समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढ़ें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका


हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर
Showing posts with label घरऔरपरिवार. Show all posts
Showing posts with label घरऔरपरिवार. Show all posts

Sunday, July 13, 2014

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-योग्य मंत्रियों से ही राष्ट्र की रक्षा संभव(kautilya ka arthshastra-yogya matriyon se hi rashtra ki raksha sambhav)



      हम जब किसी राष्ट्र की स्थिरता की बात करते हैं तो यह भूल जाते हैं कि उसमें सक्रिय सामाजिक समूहों में भी स्थिरता होना चाहिये।  समाज की  परिवारों  और परिवारों  की स्थिरता व्यक्ति में अंतर्निहित होती है।  हम आज जब देश की स्थिति को देखते हैं तो राष्ट्र की स्थिरता को लेकर भारी चिंत्तायें व्याप्त हैं। इधर हमारे यहां विकास के दावे भी किये जा रहे हैं उधर राष्ट्र में व्याप्त सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक तनावों की चर्चा भी हो रही है। यह विरोधाभास हमारी उन नीतियों का ही परिणाम है जिसमें किसी मनुष्य के लिये  अर्थार्जन ही एक श्रेष्ठ और अंतिम लक्ष्य माना जाता है।  अर्थार्जन में भी केवल पेट की रोटी तक ही सीमित लक्ष्य माना गया है।  यह आज तक समझा नहीं गया कि उदर की भूख की शांत होने के बाद भी मनुष्य ही नहीं पशु पक्षी भी  सीमित नहीं रहते। सभी जीवों मे नरमादा होते हैं और जो कहीं न कहीं अगली पीढ़ी का सृजन करते हैं।  यह कामुक प्रवृत्ति सभी में होती हैं पर मनुष्य को उसके लिये भी अर्थ का सृजन संचय के लिये  करना पड़ता है। पशु पक्षी विवाह पद्धति नहीं अपनाते जबकि मनुष्य को इसे सामाजिक बाध्यता के रूप में स्वीकार करना ही पड़ता है। मनुष्य की संचयी प्रवृत्ति का ऐसे अर्थशास्त्री कतई अध्ययन नहीं करते जिनका लालन पालन धनपति करते हैं।
      हमारे देश के कुछ विद्वान अर्थशास्त्री गरीबी रेखा की सीमा के लिये एक राशि तय करते हैं। उसमें वह मनुष्य के खाने और कपड़े का ही हिसाब रखते हैं। उनका मानना है कि एक मनुष्य को खाने और कपड़े के अलावा जिंदा रहने के लिये कुछ अन्य नहीं चाहिये।  वातानुकूलित कक्षों में उनके इस चिंत्तन को मजाक ही माना जाता है।  वह मनुष्य में व्यापत उस संचयी प्रवृत्ति का आभास होते हुए भी तार्किक नहीं मानते जिसमें वह विश्ेाष अवसरों पर व्यय करने के लिये बाध्य होता है। वह मनुष्य को केवल एक पशु की श्रेणी में रखकर अपनी राय देते हैं।  इस तरह के चिंत्तन ने ही देश की अर्थव्यवस्था को भारी निराशाजनक दौर में पहुंचा दिया है। महंगाई, बेरोजगारी तथा अपराध देश में बढ़ते जा रहे हैं।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि

------------

जलान्नायुधयन्त्राछृर्य धीरयोधरधिष्ठितं।

निवासाय प्रशस्यन्ते भमुजां भूतिच्छितां।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-जल, अन्न, शस्त्र और यन्त्रों से सम्पन्न, धीर वीर योद्धाओं के साथ ही योग्य मंत्रियों तथा आचार्यों से रक्षित दुर्ग की ही महत्ता होती है।

      एक तरह से हम देश में शुद्ध रूप से पूंजी पर आधारित अर्थव्यवस्था  का एक विकट रूप देख रहे हैं जिसमें मानवीय संवेदनाओं के साथ ही संस्कृति, संस्कार और परंपराओं के निर्वाह की बाध्यता को कोई स्थान नहीं है। सच बात तो यह है कि अमीर और गरीब के बीच स्थित एक समन्वित कड़ी मध्यम वर्ग रहा है जिसकी परवाह किसी को नहीं है।  यह लड़खड़ा रहा है और इससे जो समाज में अस्थिरता का वातावरण है वह अत्यंत चिंत्ताजनक है।  यह वर्ग अन्य दोनों वर्गों की बौद्धिक सहायता करने के साथ ही अपने श्रम के साथ ही सक्रिय भी रहता है।
      हम यहां इस वर्ग के लिये कोई याचना नहीं कर रहे बल्कि इतना कहना चाहते हैं कि देश की स्थिरता में इसी वर्ग का अन्य दोनों की अपेक्षा कहीं अधिक योगदान रहता है। अगर देश में समाज में निजी पूंजी का प्रभाव बढ़ा और मध्यम वर्ग केवल कंपनियों की नौकरी के इर्दगिर्द ही सिमटा तो कालांतर में ऐसे संकट उत्पन्न होंगे जिसकी कल्पना तक हम अभी नहीं कर सकते।  इसलिये देश के आर्थिक रणनीतिकारों को इस तरफ ध्यान जरूर देना चाहिये।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Friday, June 27, 2014

ईख के खेत में रसभरा पौधा नहीं होता-रहीम दर्शन पर आधारित चिंत्तन लेख(eekh ke khet mein rasbhara paudya nahin hota-A hindu hindi religion thought based on rahim darshan)



                      हमारे देश में धर्म पर व्याख्यान करना भी एक तरह से पेशा रहा है। यह अलग बात है कि कथित धर्म प्रचारक कभी प्रत्यक्ष रूप से अपने परिश्रम का प्रतिफल शुल्क या मूल्य के रूप में नहीं लेते देखे गये  पर दान दक्षिणा के नाम पर उन्हें इतना मिल जाता है कि वह अपना घर चला ही लेते हैं। अब तो यह देखा जा रहा है कि धार्मिक संगठनों के प्रमुख किसी पूंजीपति  से कम नहीं रह गये।  दवा, कपड़े खानेपीने का सामान तथा पूजा सामग्री बेचने के अलावा अनेक धार्मिक संगठन तीर्थयात्राओं का भी इंतजाम करने लगे हैं। अनेक धार्मिक प्रमुखों के आश्रम राजमहल की तरह हैं तो उनके शिष्यों के आवास भी होटल से कम नहीं होते।
                      हम जिस धर्म को आचरण में लाने पर प्रमाणिक मानते हैं वही वस्तुओं के विक्रय तथा अनेक सेवाओं के लिये एक विज्ञापन की छाप बन गया है। एक तरह से बाज़ार स्वामियों  का एक बहुत बड़ा भाग धर्म की आड़ लेकर व्यापार कर रहा है। यही कारण है कि ऐसा लगता है जैसे हमारा पूरा देश ही धर्ममय हो रहा है पर इधर यह भी दिखाई देता है कि समाज में  नैतिक आचरण भी निरंतर पतन की तरफ जा रहा है। आर्थिक विकास दृष्टि से हम जहां आगे जा रहा है वहीं मानसिक रूप से हमारा समाज पिछड़ रहा है।
कविवर रहीम कहते हैं कि
-----------
रहिमन जो तुम कहत थे, संगति ही गुन होय।
बीच उखारी रसभरा, रस काहै न होय।।
                   सरल हिन्दी में व्याख्या-यह कहना गलत है कि सत्संग का असर मनुष्य पर सदैव अच्छा होता है।  ईख के खेत में उगन वाला रसभरा पौधा कभी रस से नहीं होता है।
                      कहने का अभिप्राय यह है कि हम भौतिक विषयों पर किसी एक सूत्र के आधार पर निर्णय नहीं कर सकते क्योंकि मनुष्य देह जहां प्रत्यक्ष दिखती है वहीं उसमें बैठा मन कभी दिखाई नहीं देता जो कि बंदर की तरह नाचता और नचाता है। मनुष्य मन को धर्म के नाम पर सहजता से भरमाया जा सकता है। वह कब किसी तरह गुलाटी मारेगा इसका कोई तयशुदा सूत्र नहीं है। यही कारण है कि जहां हमारे देश के ऋषि मुनि समाज को हमेशा ही अन्धविश्वास  से दूर रहने की प्रेरणा देते रहे हैं वहीं चालाक लोगों का एक वर्ग कर्मकांडों से समाज को स्वर्ग दिलाने की आड़ में भ्रमित करता रहा है।  आधुनिक समय में पैसे का खेल इस कदर हो गया है कि अनेक प्रकार के आकर्षक धार्मिक स्थान बन गये हैं जो जहां लोग श्रद्धा से कम पर्यटन करने अधिक जाते हैं।  अनेक पर्यटन स्थल तो सर्वशक्तिमान की दरबारों की वजह से ही प्रसिद्ध हैं। वहां भारी भीड़ जुटती है। करोड़ों का चढ़ावा आता है।  आने वाले सभी लोगों को श्रद्धालू और दानी माने तो हमारा पूरा समाज देवत्व का प्रमाण माना जाना चाहिये पर ऐसा है नहीं। देश में व्याप्त भ्रष्टाचारशोषण, महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध, नशेबाजी और सट्टेबाजी को देखें तब लगता है कि यहां असुरों की संख्या भी कम नहीं है।
                      कहने का अभिप्राय यह है कि कथित रूप से धर्म की संगत करने का कोई लाभ तब तक नहीं होता जब तक अपनी नीयत साफ न हो। श्रद्धा के बिना सत्संग में जाने से मन में विचार स्वच्छ नहीं होते और इसके अभाव में मनुष्य का व्यवहार अच्छा नहीं होता।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Saturday, May 17, 2014

