मनुष्य भोजन, आवास तथा वस्त्र
प्राप्त करने के बाद भी संग्रह करता है जबकि पशु पक्षी तथा अन्य जीव अपनी आवश्यकता
पूरी होने पर शांत होकर विश्राम करते हैं। मनुष्य जहां के मन की भूख कभी शांत नहीं
होती। इतना ही नहीं जब माया का प्रभाव उस पर बढ़ जाये तो वह भोजन तक आराम से नहीं
करता। कहा जाता है कि जब भोजन करें तो मन
शांत रखें पर मनुष्य खुशी हो या दुःख अपने मन के भावों को भोजन के वक्त भी जाग्रत
रखता है। आमतौर से ज्ञान तािा योग साधक
भोजन को औषधि की तरह ग्रहण करते हैं पर सामान्य मनुष्य भोजन के पेट भरने के साथ
जीभ के स्वाद की तृप्ति भी करना चाहते हैं। आजकल तो जीभ के स्वाद के लिये ऐसे
पदार्थों को उदरस्थ कर रहे हैं जो न केवल अपाचक हैं वरन् स्वास्थ के लिये हानिकारक
भी होते हैं।
मनु स्मृति में कहा गया है कि
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पूजयेदशनं नित्यमद्याच्चैतदकुत्सन्।
दृष्टया हृध्येत्प्रसींदेच्च प्रतिनदेच्य सर्वेशः।
दृष्टया हृध्येत्प्रसींदेच्च प्रतिनदेच्य सर्वेशः।
हिंदी में भावार्थ-थाली में सजकर जैसा भी भोजन प्राप्त हो उसे देखकर अपने मन में प्रसन्नता का भाव लाना चाहिये। ऐसा अच्छा भोजन हमेशा प्राप्त हो यह कामना हृदय में करना चाहिए।
अनारोगयमन्तयुरूयमस्वगर्यं चारिभोजनम्।
अपुण्यं लोकविद्विष्टं तस्मात्त्परिर्जयेत्।।
अपुण्यं लोकविद्विष्टं तस्मात्त्परिर्जयेत्।।
हिंदी में भावार्थ- भूख से अधिक भोजन करने से देह के लिये अस्वास्थ्यकर है। इससे आयु कम होने के साथ ही पुण्य का भी नाश होता है। दूसरे लोग अधिक खाने वाले की निंदा करते या मजाक उड़ाते हैं।
जब सामने
थाली में भोजन आता है तो उसे देखकर हमारे मन में कोई न कोई भाव अवश्य आता है। सब्जी
मनपंसद हो तो अच्छा लगता है और न हो तो निराशा घेर लेती है। भोजन पसंद का न होने पर परोसने वाला कोई बाहर
का आदमी हो तो हम उससे कुछ नहीं कहते पर मन में उपजा वितृष्णा का भाव उस भोजन से मिलने वाले अमृत को विष तो बना ही
देता है। घर
का आदमी या पुरुष हो तो हम उसे डांटफटकार देते हैं और इससे उसी भोजन को विषप्रद बना
देते हैं जो अमृत देने वाला होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि मन के भावों से
भोजन से मिलने वाली ऊर्जा का स्वरूप निर्धारित होता है।
भोजन खाते समय केवल उसी पर ध्यान रखना चाहिये।
न तो उस समय किसी से बात करना चाहिये और न ही मन में अन्य विचार लाना चाहिये। इससे भोजन सुपाच्य हो
जाता है। चिकित्साविज्ञान ने अब इस बात की पुष्टि
कर दी है कि भोजन करते समय तनाव रहित व्यक्ति विकार रहित भी हो जाते हैं।
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संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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