‘चिंता ता की कीजीअै जो अनहोनी होइ।’
इहु मारगु संसार को नानक थिरु नहीं कोइ।।
हिन्दी में भावार्थ-चिंता तो उस घटना की करना जो अनहोनी हो। इस संसार में तो सभी कुछ स्वाभाविक रूप घटता रहता है और यहां कुछ भी स्थिर नहीं है।
इहु मारगु संसार को नानक थिरु नहीं कोइ।।
हिन्दी में भावार्थ-चिंता तो उस घटना की करना जो अनहोनी हो। इस संसार में तो सभी कुछ स्वाभाविक रूप घटता रहता है और यहां कुछ भी स्थिर नहीं है।
‘सहस सिआणपा लख होहि त इ न चलै नालि।’
हिन्दी में भावार्थ-गुरुवाणी के अनुसार मनुष्य चाहे लाख चतुराईयां कर ले उसके साथ एक भी नहीं जाती।
हिन्दी में भावार्थ-गुरुवाणी के अनुसार मनुष्य चाहे लाख चतुराईयां कर ले उसके साथ एक भी नहीं जाती।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर हम दृष्टा की तरह अपने जीवन को देखें तो सारे संसार में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं दिखाई देता। श्रीमद्भागवत गीता के मतानुसार ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं’। इसका आशय यह है कि मनुष्य को उसके कर्म के अनुसार ही फल प्राप्त होता है और जैसा व्यवहार दूसरों से वह करता है वैसा ही आता है। वह जैसी वस्तुओं का उपभोग करता है वैसा ही उसका स्वभाव होता है। जब यह बात समझ में आयेगी तब ही इस जीवन को सहजता से देखा जा सकता है। आजकल के युग में टीवी चैनल तथा अन्य प्रकाशन उद्योग विज्ञापन पर चल रहे हैं। उनको जिन स्त्रोतों से विज्ञापन मिलते हैं वह उनकी नीतियों के अनुसार ही काम करते हैं। इन विज्ञापनों के द्वारा उनको अपने ग्राहकों के उत्पाद लोगों के सामने प्रस्तुत करना होता है। ऐसे में वह अपने विज्ञापनों में ऐसे शब्द और नारे भरते हैं कि देखने, सुनने और पढ़ने वाले के मन में आकर्षण पैदा हो और वह अपनी जेब ढीली करे। अब आदमी आकर्षण के वश में आकर पैसा तो खर्च करता है पर उसकी सहजता का दौर। चीज अगर कर्जा लेकर खरीदी गयी है तो उसको चुकाने की चिंता और अगर चीज खराब हो गयी तो उसको बनवाने के लिये जूझना।
इतना ही नहीं टीवी, फिल्म और समाचार पत्रों में किसी की शादी के तो किसी के स्वयंवर के तथा किसी मर जाने पर इतना शोर मचाया जाता है जैसे कि अस्वाभाविक रूप से सब कुछ घटित हुआ हो। लोग भी उनको देखते हैं और उनका मन कभी खुशी से झूमता है तो की द्रवित होता है। यह काल्पनिक मनोरंजन कभी हृदय के लिये प्रसन्नतादायक नहीं हो सकता।
भगवान श्रीगुरुनानक देव इसलिये ही लोगों को अपने संदेशों में सहज भाव धारण करने का संदेश देते रहे क्योंकि वह जानते थे कि मनुष्य मन को विचलित कर उससे मानसिक रूप से बंधक बनाया जाता है। तमाम तरह के कर्मकांडों का निर्माण मनुष्य के मन में भय पैदा करने के लिये ही किया गया है। जन्म खुशी तो मृत्यु दुःख का विषय बन जाती है। जबकि दोनों सहज घटनायें हैं। जो बना है वह नष्ट होगा, यह इस दुनियां का सर्वमान्य सत्य है। तब चिंता किस बात की करना? चिंता को उस बाद की करना चाहिये जिसका घटना अस्वाभाविक है। मनुष्य का मन चंचल, बुद्धि भयभीत और अहंकार आसमान में टंगा है। उन पर नियंत्रण न होना ही अस्वाभाविक बात है इसलिये उसकी चिंता करना चाहिये। इसके लिये जरूरी है कि भगवान की हृदय से भक्ति की जाये।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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