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Saturday, September 6, 2014

शुद्ध भाव होने पर ही सत्संग से लाभ संभव-रहीम दर्शन के आधार पर चिंत्तन(shuddha bhaw hone par he satsang se labh sambhav-a Hindu hindu religion thought based on rahim darshan)



                      हमारे देश में धर्म पर व्याख्यान करना भी एक तरह से पेशा रहा है। यह अलग बात है कि कथित धर्म प्रचारक कभी प्रत्यक्ष रूप से अपने परिश्रम का प्रतिफल शुल्क या मूल्य के रूप में नहीं लेते देखे गये  पर दान दक्षिणा के नाम पर उन्हें इतना मिल जाता है कि वह अपना घर चला ही लेते हैं। अब तो यह देखा जा रहा है कि धार्मिक संगठनों के प्रमुख किसी पूंजीपति  से कम नहीं रह गये।  दवा, कपड़े, खानेपीने का सामान तथा पूजा सामग्री बेचने के अलावा अनेक धार्मिक संगठन तीर्थयात्राओं का भी इंतजाम करने लगे हैं। अनेक धार्मिक प्रमुखों के आश्रम राजमहल की तरह हैं तो उनके शिष्यों के आवास भी होटल से कम नहीं होते।
                      हम जिस धर्म को आचरण में लाने पर प्रमाणिक मानते हैं वही वस्तुओं के विक्रय तथा अनेक सेवाओं के लिये एक विज्ञापन की छाप बन गया है। एक तरह से बाज़ार स्वामियों  का एक बहुत बड़ा भाग धर्म की आड़ लेकर व्यापार कर रहा है। यही कारण है कि ऐसा लगता है जैसे हमारा पूरा देश ही धर्ममय हो रहा है पर इधर यह भी दिखाई देता है कि समाज में  नैतिक आचरण भी निरंतर पतन की तरफ जा रहा है। आर्थिक विकास दृष्टि से हम जहां आगे जा रहा है वहीं मानसिक रूप से हमारा समाज पिछड़ रहा है।

कविवर रहीम कहते हैं कि
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रहिमन जो तुम कहत थे, संगति ही गुन होय।
बीच उखारी रसभरा, रस काहै न होय।।
                   सरल हिन्दी में व्याख्या-यह कहना गलत है कि सत्संग का असर मनुष्य पर सदैव अच्छा होता है।  ईख के खेत में उगन वाला रसभरा पौध कभी रस से नहीं होता है।
                      कहने का अभिप्राय यह है कि हम भौतिक विषयों पर किसी एक सूत्र के आधार पर निर्णय नहीं कर सकते क्योंकि मनुष्य देह जहां प्रत्यक्ष दिखती है वहीं उसमें बैठा मन कभी दिखाई नहीं देता जो कि बंदर की तरह नाचता और नचाता है। मनुष्य मन को धर्म के नाम पर सहजता से भरमाया जा सकता है। वह कब किसी तरह गुलाटी मारेगा इसका कोई तयशुदा सूत्र नहीं है। यही कारण है कि जहां हमारे देश के ऋषि मुनि समाज को हमेशा ही अन्धविश्वास  से दूर रहने की प्रेरणा देते रहे हैं वहीं चालाक लोगों का एक वर्ग कर्मकांडों से समाज को स्वर्ग दिलाने की आड़ में भ्रमित करता रहा है।  आधुनिक समय में पैसे का खेल इस कदर हो गया है कि अनेक प्रकार के आकर्षक धार्मिक स्थान बन गये हैं जो जहां लोग श्रद्धा से कम पर्यटन करने अधिक जाते हैं।  अनेक पर्यटन स्थल तो सर्वशक्तिमान की दरबारों की वजह से ही प्रसिद्ध हैं। वहां भारी भीड़ जुटती है। करोड़ों का चढ़ावा आता है।  आने वाले सभी लोगों को श्रद्धालू और दानी माने तो हमारा पूरा समाज देवत्व का प्रमाण माना जाना चाहिये पर ऐसा है नहीं। देश में व्याप्त भ्रष्टाचारशोषण, महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध, नशेबाजी और सट्टेबाजी को देखें तब लगता है कि यहां असुरों की संख्या भी कम नहीं है।
                      कहने का अभिप्राय यह है कि कथित रूप से धर्म की संगत करने का कोई लाभ तब तक नहीं होता जब तक अपनी नीयत साफ न हो। श्रद्धा के बिना सत्संग में जाने से मन में विचार स्वच्छ नहीं होते और इसके अभाव में मनुष्य का व्यवहार अच्छा नहीं होता।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Saturday, August 30, 2014

