हमारे देश में ज्योतिष,
काला जादू तथा तंत्र मंत्र की आड़
में लोगों को सांसरिक विषयों में सफलता
दिलाने के लिये कथित रूप से अनेक व्यवसायिक धार्मिक ठेकेदार सक्रिय हैं। सच बात तो
यह है कि सांसरिक विषयों में लिप्त रहते हुए नैतिक आचरण करना ही धर्म है पर इसका
आशय यह कतई नहीं है कि हम अपने महान धर्मभीरु होने का दावा करते हुए गाते
फिरें। दूसरी बात यह कि कथित रूप से जो
गुरु या संत सांसरिक विषयों पर बोलते हैं उनको धर्म का प्रवर्तक मानना ही गलत है। उससे ज्यादा बुरी बात यह है कि खांस वस्त्रों
को पहनकर घूमने वाले लोगों को संबंधित धर्म का ज्ञानी मानना एकदम मूर्खता है। अगर भेड़ की खाल पहनकर भेड़िया शाकाहारी होने का
स्वांग करे और कोई हिरण मान ले तो मूर्ख
ही कहा जाता है। यही स्थिति मनुष्य की है।
वह किसी भी कथित धर्म प्रचारक के मुख से अच्छी बातें सुनकर उसे संत या सन्यासी
मानने लगता है। इसी कारण अनेक लोग ज्ञान
के व्यवसायिक प्रचारकों को ही गुरु मानने लगते हैं। हमारे अध्यात्मिक दर्शन के
अनुसार ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है वरन् उसे धारण कर जीवन में उतारना ही पूर्ण
ज्ञानी होने का प्रमाण होता है।
इस बात को अनेक लोग नहीं समझते और
ज्ञान की बातें सुनाने वालों को संत कहने लगते हैं। यही कारण है कि अनेक लोगों ने
धर्म के नाम पर हमारे देश में अपना व्यापार चला रखा है। इन लोगों में धन कमाने की प्रवृत्तियां किसी
सामान्य मनुष्य से अधिक खतरनाक ढंग से विद्यमान देखी जाती है।
मनस्मृति में कहा गया है कि
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अकर्मशीलं च महाशनं च लोकद्विष्टं महुमायं नृशंसम्।
अदेशकालज्ञमनिष्टवेषमेतान् गृहे न प्रतिवासयेत्।।
हिन्दी में भावार्थ-अकर्मण्य,
अधिक भोजन करने वाले, सबसे बैर बांधने वाले, मायावी, क्रूर, देशकाल का ज्ञान
न रखने वाले, निन्दित वेश धारण
वाले मनुष्यों को कभी अपनी घर में नहीं ठहराये।
संक्लिष्टकर्माणमतिप्रमादं नित्यानृतं चाटृढभक्तिकं च।
विसृष्टरागं पटमानिन्र चाप्येतान् न सेवेत नराधमान्
षट्।।
हिन्दी में भावार्थ-क्लेश करने वाला, अत्यंत प्रमादी, झूठ बोलने वाला, अस्थिर भक्ति वाला, स्नेह से रहित तथा अपने को ही चतुर मानने वाला,
यह छह प्रकार के लोग अधम माने जाते हैं।
इनकी सेवा कतई न करें।
कभी कभी तो यह लगता है कि धर्म के नाम पर व्यापार चलाने वाले उतने ही
खतरनाक है जितना अफीम बेचने वाले लोग होते हैं।
हमने देखा है कि मादक द्रव्य बेचने में लगे लोग अपने ही स्वाजातीय
व्यवसायियों के विरुद्ध हिंसक गतिविधियां करते हैं। ऐसे ही धर्म व्यवसायियों के
कारण प्रसिद्ध अर्थशास्त्री कार्ल मार्क्स से धर्म को अफीम कहा था। हम उसके कथित अर्थशास्त्र के सिद्धांतों से
सहमत हों या न हों पर भारत के संदर्भ में उसका धर्म को अफीम मानने का सिद्धांत
एकदम सही लगता है। अनेक बार तो ऐसा लगता
है कि धर्म का व्यापार करने वाले यह लोग अधर्म की राह पर चलते हुए शक्ति, संपत्ति तथा शिष्य संग्रह कर अपनी ताकत इसलिये
बढ़ाते हैं ताकि राजकीय संस्थाओं पर प्रभाव जमाया जा सके। ऐसे लोगों की सेवा करना या उनकी भक्ति में लगे
रहने से मन के कलुषित होने का भय रहता है।
हमारे यहां कहा भी जाता है कि भक्ति भगवान की करो किसी बंदे को भजना ठीक
नहीं है। कथित गुरुओं की व्यवसायिक चालाकियों के चलते अनेक लोग फंस कर भगवान की
बजाय अपने कथित गुरुओं को ही भगवान मानने
लगते हैं। जब उनको अपने गुरु की असलियत पता चलती है तो उनके अंदर निराशा और तनाव
का ज्वार उठने लगता है। अनेक कथित गुरु अपने सत्संग में चुटकुले और अपनी कल्पित
कहानियां सुनाकर हास्य का भाव भी पैदा करते हैं। अपने शिष्य समुदाय को बनाये रखने
के लिये अनेक प्रकार के स्वांग भी रचते हैं।
कहना चाहिये कि वह धर्म के नाम पर अभिनय करते हैं। जब पोल खुलती है तब शिष्य
अपने को एक अंधेरे कुंऐं में गिरा अनुभव करते हैं।
जिन लोगों के अंदर अध्यात्मिक ज्ञान की ललक है उनको गुरु ढूंढने की बजाय
अपने ही अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिये। हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार कोई भोग कभी
किसी का उद्धार नहीं कर सकता। यह शक्ति केवल त्यागी भाव के गुरु में ही संभव है
जिसकी पहचान यह होती है कि वह जहां खड़ा हो जाये वहीं आश्रम लगने लगे। जब बोले तो
लगे कि अमृतवाणी प्रवाहित हो रही है। वह संपत्ति और शिष्य संचय की बजाय सर्वजन
हिताय के भाव से समाज में सलंग्न रहता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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