मनुष्य अपनी आदत के अनुसार रस और विष ग्रहण करता है-तुलसीदास के दर्शन के आधार पर चिंत्तन लेख(manush apni adat ke anusha ras aur vish chunta hai-A hindi religion thouhg based on tulsidas darshan)



            पूरे विश्व में उपभोग संस्कृति का प्रभाव बढ़ रहा है। धार्मिक गुरु तथा समाज चिंत्तक भले ही अपने समाजों के सांस्कृतिक, धार्मिक तथा श्रेष्ठ होने का दावा भले करें पर सच यह है कि अध्यात्मिक दृष्टि से लोगों की चेतना का एक तरह से हरण हो गया है।  स्थिति यह हो गयाी है कि विषयों में  अधिक लोग इस तरह लिप्त हो गये हैं कि उनकी वजह से जो दैहिक, मानसिक तथा शारीरिक विकार पैदा हो रहे हैं उनका आंकलन कोई नहीं कर रहा।  अनेक लोगों के पास ढेर सारा धन है पर उनका पाचन क्रिया तंत्र ध्वस्त हो गया है।  महंगी दवाईयां उनकी सहायक बन रही हैं। दूसरी बात यह है कि जिसके पास धन है वह स्वतः कभी किसी अभियान पर दैहिक तथा मानसिक बीमारी के कारण समाज का सहयोग नहीं कर सकता। उसके पास देने के लिये बस धन होता है। जहां समाज को शारीरिक तथा मानसिक सहायता की आवश्यकता होती है वह मध्यम तथा निम्न वर्ग का आदमी ही काम आ सकता है।
            अनेक लोग धन के मद में ऐसे वस्त्र पहनते हैं जो उनकी छवि के अनुरूप नहीं होते। उसी तरह औषधियों का निरंतर सेवन करने से  उनकी रोगप्रतिरोधक क्षमता का हृास हो जाता है। यहां तक कि अनेक लोगों को सामान्य जल भी बैरी हो जाता है। अनेक बीमारियों में चिकित्सक कम पानी पीने की सलाह देते हैं।  अधिक दवाईयों का सेवन भी उनके लिये एक तरह से दुर्योग बन जाता है।    
संत तुलसीदास कहते हैं कि
---------------
ग्रह भेषज जल पवन पट, पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग, लखहिं सुलच्छन लोग।।
            सामान्य हिन्दी में भावार्थ-ग्रह, वेशभूषा, पानी, वायु तथा औषधि समय अनुसार दुर्योग तथा संयोग बनाते हैं।
जो जो जेहि जेहि रस मगन, तहं सो मुदित मन मानि
रसगुन दोष बिचारियो, रसिक रीति पहिचानि।।
            सामान्य हिन्दी में भावार्थ-प्रत्येक मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार संसार के विषयों के रस में मग्न रहता है। उसे उसके रस के दोषों के प्रभाव को नहीं जानते। इसके विपरीत ज्ञानी लोग रसों के गुण दोष को पहचानते हुए ही आनंद उठाते है। एक तरह से ज्ञानी ही सच्चे रसिक होते हैं।
            जिन लोगों की भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में रुचि है वह जानते हैं कि हर विषय के उपभोग की सीमा होती है।  अति हमेंशा वर्जित मानी जाती है। योग और ज्ञान साधना का नियमित अभ्यास करने वाले जानते हैं कि सांसरिक विषयों में जब अमृत का आभास होता है तो बाद में परिवर्तित होकर विष बन जाते हैं जिसे योग तथा ज्ञान साधना से ही नष्ट किया जा सकता है। यही कारण है कि जब विश्व में उपभोग संस्कृति से जो दैहिक, मानसिक तथा वैचारिक विकारों का प्रभाव बढ़ा है तब भारतीय योग साधना तथा श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों की चर्चा हो रही है क्योंकि अमृत से विष बने सांसरिक विषयों के रस को जला देने की कला इन्हीं में वर्णित है।


संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Sunday, May 11, 2014

अधम की सेवा कभी न करें-मनुस्मृति के आधार पर हिन्दी चिंत्तन लेख(adham ke sewa kabhi na kareh-A hindu religion thought mased on manu smriti)



        हमारे देश में ज्योतिष, काला जादू तथा तंत्र मंत्र की आड़ में  लोगों को सांसरिक विषयों में सफलता दिलाने के लिये कथित रूप से अनेक व्यवसायिक धार्मिक ठेकेदार सक्रिय हैं। सच बात तो यह है कि सांसरिक विषयों में लिप्त रहते हुए नैतिक आचरण करना ही धर्म है पर इसका आशय यह कतई नहीं है कि हम अपने महान धर्मभीरु होने का दावा करते हुए गाते फिरें।  दूसरी बात यह कि कथित रूप से जो गुरु या संत सांसरिक विषयों पर बोलते हैं उनको धर्म का प्रवर्तक मानना ही गलत है।  उससे ज्यादा बुरी बात यह है कि खांस वस्त्रों को पहनकर घूमने वाले लोगों को संबंधित धर्म का ज्ञानी मानना एकदम मूर्खता है।  अगर भेड़ की खाल पहनकर भेड़िया शाकाहारी होने का स्वांग करे और  कोई हिरण मान ले तो मूर्ख ही कहा जाता  है। यही स्थिति मनुष्य की है। वह किसी भी कथित धर्म प्रचारक के मुख से अच्छी बातें सुनकर उसे संत या सन्यासी मानने लगता है।  इसी कारण अनेक लोग ज्ञान के व्यवसायिक प्रचारकों को ही गुरु मानने लगते हैं। हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है वरन् उसे धारण कर जीवन में उतारना ही पूर्ण ज्ञानी होने का प्रमाण होता है।
                        इस बात को अनेक  लोग नहीं समझते और ज्ञान की बातें सुनाने वालों को संत कहने लगते हैं। यही कारण है कि अनेक लोगों ने धर्म के नाम पर हमारे देश में अपना व्यापार चला रखा है।  इन लोगों में धन कमाने की प्रवृत्तियां किसी सामान्य मनुष्य से अधिक खतरनाक ढंग से विद्यमान देखी जाती है। 
मनस्मृति में कहा गया है कि

-------------------

अकर्मशीलं च महाशनं च लोकद्विष्टं महुमायं नृशंसम्।

अदेशकालज्ञमनिष्टवेषमेतान् गृहे न प्रतिवासयेत्।।

                        हिन्दी में भावार्थ-अकर्मण्य, अधिक भोजन करने वाले, सबसे बैर बांधने वाले, मायावी, क्रूर, देशकाल का ज्ञान न रखने वाले, निन्दित वेश धारण वाले मनुष्यों को कभी अपनी घर में नहीं  ठहराये।