प्रभावशाली मनुष्य के दुश्मन भी बहुत होते हैं-कौटिल्य के अर्थशास्त्र के आधार पर चिंत्तन लेख(prabhawshali manushya ke shatru bhi bahut hute hain-A Hindu hindi religion thought based on economics of kautilya)



            जिस व्यक्ति के पास धन, प्रतिष्ठा और बाहुबल की कमी है उसके शत्रु अधिक नहीं होते। सीधी बात कहें तो इस सांसरिक जीवन में आम आदमी की बजाय खास आदमी के लिये खतरे बहुत होते हैं।  इस संसार में तीन प्रकार की प्रवृत्ति के लोग होते हैं-सात्विक, राजसी और तामसी-इनमें सबसे अधिक सक्रियता राजसी प्रकृत्ति के लोगों की होती है।  इसे यूं भी कहा जा सकता है कि जीवन में अपने कार्यक्षेत्र में अधिक से अधिक सक्रियता दिखाकर पैसा, पद और प्रतिष्ठा प्राप्त करना ही राजसी प्रकृत्ति का प्रमाण हो सकता है।  जिन लोगों में लोभ, मद, मोह, क्रोध तथा कामनाओं का भंडार होता है वह निरंतर सक्रिय रहते हैं और इसी कारण उन्हें कड़ी प्रतिद्वंद्वता का सामना भी करना होता है। उनकी सफलताओं के कारण लोग उनसे ईर्ष्या तो करते ही हैं पर अतिसक्रियता के दोष से उनके शत्रु भी बन जाते हैं।  यही कारण है कि संतोष सदा सुखी होता है और लालची सदैव कष्ट उठाता है।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया कि

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न जातु गच्छेद्धिश्वासे सन्धितोऽपि हि बुद्धिमान।
अद्रोहसमयं कृत्यां वृत्रमिन्द्रः पुरात्त्वद्यीत्।।


     हिन्दी में भावार्थ-अगर किसी कारणवश किसी से संधि भी की जाये तो उस पर विश्वास नहीं करना चाहिए। मैं वैर नहीं करूंगायह कहकर भी इन्द्र ने वृत्रासुर को मार डाला था।

ज्यायांसं सिंहः साहसं यथं मध्नाति दन्तिनः।
तस्मार्तिह इवोदग्रमात्मानं वीक्ष्ण सम्पतेत्।।


     हिन्दी में भावार्थ-शक्तिशाली सेना को साथ लिए शत्रु को युद्ध में मारने पर राजा का प्रभाव बढ़ता है। इसी प्रताप के कारण सभी जगह उसके दूसरे शत्रु भी पैदा होते हैं।

      मनुष्य जीवन अद्भुत है और रहस्यमय भी। मनुष्य को अन्य जीवों से अधिक बुद्धि वरदान में मिली है और वही उसकी सबसे शत्रु और मित्र भी है। जहां पशु पक्षी तथा अन्य जीव मनुष्य के एक बार मित्र हो जाते हैं तो फिर शत्रुता नहीं करते मगर स्वयं मनुष्य ही एक विश्वसनीय जीव नहीं है। वह परिस्थितियों के अनुसार अपनी वफादारी बदलता रहता है। अतः यह कहना कठिन है कि कोई मित्र अपने संकट निवारण या स्वार्थ सिद्धि का अवसर आने पर विश्वासघात नहीं करेगा। ऐसे में किसी शत्रु से संधि हो या मित्र से नियमित व्यवहार की पक्रिया उसमें कभी स्थाई विश्वास की अपेक्षा नहीं करना चाहिए।
इसके अलावा एक बात यह भी ध्यान रखना चाहिए कि दूसरे के प्रति कठोरता या हिंसा का व्यवहार न करें। अनेक बार मनुष्य अपने को प्रभावशाली सिद्ध करने के लिये अपने से हीन प्राणी पर अनाचार करता है या फिर हमला कर उसे मार डालता है। इससे अन्य मनुष्य डर अवश्य जाते हैं पर मन ही प्रभावशाली आदमी के प्रति शत्रुता का भाव भी पाल लेते हैं। समय आने पर प्रभावशाली आदमी जब संकट में फंसता है तो वह उनका मन प्रसन्न हो जाता है। इसलिये जहां तक हो सके क्रूर तथा हिंसक व्यवहार से बचना चाहिए।


संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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