मनुष्य जीवन में सभी के सामने
अनेक प्रकार के अन्य मनुष्य, विषय
तथा प्रसंग आते हैं। जब हमें किसी के
समक्ष अपनी बात कहनी है तो पहले उसके व्यक्तित्व का मापतौल करना चाहिये। किसी भी
व्यक्ति की प्रकृत्ति, विचार,
छवि तथा गुणों को ध्यान में रखते हुए
व्यवहार करना चाहिये। सामान्यतः लोग अपनी
बात कहने के लिये आतुर रहते हैं पर उनको इसका ज्ञान नहीं रहता कि किसके समक्ष
कौनसी बात किस प्रकार कहना चाहिये। कहना
भी चाहिये कि नहीं! साथ ही जब हम किसी
दूसरे व्यक्ति से व्यवहार करते हैं तो यह नहीं
देखते कि उसकी योग्यता और आचरण किस
योग्य है?
हम जीवन में दूसरे लोगों से
अपेक्षाऐं करते हैं तो दूसरे भी हमसे अपनी अर्थपूर्ति के लिये अपनी दृष्टि रखा
करते हैं। आमतौर से लोग राजसी कर्म के
लिये राजसी बुद्धि से एकदूसरे के समक्ष प्रस्तुत होते हैं। ऐसे में सात्विक व्यवहार की अपेक्षा न तो दूसरे
से करें न ही अनावश्यक रूप से स्वयं को धर्मभीरु प्रमाणित करने का प्रयास करना
चाहिये। सच बात तो यह है कि मनुष्य समाज
में अधिकतर लोग आत्ममुग्ध होकर रहते हैं। वह सोचते हैं कि जैसे हम अच्छे या बुरे
हैं वैसे ही दूसरे भी हैं। यही कारण कि
अधिकतर लोग हमेशा यह शिकायत करते फिरते हैं कि हमारे साथ दूसरे धोखा करते हैं।
दार्शनिक तथा चिंत्तक चाणक्य महाराज का कहना है कि
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लुब्धमर्थेन गृह्णीयात् स्तब्धमञ्जलिकर्मणा।
मूर्खं छन्दोऽनृवृत्तेन यथार्थत्वेन पण्डितम्।।
हिन्दी में भावार्थ-लोभी को धन, अभिमानी को विनम्रता, मूर्ख को इच्छापूर्ति और विद्वान को सत्य से जीता जा सकता है।
हम अगर जीवन में मानवीय
स्वभाव के मूल तत्व को समझ लें तो न कभी धोखा होगा न हृदय में निराशा को स्थान
मिलेगा। जिन लोगों से हम अर्थलाभ की अपेक्षा करते हैं उन्हें अर्थ देकर ही संतुष्ट
किया जा सकता है। धन, पद तथा बाहुबल का अहंकार मनुष्य में न हो यह
अस्वाभाविक बात है इसलिये अपने से अधिक योग्य व्यक्ति के साथ विनम्रता का व्यवहार
करना ही लाभदायक रहता है। मूर्ख लोगों का काम ही दूसरों के काम में बाधा डालना है अतः संभव हो तो उनकी इच्छा
पूर्ति कर अपना पीछा छुड़ायें। महत्वपूर्ण
बात यह है कि जब हमें किसी से किसी विषय पर बौद्धिक सहायता लेनी हो तो उसे सच
बताना चाहिये।
अपने सर्वज्ञ होने का भ्रम
कभी नहीं पालना चाहिये। न ही यह मानना
चाहिये कि हम स्वयं शक्तिशाली हैं या फिर शक्तिशाली लोगों से संपर्क है तो कोई
हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। जब हमारी
इंद्रियां बाहर सक्रिय हों तो यह भी विचार करना चाहिये कि वह अनुकूल विषय, वस्तु या व्यक्ति से संपर्क कर रही हैं या
प्रतिकूलता का पीछा कर रही हैं। प्रतिकूल
होने पर वह मनुष्य को भारी संकट में डाल देती हैं। इसलिये बोलते या काम करते समय
सारी स्थिति पर विचार करना चाहिये।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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