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Sunday, August 10, 2014

चाणक्य नीति-तत्वज्ञानियों का देव सभी जगह व्याप्त(chankya neeti-tatvagyaniyon ka dew sabhe jagah vyapt)



            जकल धर्म के नाम पर समाज में  कथित एकता स्थापित करने के लिये  यह नारा दिया जाता है कि ईश्वर एक है। वैसे तो  चाहे जिस स्वरूप की आराधना करें उसमें एक ही  ईश्वर के प्रति  ही आस्था का भाव स्वीकार किया जाना चाहिये। वैसे भारतीय अध्यात्म दर्शन में भी कुछ इस तरह ही कहा गया है पर अगर हम उसमें वर्णित संदेशों का अध्ययन करें तो पता चलता है कि ईश्वर अनंत है।  उसके स्वरूप, गुण, विचार, तथा क्रियाओं को प्रत्यक्ष देखना लगभग असंभव है।  वह एक भी हो सकता है और अनेक भी।  वह अदृश्य है इसलिये उसके बारे में निश्चित रूप से कहना ठीक नहीं हैं। अन्य धर्मों के विद्वानों की क्या कहें स्वयं भारतीय धर्म के अनेक विद्वान आपस में उलझ जाते हैं।  एक वर्ग कहता है कि ईश्वर एक है और उसकी जिस रूप में आराधना की जाये अच्छा है, दूसरा कहता है कि उसकी लीला अनंत और अपरंपार है जिसे जानने की बजाय उसकी निराकार भक्ति करना ही श्रेष्ठ है।
            इस तरह के विवादों पर कोई निष्कर्ष न निकलता है न आगे संभावना है पर एक बात तय है कि ज्ञानी और साधक इस तरह की बहसों में मौन रहकर अपनी योग्यता का ही प्रमाण देते हैं।  श्रीमद्भागवत गीता में स्पष्ट रूप से भक्ति तथा भक्तों के चार रूप बताये गये हैं-आर्ती, अर्थाथी, जिज्ञासु और ज्ञानी।  इसका सीधा मतलब यही है कि इस संसार में चार प्रकार के भक्त मौजूद रहेंगे और किसी पर कटाक्ष करना या किसी की भक्ति में दोष देखना अज्ञान का ही प्रमाण है।

चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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अग्रिर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि दैवतम्।
प्रतिमा स्पल्पबुछीनां सर्वत्र समदिर्शनाम्।।
            हिन्दी में भावार्थ-द्विजाति के देव अग्नि, मुनियों का देव हृदय तथा अल्पबुद्धिमानों का देव मूर्तियों में निवास करता है पर तत्वज्ञानी समदर्शी होते हैं इसलिये उनका देव हर जगह बसता है।

            भारतीय धार्मिक परंपराओं में भी अनेक प्रकार की उपासना पद्धतियां प्रचलित हैं।  श्रीमद्भागवत गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने हर उपासना पद्धति को मान्यता दी है पर यह भी माना है कि तत्वज्ञानी तो उनका ही स्वरूप है। कहने का अभिप्राय यह है कि जो वास्तव में तत्वज्ञानी है उसके लिये परमात्मा सभी जगह है।  वह किसी विशेष स्थान को सिद्ध मानकर वहां उपस्थिति देने की बाध्यता अनुभव नहीं करता यह अलग बात है कि जिज्ञासावश ज्ञानी ऐसे स्थानों पर जाते हैं। धाार्मिक बहसों में स्वयं को धार्मिक विद्वान साबित करना या जगह जगह ज्ञान बघारकर शिष्य संचय करना ज्ञानियों का स्वाभाविक कर्म कभी नहीं बन पाता।  न ही वह आश्रम बनाकर स्वयं को गुरु पद पर प्रतिष्ठत करते हैं। ज्ञानी तो श्रीमद्भागवत गीता के गुण तथा कर्म विभाग के सिद्धांतों को जानने के बाद सांसरिक विषयों में निर्लिप्त भाव से इस तरह व्यस्त होते हैं जैसे कीचड़ में कमल रहता है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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