रहा है। यही कारण है कि ऐसा लगता है जैसे हमारा पूरा देश ही धर्ममय हो रहा है पर इधर यह भी दिखाई देता है कि समाज में  नैतिक आचरण भी निरंतर पतन की तरफ जा रहा है। आर्थिक विकास दृष्टि से हम जहां आगे जा रहा है वहीं मानसिक रूप से हमारा समाज पिछड़ रहा है।

कविवर रहीम कहते हैं कि
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रहिमन जो तुम कहत थे, संगति ही गुन होय।
बीच उखारी रसभरा, रस काहै न होय।।
                   सरल हिन्दी में व्याख्या-यह कहना गलत है कि सत्संग का असर मनुष्य पर सदैव अच्छा होता है।  ईख के खेत में उगन वाला रसभरा पौध कभी रस से नहीं होता है।
                      कहने का अभिप्राय यह है कि हम भौतिक विषयों पर किसी एक सूत्र के आधार पर निर्णय नहीं कर सकते क्योंकि मनुष्य देह जहां प्रत्यक्ष दिखती है वहीं उसमें बैठा मन कभी दिखाई नहीं देता जो कि बंदर की तरह नाचता और नचाता है। मनुष्य मन को धर्म के नाम पर सहजता से भरमाया जा सकता है। वह कब किसी तरह गुलाटी मारेगा इसका कोई तयशुदा सूत्र नहीं है। यही कारण है कि जहां हमारे देश के ऋषि मुनि समाज को हमेशा ही अन्धविश्वास  से दूर रहने की प्रेरणा देते रहे हैं वहीं चालाक लोगों का एक वर्ग कर्मकांडों से समाज को स्वर्ग दिलाने की आड़ में भ्रमित करता रहा है।  आधुनिक समय में पैसे का खेल इस कदर हो गया है कि अनेक प्रकार के आकर्षक धार्मिक स्थान बन गये हैं जो जहां लोग श्रद्धा से कम पर्यटन करने अधिक जाते हैं।  अनेक पर्यटन स्थल तो सर्वशक्तिमान की दरबारों की वजह से ही प्रसिद्ध हैं। वहां भारी भीड़ जुटती है। करोड़ों का चढ़ावा आता है।  आने वाले सभी लोगों को श्रद्धालू और दानी माने तो हमारा पूरा समाज देवत्व का प्रमाण माना जाना चाहिये पर ऐसा है नहीं। देश में व्याप्त भ्रष्टाचारशोषण, महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध, नशेबाजी और सट्टेबाजी को देखें तब लगता है कि यहां असुरों की संख्या भी कम नहीं है।
                      कहने का अभिप्राय यह है कि कथित रूप से धर्म की संगत करने का कोई लाभ तब तक नहीं होता जब तक अपनी नीयत साफ न हो। श्रद्धा के बिना सत्संग में जाने से मन में विचार स्वच्छ नहीं होते और इसके अभाव में मनुष्य का व्यवहार अच्छा नहीं होता।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Saturday, August 30, 2014

प्रभावशाली मनुष्य के दुश्मन भी बहुत होते हैं-कौटिल्य के अर्थशास्त्र के आधार पर चिंत्तन लेख(prabhawshali manushya ke shatru bhi bahut hute hain-A Hindu hindi religion thought based on economics of kautilya)



            जिस व्यक्ति के पास धन, प्रतिष्ठा और बाहुबल की कमी है उसके शत्रु अधिक नहीं होते। सीधी बात कहें तो इस सांसरिक जीवन में आम आदमी की बजाय खास आदमी के लिये खतरे बहुत होते हैं।  इस संसार में तीन प्रकार की प्रवृत्ति के लोग होते हैं-सात्विक, राजसी और तामसी-इनमें सबसे अधिक सक्रियता राजसी प्रकृत्ति के लोगों की होती है।  इसे यूं भी कहा जा सकता है कि जीवन में अपने कार्यक्षेत्र में अधिक से अधिक सक्रियता दिखाकर पैसा, पद और प्रतिष्ठा प्राप्त करना ही राजसी प्रकृत्ति का प्रमाण हो सकता है।  जिन लोगों में लोभ, मद, मोह, क्रोध तथा कामनाओं का भंडार होता है वह निरंतर सक्रिय रहते हैं और इसी कारण उन्हें कड़ी प्रतिद्वंद्वता का सामना भी करना होता है। उनकी सफलताओं के कारण लोग उनसे ईर्ष्या तो करते ही हैं पर अतिसक्रियता के दोष से उनके शत्रु भी बन जाते हैं।  यही कारण है कि संतोष सदा सुखी होता है और लालची सदैव कष्ट उठाता है।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया कि

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न जातु गच्छेद्धिश्वासे सन्धितोऽपि हि बुद्धिमान।
अद्रोहसमयं कृत्यां वृत्रमिन्द्रः पुरात्त्वद्यीत्।।


     हिन्दी में भावार्थ-अगर किसी कारणवश किसी से संधि भी की जाये तो उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए। मैं वैर नहीं करूंगायह कहकर भी इन्द्र ने वृत्रासुर को मार डाला था।

ज्यायांसं सिंहः साहसं यथं मध्नाति दन्तिनः।
तस्मार्तिह इवोदग्रमात्मानं वीक्ष्ण सम्पतेत्।।


     हिन्दी में भावार्थ-शक्तिशाली सेना को साथ लिए शत्रु को युद्ध में मारने पर राजा का प्रभाव बढ़ता है। इसी प्रताप के कारण सभी जगह उसके दूसरे शत्रु भी पैदा होते हैं।

