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Thursday, March 3, 2011

तीनों लोकों की संपदा पाने के लिये लोग जीवन नष्ट कर देते हैं-हिन्दी धार्मिक लेख (aadmi ka jivan-hindi dharmik lekh)

सिख गुरु गोविंद सिंह जी का कहना था कि ‘धन बहुत बड़ी चीज है, पर आदमी को खाने के लिये बस दो रोटी चाहिए।’
इसका आशय यही है कि भले ही आदमी कितना भी कमा ले पर उसका पेट अन्न के बिना नहीं भर सकता। हम इसका व्यापक तथा गुढ़ भाव देखें तो यह बात समझ में आती है कि खाने के लिये जहां हमें रोटी चाहिए तो प्यास बुझाने के लिये पानी। देह को बचाने के लिये कपड़ा चाहिये और रात गुजारने के लिये छत की आवश्यकता होती है। यह धन से प्राप्त होती हैं पर दैहिक आवश्यकता की पूर्ति वस्तुओं से होती है कि कागज के नोटों से। यह बात लोग नहीं समझते और पैसा कमाने का लक्ष्य रखकर ही चलते जाते हैं और फिर अंततः उनकी देह नष्ट हो जाती है। इस दुनियां के अधिकतर मनुष्य जितना कमाते हैं उतना खर्च नहंी कर पाते। वह ऐसा भौतिक संसार रच जाते हैं जो बाद में दूसरों के काम आता है।
इस विषय पर संत कबीरदास कहते हैं कि
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कबीरा औंधी खोपड़ी, कबहूं धापै नाहिं
तीन लोक की सम्पदा, कब आवै घर माहिं
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य की खोपड़ी उल्टी होती है क्योंकि वह कभी भी धन प्राप्ति से थकता नहीं है। वह अपना पूरा जीवन इस आशा में नष्ट कर देता है कि तीनों लोकों की संपदा उसके घर कब आयेगी।
हालांकि लोग धन का पीछा करते हुए थकते नहीं हैं पर एकरसता से जो ऊब पैदा होती है उसको भी नहीं समझ पाते। योगसाधना, ध्यान, और मंत्रजाप उनके लिये फालतु की चीज हैं। कुछ लोग पैसे के कारण भी भक्ति का दिखावा करते हुए बड़े बड़े कार्यक्रम भी करते हैं पर उनका आचरण, व्यवहार और वाणी हमेशा ही उनके अंदर के विकारों से ग्रसित दिखाई देती है। आजकल तो ऐसे लोग भी हो गये हैं जो धर्म का व्यापार इसलिये करते हैं ताकि उनके लिये सुखसुविधा का संग्रह होता रहे। अनेक लोग समाज पर दबदबा बनाये रखने के लिये भगवान की आड़ लेते हैं। ऐसे लोग वैभव, पद और बाहुबल से संपन्न दिखते जरूर हैं पर मानसिक रूप से विकृति को प्राप्त हो जाते हैं।
इस संसार में सुख से रहने का मार्ग अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने से ही सुलभ होता है। यही सोचकर तत्व ज्ञानी जितना मिलता है उसी से संतोष कर लेते हैं। वह न केवल अपना जीवन आनंद से बिताते हैं बल्कि दूसरों को भी सुख देते हैं।

लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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Wednesday, December 23, 2009

संत कबीर वाणी-तत्वज्ञान के बिना जीवन अंधियारा (sant kabir vani-tatvagyan)

कबीर गुरु की भक्ति बिन, राज ससभ होय।
माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय।।
महात्मा कबीरदास जी कहते हैं कि गुरु की भक्ति के बिना राजा भी गधा होता है जिस पर कुम्हार दिन भर मिट्टी लादेगा और कोई घास भी नहीं डालेगा।
चौसठ दीवा जाये के, चौदह चन्दा माहिं।
तेहि घर किसका चांदना, जिहि घर सतगुरु नाहिं।
महात्मा कबीरदास जी कहते हैं कि चौसठ कलाओं और चौदह विद्याओं की जानकारी होने पर पर अगर सत्गुरु का ज्ञान नहीं है तो समझ लीजिये अंधियारे में ही रह रहे हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समाज में बढ़ती भौतिकतावादी प्रवृत्ति ने अध्यात्मिक ज्ञान से लोगों को दूर कर दिया है। हालांकि टीवी चैनलों, रेडियो और समाचार पत्र पत्रिकाओं में अध्यात्मिक ज्ञान विषयक जानकारी प्रकाशित होती है पर व्यवसायिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये लिखी गयी उस जानकारी में तत्व ज्ञान का अभाव होता है। कई जगह तो अध्यात्मिक ज्ञान की आड़ में धार्मिक कर्मकांडों का प्रचार किया जा रहा है। इसके अलावा टीवी चैनलों में अनेक बाबाओं के अध्यात्मिक प्रवचनों के कार्यक्रम भी प्रस्तुत होते हैं पर उनका उद्देश्य केवल मनोरंजन करना ही है। वैसे भी समाज में ऐसे गुरुओं का अभाव है जो तत्वज्ञान प्रदान कर सकें क्योंकि उसके जानने के बाद तो मनुष्य का हृदय निरंकार में लीन हो जाता है जबकि पेशेवर धर्म विक्रेता अपने शब्दों को सावधि जमा में निवेश करते हैं जिससे कि वह हमेशा पैसा और सम्मान वसूल करते रहें। कभी कभी तो लगता है कि लोग धर्म के नाम पर केवल शाब्दिक बोझा अपने सिर पर ढो रहे हैं।
दूसरी बात यह है कि मनुष्य के हृदय में अगर तत्वज्ञान स्थापित हो जाये तो वह अपने सांसरिक कार्य निर्लिप्त भाव से कार्य करते हुए किसी की परवाह नहीं करता जबकि सभी लोग चाहते हैं कि कोई उनकी परवाह करे। तत्वाज्ञान के अभाव में मनुष्य को एक तरह से गधे की तरह जीवन का बोझ ढोना पड़ता है। यह बात समझ लेना चाहिये कि जीवन तो सभी जीते हैं पर तत्वाज्ञानियों के चेहरे पर जो तेज दिखता है वह सभी में नहीं होता।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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Saturday, December 5, 2009

