पूरे विश्व में उपभोग संस्कृति का प्रभाव बढ़
रहा है। धार्मिक गुरु तथा समाज चिंत्तक भले ही अपने समाजों के सांस्कृतिक, धार्मिक तथा श्रेष्ठ होने का दावा भले करें पर
सच यह है कि अध्यात्मिक दृष्टि से लोगों की चेतना का एक तरह से हरण हो गया
है। स्थिति यह हो गयाी है कि विषयों
में अधिक लोग इस तरह लिप्त हो गये हैं कि
उनकी वजह से जो दैहिक, मानसिक
तथा शारीरिक विकार पैदा हो रहे हैं उनका आंकलन कोई नहीं कर रहा। अनेक लोगों के पास ढेर सारा धन है पर उनका पाचन
क्रिया तंत्र ध्वस्त हो गया है। महंगी
दवाईयां उनकी सहायक बन रही हैं। दूसरी बात यह है कि जिसके पास धन है वह स्वतः कभी
किसी अभियान पर दैहिक तथा मानसिक बीमारी के कारण समाज का सहयोग नहीं कर सकता। उसके
पास देने के लिये बस धन होता है। जहां समाज को शारीरिक तथा मानसिक सहायता की
आवश्यकता होती है वह मध्यम तथा निम्न वर्ग का आदमी ही काम आ सकता है।
अनेक लोग धन के मद में ऐसे वस्त्र पहनते हैं
जो उनकी छवि के अनुरूप नहीं होते। उसी तरह औषधियों का निरंतर सेवन करने से उनकी रोगप्रतिरोधक क्षमता का हृास हो जाता है।
यहां तक कि अनेक लोगों को सामान्य जल भी बैरी हो जाता है। अनेक बीमारियों में चिकित्सक
कम पानी पीने की सलाह देते हैं। अधिक
दवाईयों का सेवन भी उनके लिये एक तरह से दुर्योग बन जाता है।
संत तुलसीदास कहते हैं कि---------------ग्रह भेषज जल पवन पट, पाइ कुजोग सुजोग।होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग, लखहिं सुलच्छन लोग।।सामान्य हिन्दी में भावार्थ-ग्रह, वेशभूषा, पानी, वायु तथा औषधि समय अनुसार दुर्योग तथा संयोग बनाते हैं।जो जो जेहि जेहि रस मगन, तहं सो मुदित मन मानिरसगुन दोष बिचारियो, रसिक रीति पहिचानि।।सामान्य हिन्दी में भावार्थ-प्रत्येक मनुष्य अपने स्वभाव के अनुसार संसार के विषयों के रस में मग्न रहता है। उसे उसके रस के दोषों के प्रभाव को नहीं जानते। इसके विपरीत ज्ञानी लोग रसों के गुण दोष को पहचानते हुए ही आनंद उठाते है। एक तरह से ज्ञानी ही सच्चे रसिक होते हैं।
जिन लोगों की भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में रुचि है वह जानते हैं कि हर विषय के उपभोग की सीमा होती है। अति हमेंशा वर्जित मानी जाती है। योग और ज्ञान साधना का नियमित अभ्यास करने वाले जानते हैं कि सांसरिक विषयों में जब अमृत का आभास होता है तो बाद में परिवर्तित होकर विष बन जाते हैं जिसे योग तथा ज्ञान साधना से ही नष्ट किया जा सकता है। यही कारण है कि जब विश्व में उपभोग संस्कृति से जो दैहिक, मानसिक तथा वैचारिक विकारों का प्रभाव बढ़ा है तब भारतीय योग साधना तथा श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों की चर्चा हो रही है क्योंकि अमृत से विष बने सांसरिक विषयों के रस को जला देने की कला इन्हीं में वर्णित है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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