हमारे
देश भारत में जैसे जैसे आर्थिक विकास बढ़ता गया है वैसे ही लोगों में धार्मिक प्रवृत्ति
के प्रति अधिक रुझान भी देखा जा रहा है। सबसे
महत्वपूर्ण बात यह कि कथित रूप से धर्म प्रचार करने वाले न केवल लोगों से चंदा और दान
लेते हैं वरन् अपने ज्ञान सुनाने के लिये आधुनिक महंगे तथा अत्यंत तकनीकी साधनों का
भरपूर उपयोग भी करते हैं। सबसे बड़ा ज्ञानी
वही है जिसके पास धन है। सबसे प्रभावशाली वह माना जाता है जिसके चरण कमल उच्च पद पर
स्थित हैं। सबसे शक्तिशाली वही है जो अपने
बाहुबल का उपयोग कमजोर को दबाने के लिये करता है।
कभी कभी तो यह लगता है कि आधुनिक सभ्यता में शीर्ष पर पहुंचे लोग भौतिक रूप
से तो जितने शक्तिशाली हो गये हैं उतने ही मानसिक रूप से कमजोर हुए हैं। उनका पूरा श्रम, समय तथा चिंत्तन अपनी स्थिति
बनाये रखने तक ही सिमट गया है। यही कारण है
कि सामाजिक रूप से बदलाव की बातें सभी करते हैं पर उनके शब्द महत्वहीन ही रहते हैं।
यह शक्तिशीली शीर्ष पुरुष समाज के हित का दिखावा केवल इसलिये करते हैं ताकि उनके विरुद्ध
लोगों में मन वैमनस्य का भाव बढ़ न जाये।
संत कबीर दास ने कहा है कि--------------------
अहिरन की चोरी करै, करे सुई का का दान
ऊंचा चढि़ कर देखता, केतिक दूर विमान
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य अपने जीवन में तमाम तरह के अपराध और चालाकियां कर धन कमाता है पर उसके अनुपात में नगण्य धन दान कर अपने मन में प्रसन्न होते हुए फिर आसमान की ओर दृष्टिपात करता है कि उसको स्वर्ग में ले जाने वाला विमान अभी कितनी दूरी पर रह गया है।
आंखि न देखि बावरा, शब्द सुनै नहिं कान
सिर के केस उज्जल भये, अबहुं निपट अजान
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं आंखों से देख नहीं पाता, कानों से शब्द दूर ही रह जाते हैं और सिर के बाल सफेद होने के बावजूद भी मनुष्य अज्ञानी रह जाता है साथ ही माया के जाल में फंसा रहता है।
हमारे देश आधुनिक
समय में अंग्रेजों की सृजित अर्थ, राजकीय, शैक्षिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक
व्यवस्था पद्धति का अनुकरण कर रहा है उसके ही एक प्रमुख विद्वान का मानना है कि कोई भी धनी नहीं बन सकता है-ऐसा मानने वाले बहुत
हैं तो हम स्वयं देख भी सकते हैं। धनी
होने के बाद समाज में प्रतिष्ठा पाने के मोह से
लोग
दान करते हैं। कहीं मंदिर में घंटा चढ़ाकर, पंखे
या कूलर लगवाकर या बैंच बनवाकर उस पर अपना नाम
खुदवाते हैं। एक तीर से दो शिकार-दान भी हो गया
और
नाम भी हो गया। फिर मान लेते हैं कि उनको स्वर्ग का टिकट मिल गया। यह दान कोई सामान्य वर्ग के व्यक्ति नहीं कर पाते बल्कि जिनके पास
तमाम तरह के छल कपट और चालाकियों से अर्जित
माया का भंडार है वही करते हैं। उन्होंने इतना
धन कमाया होता है कि उसकी गिनती वह स्वयं नहीं कर पाते। अगर वह इस तरह अपने नाम प्रचारित करते हुए दान न करें तो समाज में उनका कोई
नाम भी न पहचाने। कई धनपतियों ने अपने
मंदिरों के नाम पर ट्रस्ट बनाये हैं। वह मंदिर
उनकी
निजी संपत्ति होते हैं और वहां कोई इस दावे के साथ प्रविष्ट नहीं हो सकता कि वह सार्वजनिक मंदिर है। इस तरह उनके और कुल का नाम भी
दानियों में शुमार हो जाता है और जेब से भी
पैसा नहीं जाता। वहां भक्तों का चढ़ावा आता है
सो अलग। ऐसे लोग हमेशा इस भ्रम में जीते हैं कि उनको स्वर्ग मिल जायेगा।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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