विश्व में जैसे जैसे भौतिक विकास हुआ है वैसे वैसे
समाज में नैतिकता का पतन भी सामने आता गया है। संचार, परिवहन, मनोरंजन और आम रहन सहन में उपभोग के जैसे जैसे
नये साधन बनते गये वैसे ही उनके दुरुपयोग की प्रवृत्ति भी लोगों में आती गयी। आज
मोबाइल और कंप्यूटर का प्रचलन बढ़ा है तो हम यह भी देख रहे हैं कि अपराधी उनका
उपयोग कर अधिक बुरे ढंग से कर समाज को प्रताड़ित कर रहे हैं। यही स्थिति इंटरनेट पर भी बन गयी है। अनेक बड़े
अपराधी अब वहां भी सक्रिय हो गये हैं।
कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य समाज में दैवीय और
आसुरी दो तरह की प्रकृत्ति के लोग होते हैं।
इसके अलावा सात्विक, राजसी और तामसी तीन प्रकार के कर्मों में
लिप्त लोग अपने अपने स्वभाव के अनुसार व्यवहार करते हैं। श्रीमद्भागवत गीता के इस
ज्ञान और विज्ञान के इस संयुक्त सूत्र को समझने वाले कभी भी किसी में दोष देखने की
बजाय अपने अनुसार अपने संपर्क बनाते हैं।
वह ऐसे लोगों से बचते हैं जो उनको राजसी और तामसी कर्मों में लगने के लिये
बाध्य कर सकते हैं।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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पुण्यैर्मूलफलैस्तथा प्रणयिनीं वृत्तिं कुरुष्वाधुना
भूश्ययां नवपल्लवैरकृपणैरुत्तिष्ठ यावो वनम्।
क्षधद्राणामविवेकमूढ़मनसां यन्नश्वाराणां सदा
वित्तव्याधिविकार विह्व्लगिरां नामापि न श्रूयते।।
हिन्दी में भावार्थ-भर्तृहरि महाराज अपने प्रजाजनों से कहते हैं कि अब तुम लोग पवित्र फल फूलों खाकर जीवन यापन करो। सजे हुए बिस्तर छोड़कर प्रकृति की बनाई शय्या यानि धरती पर ही शयन करो। वृक्ष की छाल को ही वस्त्र बना लो। अब यहां से चले चलो क्योंकि वहां उन मूर्ख और संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों का नाम भी सुनाई नहीं देगा जो अपनी वाणी और संपत्ति से रोगी होने के कारण अपने वश में नहीं है।
इस संसार
में तीन प्रकार के लोग पाये जाते हैं-सात्विक, राजस और तामस! श्रेष्ठता का क्रम जैसे जैस नीचे जाता है वैसे
ही गुणी लोगों की संख्या कम होती जाती है। कहने का अभिप्राय यह है कि तामस प्रवृत्ति की
संख्या वाले लोग
अधिक हैं। उनसे कम राजस तथा उनसे भी कम सात्विक होते हैं। धन का मद न आये ऐसे राजस और सात्विक तो देखने को भी नहीं
मिलते। जिन
लोगों को भगवान ने वाणी या जीभ दी है वह उससे केवल आत्मप्रवंचना या निंदा में नष्ट करते हैं। किसी को नीचा
दिखाने में अधिकतर लोगों को मज़ा आता है। किसी की प्रशंसा कर उसे प्रसन्न करने वाले तो विरले ही
होते हैं। इस
संसार के वीभत्स
सत्य को ज्ञानी जानते हैं इसलिये अपने कर्म में कभी अपना मन लिप्त नहीं करते।
विलासिता और अहंकार में लिप्त इस सांसरिक समाज में यह तो संभव
नहीं है कि परिवार या अपने पेट पालने का दायित्व पूरा करने की बज़ाय वन में चले जायें,
अलबत्ता अपने ऊपर नियंत्रण कर अपनी आवश्यकतायें सीमित करें और
अनावश्यक लोगों से वार्तालाप न करें। उससे भी बड़ी बात यह कि परमार्थ का काम चुपचाप करें,
क्योंकि उसका प्रचार करने पर लोग हंसी उड़ा सकते हैं। सन्यास का आशय जीवन का
सामान्य व्यवहार
त्यागना नहीं बल्कि उसमें मन को लिप्त न
होने देने से हैं। अपनी आवश्यकतायें
कम से कम करना भी श्रेयस्कर है ताकि हमें धन की कम से कम आवश्यकता पड़े। जहां तक हो सके अपने को स्वस्थ रखने का प्रयास
करें ताकि दूसरे
की सहायता की आवश्यकता न करे। इसके लिये योगासन, प्राणायाम तथा ध्यान करना एक अच्छा उपाय है।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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