      मनुष्य जीवन अद्भुत है और रहस्यमय भी। मनुष्य को अन्य जीवों से अधिक बुद्धि वरदान में मिली है और वही उसकी सबसे शत्रु और मित्र भी है। जहां पशु पक्षी तथा अन्य जीव मनुष्य के एक बार मित्र हो जाते हैं तो फिर शत्रुता नहीं करते मगर स्वयं मनुष्य ही एक विश्वसनीय जीव नहीं है। वह परिस्थितियों के अनुसार अपनी वफादारी बदलता रहता है। अतः यह कहना कठिन है कि कोई मित्र अपने संकट निवारण या स्वार्थ सिद्धि का अवसर आने पर विश्वासघात नहीं करेगा। ऐसे में किसी शत्रु से संधि हो या मित्र से नियमित व्यवहार की पक्रिया उसमें कभी स्थाई विश्वास की अपेक्षा नहीं करना चाहिए।
इसके अलावा एक बात यह भी ध्यान रखना चाहिए कि दूसरे के प्रति कठोरता या हिंसा का व्यवहार न करें। अनेक बार मनुष्य अपने को प्रभावशाली सिद्ध करने के लिये अपने से हीन प्राणी पर अनाचार करता है या फिर हमला कर उसे मार डालता है। इससे अन्य मनुष्य डर अवश्य जाते हैं पर मन ही प्रभावशाली आदमी के प्रति शत्रुता का भाव भी पाल लेते हैं। समय आने पर प्रभावशाली आदमी जब संकट में फंसता है तो वह उनका मन प्रसन्न हो जाता है। इसलिये जहां तक हो सके क्रूर तथा हिंसक व्यवहार से बचना चाहिए।


संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, August 16, 2014

संत कबीर दर्शन-मनुष्य पैसा कमाते हुए नहीं थकता(sant kabir darshan-manusha paisa kamane mein nahin thakta)



            भौतिकतावाद के सिद्धांत में अध्यात्मिक दर्शन का कोई स्थान नहीं है।  आधुनिक अर्थशास्त्र में तो स्पष्टतः दार्शनिक सिद्धांतों पर चर्चा ही वर्जित है।  हम जब भारतीय अध्यात्मिक या दार्शनिक विचाराधारा पर का विचार करते हैं तो उसमें बिना अध्यात्मिक ज्ञान के आदमी आर्थिक विषय में भी दक्ष नहीं हो सकता।  भले ही कोई आदमी कितना भी पैसा कमा ले पर उसे मानसिक संतोष नहीं हो सकता।  वह सुख सुविधा के ढेर सारे सामान जुटा लेता है वह शांति अनुभव नहीं कर सकता। सुख या दुःख की अनुभव संवेदनाओं से है जो अंदर ही रहती हैं  जब तक अंदर दृढ़ता नहीं होगी बाहर आदमी का व्यवहार आत्मविश्वास से रहित हो जाता है।  पाश्चात्य संस्कृति तथ संस्कारों के प्रभाव में हमारा समाज अध्यात्मिक ज्ञान से दूर हो गया है।  वह उस भौतिकतावाद की तरफ मुड़ गया है हो अंतहीन है।

संत कबीर खाते हैं कि
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कबीरा औंधी खोपड़ी, कबहूं धापै नाहिं|
तीन लोक की सम्पदा, कब आवै घर माहिं||
      हिंदी में भावार्थ-संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य की खोपड़ी उल्टी होती है क्योंकि वह कभी भी धन प्राप्ति से थकता नहीं है। वह अपना पूरा जीवन इस आशा में नष्ट कर देता है कि तीनों लोकों की संपदा उसके घर कब आयेगी।

     इस दुनिया में मनुष्य ही एक ऐसा जीवन जिसके पास बुद्धि में विवेक है इसलिये वह कुछ नया निर्माण कर सकता है। अपनी बुद्धि की वह से ही वह अच्छे और बुरे का निर्णय कर सकता है। सच तो यह कि परमात्मा ने उसे इस संसार पर राज्य करने के लिए ही बुद्धि दी है पर लालच और लोभ के वश में आदमी अपनी बुद्धि गुलाम रख देता है। वह कभी भी धन प्राप्ति के कार्य से थकता नहीं है। अगर हजार रुपये होता है तो दस हजार, दस हजार से लाख और लाख से दस लाख की चाहत करते हुए उसकी लालच का क्रम बढ़ जाता है। कई बार तो ऐसे लोग भी देखने में आ जाते है जिनके पेट में दर्द अपने खाने से नहीं दूसरे को खाते देखने से उठ खड़ा होता है।
            अनेक धनी लोग जिनको चिकित्सकों ने मधुमेह की वजह से खाने पर नियंत्रण रखने को कहा होता है वह गरीबों को खाता देख दुःखी होकर कहते भी हैंदेखो गरीब होकर खा कैसे रहा है। इतना ही नहीं कई जगह ऐसे अमीर हैं पर निर्धन लोगों की झग्गियों को उजाड़ कर वहां अपने महल खड़े करना चाहते हैं। आदमी एक तरह से विकास का गुलाम बन गया है। भक्ति भाव से पर आदमी बस माया के चक्कर लगाता है और वह परे होती चली जाती है। सौ रुपया पाया तो हजार का मोह आया, हजार से दस हजार, दस हजार से लाख और लाख से दस लाख के बढ़ते क्रम में आदमी चलता जाता है और कहता जाता है कि अभी मेरे पास कुछ नहीं है दूसरे के पास अधिक है। मतलब वह माया की सीढियां चढ़ता जाता है और वह दूर होती जाती है। इस तरह आदमी अपना पूरा जीवन नष्ट कर देता है।
            आजकल तो जिसे देखो उस पर विकास का भूत चढ़ा हुआ है। कहते हैं कि इस देश में शिक्षा की कमी है पर जिन्होने शिक्षा प्राप्त की है तो इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि उन्होंने ज्ञान भी प्राप्त कर लिया है। इसलिये शिक्षित आदमी तो और भी माया के चक्कर में पड़ जाता है और उसे तो बस विकास की पड़ी होती है पर उसका स्वरूप उसे भी पता नहीं होता। लोगों ने केवल भौतिक उपलब्धियों को ही सबकुछ मान लिया है और अध्यात्म से दूर हो गये हैं उसी का परिणाम है कि सामाजिक वैमनस्य तथा मानसिक तनाव बढ़ रहा है। अत: जितना हो सके उतना ही अपनी पर नियंत्रण रख्नना चाहिये।
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Sunday, August 10, 2014

चाणक्य नीति-तत्वज्ञानियों का देव सभी जगह व्याप्त(chankya neeti-tatvagyaniyon ka dew sabhe jagah vyapt)