संक्लिष्टकर्माणमतिप्रमादं नित्यानृतं चाटृढभक्तिकं च।

विसृष्टरागं पटमानिन्र चाप्येतान् न सेवेत नराधमान् षट्।।

                        हिन्दी में भावार्थ-क्लेश करने वाला, अत्यंत प्रमादी, झूठ बोलने वाला, अस्थिर भक्ति वाला, स्नेह से रहित तथा अपने को ही चतुर मानने वाला, यह छह प्रकार के लोग अधम माने जाते हैं। इनकी सेवा कतई न करें।
                        कभी कभी तो यह लगता है कि धर्म के नाम पर व्यापार चलाने वाले उतने ही खतरनाक है जितना अफीम बेचने वाले लोग होते हैं।  हमने देखा है कि मादक द्रव्य बेचने में लगे लोग अपने ही स्वाजातीय व्यवसायियों के विरुद्ध हिंसक गतिविधियां करते हैं। ऐसे ही धर्म व्यवसायियों के कारण प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कार्ल मार्क्स से धर्म को अफीम कहा था।  हम उसके कथित अर्थशास्त्र के सिद्धांतों से सहमत हों या न हों पर भारत के संदर्भ में उसका धर्म को अफीम मानने का सिद्धांत एकदम सही लगता है।  अनेक बार तो ऐसा लगता है कि धर्म का व्यापार करने वाले यह लोग अधर्म की राह पर चलते हुए शक्ति, संपत्ति तथा शिष्य संग्रह कर अपनी ताकत इसलिये बढ़ाते हैं ताकि राजकीय संस्थाओं पर प्रभाव जमाया जा सके।  ऐसे लोगों की सेवा करना या उनकी भक्ति में लगे रहने से मन के कलुषित होने का भय रहता है।
                        हमारे यहां कहा भी जाता है कि भक्ति भगवान की करो किसी बंदे को भजना ठीक नहीं है। कथित गुरुओं की व्यवसायिक चालाकियों के चलते अनेक लोग फंस कर भगवान की बजाय अपने कथित गुरुओं  को ही भगवान मानने लगते हैं। जब उनको अपने गुरु की असलियत पता चलती है तो उनके अंदर निराशा और तनाव का ज्वार उठने लगता है। अनेक कथित गुरु अपने सत्संग में चुटकुले और अपनी कल्पित कहानियां सुनाकर हास्य का भाव भी पैदा करते हैं। अपने शिष्य समुदाय को बनाये रखने के लिये अनेक प्रकार के स्वांग भी रचते हैं।  कहना चाहिये कि वह धर्म के नाम पर अभिनय करते हैं। जब पोल खुलती है तब शिष्य अपने को एक अंधेरे कुंऐं में गिरा अनुभव करते हैं।
                        जिन लोगों के अंदर अध्यात्मिक ज्ञान की ललक है उनको गुरु ढूंढने की बजाय अपने ही अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिये।  हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार कोई भोग कभी किसी का उद्धार नहीं कर सकता। यह शक्ति केवल त्यागी भाव के गुरु में ही संभव है जिसकी पहचान यह होती है कि वह जहां खड़ा हो जाये वहीं आश्रम लगने लगे। जब बोले तो लगे कि अमृतवाणी प्रवाहित हो रही है। वह संपत्ति और शिष्य संचय की बजाय सर्वजन हिताय के भाव से समाज में सलंग्न रहता है।   

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Saturday, May 10, 2014

दूसरे से जलने वाले का भाग्य रूठ जाता है-तुलसीदास दर्शन पर आधारित चिंत्तन लेख(doosre se jalane wale ka bhag rooth jaata-A hindi religion thought basen on tulsidas darshan)




      सामान्य मनुष्य की इंद्रियां अपने समक्ष घटित दृश्य, उपस्थित वस्तु तथा व्यक्ति के साथ ही स्वयं से जुड़े विषय पर ही केंद्रित रहती है। ज्ञान के अभाव में मनुष्य सहजता से बहिर्मुखी रहता है जिस कारण उसे जल्दी ही मानसिक तनाव घेर लेता है। अगर कोई व्यक्ति साधक बनकर योगाभ्यास तथा ज्ञानार्जन का प्रयास करे तो ंअंततः उसकी अंतर्चेतना जाग्रत हो सकती है।  बाहरी विषयों से तब उसका संपर्क सीमित रह जाता है।  बहिर्मुखी  भाव कभी थकावट तो कभी बोरियत का शिकार बनाता है।  यही कारण है कि जिन लोगों के पास धनाभाव है वह अधिक धनी को देखकर उसके प्रति ईर्ष्या पालकर कुंठित होते हुए स्वयं को रोगग्रस्त बना लेते हैं। उसी तरह धनी भी आसपास गरीबी देखकर इस भय से ग्रसित रहता है कि कहीं उसकी संपत्ति पर किसी की वक्रदृष्टि न पड़े। वह अपने वैभव की रक्षा की चिंता में अपनी देह गलाता है। आर्थिक विशेषज्ञ  कहते हैं कि हमारे देश में धनिकों की संख्या बढ़ी है तो स्वास्थ्य विशेषज्ञ इस बात की जानकारी भी सार्वजनिक रूप से करते हैं कि देश में राजरोगों का प्रकोप बढ़ा है। हमारे समाज में चर्चायें अब अध्यात्म विषय पर कम संसार के भोगों पर अधिक होती है। इससे चिंतायें, ईर्ष्या तथा वैमनस्य का जो भाव बढ़ा है उसका अंाकलन किया जाना चाहिये।
संत तुलसीदास जी कहते हैं कि

--------------

पर सुख संपति देखि सुनि, जरहिं जे लड़ बिनु आगि।

तुलसीतिनके भागते, चलै भलाई भागि।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-दूसरे की सुख और संपत्ति देखकर जलने वाले बिना आग के ही जलते हैं। उनके भाग्य से कल्याण दूर भाग जाता है।

तुलसीके कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ।

तिनके मुंह मस लागिहै, मिटिहि न मरिहै धोइ।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-इस संसार में जो दूसरे की निंदा कर अपनी कीर्ति बढ़ाना चाहते हैं वह अज्ञानी हैं।  उनके मुख पर ऐसी कालिख लगती है वह बहुत धोने पर भी मिटती नहीं है।
     अपनी भौतिक भूख शांत करने के लिये जीवन बिताने वाले लोगों के लिये यह संभव नहीं है कि वह परोपकार का काम करें इसलिये अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये दूसरे की निंदा करते हैं।  अपनी बड़ी लकीर खींचने की बजाय थूक से दूसरे की खींची लकीर को छोटा करने लगते हैं। यह अलग बात है कि पीठ पीछे ऐसे निंदकों के विरुद्ध भी जनमत बन ही जाता है।  उनके विरुद्ध लोग अधिक अनर्गल प्रलाप करते हैं।  सच बात तो यह है कि अगर अपनी प्रतिष्ठा बनानी है तो हमें वास्तविक रूप से दूसरों की भलाई करने का काम करना चाहिये न कि अपना बखान स्वयं कर हास्य का विषय बने।
      हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार हमारे संकल्प के अनुसार ही हमारे लिये इस संसार का निर्माण होता है इसलिये न केवल अपने तथा परिवार के लिये बल्कि मित्र, पड़ौसी तथा रिश्तेदारों के लिये भी मंगलकामना करना चाहिये। यह संभव नहीं है कि हम अपने लिये तो सुखद भविष्य की कामना करें और दूसरे के अहित का विचार करें। ऐसे में यह उल्टा भी हो सकता है कि आप दूसरे का अनिष्ट सोचें उसका तो भला हो आये पर आपकी मंगल कामना करने की बजाय सुख की बजाय दुख चला आये। इसलिये अपने हृदय में सुविचारों को स्थान देना चाहिये।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Saturday, April 26, 2014

मूर्ख को इच्छापूर्ति कर ही जीता जा सकता है-चाणक्य नीति पर आधारित चिंत्तन लेख(murkh ko ichchhapoorti ka hee jita ja sakta hai-a hindu religion thought based on chankya policy)