संत कबीर वाणी-मांस का उपभोग कर दान करना भी व्यर्थ (mans khana aur daan karna-santi kabir das vaani

 तिल भर मछली खायके, कोटि गऊ के दान।

कासी करवट ले मरै, तौ भी नरक निदान।।

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो तिल भर मछली का मांस सेवन कर भले ही करोड़ों गायें दान करें और काश में जाकर देह का त्याग करें तो भी उनको नरक भी भोगना पड़ेगा। वह अपने पाप से कभी मुक्त नहीं हो सकते।

बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल।

जो बकरी खात है, तिनका कौन हवाल।।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या
-हमारे देश के हिन्दू समाज को संभवतः विश्व में इसलिये ही आधुनिक सभ्यता में सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ क्योंकि समय के साथ अपने वैचारिक आधारों में परिवर्तन करने की क्षमता उसमें है।  हमारे कुछ प्राचीन ग्रंथों में मांस खाने को स्वीकृत दी गयी है। संभवतः इसका कारण यह रहा है कि उसमें विभिन्न क्षेत्रों के ऋषियों और मुनियों ने अपना योगदान दिया है और उनमें शायद कुछ उन क्षेत्रों के रहे होंगे जहां उनके समय में वहां सब्जी आदि उत्पादन की तकनीकी विकसित नहीं होगी।  जैसे जैसे  सभ्यता का विकास हुआ वैसे वैसे खान पान और उत्पादन का स्वरूप बदला लोगों को मांसाहार से दूर होने के लिये कहा गया।  कम से कम यह तो लगता है कि श्रीमद्भागवत गीता के काल में यहां पूरी तरह से एक सभ्य समाज निर्मित हो गया था।  उसमें मांसाहार को त्याज्य बताया गया है। वैसे मांसाहार से किसी को रोका नहीं जाता पर इतना जरूर समझाया जाता है कि उससे मनुष्य के अंदर ही तामसी प्रवृत्तियों का निर्माण होता है।

मनुष्य तीन प्रवृत्तियों के माने जाते हैं सात्विक, राजसी और तामसी। यहां यह प्रश्न नहीं है कि आप क्या खाते और पीते हैं।  आप चाहे भी जिस चीज का सेवन करें पर यह बात याद रखिये उसके अनुसार ही आपके अंदर विचारों और संकल्पों का निर्माण होगा।  साथ ही यह भी याद रखिये कि आप जिन लोगों के संपर्क मेें है वह भी अपने खान पान, रहन सहन और चाल चलन के कारण उनसे पैदा होने वाले गुणों के अनुसार काम करते हैं। गुण ही गुणों को बरतते हैं-यह श्रीमद्भागवत गीता का एक वैज्ञानिक सूत्र है।  इसका आशय यह है कि आप अगर चाहते हैं कि आपके अंदर सात्विक विचार हमेशा बने रहें तो मांसाहार से दूर रहें।  उसी तरह अगर आपके संपर्क में जो लोग शराब तथा मांस का सेवन करते हैं उनके बारे में यह अवश्य सोचें कि उनकी प्रवृत्तियों में कोई दोष हो सकता है इसलिये उनसे सावधान रहें या फिर संकट पड़ने पर उनसे सहायता की आशा न ही करें तो अच्छा।  आप किसी से यह न कहें कि मांस या शराब का सेवन न करे क्योंकि बिना मांगे उपदेश देना  अहंकार भाव का प्रमाण है जिससे ज्ञानी को दूर रहना चाहिये अलबत्ता इस बात को याद रखें कि अपने व्यसनों जीभ के स्वाद के दास भल कहां आपके काम आ सकेंगे।

कुछ जगह मंदिरों में अभी भी बलि प्रथा चल रही है। अब उनको बंद कर देना चाहिये क्योंकि यह तब की हैं जब शुद्ध खाद्य पदार्थ उपलब्ध नहीं थे।  वैसे अपने देश में अनेक मंदिर अब इस प्रथा से दूर हो गये हैं।  हमारे  समाज में इस बात की गुंजायश हमेशा रही है कि यहां विद्वान और संत आकर समय के अनुसार अपना ज्ञान प्रस्तुत कर वैचारिक आधार पर बदलाव लाते हैं-जैसे अपने देश में श्रीगुरुनानक देव, कबीर और तुलसीदास का नाम लिया जाता है।   इसके विपरीत अन्य समाजों में केवल पुरानी किताबों पर ही चिपके रहकर लोग रूढ़िवादी हो जाते हैं।  यही कारण है कि अन्य समाजों में अभी भी मांसाहार को अनुचित नहीं माना जाता जबकि वास्तविकता यह है कि आदमी के दिलोदिमाग पर आहार के प्रकार का प्रभाव अवश्य पड़ता है।  दूसरा यह है कि आप मांसाहार कर चाहे कितना भी दान करें बेकार है दूसरा यह है कि जब उसके प्रभाव से विचार और मन कलुषित होंगे तो शुद्ध हृदय से भक्ति भी नहीं हो पाती।
लेखक, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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