            जकल धर्म के नाम पर समाज में  कथित एकता स्थापित करने के लिये  यह नारा दिया जाता है कि ईश्वर एक है। वैसे तो  चाहे जिस स्वरूप की आराधना करें उसमें एक ही  ईश्वर के प्रति  ही आस्था का भाव स्वीकार किया जाना चाहिये। वैसे भारतीय अध्यात्म दर्शन में भी कुछ इस तरह ही कहा गया है पर अगर हम उसमें वर्णित संदेशों का अध्ययन करें तो पता चलता है कि ईश्वर अनंत है।  उसके स्वरूप, गुण, विचार, तथा क्रियाओं को प्रत्यक्ष देखना लगभग असंभव है।  वह एक भी हो सकता है और अनेक भी।  वह अदृश्य है इसलिये उसके बारे में निश्चित रूप से कहना ठीक नहीं हैं। अन्य धर्मों के विद्वानों की क्या कहें स्वयं भारतीय धर्म के अनेक विद्वान आपस में उलझ जाते हैं।  एक वर्ग कहता है कि ईश्वर एक है और उसकी जिस रूप में आराधना की जाये अच्छा है, दूसरा कहता है कि उसकी लीला अनंत और अपरंपार है जिसे जानने की बजाय उसकी निराकार भक्ति करना ही श्रेष्ठ है।
            इस तरह के विवादों पर कोई निष्कर्ष न निकलता है न आगे संभावना है पर एक बात तय है कि ज्ञानी और साधक इस तरह की बहसों में मौन रहकर अपनी योग्यता का ही प्रमाण देते हैं।  श्रीमद्भागवत गीता में स्पष्ट रूप से भक्ति तथा भक्तों के चार रूप बताये गये हैं-आर्ती, अर्थाथी, जिज्ञासु और ज्ञानी।  इसका सीधा मतलब यही है कि इस संसार में चार प्रकार के भक्त मौजूद रहेंगे और किसी पर कटाक्ष करना या किसी की भक्ति में दोष देखना अज्ञान का ही प्रमाण है।

चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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अग्रिर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि दैवतम्।
प्रतिमा स्पल्पबुछीनां सर्वत्र समदिर्शनाम्।।
            हिन्दी में भावार्थ-द्विजाति के देव अग्नि, मुनियों का देव हृदय तथा अल्पबुद्धिमानों का देव मूर्तियों में निवास करता है पर तत्वज्ञानी समदर्शी होते हैं इसलिये उनका देव हर जगह बसता है।

            भारतीय धार्मिक परंपराओं में भी अनेक प्रकार की उपासना पद्धतियां प्रचलित हैं।  श्रीमद्भागवत गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने हर उपासना पद्धति को मान्यता दी है पर यह भी माना है कि तत्वज्ञानी तो उनका ही स्वरूप है। कहने का अभिप्राय यह है कि जो वास्तव में तत्वज्ञानी है उसके लिये परमात्मा सभी जगह है।  वह किसी विशेष स्थान को सिद्ध मानकर वहां उपस्थिति देने की बाध्यता अनुभव नहीं करता यह अलग बात है कि जिज्ञासावश ज्ञानी ऐसे स्थानों पर जाते हैं। धाार्मिक बहसों में स्वयं को धार्मिक विद्वान साबित करना या जगह जगह ज्ञान बघारकर शिष्य संचय करना ज्ञानियों का स्वाभाविक कर्म कभी नहीं बन पाता।  न ही वह आश्रम बनाकर स्वयं को गुरु पद पर प्रतिष्ठत करते हैं। ज्ञानी तो श्रीमद्भागवत गीता के गुण तथा कर्म विभाग के सिद्धांतों को जानने के बाद सांसरिक विषयों में निर्लिप्त भाव से इस तरह व्यस्त होते हैं जैसे कीचड़ में कमल रहता है।

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Thursday, July 31, 2014

भर्तृहरि नीति शतक-भक्ति के अलावा कल्याण का अन्य मार्ग नहीं(bhakti ke alawa kalyan ka anya marg nahin-bhartrihari neeti shatak)



           क बात तय है कि जिनके पास धन, पद और बाहुबल है उनसे यह विनम्रता की आशा करना व्यर्थ ही है। खासतौर से उन लोगों को जिन्हें बिना परिश्रम के ही इस संसार में भौतिक उपलब्धि प्राप्त हो जाती है।विश्व के सभी देशों में करीब करीब राजतंत्र समाप्त हो चुका है।  कहीं पूर्ण लोकतंत्र है जहां वास्तव में जनता के बीच से प्रतिनिधि चुने जाते हैं तो कहीं तानाशाही है वहां भी लोकतांत्रिक प्रणाली होने का दावा जरूर किया जाता है। जहां लोकतंत्र हैं वहां भी जनप्रतिनिधि कालांतर में राजा की तरह व्यवहार करते हैं तो जहां तानाशाही है वहां भी कथित राजप्रमुख राजा की तरह स्थाई रूप से गद्दी पर विराजमान रहते हैं। आम आदमी की जिंदगी हमेशा ही कठिन होती है पर आजकल के समय में तो लगभग दुरूह हो गयी है। बढ़ती महंगाई, हिंसा, तथा भ्रष्टाचार ने आम आदमी को त्रस्त कर दिया है। ऐसे में हर आम इंसान सोचता है कि वह बड़े आदमी की चमचागिरी कर जीवन में शायद  कोई उपलब्धि प्राप्त कर ले। इस भ्रम में अनेक लोग बड़े लोगों की चाटुकारिता लगते हैं, मगर फायदा उसी को होता है जो दौलतमंदों के तलवे चाटने की हद तक जा सकता है। सच तो यह है कि कोई आदमी कितना भी दौलत, शौहरत या पद की ऊंचाई पर पहुंच जाये पर उसकी मानसिकता छोटी रहती है। ऐसे में उनकी चमचागिरी से सभी को कुछ हासिल नहीं होता इसलिये जहां तक हो सके अपने अंदर आत्मविश्वास लाकर जीवन में संघर्ष करना चाहिए।

भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

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दुरारध्याश्चामी तुरचलचित्ताः क्षितिभुजो वयं
तु स्थूलेच्छाः सुमहति बद्धमनसः।

