हुताश्नो जलं व्याधिर्दुभिक्षो मरकस्तया।
इति पंवविंधं दैव व्यसनं मानुषं परम्।।
हिन्दी में भावार्थ-अग्नि, जल, व्याधि,अकाल तथा मौत यह पांच तो भाग्य से निर्मित होकर मनुष्य को पीडा़ देते हैं पर व्यसन करना उसका निजी दोष है।
इति पंवविंधं दैव व्यसनं मानुषं परम्।।
हिन्दी में भावार्थ-अग्नि, जल, व्याधि,अकाल तथा मौत यह पांच तो भाग्य से निर्मित होकर मनुष्य को पीडा़ देते हैं पर व्यसन करना उसका निजी दोष है।
दैवं पुरुष्कारेण शान्तया चं प्रशमन्नयत्
उत्थायित्वेन नीत्या च मानुषं कार्यतत्ववित्।।
हिन्दी में भावार्थ-अपने भाग्य से उत्पन्न पीड़ा को शांति कर्म और यज्ञ से अनुकूल करें और व्यसनों से उत्पन्न पीड़ा का उनका त्याग कर निवारण करें।
उत्थायित्वेन नीत्या च मानुषं कार्यतत्ववित्।।
हिन्दी में भावार्थ-अपने भाग्य से उत्पन्न पीड़ा को शांति कर्म और यज्ञ से अनुकूल करें और व्यसनों से उत्पन्न पीड़ा का उनका त्याग कर निवारण करें।
वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या- दैहिक जीवन में कुछ संकट तो भाग्य से आते हैं और कुछ के लिये मनुष्य स्वयं जिम्मेदार होता है। भाग्य से उत्पन्न संकट के समय मनुष्य अपने मन और मस्तिष्क को शांत होकर उनका सामना करना चाहिये। उस समय भगवान का स्मरण या यज्ञ आदि कर समय निकालने का प्रयास करना ही श्रेयस्कर है क्योंकि उन पर मनुष्य का बस नहीं होता। अलबत्ता अपने व्यसनों के कारण भी मनुष्य अनेक प्रकार की पीड़ायें झेलता है। उनसे निपटने का एक ही उपाय है कि उनका त्याग किया जाये। कहते हैं कि शराब पीने से लीवर खराब होता है। लीवर खराब होने पर कितनी भी दवायें ली जायें पर शराब का सेवन नियमित रखें तो भी ठीक नहीं हो सकते और अगर शराब छोड़ दें तो दवा न लेने पर भी स्वास्थ्य की वापसी हो जाती है।
पश्चिमी स्वास्थ्य विशेषज्ञ भी कहते हैं कि किसी वस्तु के उपभोग या सेवन अगर शरीर में व्याधि पैदा होती है तो उसका त्याग करने पर चली भी जाती है। कहने का अभिप्राय यह है कि भाग्य से उत्पन्न संकट का निवारण हृदय में निर्मलता का भाव लाकर भक्ति करने से किया जा सकता है तो जिन संकटों के लिये हमारा कर्म जिम्मेदार है उनसे बचने के लिये उसका त्याग करना ही बेहतर है।
----------------------संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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