भौतिकतावाद के सिद्धांत में
अध्यात्मिक दर्शन का कोई स्थान नहीं है।
आधुनिक अर्थशास्त्र में तो स्पष्टतः दार्शनिक सिद्धांतों पर चर्चा ही
वर्जित है। हम जब भारतीय अध्यात्मिक या
दार्शनिक विचाराधारा पर का विचार करते हैं तो उसमें बिना अध्यात्मिक ज्ञान के आदमी
आर्थिक विषय में भी दक्ष नहीं हो सकता।
भले ही कोई आदमी कितना भी पैसा कमा ले पर उसे मानसिक संतोष नहीं हो
सकता। वह सुख सुविधा के ढेर सारे सामान
जुटा लेता है वह शांति अनुभव नहीं कर सकता। सुख या दुःख की अनुभव संवेदनाओं से है
जो अंदर ही रहती हैं जब तक अंदर दृढ़ता
नहीं होगी बाहर आदमी का व्यवहार आत्मविश्वास से रहित हो जाता है। पाश्चात्य संस्कृति तथ संस्कारों के प्रभाव में
हमारा समाज अध्यात्मिक ज्ञान से दूर हो गया है।
वह उस भौतिकतावाद की तरफ मुड़ गया है हो अंतहीन है।
संत कबीर खाते हैं कि--------------------------कबीरा औंधी खोपड़ी, कबहूं धापै नाहिं|
तीन लोक की सम्पदा, कब आवै घर माहिं||हिंदी में भावार्थ-संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य की खोपड़ी उल्टी होती है क्योंकि वह कभी भी धन प्राप्ति से थकता नहीं है। वह अपना पूरा जीवन इस आशा में नष्ट कर देता है कि तीनों लोकों की संपदा उसके घर कब आयेगी।
इस दुनिया
में मनुष्य ही एक ऐसा जीवन जिसके पास बुद्धि में विवेक है इसलिये वह कुछ नया निर्माण कर
सकता है। अपनी बुद्धि की वह से ही वह अच्छे और बुरे का निर्णय कर सकता है। सच तो यह कि परमात्मा
ने उसे इस संसार पर राज्य करने के लिए ही बुद्धि दी है पर लालच और लोभ के वश में आदमी
अपनी बुद्धि गुलाम रख देता है। वह कभी भी धन प्राप्ति के कार्य से थकता नहीं है। अगर हजार रुपये होता है तो दस
हजार, दस हजार से लाख और लाख से
दस लाख की चाहत करते हुए उसकी लालच का क्रम बढ़ जाता है। कई बार तो ऐसे लोग भी देखने में आ
जाते है
जिनके पेट में दर्द अपने खाने से नहीं दूसरे को खाते देखने से उठ खड़ा होता है।
अनेक धनी लोग जिनको चिकित्सकों ने मधुमेह की वजह से खाने पर
नियंत्रण रखने को कहा होता है वह गरीबों को खाता देख दुःखी होकर कहते भी हैं‘देखो गरीब होकर खा कैसे रहा है’। इतना ही नहीं कई जगह ऐसे अमीर हैं पर निर्धन लोगों
की झग्गियों को उजाड़ कर वहां अपने महल खड़े करना चाहते हैं। आदमी एक तरह से विकास का गुलाम बन गया है। भक्ति
भाव से पर आदमी बस माया के चक्कर लगाता है और वह परे होती चली जाती है। सौ रुपया पाया तो हजार
का मोह आया, हजार से दस हजार,
दस हजार से लाख और लाख से दस लाख के
बढ़ते क्रम में आदमी चलता जाता है और कहता जाता है कि अभी मेरे पास कुछ नहीं है दूसरे के
पास अधिक है। मतलब वह माया की सीढियां चढ़ता जाता है और वह दूर होती जाती
है। इस तरह आदमी अपना पूरा जीवन नष्ट कर देता है।
आजकल तो जिसे देखो उस पर विकास का भूत चढ़ा हुआ है। कहते हैं कि इस देश में शिक्षा की कमी है पर
जिन्होने शिक्षा प्राप्त की है तो इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि उन्होंने ज्ञान भी प्राप्त कर लिया है।
इसलिये शिक्षित आदमी तो और भी माया के चक्कर में पड़ जाता है और उसे तो बस
विकास की पड़ी होती है पर उसका स्वरूप उसे भी पता नहीं होता। लोगों ने केवल
भौतिक उपलब्धियों को ही सबकुछ मान लिया है और अध्यात्म से दूर हो गये हैं उसी का परिणाम है कि सामाजिक वैमनस्य तथा
मानसिक तनाव बढ़ रहा है। अत: जितना हो सके उतना ही अपनी पर नियंत्रण रख्नना चाहिये।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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