जरा देहं मृत्युरति दयितं जीवितमिदं
सखे नानयच्छ्रेयो जगति विदुषेऽन्यत्र तपसः।।

      हिंदी में भावार्थ- जिन राजाओं का मन घोड़े की तरह दौड़ता है उनको कोई कब तक प्रसन्न रख सकता है। हमारी अभिलाषायें और आकांक्षायें की तो कोई सीमा ही नहीं है। सभी के मन में बड़ा पद पाने की लालसा है। इधर शरीर बुढ़ापे की तरह बढ़ रहा होता है। मृत्यु पीछे पड़ी हुई है। इन सभी को देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि भक्ति और तप के अलावा को अन्य मार्ग ऐसा नहीं है जो हमारा कल्याण कर सके।

      लोगों के मन में धन पाने की लालसा बहुत होती है और इसलिये वह धनिकों, उच्च पदस्थ एवं बाहुबली लोगों की और ताकते रहते हैं और उनकी चमचागिरी करने के लिये तैयार रहते हैं। उनकी चाटुकारिता में कोई कमी नहीं करते। चाटुकार लोगों  को यह आशा रहती है कि कथित ऊंचा आदमी उन पर रहम कर उनका कल्याण करेगा। यह केवल भ्रम है। जिनके पास वैभव है उनका मन भी हमारी तरह चंचल है और वह अपना काम निकालकर भूल जाते हैं या अगर कुछ देते हैं तो केवल चाटुकारिता  के कारण नहीं बल्कि कोई सेवा करा कर। वह भी जो प्रतिफल देते हैं तो वह भी न के बराबर। इस संसार में बहुत कम ऐसे लोग हैं जो धन, पद और प्रतिष्ठा प्राप्त कर उसके मद में डूबने से बच पाते हैं।  अधिकतर लोग तो अपनी शक्ति के अहंकार में अपने से छोटे आदमी को कीड़े मकौड़े जैसा समझने लगते हैं और उनकी चमचागिरी करने पर भी कोई लाभ नहीं होता।  अगर ऐसे लोगों की निंरतर सेवा की जाये तो भी सामान्य से कम प्रतिफल मिलता है।
      सच तो यह है कि आदमी का जीवन इसी तरह गुलामी करते हुए व्यर्थ चला जाता हैं। जो धनी है वह अहंकार में है और जो गरीब है वह केवल बड़े लोगों की ओर ताकता हुआ जीवन गुंजारता है। जिन लोगों का इस बात का ज्ञान है वह भक्ति और तप के पथ पर चलते हैं क्योंकि वही कल्याण का मार्ग है।इस संसार में प्रसन्नता से जीने का एक ही उपाय है कि अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए ही जीवन भर चलते रहें।  अपने से बड़े आदमी की चाटुकारिता से लाभ की आशा करना अपने लिये निराशा पैदा करना है।
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Friday, March 14, 2014

पतंजलि योग विज्ञान-तनाव मुक्ति ध्यान से ही संभव (patanjali yog vigyan-tanav mukti dhyan se hi sambhav)



            इस संसार में मनुष्य के जीवन में क्लेश और प्रसन्नता दोनों ही प्रकार के संयोग बनते बिगड़ते हैं। यह अलग बात है कि सामान्य मनुष्य सुख का समय आने पर सब कुछ भूल जाता है पर जब दुःख का समय आता है तब वह सहायता के लिये इधर उधर ताकता रहता है। क्लेश के समय वह विचलित होता है पर जिन लोगों को योग तथा ज्ञान का अभ्यास निरंतर हो उन्हे कभी भी इस बात की परवाह नहीं होती कि उसका समय अच्छा चल रहा है या बुरा, बल्कि वह हर हालत में सहज बने रहते हैं।
            हमारे देश में पेशेवर योग शिक्षकों ने प्राणायाम तथा योगासनों का प्रचार खूब किया है जिसके लिये वह प्रशंसा के पात्र भी हैं पर ध्यान के प्रति आज भी लोगों में इतना ज्ञान नहीं है जितनी अपेक्षा की जाती है। जिस तरह योगासन के पश्चात् प्राणायाम आवश्यक है उसी तरह ध्यान भी योगसाधना का एक अभिन्न अंग है। यह ध्यान ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति होती है जो कि मनुष्य के उस मन पर नियंत्रण करने में सहायक होती है जो प्रत्यक्ष उसकी देह का स्वामी होता है।  हमारे दर्शन के अनुसार अध्यात्म या आत्मा मनुष्य की देह का वास्तविक स्वामी होता है और योग विद्या से अपनी इंद्रियों का उससे संयोग कर जीवन को समझा जा सकता है। योगाभ्यास में ध्यान विद्या में पारंगत होने पर ही समाधि के चरम स्तर तक पहुंचा जा सकता है।

पतंजलि योग साहित्य मे कहा गया है कि

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ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः।

            हिन्दी में भावार्थ-सूक्ष्मावस्था को प्राप्त क्लेश चित्त को अपने कारण में विलीन करने के साधन से नष्ट करना चाहिये।