      मनुष्य जीवन में सभी के सामने अनेक प्रकार के अन्य मनुष्य, विषय तथा प्रसंग आते हैं।  जब हमें किसी के समक्ष अपनी बात कहनी है तो पहले उसके व्यक्तित्व का मापतौल करना चाहिये।  किसी भी  व्यक्ति की प्रकृत्ति, विचार, छवि तथा गुणों को ध्यान में रखते हुए व्यवहार करना चाहिये।  सामान्यतः लोग अपनी बात कहने के लिये आतुर रहते हैं पर उनको इसका ज्ञान नहीं रहता कि किसके समक्ष कौनसी बात किस प्रकार कहना चाहिये।  कहना भी चाहिये कि नहीं!  साथ ही जब हम किसी दूसरे व्यक्ति से व्यवहार करते हैं तो यह नहीं  देखते कि  उसकी योग्यता और आचरण किस योग्य है?
      हम जीवन में दूसरे लोगों से अपेक्षाऐं करते हैं तो दूसरे भी हमसे अपनी अर्थपूर्ति के लिये अपनी दृष्टि रखा करते हैं।  आमतौर से लोग राजसी कर्म के लिये राजसी बुद्धि से एकदूसरे के समक्ष प्रस्तुत होते हैं।  ऐसे में सात्विक व्यवहार की अपेक्षा न तो दूसरे से करें न ही अनावश्यक रूप से स्वयं को धर्मभीरु प्रमाणित करने का प्रयास करना चाहिये।  सच बात तो यह है कि मनुष्य समाज में अधिकतर लोग आत्ममुग्ध होकर रहते हैं। वह सोचते हैं कि जैसे हम अच्छे या बुरे हैं वैसे ही दूसरे भी हैं।  यही कारण कि अधिकतर लोग हमेशा यह शिकायत करते फिरते हैं कि हमारे साथ दूसरे धोखा करते हैं।
दार्शनिक तथा चिंत्तक चाणक्य महाराज का कहना है कि

---------------

लुब्धमर्थेन गृह्णीयात् स्तब्धमञ्जलिकर्मणा।

मूर्खं छन्दोऽनृवृत्तेन यथार्थत्वेन पण्डितम्।।

     हिन्दी में भावार्थ-लोभी को धन, अभिमानी को विनम्रता, मूर्ख  को इच्छापूर्ति और विद्वान को सत्य से जीता जा सकता है।
      हम अगर जीवन में मानवीय स्वभाव के मूल तत्व को समझ लें तो न कभी धोखा होगा न हृदय में निराशा को स्थान मिलेगा। जिन लोगों से हम अर्थलाभ की अपेक्षा करते हैं उन्हें अर्थ देकर ही संतुष्ट किया जा सकता है।  धन, पद तथा बाहुबल का अहंकार मनुष्य में न हो यह अस्वाभाविक बात है इसलिये अपने से अधिक योग्य व्यक्ति के साथ विनम्रता का व्यवहार करना ही लाभदायक रहता है। मूर्ख लोगों का काम ही दूसरों के काम  में बाधा डालना है अतः संभव हो तो उनकी इच्छा पूर्ति कर अपना पीछा छुड़ायें।  महत्वपूर्ण बात यह है कि जब हमें किसी से किसी विषय पर बौद्धिक सहायता लेनी हो तो उसे सच बताना चाहिये।
      अपने सर्वज्ञ होने का भ्रम कभी नहीं पालना चाहिये।  न ही यह मानना चाहिये कि हम स्वयं शक्तिशाली हैं या फिर शक्तिशाली लोगों से संपर्क है तो कोई हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता।  जब हमारी इंद्रियां बाहर सक्रिय हों तो यह भी विचार करना चाहिये कि वह अनुकूल विषय, वस्तु या व्यक्ति से संपर्क कर रही हैं या प्रतिकूलता का पीछा कर रही हैं।  प्रतिकूल होने पर वह मनुष्य को भारी संकट में डाल देती हैं। इसलिये बोलते या काम करते समय सारी स्थिति पर विचार करना चाहिये।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Monday, April 21, 2014

धनियों को गरीब की मित्रता रास नहंी आती-रहीम दर्शन पर आधारित चिंत्तन लेख(dhaniyon ko garib ki mitrata ras nahin aatee-rahim darshan)



      एक तरफ कुछ लोगों के पास एकदम सहजता से धन आ रहा है तो दूसरी तरफ अधिकतर लोग भारी परिश्रम के बाद भी वैसी सफलता हासिल नहीं कर पा रहे जिसकी वह अपेक्षा करते हैं। विश्व में राज्य से मुक्त अर्थव्यवस्था ने समाज में अनेक प्रकार के विरोधाभास पैदा किये हैं। कृषि, लघु उद्योग तथा व्यापार में लगे लोगों की संख्या कम होती जा रही है। अधिकतर लोग नौकरियों के लिये कंपनियों की तरफ दौड़े जा रहे हैं। एक तरह से मध्यम वर्ग का दायरा सिमट रहा है। समाज में अधिक अमीरों की संख्या नगण्य मात्रा  जबकि गरीबों की संख्या गुणात्मक रूप से बढ़ रही है।  इन दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने वाला मध्यम वर्ग जहां संख्यात्मक दृष्टि से सिमटा है वहीं उसका आत्मविश्वास भी कम हुआ है।  वह गरीब कहलाना नहीं चाहता और अमीर बन नहीं पाता।  इतना ही नहीं अपने अस्तित्व के लिय संघर्ष कर रहे लोगों से यह अपेक्षा भी नहीं की जा सकती कि वह समाज में सामंजस्य का वातावरण बनाये।
      भौतिकवाद के चक्कर मे फंसा समाज हार्दिक प्रेम, निष्प्रयोजन मित्रता तथा आदर्श व्यवहार के भाव से परे होता जा रहा है।  देखा जाये तो हमारे देश में जिस तरह धनिकों का भंडार बढ़ने के साथ ही  ही समाज में व्यसन, अपराध तथा शोषण की प्रवृत्ति भी तेजी बढ़ती  जा रही है।  कथित आर्थिक विकास ने नैतिकता का जहां विध्वंस करने के साथ ही अध्यात्मिक ज्ञान की धारा को अवरुद्ध कर दिया है। सबसे बड़ी बात तो यह कि विभिन्न समाजों के बीच ही नहीं बल्कि उनक अंदर ही सद्भाव काम कर दिया है। लोग औपचारिक रूप से आपसी संपर्क तो रखते हैं पर हार्दिक प्रेम का नितांत अभाव है।
कविवर रहीम कहते हैं कि
----------
रहिमन कीन्ही प्रीति, साहब को भावै नहीं,
जिनके अनगिनत भीत, हमैं, गरीबन को गनै।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-धनियों के अनेक मित्र बन जाते हैं। उनको गरीब लोगों से मित्रता करना अच्छा नहीं लगता। बड़े लोगों को छोटे लोगों की प्रीति अच्छी नहीं लगती।
      कंपनी नाम की व्यवस्था ने साहब, सचिव और सहायक का अंतर इस तरह स्थापित किया है कि लगता है कि यह कोई आधुनिक विभाजन है। विभिन्न पदों के लिये होने वाले प्रशिक्षण में यह बता दिया जाता है कि अपने से निचले स्तर के व्यक्ति के साथ समान सबंध स्थापित न करें वरना आपको अपने काम में ही परेशानी उठानी पड़ेगी।  धनिका परिवारों में भी निम्न वर्ग के लोगों को अपना अनुचर मानकर व्यवहार करने के संस्कार स्वाभाविक रूप से ही मिलते हैं।  अमीरों के अनुचर बनने वाले मध्यम और निम्न वर्ग के युवक युवतियों को यह आभास नहीं होता कि उन्हें उच्च वर्ग से हार्दिक प्रेम की आशा नहीं  करनी चाहिये।  जीवन का यथार्थ यही है कि हर बड़ी मछली छोटी को ही खा जाती है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Monday, April 14, 2014

पाखंड अधिक समय तक नहीं चलता रहीम दर्शन पर आधारित चिंत्तन लेख(pakhand adhik samay tak nahin chalta-hindu religion thought based on rahim darshan)



      आधुनिक लोकतंत्र में जहां यह पूरे विश्व में एक अच्छी परंपरा बनी है कि लोग अपने देश, प्रदेश और शहर के लिये राज्य व्यवस्था की देखरेख करने वाले प्रमुख का चयन स्वयं ही कर सकते हैं वही इस तरह की बुरी प्रवृत्ति भी चालाक लोगों में आयी है कि वह जनमानस को अपने पक्ष में करने के लिये अनेक तरह के प्रपंच तथा स्वांग रचते हैं।  अपने प्रचार में वह स्वयं की छवि एक ईमानदार, समझदार तथा उच्च विचारों वाले व्यक्ति की बनाते हैं। इससे प्रभावित होकर लोग उन्हें अपना नायक भी मान लेते हैं पर जब बाद में पता चलता है कि वह तो पद पर बैठने के लिये एक बुत की तरह सज कर आये थे तब उनके प्रति निराशा का भाव पलता है। ऐसा भी देखा गया है कि अनेक लोगों ने अपनी छवि महान नायक की बनाई पर कालांतर में जब भेद खुला तो वह खलनायक कहलाने लगे।
कविवर रहीम कहते हैं कि

