शब्दार्थप्रत्ययानामितोसराध्यासात् संक्रस्तत्प्रविभागसंयमात् सर्वभूतरुतज्ञानम्
हिन्दी में भावार्थ-शब्द, अर्थ और ज्ञान का निरंतर अभ्यास हो जाने के कारण मिश्रण होता है। उसके विभाग में संयम करने संपूर्ण प्राणियों के वाणी का ज्ञान हो जाता है।
हिन्दी में भावार्थ-शब्द, अर्थ और ज्ञान का निरंतर अभ्यास हो जाने के कारण मिश्रण होता है। उसके विभाग में संयम करने संपूर्ण प्राणियों के वाणी का ज्ञान हो जाता है।
संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम्।
हिन्दी में भावार्थ-संयम से अपने संस्कारों का साक्षात्कार करने पर पूर्वजन्म का ज्ञान हो जाता है।
हिन्दी में भावार्थ-संयम से अपने संस्कारों का साक्षात्कार करने पर पूर्वजन्म का ज्ञान हो जाता है।
प्रत्ययस्य परचित्तज्ञानम्।
हिन्दी में भावार्थ-संयम से दूसरे के चित्त का साक्षात्कार करने पर उसके चित्त का ज्ञान हो जाता है।
हिन्दी में भावार्थ-संयम से दूसरे के चित्त का साक्षात्कार करने पर उसके चित्त का ज्ञान हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-योग साधना से मनुष्य अंतर्मुखी हो जाता है उस समय उसकी आंतरिक इंद्रियां अत्यंत शक्तिशाली हो जाती हैं। तब उसे संसार का रहस्य बहुत अच्छी तरह से समझ में आता है। दरअसल योगासन और प्राणायाम से देह और मन के विकार अवश्य दूर होते हैं पर जो साधक उसके बावजूद संयम नहीं रखते उनको ज्ञान प्राप्त नहीं हो पाता।
आजकल कतिपय व्यवसायिक योग शिक्षक समाज में फैले दैहिक तथा मानसिक तनाव से मुक्ति के लिये योगसाधना तथा प्राणायाम अवश्य सिखाते हैं पर उनको पतंजलि योग दर्शन का पूर्ण ज्ञान नहीं है। उन्होंने योग साधना को एक शारीरिक व्यायाम की तरह बना दिया है। योगासन और प्राणायम तो पंतजलि योग दर्शन के हिस्सा भर हैं।
पतंजलि योग दर्शन के अनुसार मनुष्य को सदैव संयम बरतना चाहिये। अंतर्मुखी होकर इस संसार का चिंतन करना चाहिये। अपने आसपास के वातावरण, वस्तुओं तथा व्यक्तियों के बारे में विचार करना चाहिये। ऐसा करते हुए किसी प्रकार का पूर्वाग्रह हृदय में न पालते हुए निरपेक्ष भाव रखना ही अच्छा है। जब संयम पूर्वक सभी विषयों पर विचार करेंगे तो अनेक बातें स्वयमेव हमारे दिमाग में आयेंगी। तब अपने समक्ष उपस्थित विषय पर निष्कर्ष निकालने में सुविधा होगी। इसके लिये जरूरी है कि अपने मस्तिष्क और इंद्रियों में हमेशा संयम रखा जाये। क्रोध या निराशा में आकर कोई न तो निर्णय करना चाहिये और न ही कोई कार्य प्रारंभ करना अच्छा है। शांत चित्त होकर एक दृष्टा की तरह इस संसार की गतिविधियां देखने से वैचारिक सिद्धि मिल जाती है।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorhttp://deepkraj.blogspot.com
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