ध्यानहेयास्तदूवृत्तयः।

            हिन्दी में भावार्थ-उन क्लेशों की वृत्तियां ध्यान से नाश करने योग्य हैं।

            जहां आसन और प्राणायाम प्रातः किये जाते हैं वहीं ध्यान कहीं भी  कभी भी लगाया जा सकता है। जहां अवसर मिले वहीं अपनी बाह्य चक्षुओं को विराम देकर अपनी दृष्टि भृकुटि पर केंद्रित करना चाहिये।  प्रारंभ में सांसरिक विषय मस्तिष्क में विचरण करते हैं तब ऐसा लगता है कि हमारा ध्यान नहीं लग रहा है जब इस पर चिंता किये बिना अंतदृष्टि पर नियंत्रण रखने से धीरे धीरे इस बात का अनुभव होता है कि उन विषयों का विष वहां जलकर नष्ट हो रहा है।  जिस तरह हम मिठाई खायें या करेला, हमारे उदर में वह कचड़े के रूप में ही परिवर्तित होता है।  उसी तरह कोई विषय प्रसन्नता तो कोई  क्लेश उत्पन्न करने वाला होता है, पर दोनों से  अंतर्मन में विष ही पैदा होता है। यह विष कोई भौतिक रूप से नहीं होता इसलिये उसे ध्यान  से ही जलाकर नष्ट किया जा सकता है।  हम विचार करें तो ध्यान के दौरान भी मनुष्य दैहिक अंगों की सक्रियता नहीं होती है। ध्यान अभौतिक होने के साथ ही  मानसिक स्थिति है। विषयों के संसर्ग से उत्पन्न विष ध्यान के माध्यम से जब नष्ट हो जाता है उसके बाद मनुष्य को अपनी देह तथा मन के हल्के होने की  सुखद अनुभूति होने लगती है। उसे ऐसा लगने लगता है जैसे कि जमीन पर चलने की बजाय  उड़ रहा है। देह में स्फूर्ति, मन में सहजता और विचारों में नवीनता का यह आनंद केवल ध्यान से ही मिलता है। ध्यान से मस्तिष्क की नसों में एक ऐसे सुख का आभास होता है जिसे शब्दों में बाहर वर्णन करने की बजाय मनुष्य उसे अनुभव करते रहने में ही आनंद अनुभव करता है। इससे होने वाले सुख की ध्यान करने वाला अपने अभ्यास के आधार पर ही अनुभव कर सकता है। जैसे जैसे यह अभ्यास बढ़ता जाता है वैसे वैसे आनंद की अनुभूति भी बढ़ती है।
            ध्यान की क्रिया से निवृत होने पर जब अपने देह की आंतरिक स्थिति पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि देह में एक अजीब प्रकार की सहजता है, उससे पूर्व हम ऐसे खड़े थे जैसे कि मुट्ठियां भींची थीं।  मस्तिष्क में जो स्फूर्ति उत्पन्न होती है उससे यह समझा जा सकता है कि उससे पूर्व हमारे अंदर कितना तनाव था।  आजकल लोग भारी तनाव में जीते हैं।  उनको यह मालुम नहीं है कि सहजता होती क्या है? इतना ही नहीं कुछ लोग बाहर से सहज दिखने का प्रयास करते हैं पर मन में उनके भारी तनाव होता है।  मुख्य बात यह है कि हमारा  मस्तिष्क तनावग्रस्त रहता है इसका आभास तभी हो सकता है जब हम ध्यान की क्रिया में लिप्त होकर देखें।
            कार्यस्थल, यात्रा अथवा किसी समारोह में जाने पर हम वहां के वातावरण से अनेक तनाव उत्पन्न करने वाले तत्वों को अंदर समाविष्ट होने से तभी बचा सकते हैं जब ध्यान का अभ्यास तथा उसके परिणाम का ज्ञान हो। अगर हम कहीं काम करते बीच में थोड़ा ध्यान करें तो उसके बाद फिर काम पर लगें तो ऐसा लगता है कि वह अभी शुरु किया है। उस समय अपने अंगों को शिथिल होते देखें।  किसी कार्य में निरंतर लगे रहने पर थकावट हो जाये तो ध्यान लगायें, थोड़ी देर में ऐसा लगेगा कि हमारी देह में नयी स्फूर्ति का संचार हो रहा है। यात्रा में बैठे बैठे बोर हो रहे हैं तो वहां ध्यान लगायें।  किसी समारोह में जायें तो वहां मच रहा शोरशराबा अच्छा लगता है पर उससे हमारे मस्तिष्क में तनाव आता है। ऐसा लग रहा है हम प्रसन्न हो रहें हैं पर कहीं एकांत में जाकर ध्यान लगायें तो पता चलेगा कि हमारे अंदर कहीं तनाव था।
            सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि ध्यान एक आत्मकेंद्रित मनोरंजन का अभौतिक साधन भी है। सामान्य आदमी शहर के महल में रहता हुए बोर होता है  तो उसे गांव की सादगी आकर्षक लगती है। गांव में प्रकृति के करीब रहने वाले व्यक्ति को शहर आकर्षित करते हैं।  आदमी घर में बोर होता है तो कहीं पर्यटन करने चला जाता है।  यह मानव मन ही है जिसे कभी भजन तो कभी गजल सुनना अच्छा लगता है।  इससे चंचल मन कुछ देर बहलता है पर यह एक विषय से दूसरे विषय की तरफ जाने की वह प्रक्रिया है जिससे अध्यात्मिक  असहजता से मुक्ति पाना संभव नहीं है।  ध्यान की क्रिया करने पर सांसरिक विषयों से कुछ समय निवृत्ति की अनुभूति होती है और चित्त में एक नवीनता आती है। वैसे तो अधिकतर व्यवसायिक योग शिक्षक ध्यान की बात करते हैं पर उनका लक्ष्य योगसन और प्राणायाम की क्रियाओं पर ही रहता है।  इस विषय में भारतीय योग संस्थान के शिविरों में निष्काम भाव शिक्षकों ने हमेशा ही अच्छा काम किया है।  कम से कम इस लेखक ने योग विधा में ध्यान का महत्व भारतीय योग संस्थान के शिविरों में जाकर ही समझा है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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Saturday, March 8, 2014

अध्यात्मिक ज्ञानी का मन उसे भटका नहीं सकता-हिंदू धार्मिक चिंतन9adhyamik chinttan-aadmi ka man use bhatka nahin sakta)



