इस संसार में मनुष्य के जीवन
में क्लेश और प्रसन्नता दोनों ही प्रकार के संयोग बनते बिगड़ते हैं। यह अलग बात है
कि सामान्य मनुष्य सुख का समय आने पर सब कुछ भूल जाता है पर जब दुःख का समय आता है
तब वह सहायता के लिये इधर उधर ताकता रहता है। क्लेश के समय वह विचलित होता है पर
जिन लोगों को योग तथा ज्ञान का अभ्यास निरंतर हो उन्हे कभी भी इस बात की परवाह
नहीं होती कि उसका समय अच्छा चल रहा है या बुरा, बल्कि वह हर हालत में सहज बने रहते हैं।
हमारे देश में पेशेवर योग
शिक्षकों ने प्राणायाम तथा योगासनों का प्रचार खूब किया है जिसके लिये वह प्रशंसा
के पात्र भी हैं पर ध्यान के प्रति आज भी लोगों में इतना ज्ञान नहीं है जितनी
अपेक्षा की जाती है। यह ध्यान ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति होती है जो कि मनुष्य
के उस मन पर नियंत्रण करने में सहायक होती है जो प्रत्यक्ष उसकी देह का स्वामी
होता है। हमारे दर्शन के अनुसार अध्यात्म
या आत्मा मनुष्य की देह का वास्तविक स्वामी होता है और योग विद्या से अपनी
इंद्रियों का उससे संयोग कर जीवन को समझा जा सकता है। योगाभ्यास में ध्यान विद्या
में पारंगत होने पर ही समाधि के चरम स्तर तक पहुंचा जा सकता है।
पतंजलि योग साहित्य मे कहा गया है कि
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ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः।
हिन्दी में भावार्थ-सूक्ष्मवस्था को प्राप्त क्लेश चित्त को अपने कारण में विलीन करने के साधन से नष्ट करना चाहिये।
ध्यानहेयास्तदूवृत्तयः।
हिन्दी में भावार्थ-उन क्लेशों की वृत्तियां ध्यान से नाश करने योग्य हैं।
जहां आसन और प्राणायाम प्रातः
किये जाते हैं वहीं ध्यान कहीं भी कभी भी
लगाया जा सकता है। जहां अवसर मिले वहीं अपनी बाह्य चक्षुओं को विराम देकर अपनी
दृष्टि भृकुटि पर केंद्रित करना चाहिये।
प्रारंभ में सांसरिक विषय मस्तिष्क में विचरण करते हैं तब ऐसा लगता है कि
हमारा ध्यान नहीं लग रहा पर धीरे धीरे इस बात का अनुभव होता है कि उन विषयों का
विष वहां जलकर नष्ट हो रहा है। जिस तरह हम
करेला खायें या मिठाई, हमारे उदर
में वह कचड़े के रूप में परिवर्तित होता है।
उसी तरह कोई विषय प्रसन्नता देने वाला हो या क्लेश उत्पन्न करने वाला,
वह अंतर्मन में विष ही पैदा करता है। यह
विष कोई भौतिक रूप से नहीं होता इसलिये उसे ध्यान
से ही जलाकर नष्ट किया जा सकता है।
हम विचार करें तो ध्यान के दौरान भी मनुष्य दैहिक अंगों की सक्रियता नहीं
होती। ध्यान अभौतिक या मानसिक स्थिति है। विषयों से संसर्ग उत्पन्न विष ध्यान के
माध्यम से जब नष्ट हो जाता है उसके बाद मनुष्य को यह सुखद अनुभूति होने लगती
है उसकी देह एकदम हल्की हो गयी है और वह
जैसे उड़ रहा है। मस्तिष्क की नसों में एक ऐसे सुख का आभास होता है जिसे शब्दों में
वर्णन करने की बजाय मनुष्य उसे अनुभव करते रहने में ही आनंद अनुभव करता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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