----------------

रहिमन ठहरी धूरि की, रही पवन ते पूरि।

गांठ युक्ति की खुलि गई, अंत धूरि की धूरि।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-जिस तरह ठहरी हुई धूल हवा के रहने पर स्थिर नहीं रहती वैसे ही यदि किसी व्यक्ति के कुकृत्य या बुरे विचार का रहस्य खुल जाये तो उसकी सभी निंदा करते हैं।
      चुनावी वैतरणी पार करने के लिये प्रचार की नाव का सहारा सभी लेते हैं।  जो सौम्य व्यक्तित्व के स्वामी हैं उनके प्रति लोग वैसे ही सहृदयता का भाव रखते हैं पर जिनके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है उसके प्रति प्रचार देखकर ही अपना दृष्टिकोण बनाते हैं। यही वजह है कि जिन्होंने अपने जीवन में कोई परमार्थ नहीं किया होता वही उच्च पद की लालसा में प्रचार के माध्यम से अपनी छवि भव्य बनाने का प्रयास करते हैं।  कई बार प्रचार के दौरान ही उनकी पोल खुल जाती है पर अनेक लोग समाज की आंखें बचाकर अपना लक्ष्य ही पा लेते हैं।  ऐसे राजसी पुरुषों का निजी कार्यों तक सीमित रहने के कारण किसी को उनकी स्वार्थ वृत्ति का अनुभव नहीं होता पर सार्वजनिक पदों पर उनका चरित्र जाहिर होने लगता है तब लोग हताश हो जाते हैं।  वैसे तो पूरे विश्व में अनेक छद्म समाज सेवकों ने उच्च पद प्राप्त कर अपनी प्रतिष्ठा गंवाई है पर जिन्होंने बहुत प्रचार से लोकप्रियता अर्जित की पर अपना दायित्व निभाने में नाकाम रहे उन्हें उतने ही बड़े अपमान का भी सामना उनको करना पड़ा।
      उच्च पद पर बैठने का प्रयास करना बुरा नहीं है पर इसके लिये लोगों के साथ कोई ऐसी बात नहीं करना चाहिये जो बाद में निरर्थक सिद्ध हो। न ही ऐसे वादे करना चाहिये जिनको पूरा करना स्वयं को ही संदिग्ध लगे। लोगों को यह बात स्पष्ट रूप से समझाना चाहिये कि उनकी समस्याओं का वह निराकरण का पूरा प्रयास करेंगे। उच्च पद पर आने के बाद ईमानदारी से प्रयास भी करना चाहिये वरना लोगों में निराशा का भाव पैदा होता है जो कालांतर में घृणा में बदल जाता है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Wednesday, April 9, 2014

महर्षियों ने सुख का त्याग कर ज्ञान का सृजन किया-भर्तृहरि नीति शतक के आधार पर चिंत्तन लेख(maharshiyon ne sukh ka tyag kar gyan ka srijan kiya-A hindu religion thought on bhartrihari neeti shatak)



      आमतौर से हर मनुष्य में दूसरों से सम्मान पाने की कामना होती है। इसे राजसी प्रवृत्ति ही माना जाता है। जिनके पास तत्व का ज्ञान है वह कभी किसी से न तो सम्मान पाने की कामना करते हैं न ही अपमान होने पर विचलित होते हैं। जैसे जैसे 2014 के लोकसभा  चुनाव का समय पास आता जा रहा है वैसे टीवी चैनलों तथा समाचार पत्र पत्रिकाओं की खबरों में इससे संबंधित जानकारी दिलचस्प होती जा रही है।  इसमें कोई संदेह नहीं है कि मनुष्य समाज में राजपद की स्थापना की अनिवार्यता की शर्त पूरी करने के लिये सभी नागरिकों को अपनी भागीदारी निभानी ही होगी। कोई जनप्रतिनिधि पद का प्रत्याशी तो  कोई मतदाता के रूप में अपनी भागीदारी निभायेगा।  इसमें कोई संदेह नहीं है कि मतदाताओं को प्रभावित करने के लिये सभी प्रत्याशी अपनी तरह से कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।  सबसे ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि इन चुनावों में धर्म के नाम पर कार्यरत कुछ विद्वान इस चुनावी राजनीति में अपने व्यक्तिगत प्रभाव के लिये सक्रिय होना चाहते हैं। पहली बात तो हम यहां यह बता दें कि धर्म से हमारा आशय उच्च आचरण से होता है।  इस आचरण के भी तीन रूप हैं-सात्विक, राजस और तामस।  एक चौथा रूप भी होता है- वह है योगी या सन्यासी- जिसकी चर्चा बहुत कम होती है यह अलग बात है कि धर्म के नाम पर सक्रिय कुछ पेशेवर लोग यही रूप धारण कर समाज में विशेष रंग के कपड़े पहनकर विचरते हैं।
      चुनावी राजनीति में सामान्य लोग भी सक्रिय होते हैं और कहीं न कहीं उन पर भी अन्य की तरह इन विशेष वस्त्रधारी कथित धर्म विशेषज्ञों के प्रति रुझान रहता हैं। चुनावी राजनीति में सक्रिय शिखर पुरुष भी  यह मानकर चलते हैं कि इन कथित धर्म रक्षकों के पास शिष्यों का  एक ऐसा समुदाय रहता है जो चुनाव को प्रभावित कर सकता हैं।  इसलिये अभी तक वह इनके इर्दगिर्द मंडराते थे पर अब तो यह हालत हो गयी है कि अनेक धर्मों के कथित विशेषज्ञ बाकायदा चुनाव मैदान में उतरने के लिये इन शीर्ष पुरुषों से संपर्क रखने लगे हैं। टिकट मिलने पर अपने धर्म की जीत और न मिलने पर संकट बताकर अपने समुदाय को यह समझाने का प्रयास करते हैं कि वह उनके बताये अनुसार मतदान करे।  हमें इस पर आपत्ति नहीं है पर इतना अवश्य कह सकते हैं कि यह राजसी आचरण है।  इसे सत्वगुण या योग से तो कतई नहीं जोड़ा जा सकता है।  जब यह कथित पेशेवर धार्मिक विद्वान यह दावा करते हैं कि उनका आचरण सात्विक है या वह स्वयं सन्यासी हैं तब उनका इस तरह का व्यवहार उनकी निष्ठा पर ही संदेह पैदा करता है।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि

--------------

रम्यं हर्म्यतलं न किं वसतये श्रव्यं न गवादिकं किंवा प्राणसमासमगमसुखं नवाधिकप्रीतये।

किं तद्भ्रान्तपत्पतङ्गपवनव्यालोलदीपाङ्करच्छायचञ्वलामाकरूय सकलं सन्तो वनान्तं गताः।।