      इस समय सर्दी का मौसम चल रहा है। कहने को बसंत ऋतु आ गयी है पर अचानक बर्फबारी होने से शीतलहर का प्रकोप पहले से अधिक हो गया है। ऐसे में बर्फीले पर्यटन स्थलों पर सैलानियों के उमड़ने की खबर आती है तो हैरानी नहीं होती।  हमारे देश में जिंदगी से उकताये लोगों की कमी नहीं है। जिंदगी से वही लोग उकताते हैं जिनके पास पैसा खूब है पर करने के लिये कुछ नही है। गरीब या मध्यम वर्ग के लोगों की जिंदगी का संघर्ष प्रतिदिन चलता है और देखा जाये तो इसमें उनके लिये मनोरंजन भले ही न हो पर दिमाग को व्यस्त रखता है। इसलिये वह अपने मस्तिष्क में ं इधर उधर भागकर मन बहलाने का विचार तक नहीं ला पाते।  दूसरे वह लोग भी उकताये रहते हैं जो सुबह भ्रमण नहीं करते या फिर अपने शहर को ही समझ पाते।  यह विचार इस लेखक के एक मित्र के पर्यटन से लौटने के बाद इस टिप्पणी के बाद उपजे जिसमें उसने कहा कि ‘‘देाा जाये तो बाहर जाकर घूमने से कोई लाभ नहीं है क्योंकि इतना आनंद तो हम अपने शहर में ही लेते है। बाहर जाकर घूमने का तनाव होने के बाद घर लौटने पर हुई थकान से तो यह सीखा जा सकता है।
      देखा जाये तो ठंड हमेशा ही देह की संवेदनक्रिया पर नकारात्मक प्रभाव डालती है यानि नर्वस सिस्टम पर शीत लहर का बुरा प्रभाव होता है।  जुकाम, खांसी और बुखार की संभावना अधिक रहती है।  सर्दी  में स्वेटर, टोपा और हाथ के दास्ताने पहनकर स्कूटर पर रात को निकलना एक तरह से स्वयं स्वीकारी सजा की तरह लगता है।  हमारा घर मुख्य शहर के  बाहरी इलाके में है जहां गर्मी और सर्दी की हवायें अब शरीर को भारी कष्ट देती हैं। अब यह उम्र का परिणाम है या वातावरण प्रदूषित होने से कि हमारा मौसम से संघर्ष होता ही है।  गर्मी में जब शाम को सात बजे घर लौटते हैं तो गर्म हवायें ऐसी लगती हैं जैसे कि भट्टी के पास से निकल रहे हों। अब तो यह लगने लगा है कि कार लें तभी सामान्य रूप से बाहर निकल पाये। दूसरा उपाय यह है कि स्कूटर की बजाय हम ऑटो या पैदल सफर करें।   कहने का अभिप्राय यह है कि अब या तो अमीरों के लिये या फिर गरीबों के लिये ही मौसम रह गया है।  मध्यम वर्ग के लिये वैसा ही संकट है जैसा कि आजकल भारतीय अर्थव्यवस्था की वजह से उसके घर का है।
      उस दिन हम एक दिन के लिये दिल्ली प्रवास पर थे।  वहां ऐसा नहीं लगा कि जैसे कहीं बाहर घूम रहे हैं।  अनेक बार ऐसा लगा कि अपने शहर में ही घूम रहे। सड़कें, घर और मंदिरों को देखकर कोई नया आकर्षण पैदा नहीं हो रहा था।  घर लौटे तब याद आया कि हम दिल्ली से लौटे हैं। तब संत रविदास का यह संदेश ध्यान आया कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। सुबह योग साधना और उद्यान का भ्रमण करना की दिनचर्या अगर बाधित हो तो हमारा मन खराब हो जाता है। ऐसे में कहीं बाहर जाना पड़े तो हमारे लिये मनोरंजन का धन ऋण पत्रक बराबर ही रहता है।  एक तरह से कहें तो वह ऋणात्मक यानि माइनस हो जाता है। वैसे देखा जाये तो सरस्वती माता की कृपा होने से जो यह लिखने की कला मिली है उसके आगे कोई भी प्राकृतिक उपहार मूल्यवान नहीं लगता।  हमारे लिये लिखना सत्संग की तरह हो गया है। पहले सत्संग में जाकर जो आनंद मिलता था वह लिखने से मिलता है।  हमने एक सत्संगी के मुख से सुना था कि अपनी घोल तो नशा होय। टीवी पर जब कोई मनोरंजक कार्यक्रम देखते हैं तो लगता है कि वक्त खराब करने की बजाय इंटरनेट पर एक कविता ही लिख डालें।
      हालांकि कहते हैं कि कंप्यूटर का नशा भी बुरा है। हालांकि हमें यह पता है पर फिर भी लगता है कि जायें तो कहां जायें? इससे निजात पाकर फुर्सत हो तो हो ध्यान लगाकर इससे प्राप्त विकृतियों का विध्वंस करते हैं। ध्यान लगाने से  कंप्यूटर से हुई थकान तुरंत फुर्र हो जाती है।  यही कारण है कि हमारा चिंत्तन चलता रहता है उसी से इस बात की अनुभूति  हुई कि इंसान के मन के सौदागर बहुत है और वह विभिन्न विषयों का सृजन इस तरह करते हैं कि किसी को इस बात का पता ही नहीं चले कि सत्य से असत्य की तरफ कैसे जा रहा है?
      अनेक मिलने वाले लोग आकर देश के प्रसिद्ध मंदिरों में चलने का प्रस्ताव देते हैं हम हां तो करते हैं पर मन नहीं करता।  जितने भी प्रसिद्ध सर्वशक्तिमान के रूप हैं उनके बड़े मंदिर हमारे शहर में ही हैं। हम अक्सर वहां जाकर ध्यान लगाकर अपने मन की प्रसन्नता पा ही लेते हैं।  हमारे मित्र लोग जो ऐसे मंदिरों पर चलने के लिये प्रेरित करते हैं दरअसल वह कभी इस तरह अपने अवकाश का उपयोग नहीं करते। अवकाश के दिन भी वह सासंरिक विषयों में उसी तरह समय बिताते हैं तब उनको कहां शांति मिलनी है?
      जब इस तरह का चिंतन हमारे मन में चलता है तब संत रविदास की याद आती है जिन्होंने का मन का विज्ञान बताने वाला यह मंत्र दिया था मन चंगा तो कठौती में गंगा।उनकी जयंती हाल ही में मनायी गयी थी। उनकी यह एक पंक्ति ही संसार का सच बयान कर देती है।

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Saturday, March 1, 2014

चाणक्य नीति-वफ़ा और वीरता का गुण श्वान से सीखें (chankya neeti-vfa aur veerta ka gun shwan se seekhen)



