जिनकी प्रवृत्ति अपराधिक है उनसे तो यह भी
अपेक्षा की ही नहीं जा सकती कि पर कभी कभी सामान्य मनुष्य भी अपराध कर बैठत है और
फिर परेशान होता है। इससे बचने का एक ही उपाय है अपने अपराध की सार्वजनिक रूप से
हृदय से स्वीकृत्ति की जाये। यह बात सामान्य मनुष्य के लिये कही जा रही है जो
जघन्य अपराध नहीं करते वरन् ऐसे कर्म कर बैठते हैं जो नैतिक रूप से अनुचित होते
हैं। झूठ बोलना, परनिंदा तथा
धोखा देने जैसे पाप शायद ही कोई ऐसा सामान्य मनुष्य हो जो कभी नहीं करता है। फिर
उसे पीड़ा भी बहुत होती है। अनेक लोग तो ऐसे है जिन्हें कर्म करते समय उसके
पापपूर्ण होने का अहसास नहीं होता पर बाद में वह पछताते हैं पर वह उसके प्रायश्चित
का उपाय नहीं करते।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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ख्यायनेनानुतायेन तपसाऽध्ययनेन च।
पापकृन्मुच्यते पापतथा दानेन चापदि।।
हिन्दी
में भावार्थ-पापी व्यक्ति
अपने दुष्कर्म का सत्य लोगों को बताकर, पश्चाताप कर, तप तथा
स्वाध्याय कर मुक्ति पा सकता है। संकट की घड़ी में तप तथा स्वध्याय न करे तो दान
करने से भी वह शुद्ध हो जाता है।
यथा यथा नरोऽधर्म स्वयं कृत्याऽनुभाषते।
तथा तथा त्वचेवाहिस्तेनाधर्मेण मुच्यते।।
हिन्दी
में भावार्थ-अपने अपराध की
स्वीकृति दूसरों के सामने करने पर आदमी पाप से मुक्त हो जाता है।
अनेक भावुक लोग तो छोटी गलती कर ही मन ही मन
पछताते हैं। इतना कि अपना पूरा जीवन ही तनावपूर्ण बना डालते हैं। इससे बचने का एक
उपाय है तो यह है कि किसी दूसरे के सामने अतिशीघ्र अपनी गलती का बखान कर मन हलका
करें अथवा हृदय में पछतावा करने के साथ ही यह बात भी तय करना चाहिये कि ऐसी गलती
दोबारा नहीं करनी है। दूसरा यह कि कहीं
ध्यान लगाकर परमात्मा का स्मरण कर उसे अपनी गलती समर्पित करें अथवा धार्मिक ग्रंथ
का अध्ययन कर अपना मन मजबूत करें। इसका अवसर न मिले तो फिर किसी सुपात्र को कोई
वस्तु या धन देकर मन की शुद्धि करें।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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