हमारे देश में धर्म पर व्याख्यान करना भी
एक तरह से पेशा रहा है। यह अलग बात है कि कथित धर्म प्रचारक कभी प्रत्यक्ष रूप से
अपने परिश्रम का प्रतिफल शुल्क या मूल्य के रूप में नहीं लेते देखे गये पर दान दक्षिणा के नाम पर उन्हें इतना मिल जाता
है कि वह अपना घर चला ही लेते हैं। अब तो यह देखा जा रहा है कि धार्मिक संगठनों के
प्रमुख किसी पूंजीपति से कम नहीं रह
गये। दवा, कपड़े खानेपीने
का सामान तथा पूजा सामग्री बेचने के अलावा अनेक धार्मिक संगठन तीर्थयात्राओं का भी
इंतजाम करने लगे हैं। अनेक धार्मिक प्रमुखों के आश्रम राजमहल की तरह हैं तो उनके
शिष्यों के आवास भी होटल से कम नहीं होते।
हम जिस धर्म को आचरण में लाने पर प्रमाणिक
मानते हैं वही वस्तुओं के विक्रय तथा अनेक सेवाओं के लिये एक विज्ञापन की छाप बन
गया है। एक तरह से बाज़ार स्वामियों का एक
बहुत बड़ा भाग धर्म की आड़ लेकर व्यापार कर रहा है। यही कारण है कि ऐसा लगता है जैसे
हमारा पूरा देश ही धर्ममय हो रहा है पर इधर यह भी दिखाई देता है कि समाज में नैतिक आचरण भी निरंतर पतन की तरफ जा रहा है।
आर्थिक विकास दृष्टि से हम जहां आगे जा रहा है वहीं मानसिक रूप से हमारा समाज पिछड़
रहा है।
कविवर रहीम कहते हैं कि-----------रहिमन जो तुम कहत थे, संगति ही गुन होय।बीच उखारी रसभरा, रस काहै न होय।।सरल हिन्दी में व्याख्या-यह कहना गलत है कि सत्संग का असर मनुष्य पर सदैव अच्छा होता है। ईख के खेत में उगन वाला रसभरा पौधा कभी रस से नहीं होता है।
कहने का अभिप्राय यह है कि हम भौतिक
विषयों पर किसी एक सूत्र के आधार पर निर्णय नहीं कर सकते क्योंकि मनुष्य देह जहां
प्रत्यक्ष दिखती है वहीं उसमें बैठा मन कभी दिखाई नहीं देता जो कि बंदर की तरह
नाचता और नचाता है। मनुष्य मन को धर्म के नाम पर सहजता से भरमाया जा सकता है। वह
कब किसी तरह गुलाटी मारेगा इसका कोई तयशुदा सूत्र नहीं है। यही कारण है कि जहां
हमारे देश के ऋषि मुनि समाज को हमेशा ही अन्धविश्वास से दूर रहने की प्रेरणा देते रहे हैं वहीं चालाक
लोगों का एक वर्ग कर्मकांडों से समाज को स्वर्ग दिलाने की आड़ में भ्रमित करता रहा
है। आधुनिक समय में पैसे का खेल इस कदर हो
गया है कि अनेक प्रकार के आकर्षक धार्मिक स्थान बन गये हैं जो जहां लोग श्रद्धा से
कम पर्यटन करने अधिक जाते हैं। अनेक
पर्यटन स्थल तो सर्वशक्तिमान की दरबारों की वजह से ही प्रसिद्ध हैं। वहां भारी भीड़
जुटती है। करोड़ों का चढ़ावा आता है। आने
वाले सभी लोगों को श्रद्धालू और दानी माने तो हमारा पूरा समाज देवत्व का प्रमाण
माना जाना चाहिये पर ऐसा है नहीं। देश में व्याप्त भ्रष्टाचारशोषण, महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराध, नशेबाजी और सट्टेबाजी को देखें तब लगता है
कि यहां असुरों की संख्या भी कम नहीं है।
कहने का अभिप्राय यह है कि कथित रूप से
धर्म की संगत करने का कोई लाभ तब तक नहीं होता जब तक अपनी नीयत साफ न हो। श्रद्धा
के बिना सत्संग में जाने से मन में विचार स्वच्छ नहीं होते और इसके अभाव में
मनुष्य का व्यवहार अच्छा नहीं होता।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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