      यह विचित्र बात है कि श्वान या कुत्ते को एकदम घटिया पशु कहा जाता है। जब कोई एक व्यक्ति दूसरे  के विरुद्ध क्रुद्ध होकर विषवमन करना हो तो उसे कुत्ता कह कर अपनी भडास निकालता है। इतना ही नहीं अगर किसी व्यक्ति को उत्तेजित करना हो तो उसे भी यही उपाधि दी जाती है।  हालांकि समाज में कुत्ते को पालने वाले हमेशा ही रहे हैं। गांव हो या शहर कुत्ते को लोग पालते हैं। कुत्ते की वफादारी का गुण विश्व विख्यात है पर उसका यह भी गुण है कि थोड़ा मिलने पर भी वह प्रसन्न हो जाता है।  अक्सर कुत्ते सोते मिलते हैं पर जरा आहट होने पर ही वह जाग जाते हैं। इतना ही नहीं जब स्वामी पर संकट हो तो कुत्ता अपनी जान की भी परवाह नहीं करता। 
चाणक्य नीति में कहा गया है कि

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बह्वाशी स्वल्पसन्तुष्टः सुनिद्रो लघुचेतनः।

स्वामिभक्तश्च शुरश्च बडेते श्वानतो गुणाः।।

     हिन्दी में भावार्थ-समय के अनुसार बहुत खाना या कम ही खाने से संतुष्ट हो जाना, अवसर मिले तो खूब सोना पर आहट होते ही जाग जाना तथा वफादारी के साथ ही वीरता का गुण कुत्ते से सीखना चाहिये।
      देखा जाये तो सभी पशु पक्षियों में कोई न कोई गुण होता है पर इंसान उसे अनदेखा कर देता है। इंसानों में सभी बुरे हो नहीं सकते पर यह भी सच है कि स्वाजातीय जीवों के लिये इंसान ही खतरा होता है।  अपराध विशेषज्ञों के अनुसार इंसान के लिये खतरा दूसरे इंसान कम अपने निकटस्थ ज्यादा होते हैं। स्त्रियों के विरुद्ध अपराध उनके करीबी ही ज्यादा करते हैं।  हम जब धोखे की बात करते हैं तो वही देता है जिस पर हम अपना समझकर यकीन करते हैं।  गद्दारी का शिकार आदमी तभी होता है जब वह किसी को मित्र मानकर उसे अपनी गुप्त बातें बताता है।
      अधिकतर लोग अपनी मतलब की वजह से कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। उन्हें मित्र या रिश्ते का ख्याल नहीं आता।  हम स्वयं ऐसा न करें यह अच्छी बात है पर दूसरे पर यकीन करते हुए उसकी पिछली पृष्ठभूमि देखना चाहिये।  हमें अपने जीवन के प्रति सतर्कता बरतना चाहिये और किसी पर दूसरे पर विश्वास करते तो दिखें पर करें नहीं। दूसरी बात यह कि हमें कभी स्वयं किसी से गद्दारी नहीं करना चाहिये। अगर किसी का काम न करना हो तो उससे वादा कभी नहीं करें। जीवन का सिद्धांत यही है कि जैसा व्यवहार आप दूसरे से चाहते हैं वैसा स्वयं ही करें।

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Sunday, February 9, 2014

शाही ताश में हुक्म का इक्के-हिन्दी व्यंग्य कविता(shahi tasha mein hukam ka ikke-hindi vyangya kavita)



साधु कभी राजा नहीं बनता, राजा कभी साधु न बने,
पद  का मद ही गहना है साधुता में चबाने होते लोहे के चने।
कहें दीपक बापू कहीं तख्त बदले कहीे ताज पहनने वाले सिर,
हुकुमतों के लिये  कत्लेआम हुए कोई चढा़ तख्त कोई गया गिर,
गरीबों ने हमेशा ढूंढा आसरा मिला कभी न कोई सरताज,
बने कहार बहुत बादशाहों के जो फिर झपटे उन पर बनकर बाज,
ढोये मेहनतकशों ने  सड़क से तख्त तक बोझ मानकर जिनको सिद्ध,
शाही ताश में हुक्म के इक्के की तरह रहे साथ लाये मांसखोर गिद्ध।
बेबस के आसरे की उम्मीद हमेशा कफन में लिपटती रही
दौलतमंद और ताकतवर लोगों की रही बात आगे जो उन्होंने कहीं।
मजबूरों के लिये नारे लगाती भीड़ नीचे ऊपर बेईमानों के शमियाने तने,
  राजप्रसाद से भाग चाहें वह लोग बेईमानी से जिनके हाथ कुछ कम सने।

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Saturday, February 1, 2014

आम इंसान का इन्द्रियों पर नियंत्रण सहजता से नहीं होता-हिंदू आध्यात्मिक चिंत्तन लेख(aam insan ka indriyon par niyantran sahajta se nahin hota-hindu adhyatmik chinttan lekh)



      आजकल हमारे देश में अनेक कथित बाबाओं के यौन अपराधों पर प्रचार माध्यम सनसनी खबरें पर प्रस्तुत कर अपना जनहित धर्म निभाते हुए फूले नहीं समाते। जब यह खबरें प्रसारित होती हैं तो संवाददाता और उद्घोषक बाबाओं के बारे में यह कहते हुए नहीं थकते थे कि समाज में अनेक पाखंडी धर्म के ठेकेदार हैं। यह नहीं  जानते हैं कि धर्म एक अलग विषय है और उसके नाम पर प्रचार का व्यवसाय करना कभी किसी के धार्मिक होने का प्रमाण पत्र नहीं हो जाता।  दूसरी बात यह है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के रूप में चार अलग अलग प्रकियायें हैं जिनका आपस में प्रत्यक्ष कोई संबंध नहीं होता।  हां, इतना अवश्य है कि प्रातः धर्म निर्वाह के बाद अन्य प्रक्रियाओं में सात्विकता का भाव स्वतः आ जाता है। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान न होने के कारण पश्चिमी शिक्षा से ओतप्रोत इन प्रचार माध्यमों में कार्यरत बुद्धिमान लोगों से तो यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह धर्म को काम से न जोड़ें बल्कि उनके दर्शकों में बहुत कम लोग इस बात को समझ पाते हैं कि काम की अग्नि धर्म के कच्चे खिलाड़ी को ही नहीं वरन् परिपक्व मनुष्य को भी पथ से भ्रष्ट कर देती है।

महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि

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विश्वामित्रपराशरप्रभृत्यो वाताम्बुपर्णाशनास्तेऽपि स्त्रीमुखपङ्कजं सुललित। दृष्ट्वैव मोहं गताः।।

