साधु कभी राजा नहीं बनता, राजा कभी साधु न बने,
पद का मद ही
गहना है साधुता में चबाने होते लोहे के चने।
कहें दीपक बापू कहीं तख्त बदले कहीे ताज पहनने वाले
सिर,
हुकुमतों के लिये
कत्लेआम हुए कोई चढा़ तख्त कोई गया गिर,
गरीबों ने हमेशा ढूंढा आसरा मिला कभी न कोई सरताज,
बने कहार बहुत बादशाहों के जो फिर झपटे उन पर बनकर बाज,
ढोये मेहनतकशों ने
सड़क से तख्त तक बोझ मानकर जिनको सिद्ध,
शाही ताश में हुक्म के इक्के की तरह रहे साथ लाये
मांसखोर गिद्ध।
बेबस के आसरे की उम्मीद हमेशा कफन में लिपटती रही
दौलतमंद और ताकतवर लोगों की रही बात आगे जो उन्होंने
कहीं।
मजबूरों के लिये नारे लगाती भीड़ नीचे ऊपर बेईमानों के
शमियाने तने,
राजप्रसाद से
भाग चाहें वह लोग बेईमानी से जिनके हाथ कुछ कम सने।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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