     हिन्दी में भावार्थ-क्या प्राचीन समय में संतों को रहने के लिये सुंदर महल नहीं थे? क्या उनके सुनने के लिये संगीत नहीं था। क्या उन्हें प्राण प्रिय सुंदर स्त्रियों से समागम हृदय को प्रिय नहीं लगता था? जो उन्होंने संसार को गिरते पतंगे के पंखों की हवा से विचलित हुई दीपक का लौ की छाया के समान विचलित मानकर त्याग दिया।
      हमारा मानना है कि आम आदमी की चिंतायें उसके परिवार के इर्दगिर्द ही रहती हैं।  धर्म के नाम पर वह अपने इष्ट की आराधना से अधिक कुछ नहीं करता। अधिक से अधिक अपने आसपास किसी पर विपत्ति होने पर आदमी उसकी सहायता कर अपने सात्विक होने का बोध अवश्य कराता है पर उसमें  हमेशा ही राजसी वृत्तियां ही उपस्थित रहती हैं।  वह इन कथित पेशेवर धार्मिक लोगों को इस डर से सम्मान देता है कि वह कहीं उसे धर्मद्रोही घोषित कर समाज में बदनाम न कर दें। वह इन मध्यस्थों को सर्वशक्तिमान का रूप माने यह सोचना ही भ्रम है। अनेक धर्म के ऐसे व्यवसायी यह जानते हैं इसलिये अपने साथ समाज पर नियंत्रण रखने के लिये दबंग तथा प्रभावशाली लोग साथ लेकर चलते हैं। वह सद्भाव से प्रीति की बजाय भय बिन भये न प्रीति का सिद्धांत मानते हैं।
      समस्या यह है कि श्रीमद्भागवत गीता का कर्म तथा गुण विभाग का ज्ञान आम लोगों को नहीं है । जिनसे वह श्रीगीता ज्ञान ग्रहण करते हैं वह केवल शाब्दिक अर्थ बताते हैं। आज के परिप्रेक्ष्य में यह ज्ञान किस तरह प्रासांगिक है इसकी जानकारी आम लोगों को नहीं है।
 राजनीति एक व्यापक शब्द है जिसका चुनावी राजनीति एक रूप है।  परिवार, रिश्तेदारी, व्यवसाय, नौकरी तथा खेल में भी बिना राजनीति के किसी को सफलता नहीं मिलती। जहां प्रतिफल की आशा है वह अपनायी जाने वाली नीति ही राजनीति है। पहले राजतंत्र था तो राजा अपने जीवन तक बना रहता था पर आजकल लोकतंत्र है और उसमें अदलाबदली होती रहती है। यह अदलाबदली चुनाव से ही होती है।  इस चुनावी राजनीति में धार्मिक पहचान वालों के शामिल होने  पर प्रश्न चिन्ह केवल ज्ञानी ही उठा सकते हैं पर उनको सुनने या पढ़ने वाली भीड़ तो अपने इन्ही शीर्ष पुरुषों के पीछे रहती है इसलिये कोई प्रभाव नहीं होता।
      देखा जाये तो वर्तमान काल में कोई देहधारी मनुष्य  हमारे देश में कोई धार्मिक रूप से लोकप्रिय या जनमानस में प्रतिष्ठत नहीं है। जब तक प्रचार माध्यम सीमित थे तब लोगों के सामने कथित रूप से अनेक महापुरुष विराजमान थे पर धीमे धीमे यह पता लगा कि इनमें बहुत लोग  पाखंडी और व्यापारी हैं। इन लोगों को देखकर हमें प्राचीन महापुरुषों की याद आती है जो सभी सुखों का त्यागकर सत्य की खोज में निकले। उन्होंने ज्ञान प्राप्त कर समाज को चिंत्तन शक्ति प्रदान की। उन्होंने राजसुख का इस तरह त्याग किया कि राजा लोग भी उनके सामने नतमस्तक हो गये।  अब इन नवीन धार्मिक पुरुषों से यह पूछने का साहस कौन कर सकता है कि वह किसलिये राजसी सुखों के चक्कर में पड़े हैं? इससे उनके समाज को कौनसा अध्यात्मिक लाभ होने वाला है? बहरहाल ज्ञान साधकों के लिये चुनावी राजनीति में सक्रिय होने की इन पेशेवर धार्मिक लोगों की कोशिश दिलचस्पी का विषय होती है। 

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Tuesday, April 1, 2014

संत तुलसीदास दर्शन-दूसरे की निंदा कर अपनी कीर्ति बढ़ाने वाले लोग अज्ञानी(sant tulsidas darshan-doosre ki ninda kar apni kirti badhane wale log agyani)




      सामान्य मनुष्य की इंद्रियां अपने समक्ष घटित दृश्य, उपस्थित वस्तु तथा व्यक्ति के साथ ही स्वयं से जुड़े विषय पर ही केंद्रित रहती है। ज्ञान के अभाव में मनुष्य सहजता से बहिर्मुखी रहता है जिस कारण उसे जल्दी ही मानसिक तनाव घेर लेता है। अगर कोई व्यक्ति साधक बनकर योगाभ्यास तथा ज्ञानार्जन का प्रयास करे तो ंअंततः उसकी अंतर्चेतना जाग्रत हो सकती है।  बाहरी विषयों से तब उसका संपर्क सीमित रह जाता है।  बहिर्मुखी  भाव कभी थकावट तो कभी बोरियत का शिकार बनाता है।  यही कारण है कि जिन लोगों के पास धनाभाव है वह अधिक धनी को देखकर उसके प्रति ईर्ष्या पालकर कुंठित होते हुए स्वयं को रोगग्रस्त बना लेते हैं। उसी तरह धनी भी आसपास गरीबी देखकर इस भय से ग्रसित रहता है कि कहीं उसकी संपत्ति पर किसी की वक्रदृष्टि न पड़े। वह अपने वैभव की रक्षा की चिंता में अपनी देह गलाता है। आर्थिक विशेषज्ञ  कहते हैं कि हमारे देश में धनिकों की संख्या बढ़ी है तो स्वास्थ्य विशेषज्ञ इस बात की जानकारी भी सार्वजनिक रूप से करते हैं कि देश में राजरोगों का प्रकोप बढ़ा है। हमारे समाज में चर्चायें अब अध्यात्म विषय पर कम संसार के भोगों पर अधिक होती है। इससे चिंतायें, ईर्ष्या तथा वैमनस्य का जो भाव बढ़ा है उसका अंाकलन किया जाना चाहिये।
संत तुलसीदास जी कहते हैं कि

--------------

पर सुख संपति देखि सुनि, जरहिं जे लड़ बिनु आगि।

तुलसीतिनके भागते, चलै भलाई भागि।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-दूसरे की सुख और संपत्ति देखकर जलने वाले बिना आग के ही जलते हैं। उनके भाग्य से कल्याण दूर भाग जाता है।

तुलसीके कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ।

तिनके मुंह मस लागिहै, मिटिहि न मरिहै धोइ।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-इस संसार में जो दूसरे की निंदा कर अपनी कीर्ति बढ़ाना चाहते हैं वह अज्ञानी हैं।  उनके मुख पर ऐसी कालिख लगती है वह बहुत धोने पर भी मिटती नहीं है।
     अपनी भौतिक भूख शांत करने के लिये जीवन बिताने वाले लोगों के लिये यह संभव नहीं है कि वह परोपकार का काम करें इसलिये अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये दूसरे की निंदा करते हैं।  अपनी बड़ी लकीर खींचने की बजाय थूक से दूसरे की खींची लकीर को छोटा करने लगते हैं। यह अलग बात है कि पीठ पीछे ऐसे निंदकों के विरुद्ध भी जनमत बन ही जाता है।  उनके विरुद्ध लोग अधिक अनर्गल प्रलाप करते हैं।  सच बात तो यह है कि अगर अपनी प्रतिष्ठा बनानी है तो हमें वास्तविक रूप से दूसरों की भलाई करने का काम करना चाहिये न कि अपना बखान स्वयं कर हास्य का विषय बने।
      हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार हमारे संकल्प के अनुसार ही हमारे लिये इस संसार का निर्माण होता है इसलिये न केवल अपने तथा परिवार के लिये बल्कि मित्र, पड़ौसी तथा रिश्तेदारों के लिये भी मंगलकामना करना चाहिये। यह संभव नहीं है कि हम अपने लिये तो सुखद भविष्य की कामना करें और दूसरे के अहित का विचार करें। ऐसे में यह उल्टा भी हो सकता है कि आप दूसरे का अनिष्ट सोचें उसका तो भला हो आये पर आपकी मंगल कामना करने की बजाय सुख की बजाय दुख चला आये। इसलिये अपने हृदय में सुविचारों को स्थान देना चाहिये।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Wednesday, March 26, 2014

दूसरे को देखकर जलने से अपना भाग्य रूठता है-तुलसीदास दर्शन के आधार पर चिंत्तन लेखdoosre ko dekhkar jalne se apna bhagya roothta hai-tulsidas darshan par aadharit chinttan lekh)