शाल्पन्नं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवा।स्तेपामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेत् विन्ध्यस्तरेत् सागरे।।

      हिन्दी में भावार्थ-विश्वमित्र और पाराशर ऋषि पत्ते और जल का सेवन कर तप करते थे वह भी काम की अग्नि का वेग सहन नहीं कर सके तो फिर अन्न, घी, दूध तथा दही का सेवन करने वाले मनुष्य काम पर नियंत्रण कर लें तो समझ लो समुद्र में विंध्याचल तैर रहा है।

      जब सतयुग में कुछ ऋषि अपनी तपस्या में कामदेव को विध्न डालने से नहीं रोक सके तो आज के व्यवसायिक धर्मगुरुओं से यह आशा करना कि वह कामाग्नि से बच पायेंगे मूर्खता है।  हमारे देश में अनेक गुरु हैं जो अपने आसपास शिष्याओं का जमावड़ा इसलिये दिखाते हैं ताकि भक्त अधिक से अधिक उनके पास आयें।  अगर हम भारतीय अध्यात्मिक पात्रो का अध्ययन करें तो कहीं भी किसी नारी का गुरु पुरुष नहीं होता।  जब भगवान श्रीराम वनवास को गये थे तब श्रीसीता के साथ अनेक ऋषियों के आश्रम में गये। वहां भगवान श्रीराम उन ऋषियों से चर्चा करते थे गुंरु पत्नियां ही श्रीसीता को ज्ञान देती थीं।  आजकल जब नारी और पुरुष समान का नारा लगा है तब धर्मगुरुओं ने उसका लाभ जमकर उठाया है।  अनेक धर्मगुरु तो प्रवचन के समय अपनी निकटस्थ शिष्याओं को मंच पर ही बिठा देते हैं ताकि आकर्षण बना रहे।
      इधर जब से यौन अपराधों पर नया कानून आया है तब अनेक गुरुओं पर मामले दर्ज हो चुके हैं।  कभी कभी तो कुछ लोगों को  यह लगता है कि अपने भारतीय धर्म की बदनामी प्रायोजित ढंग से की जा रही है। इस तरह का संदेह करने वाले लोग कहते हैं कि दूसरे धर्म की कोई चर्चा नहीं करता।  हमारा मानना है कि हमारे देश में भारतीय धर्मावलंबियों को बहुमत है इसलिये उनकी घटनायें अधिक सामने आती हैं।  दूसरी बात यह कि अन्य धर्मों में कहीं पैसे तो पहलवानी के दम पर ऐसी घटनाओं को आने से रोका जाता है जबकि भारतीय धर्म में ऐसा नहीं हो पाता। जहां तक विश्व के सभी धर्मों के ठेकेदारों का सवाल है वह चाहे लाख पाखंड करें पर जिनके पास महिला शिष्यों का अधिक जमावड़ा है वहां पूरी तरह से मर्यादित व्यवहार की आशा कम ही हो जाती है। यह अलग बात है कि कुछ स्वयं नियंत्रित कर लेते हैं पर कुछ कामाग्नि में जल ही जाते हैं। कुछ का अपराध सामने आ जाता है जिनका दुष्कर्म अप्रकट है वह साधु ही बने रहते हैं।

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Saturday, January 25, 2014

मनुस्मृति के आधार पर चिंत्तन लेख-पश्चाताप से पाप नष्ट होता है(pashchatap se paap nashta hota hai-hindu thought based on manu smriti)



            जिनकी प्रवृत्ति अपराधिक है उनसे तो यह भी अपेक्षा की ही नहीं जा सकती कि पर कभी कभी सामान्य मनुष्य भी अपराध कर बैठत है और फिर परेशान होता है। इससे बचने का एक ही उपाय है अपने अपराध की सार्वजनिक रूप से हृदय से स्वीकृत्ति की जाये। यह बात सामान्य मनुष्य के लिये कही जा रही है जो जघन्य अपराध नहीं करते वरन् ऐसे कर्म कर बैठते हैं जो नैतिक रूप से अनुचित होते हैं। झूठ बोलना, परनिंदा तथा धोखा देने जैसे पाप शायद ही कोई ऐसा सामान्य मनुष्य हो जो कभी नहीं करता है। फिर उसे पीड़ा भी बहुत होती है। अनेक लोग तो ऐसे है जिन्हें कर्म करते समय उसके पापपूर्ण होने का अहसास नहीं होता पर बाद में वह पछताते हैं पर वह उसके प्रायश्चित का उपाय नहीं करते। 
मनुस्मृति में कहा गया है कि

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ख्यायनेनानुतायेन तपसाऽध्ययनेन च।

पापकृन्मुच्यते पापतथा दानेन चापदि।।

            हिन्दी में भावार्थ-पापी व्यक्ति अपने दुष्कर्म का सत्य लोगों को बताकर, पश्चाताप कर, तप तथा स्वाध्याय कर मुक्ति पा सकता है। संकट की घड़ी में तप तथा स्वध्याय न करे तो दान करने से भी वह शुद्ध हो जाता है।

यथा यथा नरोऽधर्म स्वयं कृत्याऽनुभाषते।

तथा तथा त्वचेवाहिस्तेनाधर्मेण मुच्यते।।

            हिन्दी में भावार्थ-अपने अपराध की स्वीकृति दूसरों के सामने करने पर आदमी पाप से मुक्त हो जाता है।
            अनेक भावुक लोग तो छोटी गलती कर ही मन ही मन पछताते हैं। इतना कि अपना पूरा जीवन ही तनावपूर्ण बना डालते हैं। इससे बचने का एक उपाय है तो यह है कि किसी दूसरे के सामने अतिशीघ्र अपनी गलती का बखान कर मन हलका करें अथवा हृदय में पछतावा करने के साथ ही यह बात भी तय करना चाहिये कि ऐसी गलती दोबारा नहीं करनी है।  दूसरा यह कि कहीं ध्यान लगाकर परमात्मा का स्मरण कर उसे अपनी गलती समर्पित करें अथवा धार्मिक ग्रंथ का अध्ययन कर अपना मन मजबूत करें। इसका अवसर न मिले तो फिर किसी सुपात्र को कोई वस्तु या धन देकर मन की शुद्धि करें।


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