सामान्य मनुष्य की इंद्रियां
अपने समक्ष घटित दृश्य, उपस्थित
वस्तु तथा व्यक्ति के साथ ही स्वयं से जुड़े विषय पर ही केंद्रित रहती है। ज्ञान के
अभाव में मनुष्य सहजता से बहिर्मुखी रहता है जिस कारण उसे जल्दी ही मानसिक तनाव
घेर लेता है। अगर कोई व्यक्ति साधक बनकर योगाभ्यास तथा ज्ञानार्जन का प्रयास करे
तो ंअंततः उसकी अंतर्चेतना जाग्रत हो सकती है।
बाहरी विषयों से तब उसका संपर्क सीमित रह जाता है। बहिर्मुखी
भाव कभी थकावट तो कभी बोरियत का शिकार बनाता है। यही कारण है कि जिन लोगों के पास धनाभाव है वह
अधिक धनी को देखकर उसके प्रति ईर्ष्या पालकर कुंठित होते हुए स्वयं को रोगग्रस्त
बना लेते हैं। उसी तरह धनी भी आसपास गरीबी देखकर इस भय से ग्रसित रहता है कि कहीं
उसकी संपत्ति पर किसी की वक्रदृष्टि न पड़े। वह अपने वैभव की रक्षा की चिंता में
अपनी देह गलाता है। आर्थिक विशेषज्ञ कहते
हैं कि हमारे देश में धनिकों की संख्या बढ़ी है तो स्वास्थ्य विशेषज्ञ इस बात की
जानकारी भी सार्वजनिक रूप से करते हैं कि देश में राजरोगों का प्रकोप बढ़ा है।
हमारे समाज में चर्चायें अब अध्यात्म विषय पर कम संसार के भोगों पर अधिक होती है।
इससे चिंतायें, ईर्ष्या तथा
वैमनस्य का जो भाव बढ़ा है उसका अंाकलन किया जाना चाहिये।
संत तुलसीदास जी कहते हैं कि
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पर सुख संपति देखि सुनि, जरहिं जे लड़ बिनु आगि।
‘तुलसी’ तिनके भागते, चलै भलाई भागि।।
सामान्य हिन्दी में भावार्थ-दूसरे की सुख और संपत्ति देखकर जलने वाले बिना आग के ही जलते हैं। उनके भाग्य से कल्याण दूर भाग जाता है।
‘तुलसी’ के कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ।
तिनके मुंह मस लागिहै, मिटिहि न मरिहै धोइ।।
सामान्य हिन्दी में भावार्थ-इस संसार में जो दूसरे की निंदा कर अपनी कीर्ति बढ़ाना चाहते हैं वह अज्ञानी हैं। उनके मुख पर ऐसी कालिख लगती है वह बहुत धोने पर भी मिटती नहीं है।
अपनी भौतिक भूख शांत करने के लिये जीवन बिताने
वाले लोगों के लिये यह संभव नहीं है कि वह परोपकार का काम करें इसलिये अपनी
प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये दूसरे की निंदा करते हैं। अपनी बड़ी लकीर खींचने की बजाय थूक से दूसरे की
खींची लकीर को छोटा करने लगते हैं। यह अलग बात है कि पीठ पीछे ऐसे निंदकों के
विरुद्ध भी जनमत बन ही जाता है। उनके
विरुद्ध लोग अधिक अनर्गल प्रलाप करते हैं।
सच बात तो यह है कि अगर अपनी प्रतिष्ठा बनानी है तो हमें वास्तविक रूप से
दूसरों की भलाई करने का काम करना चाहिये न कि अपना बखान स्वयं कर हास्य का विषय
बने।
हमारे अध्यात्मिक दर्शन के
अनुसार हमारे संकल्प के अनुसार ही हमारे लिये इस संसार का निर्माण होता है इसलिये
न केवल अपने तथा परिवार के लिये बल्कि मित्र, पड़ौसी तथा रिश्तेदारों के लिये भी मंगलकामना करना चाहिये।
यह संभव नहीं है कि हम अपने लिये तो सुखद भविष्य की कामना करें और दूसरे के अहित
का विचार करें। ऐसे में यह उल्टा भी हो सकता है कि आप दूसरे का अनिष्ट सोचें उसका
तो भला हो आये पर आपकी मंगल कामना करने की बजाय सुख की बजाय दुख चला आये। इसलिये
अपने हृदय में सुविचारों को स्थान देना चाहिये।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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