      सामान्य मनुष्य की इंद्रियां अपने समक्ष घटित दृश्य, उपस्थित वस्तु तथा व्यक्ति के साथ ही स्वयं से जुड़े विषय पर ही केंद्रित रहती है। ज्ञान के अभाव में मनुष्य सहजता से बहिर्मुखी रहता है जिस कारण उसे जल्दी ही मानसिक तनाव घेर लेता है। अगर कोई व्यक्ति साधक बनकर योगाभ्यास तथा ज्ञानार्जन का प्रयास करे तो ंअंततः उसकी अंतर्चेतना जाग्रत हो सकती है।  बाहरी विषयों से तब उसका संपर्क सीमित रह जाता है।  बहिर्मुखी  भाव कभी थकावट तो कभी बोरियत का शिकार बनाता है।  यही कारण है कि जिन लोगों के पास धनाभाव है वह अधिक धनी को देखकर उसके प्रति ईर्ष्या पालकर कुंठित होते हुए स्वयं को रोगग्रस्त बना लेते हैं। उसी तरह धनी भी आसपास गरीबी देखकर इस भय से ग्रसित रहता है कि कहीं उसकी संपत्ति पर किसी की वक्रदृष्टि न पड़े। वह अपने वैभव की रक्षा की चिंता में अपनी देह गलाता है। आर्थिक विशेषज्ञ  कहते हैं कि हमारे देश में धनिकों की संख्या बढ़ी है तो स्वास्थ्य विशेषज्ञ इस बात की जानकारी भी सार्वजनिक रूप से करते हैं कि देश में राजरोगों का प्रकोप बढ़ा है। हमारे समाज में चर्चायें अब अध्यात्म विषय पर कम संसार के भोगों पर अधिक होती है। इससे चिंतायें, ईर्ष्या तथा वैमनस्य का जो भाव बढ़ा है उसका अंाकलन किया जाना चाहिये।
संत तुलसीदास जी कहते हैं कि

--------------

पर सुख संपति देखि सुनि, जरहिं जे लड़ बिनु आगि।

तुलसीतिनके भागते, चलै भलाई भागि।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-दूसरे की सुख और संपत्ति देखकर जलने वाले बिना आग के ही जलते हैं। उनके भाग्य से कल्याण दूर भाग जाता है।

तुलसीके कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ।

तिनके मुंह मस लागिहै, मिटिहि न मरिहै धोइ।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-इस संसार में जो दूसरे की निंदा कर अपनी कीर्ति बढ़ाना चाहते हैं वह अज्ञानी हैं।  उनके मुख पर ऐसी कालिख लगती है वह बहुत धोने पर भी मिटती नहीं है।
     अपनी भौतिक भूख शांत करने के लिये जीवन बिताने वाले लोगों के लिये यह संभव नहीं है कि वह परोपकार का काम करें इसलिये अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये दूसरे की निंदा करते हैं।  अपनी बड़ी लकीर खींचने की बजाय थूक से दूसरे की खींची लकीर को छोटा करने लगते हैं। यह अलग बात है कि पीठ पीछे ऐसे निंदकों के विरुद्ध भी जनमत बन ही जाता है।  उनके विरुद्ध लोग अधिक अनर्गल प्रलाप करते हैं।  सच बात तो यह है कि अगर अपनी प्रतिष्ठा बनानी है तो हमें वास्तविक रूप से दूसरों की भलाई करने का काम करना चाहिये न कि अपना बखान स्वयं कर हास्य का विषय बने।
      हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार हमारे संकल्प के अनुसार ही हमारे लिये इस संसार का निर्माण होता है इसलिये न केवल अपने तथा परिवार के लिये बल्कि मित्र, पड़ौसी तथा रिश्तेदारों के लिये भी मंगलकामना करना चाहिये। यह संभव नहीं है कि हम अपने लिये तो सुखद भविष्य की कामना करें और दूसरे के अहित का विचार करें। ऐसे में यह उल्टा भी हो सकता है कि आप दूसरे का अनिष्ट सोचें उसका तो भला हो आये पर आपकी मंगल कामना करने की बजाय सुख की बजाय दुख चला आये। इसलिये अपने हृदय में सुविचारों को स्थान देना चाहिये।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Saturday, March 22, 2014

सूप जैसा जिसका स्वभाव हो उस पर यकीन न करें-संत कबीर दर्शन(soop jaisa jiska swabhav ho us par yakin n karen-sant kabir darshan)



      हमारे देश में अनेक ऐसे मठाधीश धर्म के नाम पर अपने आश्रमों में महल की तरह व्यवस्था कर उसमें राजा की तरह विराजमान रहते हैं। यही नहीं उनके मुंहलगे कथित शिष्य उनकी सेवा इस तरह करते हैं जैसे कि वह महल के कारिंदे हों। धर्म के प्रतीक रंगों के वस्त्र पहनकर अनेक ऐसे लोग साधु बनकर समाज के पथप्रदर्शक बनने का ठेका लेते हैं जिन्होंने भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित ज्ञान को रट तो लगाया पर धारण न कर उसे विक्रय योग्य विषय बना लिया है।  इतना ही नहीं ऐसे कथित साधु अनेक निंदनीय प्रसंगों में शामिल होकर अपनी प्रतिष्ठा तक गंवा देते हैं मगर फिर भी बेशरमी से अपने विरुद्ध कार्यवाही को हिन्दू धर्म का विरोध में की गयी प्रचारित करते हैं।  इतना ही नहीं प्रचार माध्यमों में बने रहने का उनका मोह उन्हें इतना रहता है कि हर विशेष घटना पर अपनी प्रतिकिया देने के लिये पर्दे पर हमेशा ही अवतरित होने का प्रयास करते हैं। अध्यात्मिक विषयों पर चर्चा कर लोगों को आत्मिक रूप से परिपक्व बनाने की बजाय यह लोभी साधु सांसरिक विषयों में दक्षता प्राप्त करने के हजार नुस्खे बताते हैं।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि

------------

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।

सार सार को  गहि रहै, थोथा देइ उड़ाय।।

      सामान्य हिन्दी में भावार्थ-साधु वही व्यक्ति है जिसका स्वभाव सूप(छाज) की तरह हो। वह केवल ज्ञान की चर्चा करे और व्यर्थ की बातों की उपेक्षा कर दे।

साधु भया तो क्या भया, बोलै नाहिं बिचार।

हतै पराई आतमा, जीभ गाधि तरवार।।

     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-वह साधु नहीं हो सकता जो बिना विचार किये ही सारे काम करता है। वह अपनी जीभ का तलवार की तरह उपयोग कर दूसरे के  आत्मा  को रंज करता है।
      सच्चा साधु वही है जो सहज भाव से आचरण, विचार तथा व्यवहार करता हो। मान और अपमान में समान हो।  इतना ही नहीं किसी भी स्थिति में वह अपनी वाणी को कृपाण की तरह उपयोग न करे।  साधु की सबसे बड़ी पहचान उसकी मधुर वाणी तथा प्रभावशाली चरित्र होता है। हम आजकल ऐसे अनेक कथित साधुओं को देखते हैं जो प्रचार माध्यमों में चेहरा चमकाने के लिये उत्सुक रहते हैं पर यह अलग बात है कि अनेक बार उनका यही मोह तब शत्रु बन जाता है जब उनकी हिंसक, मूर्खतापूर्ण तथा अव्यवहारिक गतिविधियां कैमरे के सामने आ जाती हैं। आज के प्रचार माध्यम इतने शक्तिशाली है कि उनके उपयोग से अनेक व्यवसायिक धर्म के ठेकेदार प्रतिष्ठित हो गये पर अंततः उन्हें बदनामी का बोझ भी इसी वजह से झेलना पड़ा क्योंकि उन्होंने इस शक्ति को समझा नहीं।
      ऐसा नहीं है कि सच्चे साधु इस देश में मिलते नहीं है जिनके गुरु बनाया जा सके। हमारा मानना है कि सच्चे साधु कभी प्रचार के मोह नहंी पड़ता न धर्म की दुकान लगाते हैं। आत्मप्रचार में लगे साधुओं की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह अपने शिष्य बनाने के लिये आओ आओ के नारे उसी तरह लगाते हैं जैसे दुकानदार ग्राहक के लिये लगाते हैं।  उसी तरह जिस तरह फेरीवाले सामान लेकर घर घर जाते हैं वैसे ही कथित साधु अपने शिष्यों के घर जाकर आतिथ्य ग्रहण उनको कृतार्थ करने का ढोंग रचते हैं।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

Friday, March 14, 2014

पतंजलि योग विज्ञान-तनाव मुक्ति ध्यान से ही संभव (patanjali yog vigyan-tanav mukti dhyan se hi sambhav)



            इस संसार में मनुष्य के जीवन में क्लेश और प्रसन्नता दोनों ही प्रकार के संयोग बनते बिगड़ते हैं। यह अलग बात है कि सामान्य मनुष्य सुख का समय आने पर सब कुछ भूल जाता है पर जब दुःख का समय आता है तब वह सहायता के लिये इधर उधर ताकता रहता है। क्लेश के समय वह विचलित होता है पर जिन लोगों को योग तथा ज्ञान का अभ्यास निरंतर हो उन्हे कभी भी इस बात की परवाह नहीं होती कि उसका समय अच्छा चल रहा है या बुरा, बल्कि वह हर हालत में सहज बने रहते हैं।
            हमारे देश में पेशेवर योग शिक्षकों ने प्राणायाम तथा योगासनों का प्रचार खूब किया है जिसके लिये वह प्रशंसा के पात्र भी हैं पर ध्यान के प्रति आज भी लोगों में इतना ज्ञान नहीं है जितनी अपेक्षा की जाती है। जिस तरह योगासन के पश्चात् प्राणायाम आवश्यक है उसी तरह ध्यान भी योगसाधना का एक अभिन्न अंग है। यह ध्यान ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति होती है जो कि मनुष्य के उस मन पर नियंत्रण करने में सहायक होती है जो प्रत्यक्ष उसकी देह का स्वामी होता है।  हमारे दर्शन के अनुसार अध्यात्म या आत्मा मनुष्य की देह का वास्तविक स्वामी होता है और योग विद्या से अपनी इंद्रियों का उससे संयोग कर जीवन को समझा जा सकता है। योगाभ्यास में ध्यान विद्या में पारंगत होने पर ही समाधि के चरम स्तर तक पहुंचा जा सकता है।

पतंजलि योग साहित्य मे कहा गया है कि

------------------

ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः।

            हिन्दी में भावार्थ-सूक्ष्मावस्था को प्राप्त क्लेश चित्त को अपने कारण में विलीन करने के साधन से नष्ट करना चाहिये।

ध्यानहेयास्तदूवृत्तयः।

            हिन्दी में भावार्थ-उन क्लेशों की वृत्तियां ध्यान से नाश करने योग्य हैं।

            जहां आसन और प्राणायाम प्रातः किये जाते हैं वहीं ध्यान कहीं भी  कभी भी लगाया जा सकता है। जहां अवसर मिले वहीं अपनी बाह्य चक्षुओं को विराम देकर अपनी दृष्टि भृकुटि पर केंद्रित करना चाहिये।  प्रारंभ में सांसरिक विषय मस्तिष्क में विचरण करते हैं तब ऐसा लगता है कि हमारा ध्यान नहीं लग रहा है जब इस पर चिंता किये बिना अंतदृष्टि पर नियंत्रण रखने से धीरे धीरे इस बात का अनुभव होता है कि उन विषयों का विष वहां जलकर नष्ट हो रहा है।  जिस तरह हम मिठाई खायें या करेला, हमारे उदर में वह कचड़े के रूप में ही परिवर्तित होता है।  उसी तरह कोई विषय प्रसन्नता तो कोई  क्लेश उत्पन्न करने वाला होता है, पर दोनों से  अंतर्मन में विष ही पैदा होता है। यह विष कोई भौतिक रूप से नहीं होता इसलिये उसे ध्यान  से ही जलाकर नष्ट किया जा सकता है।  हम विचार करें तो ध्यान के दौरान भी मनुष्य दैहिक अंगों की सक्रियता नहीं होती है। ध्यान अभौतिक होने के साथ ही  मानसिक स्थिति है। विषयों के संसर्ग से उत्पन्न विष ध्यान के माध्यम से जब नष्ट हो जाता है उसके बाद मनुष्य को अपनी देह तथा मन के हल्के होने की  सुखद अनुभूति होने लगती है। उसे ऐसा लगने लगता है जैसे कि जमीन पर चलने की बजाय  उड़ रहा है। देह में स्फूर्ति, मन में सहजता और विचारों में नवीनता का यह आनंद केवल ध्यान से ही मिलता है। ध्यान से मस्तिष्क की नसों में एक ऐसे सुख का आभास होता है जिसे शब्दों में बाहर वर्णन करने की बजाय मनुष्य उसे अनुभव करते रहने में ही आनंद अनुभव करता है। इससे होने वाले सुख की ध्यान करने वाला अपने अभ्यास के आधार पर ही अनुभव कर सकता है। जैसे जैसे यह अभ्यास बढ़ता जाता है वैसे वैसे आनंद की अनुभूति भी बढ़ती है।
            ध्यान की क्रिया से निवृत होने पर जब अपने देह की आंतरिक स्थिति पर दृष्टिपात करें तो पता चलता है कि देह में एक अजीब प्रकार की सहजता है, उससे पूर्व हम ऐसे खड़े थे जैसे कि मुट्ठियां भींची थीं।  मस्तिष्क में जो स्फूर्ति उत्पन्न होती है उससे यह समझा जा सकता है कि उससे पूर्व हमारे अंदर कितना तनाव था।  आजकल लोग भारी तनाव में जीते हैं।  उनको यह मालुम नहीं है कि सहजता होती क्या है? इतना ही नहीं कुछ लोग बाहर से सहज दिखने का प्रयास करते हैं पर मन में उनके भारी तनाव होता है।  मुख्य बात यह है कि हमारा  मस्तिष्क तनावग्रस्त रहता है इसका आभास तभी हो सकता है जब हम ध्यान की क्रिया में लिप्त होकर देखें।
            कार्यस्थल, यात्रा अथवा किसी समारोह में जाने पर हम वहां के वातावरण से अनेक तनाव उत्पन्न करने वाले तत्वों को अंदर समाविष्ट होने से तभी बचा सकते हैं जब ध्यान का अभ्यास तथा उसके परिणाम का ज्ञान हो। अगर हम कहीं काम करते बीच में थोड़ा ध्यान करें तो उसके बाद फिर काम पर लगें तो ऐसा लगता है कि वह अभी शुरु किया है। उस समय अपने अंगों को शिथिल होते देखें।  किसी कार्य में निरंतर लगे रहने पर थकावट हो जाये तो ध्यान लगायें, थोड़ी देर में ऐसा लगेगा कि हमारी देह में नयी स्फूर्ति का संचार हो रहा है। यात्रा में बैठे बैठे बोर हो रहे हैं तो वहां ध्यान लगायें।  किसी समारोह में जायें तो वहां मच रहा शोरशराबा अच्छा लगता है पर उससे हमारे मस्तिष्क में तनाव आता है। ऐसा लग रहा है हम प्रसन्न हो रहें हैं पर कहीं एकांत में जाकर ध्यान लगायें तो पता चलेगा कि हमारे अंदर कहीं तनाव था।
            सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि ध्यान एक आत्मकेंद्रित मनोरंजन का अभौतिक साधन भी है। सामान्य आदमी शहर के महल में रहता हुए बोर होता है  तो उसे गांव की सादगी आकर्षक लगती है। गांव में प्रकृति के करीब रहने वाले व्यक्ति को शहर आकर्षित करते हैं।  आदमी घर में बोर होता है तो कहीं पर्यटन करने चला जाता है।  यह मानव मन ही है जिसे कभी भजन तो कभी गजल सुनना अच्छा लगता है।  इससे चंचल मन कुछ देर बहलता है पर यह एक विषय से दूसरे विषय की तरफ जाने की वह प्रक्रिया है जिससे अध्यात्मिक  असहजता से मुक्ति पाना संभव नहीं है।  ध्यान की क्रिया करने पर सांसरिक विषयों से कुछ समय निवृत्ति की अनुभूति होती है और चित्त में एक नवीनता आती है। वैसे तो अधिकतर व्यवसायिक योग शिक्षक ध्यान की बात करते हैं पर उनका लक्ष्य योगसन और प्राणायाम की क्रियाओं पर ही रहता है।  इस विषय में भारतीय योग संस्थान के शिविरों में निष्काम भाव शिक्षकों ने हमेशा ही अच्छा काम किया है।  कम से कम इस लेखक ने योग विधा में ध्यान का महत्व भारतीय योग संस्थान के शिविरों में जाकर ही समझा है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका

विशिष्ट पत्रिकायें